जो
विश्लेषक और मीडियाकर्मी
भारतीय आम चुनाव
को महाभारत की
संज्ञा देते रहे
हैं वे जान
लें कि अब
हमारे चुनाव महाभारत
से बड़े हो
गए हैं। महाभारत
अगर 18 दिन चला
था तो16वीं
लोकसभा का यह
आम चुनाव 34 दिनों
तक चलने वाला
है। हालांकि भारत
का पहला आम
चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 के
बीच संपन्न हुआ
था। तब देश
की जनसंख्या आज
की एक तिहाई
थी और संसाधन
भी उसी लिहाज
से आनुपातिक तौर
पर कम थे।
हालांकि हिंसा की इतनी
आशंका नहीं थी
और न ही
जागरूकता का यह
स्तर था। तब
महज 45.7 प्रतिशत लोगों ने
वोट डाले थे।
उसमें से आधे
वोट लेकर कांग्रेस
ने दो-तिहाई
सीटों पर कब्जा
जमा लिया था।
किंतु
2014 का यह आम
चुनाव 1999 के बाद
सबसे लंबा चुनाव
है। 1999 का चुनाव
पांच चरणों में
एक माह चला
था, जबकि 2004 का
चुनाव महज 20 दिन
व चार चरणों
में समाप्त हो
गया था। 2009 का
चुनाव पांच चरणों
में 27 दिनों में हुआ
था। हालांकि चुनाव
आयोग ने चुनाव
घोषणा से लेकर
मतगणना तक के
दिनों की गिनती
कर यह साबित
करने की कोशिश
की है कि
यह चुनाव 2009 के
चुनावों से कम
दिनों में हो
रहा है। भले
ही वह कमी
महज तीन दिनों
की हो। 2009 में
चुनाव की घोषणा
से अंत तक
कुल 75 दिन लगे
थे जबकि इस
बार 72 दिन ही
लग रहे हैं।
नौ
चरणों में 34 दिन
तक चलने वाले
इस आम चुनाव
के रणनीतिक कारण
हैं तो उसके
अपने फायदे नुकसान
भी। रणनीतिक कारण
स्पष्ट है कि
चुनाव बिना किसी
हिंसक घटना के
संपन्न हों। यह
आशंका सिर्फ पूर्वोत्तर
के उग्रवादी इलाकों
में ही नहीं
है बल्कि मध्य
भारत के नक्सली
इलाकों में भी
है। इसी वजह
से कश्मीर में
छह सीटों के
चुनाव पांच चरणों
में होंगे। इसीलिए
आयोग ने हिंसा
की आशंका वाले
इलाकों में 7 अप्रैल के
पहले चरण में
ही चुनाव करा
लेने का फैसला
किया है, ताकि
सुरक्षा बल आसानी
से दूसरे इलाकों
में भेजे जा
सकें, लेकिन उत्तरप्रदेश
जैसे मैदानी इलाके
में भी जातिगत
और सांप्रदायिक ध्रुवीकरण
के कारण हिंसा
की आशंका है।
तभी वहां छह
चरणों में चुनाव
कराए जाएंगे।
चुनाव
में हिंसा की
कितनी आशंका है
इसका प्रमाण छत्तीसगढ़
में 11 मार्च को माओवादियों
ने दे दिया।
वे जानते थे
कि सुरक्षा बलों
की तैनाती के
बाद शायद वे
ऐसी घटना को
अंजाम नहीं दे
पाएंगे। सवाल यह
है कि क्या
युवा मतदाताओं, पार्टियों
की बढ़ती संख्या
और बढ़ते मतदान
प्रतिशत के लिहाज
से हमारा चुनाव
कार्यक्रम लंबा होता
जा रहा है
या हमारा लोकतंत्र
अमन की प्रतिज्ञा
पूरी करने में
विफल हुआ है
इसलिए वह लगातार
लंबा व सुरक्षा
बलों पर निर्भर
हो रहा है?
