राजनीति
एक ऐसा क्षेत्र
है, जिसका प्रभाव
प्रत्येक नागरिक पर पड़ता
है। देश का
कानून बनाने वाले
लोग राजनीतिज्ञ ही
होते हैं। मंत्री
के रूप में
किसी भी सार्वजनकि
क्रियाकलाप के मुखिया,
राजनीतिज्ञ ही होते
हैं। शासन के
कार्यकारी अमले को
यहां से वहां
स्थानान्तरित कर सकने
वाले लोग भी
मंत्री के रूप
में राजनीतिज्ञ ही
होते हैं।
किन्तु
यह भी एक
सत्यता है कि
राजनीति को अपने
जीवन का लक्ष्य
या व्यवसाय बनाकर
चलने वाले लोग
बहुत कम ही
होते हैं। अक्सर
राजनीति में लोग
अपनी तकनीकी योग्यता
आदि आजमाने के
बाद, अपनी तीक्ष्ण
बुध्दि, भाषण देकर
लोगों को प्रभावित
कर सकने की
योग्यता, जोड़-तोड़
करने की बुध्दि
के चलते ही
कूदने की हिम्मत
करते हैं, और
इसमें उन्हें अपने
समय, धन, पारिवारिक
सम्पर्क सभी कुछ
दांव पर लगाने
पड़ते हैं। राजनीति
को अपना कार्यक्षेत्र
बनाने के लिए घर
वालों की रजामन्दी,
अपनी गांठ से
पैसा लगाना, अधिक
से अधिक लोगों लोगों
से मेलजोल चर्चा
के लिये चौबीसों
घंटे तत्पर रहना,
लम्बी-लम्बी दूरियां
तय करना- यह
सब तैयारी लगती
है।
अतएव
महिलाओं को राजनीति
में आने के
लिये (जब तक
कि वे किसी
बड़े राजनैतिक व्यक्ति
की नजदीकी रिश्तेदार
आदि न हों)
अपना सर्वस्व दांव
पर लगाना होता
है। अक्सर इसमें
उन्हें बहुत दिक्कतें
आती हैं। हर
भारतीय नारी के
लिए अपना पत्नी,
गृहिणी व माता
का रूप सबसे
पसन्दीदा होता है।
अब पति घर
व बच्चों को छोड़कर
बाहर की दुनिया
को अपनाना- वह
तब तक नहीं
हो सकता, जब
तक महिला को
परिवार से पूरा
सहयोग और प्रोत्साहन
न मिले, और
दूसरे, जब तक
उसे राजनीति में
पड़ने से, कोई
स्पष्ट लाभ न
दिखाई दे।
वैसे
ऊंचा ओहदा, सम्मान
और पूछ परख
तो सबको पसन्द
होती है। लेकिन
महिलाएं एक तो
अपने ऊंचे पद
को पैसे से
नहीं भुनातीं और
दूसरे ऊँचे ओहदे
की चमक उन्हें
बहुत जल्दी झूठी
और बेमानी लगने
लगती है। शायद
उनकी शक्ति भी
बेतहाशा जन-सम्पर्क
बढ़ाने की दिशा
में कम पड़ती
है। ऐसा प्रतीत
होता है, कि
ये ही सब
कारण रहे हैं
कि महिलाओं की
राजनीति में उपस्थिति
पिछले छ: दशकों
में छ: प्रतिशत
भी नहीं बढ़ी।
वर्ष
1952 में भारत की
संसद में कुल
499 सीटों में से
22 (4.4 प्रतिशत) पर महिलाएं
चुनी गई थीं।
1957-62 में 500 सीटों में से
27 (5.4 प्रतिशत)पर महिलायें
चुनी गई। फिर
वर्ष 62-67 में 34 (6.7 प्रतिशत) पर,
तथा 1967-71 में 31 (5.9 प्रतिशत) पर,
1971-76 में 22 (4.2 प्रतिशत)पर महिलाएं
आर्इं। 1977-80 में 19 (3.4 प्रतिशत), 80-84 में
28 (5.1 प्रतिशत) पर, 85-90 में 44 (8.1 प्रतिशत)
पर महिलायें चुनी
गईं तथा 1990-91 में
27 (5.22 प्रतिशत) पर वे
चुनी गईं।
जब
हम केन्द्रीय सरकार
में मंत्री पदों
पर आसीन होने
वाली महिलाओं की
संख्या देखते हैं तो
पता चलता है
कि 1952-57 में 4.9 प्रतिशत मंत्री
महिलायें थीं। यह
आंकड़ा कमोबेश होते-होते 1984-89 में अपने
अधिकतम यानी 10 प्रतिशत पर
पहुंचा, एवं पुन:
एक बार 1999-2004 में
10 पर पहुंचा। संक्षेप
में, यह बहुत
बढ़ नहीं पाया
है।
हमारा
प्रबुध्द वर्ग यह
मानता है, कि
संसद सदस्य और
मंत्री पदों पर
और अधिक महिलाओं
के आने से
हमारे समाज में
महिलाओं की ही
नहीं, बल्कि समस्त
समाज की स्थिति
सुधरेंगी। मगर महिलाओं
की संख्या बढ़ेगी
कैसे?
