शुक्रवार, 28 मार्च 2014

चुनाव 2014 : कुछ नजारे

हम भारत के लोगों की राजनीति में दिलचस्पी जगजाहिर है। इसके लिए सबसे पहले तो हमें महात्मा गांधी का आभारी होना चाहिए जो राजनीति को सभाकक्षों में होने वाली बौध्दिक बहसों से निकालकर सड़कों और चौराहों तक लाए, कुछ इस तरह कि स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे और चूल्हा-चौके तक सिमटे रहने वाली घरेलू औरतें भी स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने सामने गईं। राजनीति को जन-जन तक लाने की दिशा में दूसरी बड़ी पहल पंडित नेहरू के नेतृत्व में हुई जब नवस्वतंत्र देश अपने संविधान में वयस्क मताधिकार की अवधारणा स्वीकार की। आज जब सोलहवीं लोकसभा के चुनावों की प्रक्रिया चल रही है तब इस ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को जान लेने में कोई हर्ज नहीं है। यह कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि पिछले सड़सठ साल में राजनीति हमारे सामाजिक जीवन में गहरे जाकर रच-बस गई है। एक आम हिन्दुस्तानी हर समय राजनीति पर बहस के लिए तैयार रहता है। यह तब जबकि समाज में ऐसे भी लोग हैं जो राजनीति को अक्सर कोसते हुए नज् आते हैं और राजनेताओं का जहां तक सवाल है उनकी लानत-मलामत करने में हम सबको ही आनंद आता है।

एक जनतांत्रिक समाज में राजनीति को लेकर उत्सुकता अथवा उत्साह स्वागतयोग्य है। आखिरकार देश और समाज की बेहतरी के लिए जो भी फैसले लिए जाने हैं, जो कार्यक्रम बनना हैं और जो उन पर अमल होना है वह सब राजनीति के बिना कहां संभव हैहम जानते हैं कि आम चुनावों के वक्त इस बारे में हमारा उत्साह कई गुना बढ़ जाता है। सबकी अपनी-अपनी सोच और अपना-अपना नजरिया है कि देश में कैसी सरकार बनना चाहिए। इस लिहाज से अभी के चुनाव पिछले पन्द्रह चुनावों के मुकाबले कहीं यादा दिलचस्प होने जा रहे हैं। इसके बहुत से कारण हैं। एक तो यही कि चुनावी मैदान में अभी जो अफरा-तफरी मची है वैसे पहले कभी देखने नहीं मिली। आप चाहें तो इस माहौल की तुलना मौसम के साथ कर सकते हैं। दिल्ली हो या रायपुर, भोपाल हो या हैदराबाद, कब बारिश हो जाएगी, कब धूप निकल आएगी, कब पारा चढ़ जाएगा और कब बर्फ गिरने लगेगी, कुछ पता ही नहीं चलता। इस अनिश्चितता से चुनावों का मंजर और दिलचस्प हो गया है।

इस बार एक बिल्कुल नया तथ्य भी चुनावों के साथ जुड़ गया है। मुझे यहां 1960 के अमेरिकी राष्ट्रपति चुनाव का ध्यान आता है। अमेरिकी इतिहास में वह पहला मौका था जब राष्ट्रपति चुनावों के दो प्रमुख उम्मीदवारों के बीच टीवी पर आमने-सामने बहस हुई थी। अनेक पर्यवेक्षकों का मानना है कि अगर टीवी होता तो अनुभवी निक्सन के मुकाबले सुदर्शन युवा जॉन एफ. कैनेडी  चुनाव जीत पाते। अब तो अमेरिका में बिना टीवी बहसों के राष्ट्रपति चुनाव की कल्पना ही नहीं की जा सकती। इसका सीधा-सीधा परिणाम यह हुआ है कि राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार अनुभव और ज्ञान में भले ही कमतर हो, उसे चपल और वाकपटु अवश्य होना चाहिए। उम्मीदवार जितना युवा और स्मार्ट हो उतना ही अच्छा। ओबामा की विजय का बड़ा कारण यहां ढूंढा जा सकता है। भारत में भी अब कुछ ऐसी ही स्थिति निर्मित होती दिख रही है। यद्यपि यहां एक फर्क है। भारत के टीवी चैनवों ने काफी हद तक निष्पक्षता को ताक पर रख दिया है।

इस बार चुनाव प्रचार का जो रंग-ढंग है उसे देखकर लगता है कि भारत में चुनाव प्रणाली को ही बदलने की साजिश चल रही है। चूंकि किसी भी पार्टी को दो तिहाई बहुमत मिलने की अगले कुछ चुनावों तक कोई गुंजाइश नहीं है इसलिए संविधान संशोधन होना फिलहाल मुमकिन दिखाई नहीं देता, किन्तु ऐसा वातावरण बनाया जा रहा है कि देश में अब पार्टी नहीं व्यक्ति के आधार पर चुनाव होना चाहिए। इसका मतलब यह हुआ कि सत्ता प्रतिष्ठान का एक धड़ा हमारी जानी-परखी संसदीय व्यवस्था को तहन-नहस करने पर तुला हुआ है। इसके चलते एक विरोधाभास उत्पन्न हो गया है। संविधान कहता है कि चुनावों के बाद सदन में बहुमत दल का नेता प्रधानमंत्री बनेगा, लेकिन यहां तो पार्टी ने हथियार डाल दिए हैं और एक व्यक्ति प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित हो गया है। याने चुनावों के बाद संसदीय दल को कहीं और लिए गए निर्णय पर अपनी रजामंदी देने विवश होना पड़ेगा। दूसरे शब्दों में यह संसद की सर्वोच्चता का अपमान होगा।

