नोबेल
पुरस्कार विजेता प्रोफेसर अमर्त्य
सेन ने कुछ
समय पहले सामाजिक
न्याय के विचार
को किस तरह
देखा जाना चाहिए
इस पर रौशनी
डाली थी। उन्होंने
न्याय की प्रणाली
केन्द्रित अवधारणा और कार्यान्वयन
केन्द्रित समझदारी के बीच
फर्क करने की
बात कही थी।
इस प्रक्रिया पर
निगाह डालते हुए
जहां न्याय को
चन्द सांगठनिक प्रणालियां
- कुछ संस्थाएं, कुछ
नियमन, कुछ आचार
सम्बन्धी नियम - जिनकी सक्रिय
उपस्थिति यह दर्शाती
है कि न्याय
को अंजाम दिया
जा रहा है,
उन्होंने कहा कि
यहां सवाल यह
पूछे जाने का
है कि क्या
न्याय का तकाज़ा
महज इसी बात
तक सीमित है
कि संस्थाएं और
नियम दोनों सही
हों?
मानवविकास
सूचकांक के ताजे
आंकड़े प्रणाली एवं
कार्यान्वयन के बीच
मौजूद अन्तराल पर
नए सिरे से
निगाह डालने के
लिए प्रेरित करते
हैं। योजना आयोग
के अन्तर्गत कार्यरत
इंस्टीटयूट आफ एप्लाइड
मैनपॉवर रिसर्च की तरफ
से पिछले दिनों
इन आंकड़ों को
जारी किया गया
है। इन आंकड़ों
के मुताबिक ऐसे
गरीब कहलाने वाले
राय जहां हाशिये
पर पड़े तबकों
की तादाद अधिक
है, वहां मानवविकास
सूचकांक अब तेजी
से राष्ट्रीय औसत
के करीब पहुंच
रहे हैं। एक
तथ्य यह भी
है कि अगर
अनुसूचित जाति और
जनजाति तथा मुस्लिम
समुदाय के सूचकांकों
की तुलना की
जाए तो यह
दिखता है कि
अन्य हाशियाकृत समुदायों
की तुलना में
उनकी स्थिति बेहतर
हो रही है।
मालूम
हो कि आठ
गरीब रायों - बिहार,
छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्यप्रदेश, ओड़िशा
राजस्थान, उत्तरप्रदेश और उत्तराखण्ड
- में भारत की
कुल अनुसूचित जातियों
का 48 फीसदी, अनुसूचित
जनजातियों का 52 फीसदी और
मुसलमानों की 44 फीसदी आबादी
रहती है। रिपोर्ट
के मुताबिक दिल्ली,
केरल, हिमाचल प्रदेश,
हरियाणा और पंजाब
को मानव विकास
सूचकांकों के मामले
में सर्वोत्तम परफार्मर
कहा जा सकता
है तो छत्तीसगढ़,
बिहार, मध्यप्रदेश, झारखण्ड और
ओड़िशा को सबसे
खराब परफार्मर कहा
जा सकता है।
रिपोर्ट
बेहतर प्रशासन और
रायों द्वारा व्यापक
सामाजिक लामबन्दी की अहमियत
को भी रेखांकित
करती है, जो
एक तरह से
सभी सामाजिक समूहों
के परफार्मन्स में
प्रतिबिम्बित होती है।
उदाहरण के लिए,
विभिन्न स्वास्थ्य सूचकांकों के
मामले में दिल्ली,
हिमाचल प्रदेश, तमिलनाडु और
केरल के अनुसूचित
जाति समूह और
अन्य पिछड़ी जातियों
की स्थिति बिहार,
छत्तीसगढ़ और उत्तरप्रदेश
से बेहतर दिखती
है। एक तरह
से देखें तो
यह रिपोर्ट एक
तरह से इसके
पहले प्रकाशित द
इंडिया हयूमन डेवलपमेण्ट रिपोर्ट
2011 - टूवर्डस सोशल एक्स्लुजन
के विस्तार के
तौर पर देखी
जा सकती है
जिसने इस हक़ीकत
को उजागर किया
था कि विगत
एक दशक के
दरम्यिान भारत के
मानव विकास सूचकांक
में सुधार हुआ
है लेकिन कुपोषण
का स्तर, कुछ
रायों में आज
भी अधिक बना
हुआ है। यह
समीचीन होगा कि
हम इस पर
निगाह डालें।
2011 की उपरोक्त
रिपोर्ट के मुताबिक
अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति
और अन्य पिछड़ी
जाति जैसे सामाजिक
समूहों के हिसाब
से सोचें तो
भारत का जनसंख्यात्मक
नक्शाप्रोफाइल एक दिलचस्प
चित्र पेश करता
है। आंकड़ों के
मुताबिक आबादी का 71 फीसदी
हिस्सा इन्हीं श्रेणियों में
शुमार है। मानवविकास
के आधार पर
रायों का बंटवारा
परिस्थिति में अन्तर्निहित
सामाजिक आयाम को
सामने लाता है।
गरीब राय, जो
मानवविकास सूचकांकों के हिसाब
से भी सबसे
नीचे स्थित हैं,
वहां अनुसूचित जातियों
और अन्य जैसे
हाशियाकृत समूहों का बड़ा
हिस्सा रहता है।
सेवा अवरचना (सर्विस
इन्फ्रास्ट्रक्चर) तथा संसाधनों
तक पहुंच में
सुगमता की कमी,
एक तरह से
इन समुदायों की
वंचना को बढ़ाता