चुनाव
में भागीदारी बेहद
खर्चीली हो गई
है। महिलाओं के
पास अमूमन तो
अपनी कमाई का
यादा पैसा होता
ही नहीं। दूसरे,
वे पैसे को
चुनाव जैसे काम
के लिए दांव
पर लगाकर हार
का मुंह देखने
के लिए बिल्कुल
तैयार नहीं होतीं।
तीसरे, अपने वोट
बढाने और दूसरों
के वोट काटने
के लिये साम-दाम-दंड-भेद के
हथकंडे अपनाने की, वे
सोच भी नहीं
सकती। किन्तु महिलाओं
को अपने बूते
पर आगे बढ़ना
ही होगा चूंकि
समाज में उनकी
साझेदारी बढ़ती जा
रही है-यों
यों शिक्षा में
उनकी प्रगति बढ़
रही है, कारपोरेट
क्षेत्र में उनका
प्रतिनिधित्व बढ़ रहा
है, तथा उन्हें
और अधिक आवागमन
चर्चा मेलजोल, ग्रामीण
व शहरी दोनों
क्षेत्राें में अपने
काम सिलसिले में
जाने-आने की,
स्त्री-पुरुष, सबसे मिलने-जुलने के बाध्यता
बढ़ रही है
और उनकी पारिवारिक
जिम्मेदारियां थोड़ी घट
रही हैं, परिवार
छोटे और एकल
होते जा रहे
हैं। वे अगर
राजनीति में बढेंग़ी,
तो वे ध्यान
देंगी, कि उनका
आवागमन सुरक्षित हो, पुलिस
की उपस्थिति और
गुप्त कैमरे आवश्यक
स्थानों पर सक्रिय
हों, होटलों का
वातावरण स्वच्छ हो, लोगों
का व्यवहार स्त्रियों
के प्रति शिष्ट
और संयत हो।
दिल्ली दुष्कर्म के बाद
जो भी आन्दोलन
और प्रदर्शन महिलाओं
के वहां हुए,
उनके कारण दिल्ली
की मेट्रो में
पुरुषों का व्यवहार
बहुत बदल गया
है। वे काफी
सावधानी से और
नपे-तुले ढंग
से पेश आने
लगे हैं। वहीं
महिलाओं की हिम्मत
बढ़ी है, और
वे अब स्टाफ
की किसी भी
अशिष्टता के विरुध्द
उनके उच्चाधिकारियों को
रिपोर्ट करने में
चूकती नहीं हैं।
समाज
में महिलाओें के
प्रति कई तरह
की विषमतायें चली
आ रही हैं।
राजनीति में महिलाओं
के आने से,
इन्हें दूर करने
की ओर यादा
ध्यान दिया जायेगा। आज
घरेलू हिंसा की
शिकार अनेक महिलाएं
चुपचाप सब कुछ
सहती हैं। उनके
स्वास्थ्य पर कोई
ध्यान नहीं दिया
जाता और खर्च
नहीं किया जाता।
उन्हें अपना निर्णय
लेने की स्वतंत्रता
नहीं होती। हाल
ही में यह
समाचार पढ़ने को
मिला कि एक
आदिवासी महिला को उसके
ससुर ने लकड़ी
से सिर पर
ऐसा मारा कि
कुछ समय बाद
उसका देहांत हो
गया। उसका दोष?
केवल इतना ही
कि वह अपने
पिता से मिलने
चली गई, और
(शायद) उन्हें अपनी तनख्वाह
से कुछ पैसे
भी देती थी।
कई
समस्याएं केवल महिलाओं
को दु:ख
देती हैं, जैसे
कि पुत्र को
जन्म न दे
पाना, अनचाही सन्तान
को जन्म देना
तथा उसे पालने
की बाध्यता, मातृत्व
अवकाश न प्राप्त
होना, बच्चे की
परवरिश (काम की
बाध्यता के कारण)
ठीक से न
कर पाना- भले
ही बच्चा बीमार
हो। पुरुषों को
तो ये समस्याएं
कभी छूएंगी ही
नहीं इनका हल
निकालने के लिये
अपने प्रमाद का
सदुपयोग करने के
लिये महिलाओं को
राजनीति में आना
चाहिये। बल्कि कुछ लोगों
का तो यह
मानना है कि
कनाडा, जर्मनी आइसलैंड नाइजीरिया,
फिलीपीन्स, रूस व
स्पेन की तरह
महिलाओं को अपनी
पृथक राजनैतिक पार्टी
बनानी चाहिये। यही
नहीं, राजनीतिज्ञों पर
दबाव डालने के
लिये उन्हें अपने
प्रेशर ग्रुप्स भी बनाने
चाहिये, ताकि उनकी
प्राथमिकताओं के अनुसार
नीति निर्णय हो
सकें। इससे समाज
अधिक शालीन और
नमनीय होगा। उसका
भविष्य और उज्जवल होगा।
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