इस बार का एक नया दृश्य राजनीतिक दलों के बीच नेताओं के आवागमन का है। यूं तो 1967 में ही दल-बदल का खेल शुरू हो गया था, लेकिन अब उसने विकराल रूप ग्रहण कर लिया है। ऊपरी तौर से देखने में लगता है कि इस खेल में कांग्रेस को काफी नुकसान हुआ है। कांग्रेस छोड़कर भाजपा या अन्य किसी दल में शामिल होने वालों की संख्या कहीं यादा है, लेकिन गौर से देखें तो भाजपा को कांग्रेस के मुकाबले कम नुकसान नहीं हुआ है।  भाजपा में शीर्ष स्तर पर जिस तरह से असंतोष मुखर हुआ है वैसी नौबत कांग्रेस में नहीं आई। सर्वश्री अडवानी, जसवंत सिंह, सुषमा स्वराज का असंतोष आगे चलकर भाजपा अपनी रीति-नीति पर पुनर्विचार करने के लिए प्रेरित कर सकता है!

अब की दफे क्षेत्रीय दलों के तेवर भी देखने लायक हैं। जिस दिन एच.डी. देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने थे उसी दिन से राजनीति में छोटी सी छोटी हैसियत रखने वाला व्यक्ति भी अपने आपको प्रधानमंत्री पद का काबिल समझने लगा है। आज प्रकाशसिंह बादल उध्दव ठाकरे को छोड़कर हर क्षेत्रीय नेता सोच रहा है कि वह जोड़-तोड़ कर प्रधानमंत्री बन सकता है। टी.आर.एस. के नेता चन्द्रशेखर राव कांग्रेस से किए गए वायदे से पलट गए कि जरूरत पड़ेगी तो एनडीए में शामिल हो जाएंगे। मायावती, ममता बनर्जी, नवीन पटनायक, नीतीश कुमार, जयललिता चन्द्राबाबू नायडू- इन सबको भाजपा से कोई परहेज नहीं है; उसके साथ पहले रह चुके हैं। अभी उन्हें सिर्फ अल्पसंख्यक वोटों का डर सता रहा है। चुनावों के बाद मतदाताओं को कौन पूछता है?

हमने अभी तक वामदलों की बात नहीं की। सीपीआईएम की अगुवाई में वामदलों ने तीन दशक तक अत्यन्त सफलतापूर्वक एक गठबंधन संचालित किया। इसका श्रेय प्रमुख रूप से प्रमोद दासगुप्ता और योति बसु की जोड़ी को दिया जाना चाहिए।  ऐसा नहीं कि वाममोर्चे में कभी मतभेद रहे हों, लेकिन जब भी कोई विवाद हुए उन्हें आपसी बातचीत  से सुलझा लिया गया। एक उल्लेखनीय मौका 2004 में आया जब सीपीआई यूपीए सरकार में शामिल होने के लिए तैयार थी, लेकिन सीपीआईएम की अलग राय देखकर उसने वह मौका वाम एकता की खातिर छोड़ दिया। इधर कुछ समय से लगने लगा है कि वामदल अतीत के बंदी होकर रह गए हैं और वर्तमान समय के संकेतों को समझने से इंकार कर रहे हैं। इसका एक उदाहरण अभी हाल में तीसरे मोर्चे के लिए की गई उठापटक में देखने मिला।

वरिष्ठ नेता भाकपा के पूर्व महासचिव .बी. वर्ध्दन ने करण थापर को दिए एक साक्षात्कार में स्पष्ट कहा कि चुनाव पूर्व तीसरे मोर्चे के गठन का प्रस्ताव समयानुकूल नहीं था और इसीलिए बनने के पहले ही मोर्चा बिखर गया। उन्होंने यह संकेत भी दिया कि इसके लिए माकपा का नेतृत्व जिम्मेदार है। बाद में माकपा के नेताओं ने भी स्वीकार किया कि चुनावों के पूर्व यह पहल नहीं की जाना चाहिए थी।  जो भी हो, वामदलों को यह देखना आवश्यक है कि देश के राजनीति में वे किस तरह से प्रभावी भूमिका निभा सकते हैं। यह स्वीकार करना होगा कि दुनिया के तमाम देशों की तरह नवपूंजीवादी शक्तियां यहां भी अपने पांव पसार चुकी हैं। उससे लड़ने के लिए नए विचारों की, नई ऊर्जा, नए प्रयत्न और नए सिरे से जनजागृति की आवश्यकता है। अब पुराने औजारों  से काम नहीं चलेगा।


कुछ यही बात भारत के उदारवादी बुध्दिजीवी तबके पर भी लागू होती है। इस वर्ग में बड़े-बडे नामचीन लोग शामिल हैं। उनके विद्वतापूर्ण लेख पत्र-पत्रिकाओं में छपते हैं, उनकी लिखी किताबों का भी खूब जिक्र होता है, वे टीवी बहसों में भी भाग लेते हैं। सबके सब अंग्रेजी में। हिन्दी, मराठी, बंगला, तेलगू, तमिल आदि देशी भाषाओं से इनका कोई सरोकार नहीं है। ये एक तरफ देश में फासीवाद के खतरे की बात करते हैं और फिर अपने अध्ययन कक्ष में सिर गड़ाकर बैठ जाते हैं शुतुरमुर्ग की तरह। शायद इन्हें पक्का पता है कि भारत में फासीवाद नहीं आएगा। हो सकता है कि वे सही सोच रहे हों!

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