लोकसभा
चुनाव को लेकर
जोर-शोर से
चल रहा प्रचार
इस बार भिन्न
नजर आ रहा
है। राजनीति के
अपराधीकरण की पृष्ठभूमि
में लोकसभा चुनाव
हो रहे हैं।
चुनाव से स्पष्ट
हो जाएगा कि
संसदीय लोकतंत्र के जनप्रतिनिधि
तथा सांसद अपराधमुक्त
नहीं रह पाएंगे,
क्योंकि प्रचलित संसदीय प्रणाली
द्वारा अपराधमुक्त सांसद का
चुना जाना शायद
संभव नहीं हो
पाता है। राजनैतिक
दलों की भी
विवशता है कि
सत्ता पाने की
प्रतिस्पर्धा के द्वारा
ही राजनीति की
जा सकती है
और अन्य साफ
सुथरे उपाय उपलब्ध
नहीं किए जा
सके हैं। इसलिए
राजनीति के द्वारा
अपराधों में वृध्दि
ही होती रहेगी।
लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली भी
इसी में से
अपना अस्तित्व बनाने
के लिए विवश
हो गई है।
ऐसे में राजनीति
का अपराधीकरण भारत
के लोकजीवन को
स्वाधीनता से जीने
नहीं देगा। इस
प्रश्न का समाधान
उन सभी को
खोजना है जो
स्वाधीनता में विश्वास
रखते हैं और
उसके प्रति प्रतिबध्द
हैं। इस श्रृंखला
में सर्वोदयी-गांधीजनों
का विशेष स्थान
माना जा सकता
है। क्योंकि समाज
में उनकी विशेष
पहचान बनी हुई
है।
राजनैतिक
स्वाधीनता प्राप्त कर लिए
जाने के तुरंत
बाद लोकतांत्रिक संसदीय
प्रणाली की स्वीकृति
महज एक संयोग
ही थी। पर
इसका यह अर्थ
नहीं कि स्वाधीनता
के अनुरूप एक
नई राजनैतिक व्यवस्था
निर्माण के प्रयास
समाप्त कर दिए
जाएं। आजादी के
तुरंत बाद गांधीवादी
मानते थे कि
लोकतांत्रिक संसदीय प्रणाली का
भारतीय स्वाधीनता के संकल्प
के अनुरूप रह
पाना या उसे
रख पाना संभव
नहीं होगा। परंतु
इसके विकल्प की
तलाशने का महत्व
तथा उसके प्रयास
एक किनारे कर
दिए गए। लेकिन
विकल्प की खोज
आज भी महत्वपूर्ण
है। इसे जानने
तथा समझने में
हुई भूल से
भारत की स्वाधीनता
के लिए खतरा
पैदा होना स्वाभाविक
है।
इसी
वजह से अज्ञानवश
लोग कहते हैं
कि महात्मा गांधी
के नेतृत्व में
किया गया स्वाधीनता
का जनआंदोलन निरर्थक
हो गया। विकल्प
के रूप में
नक्सली-माओवादियों ने अपनी
उग्रवादी गतिविधियां चलाई हैं,
जिसमें भारत के
संविधान को ही
चुनौती देने के
संकेत साफ नजर
आ रहे हैं।
माओवादी आम लोगों
के दिमाग पर
असर डालकर कह
रहे हैं कि
खूनी क्रांति अपेक्षित
है और वह
लोगों के लिए
शोषण मुक्ति का
रास्ता खोलती है। इसलिए
उन्होंने मुक्त क्षेत्रों के
गठन का रास्ता
अपना लिया है।
ऐसे में हमें
स्वाधीन भारत के
लिए अहिंसात्मक स्वाधीनतामूलक
विकल्प तलाशना होगा।
राजनैतिक
स्वाधीनता प्राप्त कर लेने
के बाद के
प्रयासों की लंबी
फेहरिस्त है। महात्मा
गांधी की अनुपस्थिति
में विनोबा तथा
जेपी के प्रयासों
पर अवश्य गौर
करना होगा। विनोबा-जेपी ने
भारतीय संविधान को चुनौती
न देते हुए
माना था कि
संविधान स्वाधीन भारत की
रचना करने की
दृष्टि से प्रयोजनकारी,
उपयोगी तथा प्रेरक
नहीं था। दोनों
ने इस विषय
पर स्पष्ट शब्दों
में अपना मत
प्रकट किया था।
इस
समय जो राजनैतिक
परिस्थिति बनी हुई
हैं, उसकी प्रतियिास्वरूप
राजनैतिक दलों के
पक्ष में सोचने
वालों का एक
तबका गांधीजन-सर्वोदयजनों
में देखा जा
रहा है। इस
संदर्भ में उनके
द्वारा प्रस्तुत तर्क न
केवल बेबुनियाद हैं,
बल्कि गुमराह करने
वाले और निरर्थक
भी हैं। यह
महात्मा गांधी-विनोबा-जेपी
के स्वाधीनता के
लिए किए गए
अथक प्रयासों एवं
प्रयोगों के प्रति
अकारण गलत धारणाएं
बनाने वाले सिध्द
हो सकते हैं।
यह कहा जा
सकता है कि
दलगत राजनीति के
पक्ष में अनावश्यक
समर्थन देने की
भूलें कुछ गांधीजनों-सर्वोदयजनों द्वारा की
