शनिवार, 22 मार्च 2014

महिला सशक्तिकरण का उद्देश्य

महिला सशक्तिकरण अपने आप में एक लक्ष्य होने से भी बढ़कर है। यह गरीबी घटाने की चुनौती का सामना करने के लिये, लम्बे समय तक विकास करते जाने के लिये, तथा सुशासन के लिये एक पूर्वगामी शर्त है।''
-कोफी अन्नान, पूर्व सेके्रटरी जनरल, संयुक्त राष्ट्र संघ
ऊपर दी गई उक्ति बिल्कुल ही सच है। आश्चर्य है कि यह बात समाज के अग्रणी लोगों के दिमाग में चौबीस घंटे क्यों नहीं घूमती? समाज के दो ही तो वर्ग हैं- स्त्री और पुरुष। इस समाज रूपी शरीर का यदि आधा हिस्सा कमजोर है, तो यह पूरा शरीर पुष्ट कैसे कहलायेगा?
अत: महिला सशक्तिकरण जिसकी बात हम अक्सर करते हैं, उस आधे हिस्से को भी पूरी तरह बलवान, तानवान और निडर तथा सक्रिय बनाने से ताल्लुक रखती है।
इसके लिये हमें किन क्षेत्रों में बढ़ कर वर्तमान का निदान ढूंढना चाहिये? चूंकि हमें हर वर्ग, हर घर, गांव, कस्बे, शहर, कार्पोरेट और खेतीहर मजदूर, सूचना प्रौद्योगिकी और ईंटें ढोने वाली महिला कार्यकर्ता, वैज्ञानिक, गृहिणी ही नहीं, बल्कि घरों में पोंछा लगाने वाली महिला भी, सभी के बारे में चिन्ता रखनी चाहिये। सभी स्त्रियों के सम्मान को ठेस पहुँचाने वाली बातों को दूर करना है, उनके रास्ते में खतरों और दिक्कतों को पहचानना है, पूरे समाज के दृष्टिकोण और रवैये को यादा स्फूर्तिमान संवेदनशील बनाना है। अच्छा होगा-
हम उन कमियों या अभावों का पता लगायें जिनकी वजह से बच्चों, किशोरों और महिलाओं का समुचित विकास नहीं हो पाता।
हम ढूंढें क़ि आज विद्यमान किन-किन साधनों योजनाओं से इन अभावों को दूर किया जा सकता है। इन सबको साधन रूप से लागू करने में सहयोग दें।
उन तरीकों का पता लगायें, जिनसे हमारी नीतियों कार्यक्रमों के लोगों पर पड़ने वाले प्रभाव की पैमाईश की जा रही हैं, तथा देखें कि क्या ये संतोषजनक हैं? विशेषत: स्वास्थ्य, शिक्षा, आय का स्तर, सन्तानोत्पादन जैसे क्षेत्रों में।
एक अखिल भारतीय प्रणाली का विकास करने की सोचें, जिसके तहत महिलाओं को तथा बच्चों को नि:शुल्क परामर्श तथा इलाज मिल सके, जिसमें सरकार, निजी क्षेत्र तथा सामाजिक संस्थाओं की सम्मिलित भागीदारी हो- और इस तरह देश की जनसंख्या को सुनियोजित और बच्चों के स्वास्थ्य को संरक्षित कर सकें।
स्वच्छ पेयजल, स्वच्छ घरेलू शौचालय, ईंधन की पर्यावरण समर्थित व्यवस्था, और पशुओं के लिये अच्छे चारे के लिये और सुनियोजित व्यवस्था की ओर ध्यान दें- चूंकि इनका बन्दोबस्त महिलाओं पर छोड़ दिया जाता है, और समस्या दुरुह होती है।
कामकाजी महिलाओं के बच्चों की देखभाल के लिये अधिकाधिक और बेहतर केन्द्र बनाने की सोचें।
अनचाही सन्तानों को जन्म देना पड़े इसके लिये सुरक्षित व्यवस्था स्थापित हो।
 महिलाओं की मदद करने के लिये समाज में व्यापक भावना फैलायें ताकि घर-घर में मदद की भावना जिसका प्रभाव हो कि सामुदायिक केन्द्र और अधिक अच्छी तरह चलें।
