सोलहवीं
लोकसभा का चुनाव
एक ऐसे समय
में होने जा
रहा है जब
देश में व्याप्त
भीषणतम विषमता के कारण
हमारे लोकतंत्र पर
गहरा संकट मंडरा
रहा है। विषमता
का आलम यह
है कि परम्परागत
रूप से सुविधासंपन्न
और विशेषाधिकारयुक्त अत्यन्त
अल्पसंख्यक तबके का
जहां शासन-प्रशासन,उद्योग-व्यापार, सांस्कृतिक-शैक्षणिक प्रत्येक क्षेत्र
में 80-85 प्रतिशत कब्जा है,
वहीं परम्परागत रूप
से तमाम क्षेत्रों
से ही वंचित
बहुसंख्यक तबका, जिसकी आबादी
85 प्रतिशत है, 15-20 प्रतिशत अवसरों
पर आज भी
जीवन निर्वाह करने
के लिए विवश
हैं। किसी भी
डेमोक्रेटिक कंट्री में परम्परागत
रूप से सुविधासंपन्न
तथा वंचित तबकों
के मध्य आर्थिक-राजनीतिक-सांस्कृतिक इत्यादि
क्षेत्रों में अवसरों
के बंटवारे में
भारत जैसी असमानता
नहीं है। इस
असमानता ने देश
को 'अतुल्य' और
'बहुजन'-भारत में
बांटकर रख दिया
है। चमकते अतुल्य
भारत में जहां
तेजी से लखपतियों-करोड़पतियों की संख्या
बढ़ती जा रही
है, वहीं जो
84 करोड़ लोग 12-20 रुपये रोजाना
पर गुजर-बसर
करने के लिए
मजबूर हैं, वे
मुख्यत: बहुजन भारत के
लोग हैं।
अवसरों
के असमान बंटवारे
से उपजी आर्थिक
और सामाजिक विषमता
का जो स्वाभाविक
परिणाम आना चाहिए,
वह सामने आ
रहा है। देश
के लगभग 200 जिले
माओवाद की चपेट
में आ चुके
हैं। लाल गलियारा
बढ़ता जा रहा
है और दंतेवाड़ा
जैसे कांड राष्ट्र
को डराने लगे
हैं। इस बीच
माओवादियों ने एलान
का दिया है
कि वे 2050 तक
बन्दूक के बल
पर लोकतंत्र के
मंदिर पर कब्जा
जमा लेंगे। इसमें
कोई शक नहीं
कि विषमता की खाई
यदि इसी तरह
बढ़ती रही तो
कल आदिवासियों की
भांति ही अवसरों
से वंचित दलित,
पिछड़े और अल्पसंख्यक
जैसे दूसरे तबके
भी माओवाद की
धारा से जुड़
जायेंगे, फिर तो
माओवादी अपने मंसूबों
को पूरा करने
में जरूर सफल
हो जायेंगे और
यदि यह अप्रिय
सत्य सामने आता
है तो हमारे
लोकतंत्र का जनाजा
ही निकल जायेगा।
ऐसी स्थिति सामने
न आए, इसके
लिए डॉ. आंबेडकर
ने संविधान सौंपने
के पूर्व 25 नवम्बर,1949
को राष्ट्र को
सतर्क करते हुए
एक अतिमूल्यवान सुझाव
दिया था।
उन्होंने कहा था-
''26 जनवरी 1950 को हम
लोग एक विपरीत
जीवन में प्रवेश
करने जा रहे
हैं। राजनीति के
क्षेत्र में हम
लोग समानता का
भोग करेंगे किन्तु
सामाजिक और आर्थिक
क्षेत्र में मिलेगी
भारी असमानता। राजनीति
के क्षेत्र में
हम लोग एक
नागरिक को एक
वोट एवं प्रत्येक
वोट के लिए
एक ही मूल्य
की नीति को
स्वीकृति देने जा
रहे हैं। हम
लोगों को निकटतम
समय के मध्य
इस विपरीतता को
दूर कर लेना
होगा अन्यथा यह
असंगति कायम रही
तो विषमता से
पीड़ित जनता इस