अगर
1951 में 41 पार्टियों ने चुनाव
में हिस्सा लिया
था और उसमें
से महज 15 संसद
में प्रतिनिधित्व कर
सकी थीं तो
2009 में 364 दलों ने
चुनाव में हिस्सा
लिया और 39 दलों
ने जीत दर्ज
की। दलों की
बढ़ती संख्या जहां
भारतीय दलीय प्रणाली
के विखंडन का
प्रमाण है वहीं
सत्ता के लिए
बढ़ती जातिगत और
क्षेत्रीय होड़ का
भी। इन स्थितियों
ने हमारे लोकतंत्र
को जटिल स्वरूप
प्रदान किया है।
इस बीच, चुनाव
आयोग के प्रयासों
के कारण युवा
मतदाताओं का पंजीकरण
बढ़ा है। साथ
ही भ्रष्टाचार और
विकास के मुद्दों
पर उनकी राजनीतिक
सक्रियता भी बढ़ी
है। उन्हें लगने
लगा है कि
उनका भविष्य बाजार
व अन्य आर्थिक
ताकतें ही नहीं राजनीतिक
ताकतें भी तय
करती हैं और
इन ताकतों को
वे उनके हवाले
छोडऩे का जोखिम
नहीं ले सकते।
विडंबना
है कि नक्सली
इलाकों में सुरक्षा
बलों के आवागमन, बीहू
जैसे त्योहारों और
बोर्ड परीक्षाओं को
ध्यान में रखकर
तय किए गए
चुनाव कार्यक्रम से
उन्हीं युवा मतदाताओं
के हतोत्साहित होने
का खतरा है
जिन्हें चुनाव में भागीदारी
के लिए सबसे
ज्यादा प्रोत्साहित किया जा
रहा है। फटाफट क्रिकेट
का आदी हो
चुका यह युवा
मशीनी गति से
चुनाव और उसी
गति से उसके
परिणाम चाहता है। लंबे
चुनाव न सिर्फ
उसके लिए टेस्ट
मैच की तरह
उबाऊ साबित होंगे
बल्कि भ्रामक भी।
ऐसे में संभव
है वे ताकतें
फिर हावी हो
जाएं जो धनबल
तथा बाहुबल का
सहारा लेती हैं
और लंबे समय
तक टिकने का
दम रखती हैं।
यह जरूर है
कि युवा कई
राज्यों मेें अपने
मनमाफिक दल के
लिए प्रचार कर
सकता है, लेकिन
यह कार्यक्रम उन
तमाम ताकतों को
भी पर्याप्त मौका
देगा जो चुनाव
की निष्पक्षता को
प्रभावित करती हैं।
एक
और बड़ा खतरा
है जनमत संग्रहों
द्वारा इसे प्रभावित
करने का। इन
34 दिनों में प्रिंट
और इलेट्रॉनिक मीडिया
कितने तरह के
जनमत संग्रह और
एग्जिट पोल दिखाएंगे
कल्पना नहीं की
जा सकती है।
हाल ही एक
चैनल के स्टिंग
ने दिखा दिया
कि जनमत संग्रह
करने वाली एजेंसियां
नतीजों का कैसे
घालमेल करती हैं।
जन प्रतिनिधित्व कानून
में 2009 में हुए
संशोधन के चलते
चुनाव खत्म होने
तक तो एग्जिट
पोल दिखाने पर
पाबंदी है, लेकिन
जनमत संग्रहों के
साथ ऐसा कुछ
भी नहीं है।
इन पर रोक
का सवाल कानून
मंत्रालय और चुनाव
आयोग के बीच
झूल रहा है।
कानून
मंत्रालय विधि आयोग
की रपट का
इंतजार कर रहा
है और तब
तक यह मसला
चुनाव आयोग पर
डाल रहा है।
उसका कहना है
कि आयोग संविधान
के अनुच्छेद 324 के
तहत मिली शक्तियों
का उपयोग कर
पाबंदी लगा सकता
है। किंतु चुनाव
आयोग क्यों अलोकतांत्रिक
कहलवाने की तोहमत
ले। एक बार
1999 में वह वैसा
करके अपना हाथ
जला चुका है
और सुप्रीम कोर्ट
में सुनवाई के
दौरान आदेश वापस
भी ले चुका
है।
ऐसे
माहौल में मीडिया
भी इस चुनाव
में अपनी भूमिका
निभाएगा, जो तटस्थता
से ज्यादा पक्षधरता
की ओर जाएगी।
लंबे समय तक
खिंचने वाले चुनाव
में जहां खर्च
बढ़ेगा वहीं पूरे
देश का मानस
एक लय और
ताल के साथ
प्रकट होने की
बजाय अपने-अपने
किनारे और द्वीप
ढूंढ़ेगा। बहुत संभव
है कि यह
चुनाव राष्ट्रीय न
होकर क्षेत्रीय और
राज्य के नजरिये
से हो। पिछले
कुछ सालों से
चल रहे इस
सिलसिले के इस
बार टूटने की
संभावना जताई जा
रही थी। पर
अब फिर छोटी
पार्टियों का दबदबा
और गठबंधन की
खींचतान बढ़ सकती
है।
विधानसभा
चुनावों को लोकसभा
चुनाव से अलग
करके अगर कांग्रेस
ने राज्यों में
बढ़ रही चुनौती
का असर केंद्र
पर न पडऩे
देने का बंदोबस्त
किया था तो
उसका असर बाद
में केंद्रीय राजनीति
के विखंडन के
तौर पर सामने
आया। हालांकि इस
विखंडन का परिणाम
कांग्रेस को सबसे
ज्यादा झेलना पड़ा। संभव
है कि लंबे
चुनाव के कारण
फिलहाल विविधता से एकता
की तरफ जा
रही राजनीतिक प्रणाली
फिर एकता से
विविधता की ओर
जाए। एकता का
विविधता से संबंध
अच्छा है, लेकिन
जब केंद्रीय स्तर
पर एकता टूटती
है तो नतीजा
अस्थिरता में होता
है। ऐसे में
चुनाव आयोग की
तरफ से नेक
इरादों के साथ
किए गए इस
चुनाव बंदोबस्त में
राजनीतिक अनिर्णय की आशंका
दिखाई पड़ती है।
भारतीय चुनाव की लंबी
दौड़ से परिणाम
तो आएंगे, लेकिन
वे शायद ऊंची छलांग
जैसे न हों।
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