 उन कारणों का पता लगायें, कि महिलायें क्यों पिछड़ी रह जाती हैं- विशेषत: शिक्षा और तकनीकी शिक्षा में। जो सुविधायें लड़कों को सहज प्राप्त हो जाती हैं, वे लड़कियों को क्यों नहीं मिलतीं?
महिलाएं और किस प्रकार के काम सीख सकती हैं, इसमें उनकी मदद की जाए। विशेषत: ग्रामीण महिलाओं की दशा इस बारे में शोचनीय है। उनकी प्रतिभा धरी की धरी रह जाती है। कहीं उन्हें पारम्परिक हस्तशिल्प सिखाया जा सकता है- तो कहीं उनके लिये नवीन क्षेत्र भी उपलब्ध होने चाहिये। इस विषय में अभी प्रयास बहुत ही कम हुआ है। केरल में कहीं अधिक प्रगति देखने में आती है। बजाय अन्य प्रदेशों के। मेरी एक प्रिय जानकार ग्रामीण बहन खिल्लो ने माुफ्फरनगर में खेस बुन-बुन कर पूरे कुनबे की सर्दी मिटा दी है। बहुत सी महिलाएं जोश और दमखम रखती हैं, लेकिन साधनों के अभाव से मनमसोस कर रह जाती हैं। केरल में नारियल की जूट से रस्सी, तमिलनाडु में सिाल फाइबर के केले के रेशे की वस्तुएं, पाकिस्तान में गेंहू के पौधे के तने की टोकरी, ऊन की टीकोजी, कालीन अन्य वस्तुएं, सॉफ्ट टाया, मानव की सृजनशीलता का अन्त नहीं। कलकत्ते के गांवों में सलमे-सितारे की कढ़ाई, लखनऊ में चिकन वर्क, मन्दिरों में मालाएं, फूल, पूजा के दोने, मूर्तियां, मोती, सीप, शीशा, कांच, लकड़ी, पत्थर (संगमरमर) सोप स्टोनकलात्मक वस्तुओं की विविधता की सीमा नहीं। एक पूरा संसार समेट लाती हैं महिलाओं के हाथों की में कलाएं। इनकी कलाकृतियों की गुणवत्ता और विविधता में कौन क्या योगदान दे सकता है इसके बारे में प्रत्येक सृजनशील नागरिक अपनी सोच का लाभ दे सकता है।
महिलाओं को पूंजी की आवश्यकता पड़ती है। उसकी पूर्ति ऋण से करने के लिए सुगम तथा सरल व्यवस्था हो- जैसे इन्डोनेशिया में बैंक कर्मी बाजार हाट के दिन वहीं एक निश्चित स्थान (झोंपड़ी) में पहुंच जाता है- वह ऋण देता भी है और पुराने ऋण की किश्तें भी वापस लेता है। ग्राहक को कहीं भागा-दौड़ी नहीं करनी पड़ती।
 पूंजी एकत्र करने के लिये स्वयं सहायता समूह की पध्दति अपनाई बढ़ाई जाए। गांव के शिक्षित लोग लेखा रखने में बहुमूल्य योगदान दे सकते हैं।
 महिलाओं को नौकरियों में आने लायक शैक्षणिक योग्यता या प्रशिक्षण को बढ़ाया जाए। उदाहरण के लिए- लेखा संधारण पध्दति में थोड़ा प्रशिक्षण। कम्प्यूटर पर काम करने के लिये थोड़ा प्रशिक्षण (3-4 माह)
पारम्परिक कामों जैसे कृषि, पशु-पालन आदि में और अधिक समृध्दि के लिये जानकारी का प्रदाय। जैसे कृषि में ड्रिप इरिगेशन, हॉरमोन से पौधा संवर्धन, कीटनाशक अथवा उर्वरक का सही उपयोग, स्री प्रध्दति से धान उत्पादन का संवर्धन, बहुविध उपज (मल्टी क्रापिंग), नर्सरी निर्माण आदि।
जहां महिला कर्मियों का अवशोषण संभव है वहां अधिक सजगता।

 परिवारों में सामंजस्य बराबरी की भावना का परिपालन विकास। याद रहे, पहला संस्कार परिवार से ही मिलता है। यदि माता-पिता का आदर करते हैं, तो पुत्र भी अपनी पत्नी का आदर ही करेंगे।

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