शनिवार, 3 अगस्त 2013

लोकतंत्र से खतरनाक खिलवाड़

करीब सौ साल पहले कार्ल मा‌र्क्स ने दुनिया के मजदूरों का आह्वान किया था सभी एकजुट हो जाओतुम्हें खोने के लिए कुछ नहीं हैसिवाय तुम्हारी जंजीरों के। आज ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे नेता आह्वान कर रहे हैं कि अपराधियों एकजुट हो जाओवरना तुम्हारा सब कुछ चला जाएगाविधानसभा और संसद के दरवाजे बंद हो जाएंगे।

भारत का लोकतंत्र आज ऐसे दौर से गुजर रहा है जब लोगों का इस तंत्र में विश्वास ही उठता जा रहा है। विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है कि लोकतंत्र का अर्थ है-गवर्नमेंट ऑफ द पीपुलबाइ द पीपुल एंड फॉर द पीपुल अर्थात जनता की सरकारजनता के द्वारा और जनता के लिए। आज हम इसका जो विकृत स्वरूप देख रहे हैंवह है-अपराधियों की सरकारअपराधियों के लिए और अपराधियों के द्वारा। 1हमारे नेता सुधार की बराबर दुहाई देते हैं। उनकी सुधार की परिभाषा में केवल एक ही बात आती है और वह है प्रत्यक्ष विदेशी निवेश। सुधार में चुनाव सुधारप्रशासनिक सुधारपुलिस सुधारजेल सुधार इत्यादि की कोई चर्चा नहीं होतीजबकि इनकी आवश्यकता सर्वाधिक है। सच्चाई तो यह है कि हमारे लोकतंत्र में जो विष फैल गया है उसकी जड़ों में हमारी चुनाव व्यवस्था की विकृतियां हैं-ऐसी विकृतियां जो गंभीर मामलों से घिरे लोगों को संसद और विधानसभा में घुसने की छूट देती हैं। 1चुनाव सुधार की बात बराबर होती आ रही हैचुनाव आयोग भी दबी जुबान से इनका उल्लेख करता है। परंतु सुधार संबंधित सभी संस्तुतियों को अंत में नकार दिया जाता है। और नकारा भी क्यों न जाएआपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों की संख्या हमारी संसद और विधानसभाओं में बराबर बढ़ती जा रही है। यह लोग अपने पैर पर कुल्हाड़ी क्यों मारेंगे?एसोसिएशन फार डेमोक्त्रेटिक रिफार्म्स ने हाल में कुछ आंकड़े प्रसारित किए हैं। इनके अनुसार लोकसभा के 162 यानी 30 फीसद सदस्यों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं और इनमें से 14 फीसद पर गंभीर मुकदमे हैं। राच्यसभा में 232 में से 40 यानी 17 फीसद की पृष्ठभूमि आपराधिक है और इनमें से 16 यानी 7 प्रतिशत गंभीर मामले हैं। राच्य विधानमंडलों में 4032 में 1258 यानी31 फीसद पर मुकदमे दर्ज हैंजिनमें 15 फीसद पर गंभीर मामले हैं। जिस दिन यह आंकड़े 50फीसद के पास पहुंच जाएंगे उस दिन भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय एक आपराधिक राच्य का दर्जा देगा और हमारी गिनती नाइजीरिया जैसे देशों के साथ होगी। उस स्थिति की कल्पना करके किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का सिर शर्म से झुक जाएगापरंतु सच्चाई यह है कि हम उसी दिशा में बढ़ते जा रहे हैं। 1भला हो देश की न्यायपालिका काभला हो देश के केंद्रीय सूचना आयोग का कि उन्होंने राजनीतिक कचरा साफ करने का कुछ प्रयास किया। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक फैसला दिया कि संसद और विधानसभा के जो भी सदस्य अदालत द्वारा दोषी करार दिए जाते हैं उन्हें अपनी सीट से हाथ धोना पड़ेगा। इसी तरह जो सदस्य जेल में किसी मामले में सजा काट रहे हैंवह चुनाव प्रक्त्रिया में नहीं शामिल हो सकेंगे। केंद्रीय सूचना आयोग ने भी यह फैसला दिया कि राजनीतिक दल सार्वजनिक संस्थाएं हैंइसलिए वे सूचना कानून की परिधि में आते हैं। इस फैसले से हमारे नेता वर्ग में खलबली मच गई। बड़े अफसोस की बात यह है कि सभी राजनीतिक दल एकजुट होकर इन फैसलों का विरोध कर रहे हैं। सिंदबाद की कहानी की तरह अच्छी छवि के नेताओं की गर्दन पर आपराधिक पृष्ठभूमि के नेता सवार हैं। सिंदबाद ने तो अपने गर्दन पर सवार आदमी को जैसे-तैसे गिरा दिया था। क्या स्वच्छ छवि के नेता ऐसा कुछ कर पाएंगेफिलहाल तो ऐसा कुछ संकेत नहीं दिख रहा है। 