शुक्रवार, 14 मार्च 2014

नौसेना की बदहाली

पनडुब्बी हादसों में नौसेना के जवानों की मौत की घटनाएं दुखद हैं। पनडुब्बियों और जंगी जहाजों की सिलसिलेवार दुर्घटनाओं के कारण तत्कालीन नौसेना प्रमुख डीके जोशी ने भले ही नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए अपने पद से इस्तीफा दे दिया, लेकिन इससे नौसेना की खामियों की तरफ भी सबका ध्यान आकर्षित हुआ है। नौसेना के समक्ष मौजूद समस्याओं में जरूरी उपकरणों की अनुपलब्धता, उपकरणों का समुचित इस्तेमाल किया जाना, खराब रखरखाव और सैन्य साजो-सामान के मामले में जुगाड़ से काम चलाने की प्रवृत्ति का परिणाम त्रासद घटनाओं के रूप में हमारे सामने है, लेकिन आश्चर्यजनक रूप से तो रक्षा मंत्रालय में बैठे शीर्षस्थ नौकरशाहों ने और ही राजनेताओं ने इसकी जिम्मेदारी लेने का साहस दिखाया, जबकि इस सबके लिए प्राथमिक तौर पर वही जवाबदेह हैं।

लगातार दुर्घटनाओं के चलते भारतीय नौसेना के लिए बीते छह माह सर्वाधिक परेशानी भरे रहे। हालांकि रखरखाव और अनुशासन की कमी भी इसके लिए जिम्मेदार हो सकते हैं, लेकिन ज्यादातर विश्लेषक मानते हैं कि जवाबदेही केवल नौसेना प्रमुख तक सीमित नहीं होनी चाहिए। इसके लिए रक्षा मंत्रालय में शीर्षस्थ पदों पर बैठे रक्षा सचिव, रक्षामंत्री और दूसरे राजनीतिक कर्ताधर्ता भी जवाबदेह हैं, क्योंकि अक्सर जिन समस्याओं से सशस्त्र सेना को रूबरू होना पड़ता है उसके लिए इनकी लापरवाही और निर्णय लेने में अनावश्यक देरी प्रमुख रूप से जिम्मेदार है। ऐसा विशेषकर रक्षा उपकरणों और उनके कल-पुजरें की खरीद के मामले में देखने को मिलता है। ऐसे ही रुख के कारण शांतिकाल में भी हमारे जवानों, नौसैनिकों और वायुसैनिकों का जीवन खतरे में पड़ता है। हालिया पनडुब्बी दुर्घटना में मारे गए नौसेना के एक अधिकारी के भाई ने भी यही बात दोहराई है। संबंधित अधिकारी ने अपने परिवार से कहा था कि जिस पनडुब्बी पर उसे तैनाती दी गई वह सही अवस्था में नहीं है।

सामान्यतौर पर केंद्र सरकार किसी रक्षा सौदे को अंतिम रूप देने में 10 से 15 साल लगा देती है। विशेषकर जब कोई बड़ा रक्षा सौदा करना होता है। इसमें युद्धक जेट विमान, पनडुब्बी और जंगी जहाज शामिल हैं। यदि इसमें एंटनी प्रभाव को भी शामिल कर दें तो खरीदारी की पूरी प्रक्रिया अत्यधिक धीमी हो जाती है। यह प्रवृत्ति हमारी रक्षा तैयारियों पर बहुत नकारात्मक असर डाल सकती है। उदाहरण के तौर पर भारत के पास फिलहाल 15 पनडुब्बियां हैं, जिसमें कम से कम आधी अगले दो वषरें में उपयोग योग्य नहीं होंगी। इसमें रूस की किलो क्लास की पनडुब्बी के अलावा जर्मनी से 1980 में खरीदी गई एचडीडब्लू शामिल है। इनमें से ज्यादातर पारंपरिक पनडुब्बियां 25 से 30 वर्ष पुरानी हैं। नौसेना की फिलहाल 25 पनडुब्बियों को लेने की योजना है, लेकिन मुंबई में स्कॉर्पियन पनडुब्बी के निर्माण में अनावश्यक देरी के चलते यह संभव नहीं हो पा रहा है। वैश्रि्वक निविदा में देरी के कारण छह और पनडुब्बियों की खरीदारी में भी देरी हो रही है। इससे भारत की पनडुब्बी क्षमता की मजबूती में कमी आई है, जिस कारण पाकिस्तान को भारत पर बढ़त मिल सकती है।

