मंगलवार, 11 मार्च 2014

यूक्रेन में दांव पर लगी विश्व व्यवस्था

माह की सबसे सनकभरी खबर के इनाम से ओस्लो से हुई इस घोषणा को नवाजा जाना चाहिए कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन को 2014 के नोबेल शांति पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया है। यह सही है कि यह नामांकन सीरिया में मौजूद रासायनिक हथियारों से मुक्ति पाने के प्रयासों में किए गए उनके काम के लिए किया गया है। हालांकि यह मामला फिर भी परवान नहीं चढ़ पाया।


जहां उचित हो वहां श्रेय देना ठीक है। पुतिन और उनके विदेश मंत्री सर्गी लव्राफ ने जब यह दावा किया कि क्रिमिया पर कब्जा करने वाले नकाब पहने, भारी हथियारों से लैस प्रशिक्षित सैन्य टुकडिय़ों पर उनका कोई नियंत्रण नहीं था तो उनका झूठ सामने गया। उन्हें देखकर ही पता लग जाता है कि ये रूसी टुकडिय़ां हैं।


पुतिन की पैरवी करने वाले दावा करते हैं कि अमेरिका और ओबामा तो मासूम नागरिकों के खिलाफ जघन्य अत्याचारों के दोषी रहे हैं। इसके लिए वे इराक के खिलाफ 'अवैध युद्ध' का उदाहरण देते हैं, जिसमें अनुमान के मुताबिक 5 लाख लोग मारे गए हैं। फिर अफगानिस्तान युद्ध, लीबिया में सत्ता परिवर्तन और पाकिस्तान, यमन सोमालिया में ड्रोन हमलों में हजारों लोगों का मारा जाना भी उनके नाम दर्ज है, किंतु सवाल उठता है कि पश्चिम की हजारों गलतियां क्या पुतिन की हरकतों को जायज ठहराती हैं? सीरिया के उपद्रव ग्रस्त इलाकों में मदद पहुंचाने का संयुक्त राष्ट्र का प्रस्ताव रोककर पुतिन कितने सीरियाइओं की मौत के लिए जिम्मेदार रहे हैं।


शांति के सपने को ध्वस्त करने के लिए पुतिन और ओबामा ही जिम्मेदार नहीं हैं। आक्रामक तरीके से इतिहास फिर से लिखने के लिए चीन जहां जापान की आलोचना कर रहा है, वहीं सैन्य खर्च में उसने 12.2 फीसदी बढ़ोतरी कर उसे 132 अरब डॉलर (करीब 81 खरब रुपए) कर दिया है। बीजिंग के अधिकृत आंकड़ों को भी लें तो पता चलेगा कि पिछले 10 सालों में उसने सैन्य खर्च पांच गुना बढ़ा दिया है, जबकि जापान का रक्षा खर्च लगभग वही है। फिर उत्तर कोरिया ने भी अपने पूर्वी तट से बिना चेतावनी सात मिसाइलें दागकर चिंता पैदा कर दी।


फिर यूक्रेन  की ओर लौटें। यह कहना तो अतिशयोक्ति होगा कि यूक्रेन में 'सराजेवो मोमेंट' गया है। यानी वह क्षण जब अराजकतावादी गैवरिलो प्रिंसिप ने ऑस्ट्रिया के आर्क ड्यूक फ्रैंज फर्डिनेंड और उनकी पत्नी की हत्या कर दी थी और प्रथम विश्वयुद्ध शुरू हो गया था। कुछ रिपोर्टरों का कहना है कि ऐसा खतरनाक गतिरोध तब आया था जब हवाई पट्टी पर हथियार रहित यूक्रेनी सैनिकों का सामना उन सैनिकों से हो गया था, जिनके बारे में माना जा रहा था कि वे रूसी सैनिक नहीं थे। सौभाग्य की बात है कि सिर्फ हवा में ही गोलियां दागी गईं।


