सोमवार, 10 मार्च 2014

शीतयुध्द की ओर खिसक रही है दुनिया

कुछ दिन पहले तक लग रहा था कि यूक्रेन के इंडिपेंडेंट स्क्वायर पर यूक्रेन के लोगों की जमा भीड़ उन आंतरिक कारणों की उपज है जो बर्खास्त राष्ट्रपति विक्टर यानुकोविच द्वारा पैदा किए गए थे, लेकिन अब स्थिति बदली हुई दिख रही है और जैसे-जैसे समय आगे बढ़ रहा है वैसे-वैसे लग रहा है कि दुनिया एक और शीतयुध्द की ओर खिसक रही है। कुछ रूसी सैनिक क्रीमिया में और शेष उसके इर्द-गिर्द एकत्रित हो रहे हैं। क्रेमलिन इसे क्रीमिया में ही नहीं, बल्कि यूक्रेन में मौजूद रूसी नागरिकों की जान के खतरे के दृष्टिगत उचित मान रहा है जबकि अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा इसे अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन बताते हुए रूस को इसकी कीमत चुकाने जैसी चेतावनी दे रहे हैं। यूक्रेनी प्रधानमंत्री अर्सेनी यात्सेनयक रूस से यह कहते हुए देखे जा रहे हैं कि रूस का सैनिक कार्रवाई का निर्णय युध्द की शुरुआत और सम्बंधों का अंत होगा। तात्पर्य यह हुआ कि स्थिति बेहद जटिल हो चुकी है, जिससे न केवल यूक्रेन के अस्तित्व के समक्ष संकट पैदा हो गया है बल्कि इससे अंतरराष्ट्रीय शांति को खतरा उत्पन्न हो गया है। अब सवाल यह उठता है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? क्या विश्व शक्तियां इस समस्या समाधान शांतिपूर्ण ढंग से करना चाहती हैं या फिर इसे किसी ग्रेट गेम का हिस्सा बनाना चाहती हैं?
लेख लिखे जाने तक यह स्थिति बन चुकी थी कि रूसी सेना के क्रीमिया में प्रवेश या उसके द्वारा क्रीमियाई सीमा पर युध्द की तैयारियां और रूसी राष्ट्रपति पुतिन द्वारा संसद में यूक्रेन के असाधारण हालात और रूसी लोगों के जीवन पर मंडरा रहे खतरे को देखते हुए सैन्य कार्रवाई के लिए इजाजत मांगने एवं संसद के ऊपरी सदन के द्वारा उनके प्रस्ताव को तत्काल पारित कर देने के बाद यूक्रेन के राष्ट्रपति  द्वारा अपनी सेना को युध्द के लिए तैयार रहने को कहना, स्पष्ट संकेत करता है कि हालात अब काबू के बाहर हो चुके हैं। अब यूक्रेन की तैयारी अमेरिकी और ब्रिटिश नेताओं से मदद मांगने की है। इस दिशा में बातचीत के लिए नाटो आपात बैठक बुला चुका है। इस बीच यह भी खबर है कि क्रीमिया के नए प्रधानमंत्री सर्गेई अक्सोनोव ने अपने प्रांत में 30 मार्च को एक जनमत संग्रह कराने की घोषणा की है। अगर इन आंतरिक गतिविधियों का मंथन किया जाए तो आसानी से पता चलता है कि यूक्रेन की स्थितियां बेहद जटिल और बहुआयामी हो चुकी हैं और इनका कारण सिर्फ विक्टर यानुकोविच की गलतियों में निहित नहीं है।
अमेरिकी व अन्य पश्चिमी बुध्दिजीवियों व राजनीतिज्ञों की तरफ  से आए बयानों पर ध्यान दें तो वे सब इसे रूसी राष्ट्रपति ब्लादिमीर पुतिन की महत्वाकांक्षा का परिणाम बताते दिखेंगे क्योंकि उनकी नज्र में पुतिन यूक्रेन को अपना पिठ्ठू बनाकर रखना चाहते हैं। लेकिन क्यों? इसका उत्तर इस प्रश्न में खोजा जाना चाहिए कि स्थिरता हासिल कर चुका यूक्रेन आखिर अचानक हिंसात्मक क्यों हो उठा? एक वजह यह हो सकती है जिसका प्रचार अमेरिका और यूरोप के बुध्दिजीवी व राजनीतिक रहे हैं। दरअसल रूस यूक्रेन को फ्रैटर्नल रिलेशन में बांधकर उसे अपनी कठपुतली बनाना चाहता है और उसके द्वारा घोषित सहोदर सहायता (फै्रटर्नल असिस्टेंस) कमोबेश उसी तरह का हथियार है जिसका इस्तेमाल 1968 में प्राग्वे में और 1979 में अफगानिस्तान में अपने सैनिक आक्रमण का औचित्य साबित करने के लिए रूस द्वारा किया गया था। पश्चिमी देश यह मानते हैं कि भ्रातृत्व का प्रयोग सोवियत युग में किसी भी राय को सोवियत संघ की कठपुतली बनाने के लिए किया जाता था, फिर चाहे वह शांति से सम्भव हो या हिंसा से। आज भी उद्देश्य वही है। लेकिन क्या यूरोप और अमेरिका दूध के धुले हुए हैं और वे प्रत्येक राष्ट्र की निरपेक्ष भाव से मदद करने के लिए बेचैन घूम रहे हैं। इराक और अफगानिस्तान को देखकर कोई भी ऑपरेशन इराकी फ्रीडम और ऑपरेशन इनडयूरिंग फ्रीडम से अमेरिका वे उसके सहयोगियों द्वारा की गई सैन्य कार्रवाइयों की सच्चाई को जान सकता है। इसलिए यदि पशिचमी दुनिया रूस को चेतावनी दे रही है या यूक्रेन को लेकर उसके विरुध्द स्ट्रैटेजिक तैयारियां कर रही हैं तो इसके पीछे उसका ध्येय यूक्रेन के हितों की रक्षा नहीं, बल्कि अपने कुछ उद्देश्यों की प्राप्ति अधिक है। 