कैग वषरें से इस समस्या की तरफ इशारा करता रहा है। उसने रक्षा उपकरणों की खरीदारी में देरी और उपयोग में लाई जा रही बैटरियों की देखभाल में कमी पर सवाल उठाया था। बावजूद इसके नौसेना तंत्र तीन वषरें तक सोया रहा और इस बीच इन्हें बदलने की वारंटी भी खत्म हो गई। इस तरह कल-पुजरें के अभाव में नौसेना को पुराने सामानों से ही काम चलाने को विवश होना पड़ा। संसद में रखी गई कैग की हालिया रिपोर्ट से कुछ चिंताजनक बातें सामने आती हैं। इसमें नौसेना की संचालन क्षमता पर गंभीर सवाल उठाए गए हैं। रिपोर्ट के मुताबिक नौसेना में शामिल 50 फीसद जहाजों को अपनी सेवा आयु पूरा किए हुए 20 वर्ष गुजर चुके हैं। इस कारण नौसैनिक जहाज प्रबंधन पर अत्यधिक दबाव है। इन जहाजों को युद्ध के लिए तैयार रखने के लिए मध्यावधि उन्नतीकरण के दौर से गुजरना होता है। इस दौर से उन जहाजों को गुजरना है जिनकी उम्र 10 से 15 साल बची होती है। ऐसा इसलिए किया जाता है ताकि इनका अधिकतम उपयोग किया जा सके।

दूसरे, दोबारा मरम्मत के काम में बहुत धन खर्च होता है। इस संदर्भ में कैग ने भी पाया कि जहाजों की मरम्मत में अत्यधिक देरी होती है। यह भी कहा गया कि समय पर मरम्मत करके नौसेना अपने पास उपलब्ध जहाजों को संचालन की दृष्टि से तैयार रख सकती है। कैग ने अपनी जांच में पाया कि भारतीय नौसेना ज्यादातर मामलों में मरम्मत कायरें को शुरू करने से लेकर उन्हें पूरा करने तक में अत्यधिक समय लगाती है। केवल 18 फीसद मरम्मत के काम तय मानकों पर पूरा होते हैं, जबकि 74 फीसद मामलों में अत्यधिक देरी होती है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि जो जहाज मरम्मत के लिए पड़े होते हैं वे भारत की सुरक्षा जरूरतों के लिहाज से उपयोगी नहीं होते। जो जहाज लंबे समय तक मरम्मत के दौर में होते हैं उनका भी संचालन उस कार्य के लिए संभव नहीं होता जिसके लिए उन्हें नौसेना में शामिल किया गया है। यह दुखद है कि कैग द्वारा इस बारे में सरकार का ध्यान आकर्षित किए जाने के बाद भी मरम्मत के कायरें में अनावश्यक देरी की जा रही है, जिसका प्रभाव नौसेना की संचालन क्षमता पर पड़ रहा है। इसका उल्लेख खुद नौसेना में 1999 में अपनी रिपोर्ट में किया है। यह भी कम दुखद नहीं कि दशकों बाद भी वही समस्या जस की तस है, जिसे लेखा परीक्षकों ने बहुत पहले चिन्हित किया था।

इस रिपोर्ट से कैबिनेट और उससे नीचे के स्तर पर नीति निर्णय में गंभीर खामी का संकेत मिलता है, जिससे पूरी नौसेना प्रभावित हो रही है। नौसेना के संदर्भ में 1960 में ही एक प्रभावी नीति-निर्णय प्रक्रिया अपनाई गई थी। उदाहरण के लिए भारतीय नौसेना ने 1968 में पनडुब्बियों की आवश्यकता महसूस की थी, लेकिन सरकारी रुख के मुताबिक इसमें काफी समय लगा। आज से आठ वर्ष पहले ही इस दिशा में प्रभावी कदम उठाए गए। 1976 से 1978 के बीच सरकार को विदेश स्थित छह कंपनियों से पनडुब्बी आपूर्ति के प्रस्ताव मिले थे। इसके लिए फरवरी 1979 में कीमत निर्धारण समिति बनी और अंतत: दिसंबर 1981 में एचडीडब्लू से दो पनडुब्बी खरीदने और दो अन्य को भारत में ही बनाने का निर्णय हुआ। एक अन्य फर्म से हथियारों की आपूर्ति का सौदा हुआ। वर्ष 1987 और 1988 के बीच सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रम द्वारा दो पनडुब्बियों का निर्माण किया गया, लेकिन यह तय लक्ष्य से तीन वर्ष बाद हो सका।


जाहिर है नौकरशाही और राजनीतिक कर्ताधर्ताओं की वजह से नौसेना को नुकसान उठाना पड़ रहा है। परंतु हम यह कब देख पाएंगे कि रक्षा मंत्रालय में सभी निर्णयों के लिए जिम्मेदार नौकरशाह और राजनेता भी अपनी कुछ जिम्मेदारी लेंगे? क्या कोई नौकरशाह भी एडमिरल जोशी जैसा अनुकरणीय कदम उठाएगा?

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