राजनैतिक गणतंत्र की व्यवस्था
को विस्फोटित कर
सकती है।''
ऐसी
चेतावनी देने वाले
बाबा साहेब ने
भी शायद कल्पना
नहीं किया होगा
कि भारतीय लोकतंत्र
की उम्र छह
दशक पूरी होते-होते विषमता
से पीड़ित लोगों
का एक तबका
उसे विस्फोटित करने
पर आमादा हो
जायेगा। लेकिन यह स्थिति
सामने आ रही
है तो इसलिए
कि आजाद भारत
के हमारे शासकों
ने संविधान निर्माता
की सावधानवाणी की
पूरी तरह अनदेखी
कर दिया। वे
स्वभावत: लोकतंत्र विरोधी थे।
अगर लोकतंत्रप्रेमी होते
तो केंद्र से
लेकर रायों तक
में काबिज हर
सरकारों की कर्मसूचियां
मुख्यत: आर्थिक और सामाजिक
विषमता के
खात्मे पर केन्द्रित
होतीं। तब विषमता
का वह भयावह
मंजर कतई हमारे
सामने नहीं होता
जिसके कारण हमारा
लोकतंत्र विस्फोटित होने की
ओर अग्रसर है।
इस लिहाज से
पंडित नेहरु, इंदिरा
गांधी, राजीव गांधी,नरसिंह
राव, अटल बिहारी
वाजपेयी, जय प्रकाश
नारायण, योति बसु
जैसे महानायकों की
भूमिका भी प्रशंसनीय
नहीं रही। अगर
इन्होंने डॉ. आंबेडकर
की चेतावनी को
ध्यान में रखकर
आर्थिक और सामाजिक
विषमता के त्वरित
गति से खत्म
होने लायक नीतियां
अख्तियार की होतीं,
क्या मुट्ठी भर
सुविधाभोगी वर्ग का
शासन-प्रशासन, उद्योग-व्यापार, शैक्षणिक-सांस्कृतिक
क्षेत्रों पर 80-85 प्रतिशत वर्चस्व
स्थापित होता और
क्या देश अतुल्य
और बहुजन भारत
में विभाजित होता?
मजे की बात
यह है कि
आजाद भारत की राजनीति
के महानायक
आज भी लोगों
के हृदय सिंहासन
पर विराजमान हैं
; आज भी उनके
अनुसरणकारी उनके नाम
पर वोटरों को
रिझाने का प्रयास
करते हैं। बहरहाल,
हमारे राष्ट्र नायकों
से कहां चूक
हो गई जिससे
विश्व में सर्वाधिक
विषमता का साम्राय
भारत में कायम
हुआ और जिसके
कारण ही विश्व
का सबसे बड़ा
लोकतंत्र आज विस्फोटित
होने की ओर
अग्रसर है?
दरअसल,
उन्होंने ठीक से
उपलब्धि ही नहीं
किया कि सदियों
से ही सारी
दुनिया में आर्थिक
और सामाजिक गैर-बराबरी, जो कि
मानव जाति की
सबसे बड़ी समस्या
है, की सृष्टि
शक्ति के स्रोतों
(आर्थिक-राजनीतिक और धार्मिक)
में सामाजिक और
लैंगिक विविधता के असमान
प्रतिबिम्बन के कारण
होती रही है।
अर्थात लोगों के विभिन्न
तबकों और उनकी
महिलाओं के मध्य
आर्थिक, राजनीतिक और धार्मिक
गतिविधियों का असमान
बंटवारा कराकर ही सारी
दुनिया के शासक
विषमता की स्थित
पैदा करते रहे
हैं। इसकी सत्योपलब्धि
कर ही अमेरिका,
ब्रिटेन, फ्रांस, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड
इत्यादि जैसे लोकतांत्रिक
रूप से परिपक्व
देश ने अपने-अपने देशों
में शासन-प्रशासन,
उद्योग-व्यापार, फिल्म-टीवी-मीडिया इत्यादि हर
क्षेत्र ही सामाजिक
और लैंगिक विविधता