दरअसल यह टकराव यूक्रेन के यूरोपीय संघ अथवा यूरेशियाई संघ को लेकर पैदा हुआ। ऐसा माना जाता है कि पहले राष्ट्रपति यानुकोविच यूरोपियन यूनियन के साथ संधि करने वाले थे, लेकिन बाद में ब्लादिमीर पुतिन के इशारे पर उन्होंने यू-टर्न ले लिया। जबकि विपक्ष यह  चाहता था कि यूक्रेन सरकार रूस से पुरानी मित्रता को नजरअंदाज कर ईयू के साथ समझौता करे। देखते ही देखते यूक्रेन की जनता में उबाल आ गया और वह मांग करने लगी कि यूक्रेन को वाया ईयू यूरोप की मुख्यधारा में शामिल करने की इच्छा हिंसात्मक तरीके से करने लगी। हालांकि इस दौरान ये सवाल भी खड़े किए गये कि रूस को छोड़ यूरोपीय संघ के साथ जुड़ने से उसे व्यापार में जो नुकसान होगा, उसकी भरपाई कैसे की जाएगी? अगर यूक्रेन की सरकार रूस को छोड़कर ईयू के साथ जाती है तो पहले कदम पर उसे आर्थिक संकट का सामना करना पड़ेगा क्योंकि रूस उसे जो आर्थिक मदद देने वाला है, वह रोक दी जाएगी। चूंकि रूस और यूक्रेन सांस्कृतिक व आर्थिक रूप से सदियों से एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं इसलिए यूक्रेन को कुछ दूसरे तरह के नुकसान भी होंगे। लेकिन यूक्रेनियन विपक्ष और यूक्रेनी जनता ने इसे पूरी तरह से अनदेखा किया, आखिर क्यों? महत्वपूर्ण बात यह है कि ब्रिटेन जैसा देश यूरोपीय संघ से बाहर होना चाहता है। जनवरी 2013 में ब्रिटिश प्रधानमंत्री डेविड कैमरन यह घोषणा कर चुके हैं कि 2015 में होने वाले चुनावों में जीत हासिल होने पर कंजरवेटिव सरकार बनी तो 2017 में वह यूरोप में अपने भविष्य को लेकर एक बाध्यकारी जनमत सर्वेक्षण कराना चाहेगी। फ्रांस का एक दल भी ऐसा ही चाहता है। बीते कुछ दिन पूर्व ही स्विट्जरलैंड इस बात को लेकर जनमत करा चुका है कि ईयू की तरफ  से होने वाले आप्रवासन का वह कोटा तय कर देगा। यदि ईयू में प्रवेश पा जाने मात्र से किसी भी देश को प्राप्त होने वाले अनुलाभों की फेहरिस्त बहुत लम्बी हो जाएगी तो फिर ब्रिटेन, फ्रांस और स्विट्जरलैंड जैसे देश उससे अलग क्यों होना चाहते हैं?
यह सही है कि पूर्व सोवियत संघ के प्रभाव वाले पूर्वी यूरोप के साम्यवादी देशों का यूरोपियन यूनियन में विलय रूस के लिए चिंता की बात हो सकती है क्योंकि ईयू पर अमेरिका का प्रभाव है और अमेरिका रूस के खिलाफ जिस तरह की भू-रणनीतिक तैयारियां कर रहा है, वे रूस के लिए चुनौती है। इसलिए पूर्व सोवियत संघ के घटक देशों का ईयू के करीब जाना रूसी रणनीति को कमजोर करेगा। पूर्व सोवियत संघ का घटक रहे पूर्वी यूरोप के छह देशों-आर्मेनिया, अजरबेजान, बेलारूस, मोलदोवा, जार्जिया और यूक्रेन यूरोपियन यूनियन में शामिल होने के बाद यूरोपीय यूनियन की सीमाएं रूस को छूने लगेंगी जो रूस के लिए एक खतरा साबित होंगी। अमेरिका पहले ही नाटो सदस्यों के सहयोग से रूस को मिसाइल डिफेंस सिस्टम के जरिए स्ट्रैटेजिकली घेरने की रणनीति पर काम कर रहा है। उक्त छह देशों का उसका हिस्सा बनते ही रूस भू-राजनीतिक रूप से भी घिर जाएगा। पुतिन स्वयं कुछ महत्वाकांक्षाओं को लेकर तीसरी बार राष्ट्रपति बने और अब उनकी मंशा रूस को शीतयुग के सोवियत संघ का स्थान दिलाने की है इसलिए वे इस पश्चिमी षड़यंत्र को स्वीकार नहीं करेंगे।

फिलहाल यदि रूस और यूक्रेन के टकराव को रोकने की बजाय अमेरिका व उसके पश्चिमी सहयोगी ग्रेट गेम में उलझे का काम करेंगे तो दुनिया को इसके गम्भीर परिणाम भुगतने पड़ जाएंगे।

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