1कांग्रेससमाजवादी पार्टीबहुजन समाज पार्टीभारतीय जनता पार्टी सहित देश के तमाम राजनीतिक दल अपने दागी नेताओं को बचाने के लिए एकजुट हो गए हैं। केंद्र सरकार भी सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को निष्प्रभावी बनाने के लिए तैयार हो गई है जिसके अंतर्गत जेल जाने या सजा होने पर नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगाई गई थी। इतना ही नहीं,राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार यानी आरटीआइ कानून के दायरे से बाहर रखने के लिए भी सरकार राजी हो गई है। संशोधित विधेयक संसद के मानसून सत्र में ही पेश किए जाएंगे। देश की जनता हतप्रभ है। लोकपाल बिल नौ बार लोकसभा में पेश हुआपरंतु आज तक पारित नहीं हुआ, 42 साल बीत गए। महिला आरक्षण का बिल बार-बार संसद में आता हैपर पास नहीं हो पाता। काले धन पर रोक की चर्चा होती हैपर रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया जाता। राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर तो बहस भी नाममात्र को होती है। कहने का मतलब यह है कि महत्वपूर्ण विषयों से संबंधित विधेयक पर तो सहमति नहीं बन पातीपरंतु संसद और विधानसभा में आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों को बचाने के मुद्दे पर सारे राजनीतिक दलों में अभूतपूर्व एकता दिख रही है। यह कैसी संसद हैयह कैसे जनप्रतिनिधि हैंआज देश में ध्रुवीकरण की बात सुनने में आती है। एक नया ध्रुवीकरण भी हो रहा है जिसे हमारे नेताओं को समझना होगाइसमें एक तरफ तो देश के नेता हैं और उनके समर्थन में भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था है। दूसरी तरफ न्यायपालिका और देश का जनमानस है। न्यायपालिका की तारीफ करनी पड़ेगी कि वह जनता की तकलीफों को समझ रही है और तदनुसार आदेश पारित करती हैपरंतु हमारे सत्ताधारी नेताओं ने अपनी आंखों में स्वार्थ की पट्टी बांध ली है। ऐसे में देश के भविष्य के बारे में चिंता और निराशा,दोनों होती है। उपरोक्त ध्रुवीकरण का एक नजारा उत्तार प्रदेश में देखने को आ रहा हैजहां एक ईमानदार आइएएस अधिकारी को इसलिए निलंबित कर दिया गया कि उसने माफिया गिरोहों से मोर्चा लिया। 1प्रदेश सरकार तरह-तरह की दलील दे रही है कि सांप्रदायिक स्थिति न बिगड़े इसलिए ऐसा किया गयापरंतु जमीन से जुड़े सभी लोग जानते हैं कि यह एक लचर दलील है जिसका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं। स्थानीय अधिकारियों की रिपोर्ट से यह भी स्पष्ट हो गया है कि दीवार स्थानीय लोगों ने ही गिराई थी और क्षेत्र में कोई सांप्रदायिक तनाव था ही नहीं। इस प्रकार की लड़ाई अब बढ़ती ही जाएगी। एक तरफ अपराधी और उनके समर्थकों की कौरवी सेना होगी और दूसरी तरफ बचे-खुचे ईमानदार व्यक्तिजिन्हें न्यायपालिका और समाज में शुचिता के आकांक्षी लोगों का समर्थन हासिल है। यह स्थिति किसी के लिए अच्छी नहीं होगी। अच्छा होता यदि हमारे राजनेता अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज की प्रगतिसमुदायों में सद्भाव और देश की उन्नति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते। 1112स्त्रल्ल2ीन्ॠ1ंल्ल.ङ्घेकरीब सौ साल पहले कार्ल मार्क्?स ने दुनिया के मजदूरों का आह्वान किया था सभी एकजुट हो जाओतुम्हें खोने के लिए कुछ नहीं हैसिवाय तुम्हारी जंजीरों के। आज ऐसा प्रतीत होता है कि हमारे नेता आह्वान कर रहे हैं कि अपराधियों एकजुट हो जाओवरना तुम्हारा सब कुछ चला जाएगाविधानसभा और संसद के दरवाजे बंद हो जाएंगे। भारत का लोकतंत्र आज ऐसे दौर से गुजर रहा है जब लोगों का इस तंत्र में विश्वास ही उठता जा रहा है। विद्यार्थियों को पढ़ाया जाता है कि लोकतंत्र का अर्थ है-गवर्नमेंट ऑफ द पीपुलबाइ द पीपुल एंड फॉर द पीपुल अर्थात जनता की सरकारजनता के द्वारा और जनता के लिए। आज हम इसका जो विकृत स्वरूप देख रहे हैंवह है-अपराधियों की सरकारअपराधियों के लिए और अपराधियों के द्वारा। 