के प्रतिबिम्बन की
नीति पर काम
किया और मानव
जाति की सबसे
बड़ी समस्या से
पार पाया। किन्तु
उपरोक्त देशों से लोकतंत्र
का प्राइमरी पाठ
पढ़ने सहित कला-संस्कृति-फैशन-टेक्नोलॉजी
इत्यादि सब कुछ
ही उधार लेनेवाले
हमारे शासकों ने
उनकी विविधता (डाइवर्सिटी)
नीति से पूरी
तरह परहेज किया।
हमारे स्वाधीन भारत के
शासक स्व-वर्णीय
हित के हाथों
विवश होकर या
आर्थिक सामाजिक विषमता की
सृष्टि के कारणों
से अनभिज्ञ रहने
के कारण आर्थिक
और सामाजिक विषमता
के खात्मे के
भागीदारीमूलक योजनाओं की जगह
राहत और भीखनुमा
योजनाओं को प्राथमिकता
देते हुए प्रकारांतर
में गैर-बराबरी
ही बढ़ाते रहे।
उन्हीं का अनुसरण
करते हुए वर्तमान
राजनीतिक नेतृत्व भी मुफ्त
का अनाज, रेडियो-टीवी-कंप्यूटर,
कुकिंग गैस, साइकल,
नकद राशि इत्यादि
तरह-तरह का
प्रलोभन देकर चुनाव
जीतने का उपक्रम
चला रहा है।
अत: लक्षण यही
दिख रहा है
कि शासक दलों
की राहत और
भीखनुमा घोषणाओं के चलते
लोकसभा चुनाव-2014 भी लोकतंत्र
को विस्फोटित करने
लायक कुछ और
समान स्तूपीकृत करने
जा रहा है।
ऐसे में तमाम
लोकतंत्रप्रेमी ताकतों का यह
अत्याय कर्तव्य बनता है
कि वे चुनाव
लड़ रहे दलों
को यह घोषणा
करने के लिए
मजबूर कर दें
कि वे सत्ता
में आने पर
शक्ति के समस्त
स्रोतों में सामाजिक
और लैंगिक विविधता
लागू करेंगे। चूंकि
गणतांत्रिक-व्यवस्था में विषमता
के खात्मे का
डाइवर्सिटी से बेहतर
अन्य कोई उपाय
नहीं है इसलिए
मौजूदा चुनाव को डाइवर्सिटी
पर खड़ा करने
से श्रेयस्कर कोई
विकल्प नहीं है।
शक्ति
के स्रोतों में
सामाजिक और लैंगिक
विविधता लागू होने
पर सवर्ण, ओबीसी,एससीएसटी और धार्मिक-अल्पसंख्यकों के मध्य
व्याप्त विषमता का धीरे-धीरे विलोप
हो जायेगा। यह
महिला सशक्तिकरण के
मोर्चे पर बंगलादेश-नेपाल जैसे पिछड़े
राष्ट्रों से भी
पिछड़े भारत को
विश्व की अग्रिम
पंक्ति में खड़ा
कर देगा। इससे सच्चर
रिपोर्ट में उभरी
मुस्लिम समुदाय की बदहाली
की तस्वीर खुशहाली
में बदल जायेगी।
पौरोहित्य में डाइवर्सिटी
ब्राह्मणशाही का खात्मा
कर देगी। इससे
इस क्षेत्र में
ब्राह्मण समाज की
हिस्सेदारी सौ की
जगह महज तीन-चार प्रतिशत
पर सिमट जायेगी
और बाकी क्षत्रिय, वैश्य और
शूद्रातिशूद्रों में बंट
जायेगी। इसका परोक्ष
लाभ यह भी
होगा कि इससे
दलित और महिला
उत्पीड़न में भारी
कमी; लोकतंत्र के
सुदृढ़ीकरण; विविधता में शत्रुता
की जगह सच्ची
एकता; विभिन्न जातियों
में आरक्षण की
होड़ व भ्रष्टाचार
के खात्मे के
साथ आर्थिक और
सामाजिक-विषमताजनित अन्य कई
उन समस्याओं के
खात्मे का मार्ग
प्रशस्त होगा, जिनसे हमारा
राष्ट्र जूझ रहा
है।