कहते
हैं कि अमेरिका
में दूसरा 'सुनहरा
युग' आरंभ हो
गया है जब
कि भारत, चीन
और अन्यत्र पहला
'सुनहरा युग' शुरू
हुआ है। आज
से लगभग डेढ़
सौ साल पहले
अमेरिका में 'गिल्डेड
एज' आरंभ हुआ
था। यह नामकरण
मार्क ट्वेन ने
अपने मशहूर उपन्यास
में दिया था।
सन् 1934 में प्रसिध्द
अमेरिकी पत्रकार मैथ्यू जोसेफसन
ने इसके नायकों
को ''रॉबर बैंरस:
द ग्रेट अमेरिका
कैपिटलिस्टस 1861-1901।''
मुक्त
बाजार और नवउदारवाद
के समर्थक मिल्टन
फ्रीडमैन ने कहा
था कि वह
समाज जो स्वतंत्रता
को समानता के
नीचे रखता है
वह कुछ भी
नहीं प्राप्त कर
सकता। स्वतंत्रता को
समानता के मुकाबले
तरजीह देने से
दोनों की प्राप्ति
हो सकती है।
कहना न होगा
कि समानता की
बात करनी चाहिए।
जो जैसे चाहे
अपने उद्योग धंधों
को लगाए। सरकार
की ओर से
कोई रोक-टोक
नहीं होनी चाहिए।
लोगों को घबराने
की भी जरूरत
नहीं है।
वर्ष
1991 में भारत ने
नेहरू-इंदिरा के
विकास के मॉडल
को पूरी तरह
तिलांजलि दे दी।
अब सरकारी हस्तक्षेप
के बिना निवेशक
यह तय कर
रहे हैं कि
वे क्या उत्पादन
करें, कैसे उत्पादन
करे और किनके
लिए उत्पादन करें।
जहां उनको पसंद
है वहां उद्योग
लगाते हैं, जिस
प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल
करना चाहते हैं
उसे काम में
लाते हैं तथा
बाजार में जिसके
पास पैसे होते
हैं उसी के
लिए उत्पादन करते
हैं। उनको इसकी
चिंता नहीं है
कि देश का
संतुलित विकास हो या
समाज में अर्थिक
विषमता घटे। बाजार
की शक्तियां ही
उनका निर्देशन करती
हैं।
किसी
जमाने में पिट्सबर्ग
अमेरिका के 'गिल्डेड
एज' का प्रतीक
था। ढेर सारे
उद्योग वहीं लगे
थे। इसके एक
अग्रणी पूंजीपति एंड्रयू कारनेगी
को जब मालूम
हुआ कि मजदूर
किस अवस्था में
रहते हैं तब
उन्हें बड़ा आश्चर्य
हुआ। करोड़पति लोगों
के महलों और
मजदूरों की झोपड़ियों
को देख उन्हें
बड़ा ही तााुब
हुआ। अब तक
लोगों के बीच
इतना फर्क नहीं
देखा गया था।
उस जमाने को
छोड़कर अब जरा
भारत को देखें।
मुम्बई में सताइस
मंजिला अम्बानी परिवार का
महल है जिसको
बनाने पर कम
से कम एक
अरब डालर से
कहीं अधिक ही
खर्च हुआ है।
उससे मात्र सात
मील दूर धारावी
की मलिन बस्ती
है। धारावी दुनिया
की एक बड़ी
मलिन बस्ती है।
अगर हम अम्बानी
के महल और
धारावी की किसी
झोपड़ी को देखें
तो पाएंगे कि
एंड्रयू कारनेगी ने भी
इसकी कल्पना नहीं
कर सके थे।
कहना न होगा
कि समाज में
धनी-गरीब एक
दूसरे की स्थिति
से काफी कुछ
अनमिज्ञ हैं। उनकी
अलग-अलग दुनिया
है। आज अन्ना
हजारे हों या
केजरीवाल जो भी
कहें, बिना रिश्वत
दिए कोई काम
नहीं बनता। दानी
कॉफमैन का अनुमान
है कि सारी
दुनिया में हर
साल दास खरब
डालर रिश्वत के
रूपमें दिए जाते
हैं।
क्रिस्टिया
फ्रीलैंड ने अपनी
पुस्तक ''प्लुटोक्रेट्स द राइज
ऑफ द न्यू
ग्लोबल सुपर-रिच
एंड द फॉल
ऑफ एवरीमैन एल्स''
के लिखने के
क्रम में मुम्बई
के कुछ बड़े
सेठों का साक्षात्कार
लिया था। उसे
राज नामक एक
व्यक्ति मिले जो
देश के 0.1 प्रतिशत
लोगों में आते
हैं। उनका मानना
है कि भ्रष्टाचार
सर्वत्र व्याप्त है। यहां
पर शायद ही
कोई यह दावा
कर सकता है
कि देश में
भ्रष्टाचार नहीं है।
यदि हम 'जिनी
को एफ्फिसियेंट' की
गणना करें तो
पाएंगे कि देश
में लगातार असमानता
बढ़ती ही जा
रही है।