गई हैं। यह
तर्क भी दिया
जाता है कि
जेपी ने बिहार
आंदोलन चलाकर दलगत राजनीति
को प्रोत्साहित किया
था। अर्थात 1977 में
चुनाव में भागीदारी
की स्वीकृति भी
दी गई थी।
इस
संदर्भ में यह
जान लेना आवश्यक
है की जेपी
को विवश होकर
ही चुनाव के
लिए स्वीकृति देनी
पड़ी थी। बिहार
के छात्रों ने
भ्रष्टाचार के विरोध
में आंदोलन छेड़ा
था। इसे सही
दिशा देने के
लिए छार्त नेताओं
ने जेपी से
अनुरोध किया था।
छात्रआंदोलन का नेतृत्व
करने के लिए
भी जेपी को
बाध्य किया गया
था। तत्कालीन प्रधानमंत्री
(स्व.) इंदिरा गांधी ने
जेपी को चुनौती
दी थी कि
चुनाव के द्वारा
ही समस्याओं निपटारा
किया जाना चाहिए।
जेपी अहिंसा एवं
शांति में विश्वास
रखते थे। जेपी
स्वमेव चुनाव में शामिल
होना नहीं चाहते
थे। इसे सही
परिप्रेक्ष्य में ही
समझा जाना चाहिए।
पर हमारे कुछ
गांधीजन-सर्वोदयी साथी इसे
बिना समझे चुनाव
को स्वीकृति देने
की अपनी मानसिकता
को तथा किसी
दल के प्रति
अनावश्यक आकृष्ट हो जाने
को सही ठहराने
की कोशिश करते
हैं यह सर्वथा
अनुचित है। गांधीवादी-सर्वोदयी अपनी गतिविधियों
की सफ लता-विफ लता
को लेकर कई
तरह के प्रश्न
उपस्थित करते हैं।
वैसे भी बिना
समीक्षा किए वास्तविक
स्थिति को जानना
संभव नहीं होता।
फिर भी जो
विफल हो गए
होंगे, उन्हें भी सफलता
के मापदंड को
जांच लेना चाहिए।
वैसे भी सफलता-विफलता की व्याख्याएं
एक जैसी नहीं
हो सकतीं। अर्थात,
महात्मा गांधी-विनोबा-जेपी
के मार्गदर्शन या
उनके द्वारा सुझाई
गई दिशा को
अमल में लाने
की दृष्टि से
जो भी कथित भूलें हुई हैं,
उनकी भी जांच
पड़ताल कर लेनी
होगी। पर जो
गांधीजन-सर्वोदयी स्वयं को
संस्था संगठनों में ही
व्यस्त कर बैठे
हैं और जिन्होंने
विचार, सिध्दांत तथा लक्ष्य
के प्रति उदासीन
होकर यदि स्वयं
को संस्था व
संगठनों को संकीर्ण
कार्यप्रणाली में ही
सीमित कर लिया
हो तो उन्हें
उससे मुक्त होने
की चेष्टा करने
को कहा जाना
चाहिए। इसी दृष्टि
से संस्था एवं
संगठनात्मक कार्यविधि की समीक्षा
कर लेनी चाहिए।
इस हेतु आपसी
संवाद की प्रयिा
चलानी होगी जो
इस समय हर
तरह से उपेक्षित
हो गई है।
इस
त्रिमूर्ति के द्वारा
स्वाधीन भारत के
स्वाधीनतामूलक नवरचना के लिए
जो भी आंदोलन
चलाए गए हैं,
उनकी उपेक्षा करके
या उन्हें भुलाकर
अन्य प्रवृत्तियों को
स्वीकार नहीं किया
जा सकता। क्योंकि
कई अन्य प्रवृत्तियां
स्वाधीनता के लक्ष्य
एवं उसकी प्रामाणिक
गतिविधियों के प्रति
प्रतिबध्द नहीं हैं।
इसलिए संसदीय शासन
प्रणाली का भविष्य
में भी राजनैतिक
अपराधीकरण होता रहेगा।
इसी वजह से
अब इसका विकल्प
खोज लेने की
आवश्यकता महसूस होने लगी
है। इसके प्रति
गांधीजन-सर्वोदयजनों का अपना
एक दायित्व है
जो अन्यों से
अपेक्षित नहीं है।
दूसरी ओर नक्सली-माओवादी अपना हिंसक
विकल्प प्रस्तुत करना चाहते
हैं। ऐसे में
इस दलगत राजनीति
के द्वारा भ्रष्ट
हो गई परिस्थिति
के लिए कोई
विकल्प प्रस्तुत किया जाना
संभव नहीं है।
गांधीजनों को गांधी,
विनोबा और जेपी
द्वारा निर्देशित विकल्पों को
जनमानस के समक्ष
लाना ही होगा।
राजनीति से प्रभावित
होकर अप्रिय घटनाएं
घटती हैं और
उनका तात्कालिक असर
भी अवश्य होता
है। लेकिन मात्र
प्रतिक्रिया से दुष्परिणामों
से बच पाने
का उपाय कर
पाना संभव नहीं
है। अतएव हम
सबके लिए वैचारिक,
सैध्दांतिक तथा मानसिक
संतुलन बनाए रखना
निहायत जरूरी हो गया
है।
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