है, जो विकास
प्रक्रिया से बहिष्कृत
ही रहते हैं।
तमिलनाडु और केरल
का उदाहरण, जहां
सामाजिक समूहों का वितरण
बिहार और यूपी
की तरह है,
एक विपरीत स्थिति
को दर्शाता है।
वे मानवविकास सूचकांक
और उसके घटक
सूचकांक में बेहतर
दिखते हैं।
इस
फर्क को कैसे
समझा जा सकता
है? वे बेहतर
शासन और निम्न
जातियों की जबरदस्त
लामबन्दी का उदाहरण
हैं। इन दक्षिणी
रायों के सामाजिक
आन्दोलनों ने वहां
के समाज को
इतने व्यापक स्तर
पर प्रभावित किया
है कि हम
पाते हैं कि
उत्तरप्रदेश और बिहार
की उंची जातियां
भी तमिलनाडु के
अनुसूचित जातियों और अन्य
पिछड़ी जातियों से
बदतर दिखती हैं।
इस राय में
अनुसूचित जाति और
अन्य पिछड़ी जाति
के बच्चों की
उच्च दाखिला दर
भी सामाजिक आन्दोलन
के इतिहास से
जुड़ी है। स्वास्थ्य,
शिक्षा और पोषण
की स्थिति के
मामले में औसत
से बेहतर स्थिति
दरअसल सामाजिक आन्दोलनों
और राय सरकार
के हस्तक्षेप का
संमिश्र नतीजा है। दिल्ली
जैसा राय जहां
की अनुसूचित जातियां
और अन्य पिछड़ी
जातियां उत्तर प्रदेश और
बिहार की उंची
जातियों से बेहतर
करती दिखती हैं,
वह दरअसल बेहतर
शासन की ही
भूमिका को रेखांकित
करता है। दरअसल,
बेहतर शासित रायों
में सभी के
सूचकांक बेहतर होते हैं
जिसका लाभ पिछड़ी
जातियों को भी
मिलता है।
2011 की उपरोक्त
रिपोर्ट ने उत्तरप्रदेश
में सामने आ
रही सच्ची दलित
क्रांति से जुड़े
तथ्य भी उजागर
किए थे। कपूर
आदि के अध्ययन
को उध्दृत करते
हुए उसमें बताया
गया था कि
अत्यधिक गरीबी के बावजूद
वहां आर्थिक और
सामाजिक सूचकांकों में जैसे
पालन पोषण या
समारोह के अवसर
पर खाने पीने
में जबरदस्त सुधार
देखने को मिलता
है। वह दलितों
की बेहतर सामाजिक
स्थिति तथा इसी
से जुड़ी बेहतर
उपभोग पैटर्न को
भी दिखाता है।
उच्च सकल घरेलू
उत्पाद और प्रति
व्यक्ति वृध्दि दर की
उच्च दर ने
इस नयी समृध्दि
में दलितों को
साझेदार बनने का
मौका दिया है।
जहां बेहतर शासन
एवं निम्न तबकों
की गोलबन्दी वंचित
तबकों या क्षेत्रों
के विकास के
द्वार खोलती दिखती
है, वहीं हमें
यह नहीं भूलना
चाहिए कि समग्रता
में देखें तो
भारत आज भी
भूख सूचकांकों के
मामले में सबसहारन
अफ्रीका - जो इलाका
दुनिया भर में
अपने लोगों की
निरन्तर भूख के
लिए जाना जाता
है - को मात
देता है।
अगर
सबसहारन अफ्रीका के 26 देशों
में पांच साल
से छोटे कुपोषित
बच्चों का औसत
प्रतिशत पचीस फीसदी
है, जबकि भारत
में यही आंकड़ा
46 फीसदी है। केरल,
हिमाचल प्रदेश, पंजाब, सिक्किम,
मणिपुर और मिजोरम
के अलावा, भारत
के बाकी सभी
राय सबसहारन अफ्रीकी
देशों की औसत
के समकक्ष हैं
या उससे खराब
स्थिति में हैं।
( नेशनल फेमिली एण्ड हेल्थ
सर्वे 3 की वर्ष
2009 की न्यूट्रिशन रिपोर्ट) नेशनल
सैम्पल सर्वे द्वारा संग्रहित
आंकड़ों के मुताबिक
प्रति व्यक्ति कैलोरी
के उपभोग में
कमी आयी है
जो लगभग पचीस
साल पहले ही
ग्रामीण इलाकों की न्यूनतम
पोषण स्तर (2,400 कैलोरी)
और शहरी इलाकों
में न्यूनतम पोषण
स्तर (2,100 कैलोरी) से कम
था। आज़ादी के
साठ साल बाद
भारत के तीन
साल के बच्चों का लगभग
आधा कुपोषित है।
भारत की वयस्क
आबादी का एक
तिहाई का बाडी
मास इण्डेक्स 18.5 से
कम हैं ( अगर
यह सूचकांक इससे
नीचे जाता है
तो लोगों को
कुपोषित घोषित किया जाता
है।) बाल मृत्यु
दर की संख्या
में हाल के
वर्षों में नज़र
आयी कमी के
बावजूद, पांच साल
के अन्दर के
बच्चों की मृत्यु
दर और मातृ
मृत्यु दर वहीं
बनी हुई है।
कहने का तात्पर्य
कि अभी बहुत
कुछ करने की
जरूरत है ताकि
एक समृध्द एवं
समतामूलक समाज निर्माण
की दिशा में
आगे बढ़ा जा
सके।
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