क्रिस्टिया
फ्रीलैंड ने योजना
आयोग के सदस्य
अरुण मैरा का
साक्षात्कार किया। मैरा उद्योग
से घनिष्ठ रूप
से जुड़े रहे
हैं। उनका मानना
है कि यदि
आप कोई नये
अवसर जैसे मुक्त
बाजार उपलब्ध कराएंगे
तब सत्ता में
बैठे लोग कुछ
न कुछ जरूर
लेंगे। इंफोसिस के सह-अध्यक्ष गोपाल कृष्णन
का मानना है
कि जो सत्ता
और सरकार में
बैठे हैं वे
अपना हिस्सा अवश्य
लेंगे।
इस
सौदे की तय
कराने के लिए
नीरा राडिया जैसे
लोगों की जरूरत
होती है। इनके
जरिए ही सौदा पटाया
जाता है। नीरा
राडिया के संवाद
में 140 लोगों के सोच
परस्पर संवाद हैं। वर्ष
2008 से रघुरामजी राजन के
बम्बई चैम्बर ऑफ
कॉमर्स में दिए
गए भाषण का
जिक्र हम पिछली
बार कर चुके
हैं। उन्होंने रेखांकित
किया कि आर्थिक
संवृध्दि की दर
धीमी होने के
साथ ही सत्ता
में बैठे लोग
अपने चुनाव और
राजनीतिक गतिविधियों को चलाने
के उद्देश्य से
धन उगाहते हैं
और उन्हें अकूत
वनसंपदा खनिज पदार्थों
को उपलब्ध कराते
हैं। कहना न
होगा कि 1991 में
अब तक जितने
अरबपति भारत में
पनपे हैं उनमें
से अधिकतर अपनी
उद्यमिता के कारण
सामने नहीं आए
हैं।
अभी-अभी राना
दासगुप्त की एक
पुस्तक ''कैपिटल : ए पोटे्रट
ऑफ टवेंटी-फर्स्ट
सेंचुरी दिल्ली'' आई है।
दासगुप्त आज से
लगभग चौदह वर्ष
पहले बाहर से
आगर दिल्ली में
बसे थे। यह
उनकी गैर औपन्यासिक
कृति है। वे
बतलाते हैं कि
दिल्ली में बने
अधिकतर बार और
मॉल राजनीतिक संबंधों
के परिणाम हैं
और दिल्ली के
व्यावसायिक परिवारों की दूसरी
या तीसरी पीढ़ी
चल रही है।
इनमें से अधिकतर
परिवार शहर के
अपने घरों को
छोड़कर बाहर रहते
हैं जिन्हें उन्होंने
'फार्म हाउसेज' का नाम
दिया है। इस
पुस्तक में दक्षिण
एशिया पर भूमंडलीकरण
के असर को
रेखांकित किया गया
है। दासगुप्त का मानना
है कि 1991 के
बाद राजनीतिक नेताओं
और व्यवसायियों के
बीच गठजोड़ बना
और गहरा हुआ
है। बड़े कारर्पोशनों
और राजनेताओं ने
एक साथ मिलकर
सार्वजनिक संपदा को लूटना
शुरू किया है।
पुराने जमाने से अफसरों
को बख्शीश देने
की बात चली
आ रही है
लेकिन तत्काल मुक्त
बाजार व्यवस्था में
वह कुछ भी
नहीं है। अब
खुलेआम पैसों का बड़े
पैमाने पर लेनदेन
हो रहा है।
वर्ष 2010 में रिश्वतखोरी
भ्रष्टाचार का एक
अभिन्न अंग बन
गया। दासगुप्त का
अनुमान है कि
14 अरब डॉलर कॉमन
वेल्थ गेम्स पर
खर्च हुआ। आज
काले धनवाले अपना
दबदबा जमा रहे
हैं।
अब
आइए, मैथ्यू जोसेफसन
की पुस्तक 'द
रॉबट बैरंस' की
ओर लौटें। इस
पुस्तक की सबहेडिंग
है 'द ग्रेट
अमेरिकन कैपिटलिस्टस : 1861-1901'। यह
पुस्तक अपने छपने
के बाद से
ही चर्चा में
रही है। यह
पुस्तक अमेरिकी गृहयुध्द के
दौरान पनपे एक
छोटे से जनसमुदाय
से संबंधित है।
जो गृहयुध्द के
दौरान सत्तासीन हो
गया। असली शक्ति
और सत्ता उन्हीं
के हाथों में
रही। इस छोटे
से वर्ग को
हम 'बैरंस', 'राजा',
'साम्राय निर्माता', और यहां
तक कि हम
'सम्राट' के नाम
से पुकार सकते
हैं। ये लोग
काफी आक्रामक थे।
उन्हें कानून-कायदे की
काई परवाह न
थी। जब भी
कोई महत्वपूर्ण संकट
आए, ये सारे
लोग एकजुट होकर
आगे बढ़े। उनमें
ऊर्जा की कमी
न थी और
जोरदार ढंग से
संकट का सामना
किया। इन लोगों
के समूह को
लेखक ने ''रॉबर
बैरंस'' का नाम
दिया। अगर ये
लोग न होते
तो अमेरिकी गृहयुध्द
