बुधवार, 5 मार्च 2014

लोकतंत्र और सेना

एक और लोकसभा ने अपने पांच साल का कार्यकाल पूरा कर लिया है। सदन में जो भी कार्यवाही पूरी हुई है वह वास्तव में झगड़े से भरी और चिढ़ पैदा करने वाली थीं। दुर्भाग्य से करीब-करीब सभी एशियाई देशों में लोकतांत्रिक व्यवस्था का प्रतिनिधित्व करने वाले सदन ने अपना काम करना बंद कर दिया है। तीन महीने बाद भारतीय मतदाता एक बार फिर अपना प्रतिनिधि चुनने मतदान केंद्रों पर कतार में खड़े होंगे। इन प्रतिनिधियों में क्वालिटी नहीं है, लेकिन मुझे पूरा विश्वास है कि अगला सदन बेहतर होगा, क्योंकि आम आदमी पार्टी के उभार ने देश को साफ सुथरा और पारदर्शी बनाने की ओर जाने वाला परिवर्तन राजनीतिक परिदृश्य ला दिया है।

मुझे सशस्त्र सेना का बढ़ता प्रभाव पसंद नहीं है। रक्षामंत्री एके एंटनी का कहना सही है कि देश में कभी कोई सैनिक विद्रोह नहीं हो सकता है। भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने भी यही विचार अगस्त 1947 में रखे थे जब उन्होंने आजादी के बाद शासन के लिए संसदीय तरीका अपनाया था। उनका तर्क था कि देश बहुत बड़ा है और जाति तथा धर्म में जकड़ा है।

हालांकि मेरी चिंता इस बारे में है कि शासन के मामलों मे सेना का दखल शुरू हो गया है। सियाचिन ग्लेशियर में सेना की टुकड़ी तैनात करने का उदाहरण ले लीजिए। क्या यह जरूरी था कि जब बहुत सारे रिटायर्ड शीर्ष अधिकारी कह चुके थे कि इसका कोई रणनीतिक महत्व नहीं है? वैसे भी जब भारत और पाकिस्तान के विदेश सचिवों ने समझौते की शुरुआत की थी तो हमारी सेना को उसका पालन करना चाहिए था, लेकिन इसने उसे रोक दिया। इसे एक ऐसा क्षेत्र बनाने के बजाय जहां कोई आबादी नहीं हो, ग्लेशियर पर दोनों देश के जवान कठिन मौसम की यातना सहते हैं और लगातार जानें गंवाते रहते हैं। दूसरा उदाहरण आ‌र्म्ड फोर्सेस एक्ट का है जो शक होने पर बिना किसी कानूनी कार्यवाही किसी व्यक्ति को हिरासत में रखने या यहां तक कि उसे मार डालने का अधिकार सेना को देता है। पूर्वोत्तर में कई वषरें से यह कानून लागू है। सरकार की बहाल की गई कमेटी ने इसे गैर-जरूरी पाया और इसकी वापसी की सिफारिश की, लेकिन सेना की ही चली और स्पेशल पावर्स कानून अभी भी जारी है। जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने आधिकारिक तौर पर नई दिल्ली से कहा है कि राज्य को इस कानून के प्रभाव से मुक्त कर दिया जाए। उन्होंने सार्वजनिक तौर पर भी यह अपील की है, लेकिन केंद्र सरकार इस पर भी नहीं झुकी, क्योंकि सेना चाहती है कि स्पेशल पावर्स एक्ट लागू रहे। यहां तक कि जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री का राजनीतिक कैदियों को रिहा करने की साधारण रियायत के आग्रह को ठुकरा दिया गया है।