किंतु ऐसे बहुत सारे बिंदु हैं, जो बड़ा संघर्ष भड़का सकते हैं। पुतिन ने पश्चिमी सरकारों विश्लेषकों के विरोध को नजरअंदाज करते हुए क्रिमिया के चारों ओर घेरा कस दिया है। विश्लेषकों कहना है कि ऐसा करना सुरक्षा आश्वासन संबंधी 1994 के बुडापेस्ट मैमोरैंडम का उल्लंघन करना है। इसी के तहत तो यूक्रेन ने अपने परमाणु हथियारों का समर्पण किया था, जो दुनिया में तीसरा सबसे बड़ा परमाणु जखीरा था। यह चीन, फ्रांस और ब्रिटेन के सम्मिलित परमाणु जखीरे से भी बड़ा था। बदले में अमेरिका, रूस और ब्रिटेन ने यूक्रेन की भौगोलिक एकता को संरक्षण देने का वादा किया था।
इस वादे का तो यह हश्र हुआ कि एक हफ्ते में ही रूसी सैनिक क्रिमिया के मुख्य रणनीतिक बिंदुओं पर पहुंच गए। रूसी नौसेना ने सेवातोपोल बंदरगाह को ब्लॉक कर दिया। रूस समर्थकों ने पत्रकारों को धमकाया। रूस से सहानुभूति रखने वालों ने संसद पर कब्जा कर लिया और रूस में शामिल होने के लिए आवेदन देने का फैसला कर लिया, जिस पर 16 मार्च को जनमत संग्रह होना है। नतीजा तो पहले ही तय है, क्योंकि क्रिमिया की 20 लाख की आबादी में 60 फीसदी रूसी जातीय समुदाय के लोग हैं। क्रिमिया के उप प्रधानमंत्री रुस्तम तेमिरगेलिएव जनमत संग्रह को औपचारिकताभर मानते हैं।


अब मौजूदा सवाल तो यह है कि क्या रूस क्रिमिया पर कब्जे से ही संतुष्ट हो जाएगा? यूक्रेन के पूर्वी हिस्से में काफी संख्या में अल्पसंख्यक रूसी जातीय समुदाय मौजूद हैं। वे भी विरोध प्रदर्शनों में लगे हैं। चाहे इसके पीछे रूस हो या कीव में नई सरकार के प्रति उनका रोष। यूक्रेन को खतरनाक स्थिति से गुजरना है।


आर्थिक रूप से यूक्रेन की हालत नाजुक है, लेकिन वह रूस के ऊर्जा व्यापार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, क्योंकि रूस यूरोपीय बाजारों में जो प्राकृतिक गैस भेजता है, उसका 80 फीसदी यूक्रेन से होकर जाता है। यूक्रेन खुद भी रूसी गैस के लिए बड़ा बाजार है। हालांकि अभी तो यूक्रेन के गैस टैंक भरे हुए हैं, लेकिन मास्को गैस कीमतों के जरिये उसे सफलता पूर्वक घेर सकता है। क्या अमेरिका और यूरोपीय संघ आईएमएफ की मदद से यूक्रेन को अपने आर्थिक बेड़े में शामिल करने की कीमत चुकाने को तैयार हैं? और क्या वहां की सरकार एक ऐसी अर्थव्यवस्था को आधुनिक रूप देने के लिए पहल कर सकती है जहां 50 लोग मिलकर  85 फीसदी नतीजों पर नियंत्रण रखते हैं?


सबसे बड़ा मुद्दा तो यह है कि क्या पुतिन ताकत का नग्न खेल बंद करेंगे। बशर अल असद द्वारा अपने ही लोगों की हत्या और परमाणु मुद्दे पर ईरान का बचाव, सबके पीछे पुतिन का समर्थन है। जर्मन चांसलर एंगेला मर्केल का कहना है कि पुतिन किसी दूसरी ही दुनिया में जी रहे हैं, लेकिन प्रतिबंधों के कारण रूस में मौजूद मौकों से जर्मन कंपनियां वंचित होंगी तो क्या वे मर्केल से सहमत होंगी? क्या लंदन के रियल एस्टेट एजेंट पुतिन के विरोध को ठुकराने वाले ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन का साथ देंगे?



खुद को आधे-अधूरे ढंग से अलग रखे हुए ओबामा और अमेरिकी कांग्रेस के लिए वैश्वीकृत दुनिया में यह एक बड़ा सबक है। ऐसा सबक जो कवि जॉन डन ने अपनी कविता में दिया था- किसी भी व्यक्ति की मौत मुझ में भी कुछ कम कर देती है। यूक्रेन में जो दांव पर लगा है वह है संप्रभुता का सिद्धांत और भविष्य की विश्व व्यवस्था। चीन रूस का सबसे भरोसेमंद सहयोगी साबित हुआ है। उसने यूक्रेन में पुतिन के हस्तक्षेप का दबे ढंग से ही विरोध किया है। वह तो खुश ही होगा कि अमेरिका की नाक कटी है। जापान के प्रधानमंत्री शिंजो अबे पुतिन से पींगे बढ़ा रहे हैं, क्या वे रूस को पीछे हटने के लिए कहने की हिम्मत जुटाएंगे? असहाय देश के लिए तो संयुक्त राष्ट्र ऐसी व्यवस्था के ताबूत में एक और कील की तरह है जहां महायुद्ध के जमाने के पांच अतिथियों में से कोई भी जब मर्जी हो तब आकर दुनिया की राय और मानवता को धता बता सकते हैं।

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