से लेकर उन्नीसवीं
सदी के अंतिम
दिनों तक अमेरिका
आने वाली कठिनाइयों
का सामना शायद
ही कर पाता।
उस दौरान राष्ट्रपति
और अग्रणी सिनेटर
जो भी रहे
हों असली सत्ता
इन्हीं के हाथों
में रही।
जब
इन रॉबर बैरंस
(लुटेरे सरदारों) का उदय
हुआ जब अमेरिका
एक मर्केंटाइल- एग्रेरियन
गणतंत्र था और
जब वे सक्रिय
जीवन से चले
गए तब तक
एक औद्योगिक समाज
का रूप ले
चुका था और
इस पर इन्हीं
का कब्जा था।
संक्षेप में कहें
तो इन लोगों
ने औद्योगिक क्रांति
लाने में एक
अहम् भूमिका अदा
की। इनके आपसी
झगड़े भी हमारे
इतिहास को संचालित
करने में एक
जबदस्त भूमिका रही। इन्होंने
हमारे आर्थिक जीवन
को आगे बढ़ाया
बड़े पैमाने के
उत्पादन ने बिखरी
हुई उत्पादन की
इकाइयों की जगह
ली। औद्योगिक उत्पादन
संकेद्रित हो गया
और पहले की
अपेक्षा अधिक कार्यकुशल
बन गया।
याद
रहे कि उद्योगों
के जो सिरमौर
आगे आए उनका
एकमात्र उद्देश्य अधिक से
अधिक पैसे बटोरना
रहा। देश के
संसाधनों को बड़े
पैमाने पर लूटना
शुरू किया। वहां
के खेतिहरों और
मजदूरों को निजी
मुनाफे के लिए
लूटा। खेतिहरों और
मजदूरों की कहीं
भी सुनवाई न
थी। देश के
प्राकृतिक संसाधनों और व्यापार
के विभिन्न स्रोतों
को लूटा गया।
राजनीतिक संस्थानों पर इनका
पूरी तरह कब्जा
हो गया। इस
गुट का सामाजिक
दर्शन मात्र पैसे
बटोरने का जरिया
बन गया। इस
लोगों ने जो
कुछ किया उनका
एकमात्र उद्देश्य पैसे बटोरना
था।
अमेरिकी
गृहयुध्द के बाद
के साल के
दौरान इन पूंजीपतियों
ने मांग की
बाजार में वे
जो कुछ भी
करते हैं उन
पर कोई रोक
न लगे। वे
अपने को धनवान
बनाने के साथ
ही देश को
भी धनवान बना
देंगे। उन्होंने पूरे देश
को रेलवे नेटवर्क
से जोड़ा और
बड़े-बड़े औद्योगिक
संयंत्र लगाए। यह सब
कुछ उस माहौल
में हुआ जब
उन्हें करों से
पूरी छूट दे
दी गई। उनका
मानना था कि
वे इस माहौल
में इस कारण
सफल हो सके
कि वे सक्षम
थे। आम नागरिकों,
राष्ट्रपतियों और कांग्रेस
के सदस्यों ने
उनका विरोध किया
मगर उनकी रफ्तार
को रोक नहीं
पाए। स्वयं कार्ल
मार्क्स ने माना
कि जो भी
हो वे 'प्रगति
के एजेंट' थे।
उनके नेतृत्व में
'एग्रेरियन-मर्केंटाइल इकॉनामी' को
बड़े पैमाने की
अर्थव्यवस्था में तेजी
से बदल दिया
गया।
आज
भारत जिस जगह
खड़ा है वहां
नवउदारवाद का बोलबाला
है। कम्युनिस्ट और
नेहरूवादी कांग्रेसियों को धक्का
देकर अलग करने
की कोशिश हो
रही है। नरेंद्र
मोदी हाें या
अरविंद केजरीवाल दोनों ही
पूंजीवाद या यों
कहें नवउदारवादी पूंजीवाद
को गुणगान करने
में लगे हैं।
इन दोनों का
मानना है कि
सरकार को अपने
को अलग रखना
चाहिए। उद्योग और व्यवसाय
को चलाने के
क्रम में कोई
हस्तक्षेप करने की
आवश्यकता नहीं है।
वे जैसे चाहें
वैसे अपना धंधा
चलाएं। केजरीवाल
का कहना है
कि भ्रष्टाचार न
करें। अब तक
यह स्पष्ट नहीं
हो सका है
कि यह भ्रष्टाचार
क्या है। जहां
तक नरेन्द्र मोदी
का प्रश्न है
उनका मानना है
कि हर प्रकार
के कारोबार करने
वाले सीमा पर
देश की सुरक्षा
में लगे सैनिकों
से कहीं अधिक
बड़ी भूमिका निभा
रहे हैं। 19 अक्टूबर,
2013 के 'इकॉनामिस्ट' के अंक
को देखें तो
मालूम हो जाएगा
कि नरेन्द्र मोदी
देशी-विदेशी पूंजीपतियों
के 'नए बिजनेस
आइडल' हैं।
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