जम्मू-कश्मीर में पथरीबल में हुई मुठभेड़ की जांच एकदम ताजा उदाहरण है। सेना ने पांच आतंकवादियों को मार गिराया, जबकि स्थानीय ग्रामीण कहते हैं कि मारे गए लोग निर्दोष थे। सीबीआइ ने मामले की जांच की और सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट सौंपी है। रिपोर्ट के मुताबिक यह निर्दयतापूर्वक की गई फर्जी मुठभेड़ थी। वास्तव में 23 साल बाद चुप्पी तोड़ने वाले कुपवाड़ा के तत्कालीन उपायुक्त एसएम यासीन ने हाल ही में कहा है कि कोनम पोशपोरा में हुए सामूहिक दुष्कर्म की रिपोर्ट बदलने के लिए धमकी दी गई थी और पदोन्नति का लालच दिया गया था। यह अचरज की बात है कि सेना ने इससे इन्कार कर दिया है कि ऐसी कोई घटना हुई थी। भारत सरकार अभी भी सुप्रीम कोर्ट के जज की अध्यक्षता में एक न्यायिक जांच गठित कर फर्जी समझे जाने वाली मुठभेड़ों की जांच करा सकती है। पथरीबल मुठभेड़ से उठा विवाद अभी शांत भी नहीं हुआ था कि जनवरी 2012 में हुई संभावित सैन्य विद्रोह की कहानी सार्वजनिक हो गई। दो सैन्य इकाइयों को आगरा से दिल्ली की ओर रवाना किया गया। राजधानी के नजदीक किसी भी सैन्य दल की गतिविधि के लिए पहले ही अनुमति लेनी होती है। इसके बावजूद दोनों इकाइयां चलीं और तभी वापस बुलाई गईं जब रक्षा सचिव ने डायरेक्टर जनरल आफ मिलिट्री आपरेशन्स लेफ्टिनेंट जनरल एके चौधरी को मध्यरात्रि में तलब कर बताया कि सरकार में शीर्ष पर बैठे लोग इससे नाखुश और चिंतित हैं। जब एक दैनिक समाचार पत्र ने इस खबर को प्रकाशित किया तो रक्षामंत्री एंटनी ने इसे बकवास बताया। कुछ महत्वपूर्ण सैनिक और सिविल अधिकारियों ने भी ऐसा ही किया। अपने रिटायरमेंट के बाद एके चौधरी ने खबर की पुष्टि की। सबसे धक्कादायक पुष्टि एयरचीफ एनएके ब्राउन ने की। उन्होंने कहा कि पैराशूट सैनिकों को इस लिए भेजा गया था कि उनके हिंडन एयरबेस के सी130 के पास पहुंचने की संभावना की जांच की जा सके। इसके बावजूद कि रक्षामंत्री एंटनी ने कहा कि यह एक रूटीन प्रशिक्षण कार्य था, डायरेक्टर जनरल मिलिट्री आपरेशन्स को कहने के बाद सरकार की ओर से यह देखने के लिए एक चॉपर भेजना कि सैन्य दल वापस लौट रहे हैं या नहीं, यही दर्शाता है कि जितना दिखाई दे रहा है उससे ज्यादा कुछ है। सेनाध्यक्ष वीके सिंह की जन्मतिथि से संबंधित सुप्रीम कोर्ट में अपील की तारीख तथा सैन्य इकाइयों की गतिविधि की तिथि के आपस में मेल खाने की वजह से इसे अनुपात से अधिक महत्व मिला। पूरे मामले की आगे की जांच करानी पड़ेगी।

नागरिक मामलों में सेना की मामूली दखलंदाजी भी अशुभ है। सेना अराजनीतिक है तो इसका श्रेय उसके प्रशिक्षण और उसकी प्रतिबद्धता को है, जबकि पाकिस्तान और बांग्लादेश, दोनों सही रास्ते से भटक गए हैं। भारतीय सेना एक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने स्थान को जानती है और वह इसका सम्मान भी करती है। फिर भी जो उदाहरण मैंने दिए हैं उन्हें गंभीर चेतावनी के रूप में लेना चाहिए। सच है कि लोकतांत्रिक स्वभाव भारत की मिट्टी में जड़ जमाए हुए है, लेकिन ऐसा नहीं मान लिया जा सकता कि हर हाल में यह ऐसा ही रहेगा। सेना राष्ट्र की सुरक्षा के लिए है और उसके उपयोग का निर्णय लेने का अधिकार चुनी हुई सरकार को है। यह एक ऐसी चीज है जो बुनियादी है और लोकतांत्रिक व्यवस्था में इस पर समझौता नहीं किया जा सकता है।


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