1हमारे नेता सुधार की बराबर दुहाई देते हैं। उनकी सुधार की परिभाषा में केवल एक ही बात आती है और वह है प्रत्यक्ष विदेशी निवेश। सुधार में चुनाव सुधार,प्रशासनिक सुधारपुलिस सुधारजेल सुधार इत्यादि की कोई चर्चा नहीं होतीजबकि इनकी आवश्यकता सर्वाधिक है। सच्चाई तो यह है कि हमारे लोकतंत्र में जो विष फैल गया है उसकी जड़ों में हमारी चुनाव व्यवस्था की विकृतियां हैं-ऐसी विकृतियां जो गंभीर मामलों से घिरे लोगों को संसद और विधानसभा में घुसने की छूट देती हैं। 1चुनाव सुधार की बात बराबर होती आ रही हैचुनाव आयोग भी दबी जुबान से इनका उल्लेख करता है। परंतु सुधार संबंधित सभी संस्तुतियों को अंत में नकार दिया जाता है। और नकारा भी क्यों न जाएआपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों की संख्या हमारी संसद और विधानसभाओं में बराबर बढ़ती जा रही है। यह लोग अपने पैर पर कुल्हाड़ी क्यों मारेंगेएसोसिएशन फार डेमोक्त्रेटिक रिफार्म्स ने हाल में कुछ आंकड़े प्रसारित किए हैं। इनके अनुसार लोकसभा के 162 यानी 30 फीसद सदस्यों पर आपराधिक मुकदमे दर्ज हैं और इनमें से14 फीसद पर गंभीर मुकदमे हैं। राच्यसभा में 232 में से 40 यानी 17 फीसद की पृष्ठभूमि आपराधिक है और इनमें से 16 यानी 7 प्रतिशत गंभीर मामले हैं। राच्य विधानमंडलों में 4032 में1258 यानी 31 फीसद पर मुकदमे दर्ज हैंजिनमें 15 फीसद पर गंभीर मामले हैं। जिस दिन यह आंकड़े 50 फीसद के पास पहुंच जाएंगे उस दिन भारत को अंतरराष्ट्रीय समुदाय एक आपराधिक राच्य का दर्जा देगा और हमारी गिनती नाइजीरिया जैसे देशों के साथ होगी। उस स्थिति की कल्पना करके किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का सिर शर्म से झुक जाएगापरंतु सच्चाई यह है कि हम उसी दिशा में बढ़ते जा रहे हैं। 1भला हो देश की न्यायपालिका काभला हो देश के केंद्रीय सूचना आयोग का कि उन्होंने राजनीतिक कचरा साफ करने का कुछ प्रयास किया। सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में एक फैसला दिया कि संसद और विधानसभा के जो भी सदस्य अदालत द्वारा दोषी करार दिए जाते हैं उन्हें अपनी सीट से हाथ धोना पड़ेगा। इसी तरह जो सदस्य जेल में किसी मामले में सजा काट रहे हैंवह चुनाव प्रक्त्रिया में नहीं शामिल हो सकेंगे। केंद्रीय सूचना आयोग ने भी यह फैसला दिया कि राजनीतिक दल सार्वजनिक संस्थाएं हैंइसलिए वे सूचना कानून की परिधि में आते हैं। इस फैसले से हमारे नेता वर्ग में खलबली मच गई। बड़े अफसोस की बात यह है कि सभी राजनीतिक दल एकजुट होकर इन फैसलों का विरोध कर रहे हैं। सिंदबाद की कहानी की तरह अच्छी छवि के नेताओं की गर्दन पर आपराधिक पृष्ठभूमि के नेता सवार हैं। सिंदबाद ने तो अपने गर्दन पर सवार आदमी को जैसे-तैसे गिरा दिया था। क्या स्वच्छ छवि के नेता ऐसा कुछ कर पाएंगेफिलहाल तो ऐसा कुछ संकेत नहीं दिख रहा है। 1कांग्रेससमाजवादी पार्टीबहुजन समाज पार्टीभारतीय जनता पार्टी सहित देश के तमाम राजनीतिक दल अपने दागी नेताओं को बचाने के लिए एकजुट हो गए हैं। केंद्र सरकार भी सुप्रीम कोर्ट के उस आदेश को निष्प्रभावी बनाने के लिए तैयार हो गई है जिसके अंतर्गत जेल जाने या सजा होने पर नेताओं के चुनाव लड़ने पर रोक लगाई गई थी। इतना ही नहीं,राजनीतिक दलों को सूचना के अधिकार यानी आरटीआइ कानून के दायरे से बाहर रखने के लिए भी सरकार राजी हो गई है। संशोधित विधेयक संसद के मानसून सत्र में ही पेश किए जाएंगे। देश की जनता हतप्रभ है। लोकपाल बिल नौ बार लोकसभा में पेश हुआपरंतु आज तक पारित नहीं हुआ, 42 साल बीत गए। महिला आरक्षण का बिल बार-बार संसद में आता हैपर पास नहीं हो पाता। काले धन पर रोक की चर्चा होती हैपर रोकने के लिए कोई प्रभावी कदम नहीं उठाया जाता। राष्ट्रीय सुरक्षा के मुद्दे पर तो बहस भी नाममात्र को होती है। कहने का मतलब यह है कि महत्वपूर्ण विषयों से संबंधित विधेयक पर तो सहमति नहीं बन पातीपरंतु संसद और विधानसभा में आपराधिक पृष्ठभूमि के व्यक्तियों को बचाने के मुद्दे पर सारे राजनीतिक दलों में अभूतपूर्व एकता दिख रही है। यह कैसी संसद हैयह कैसे जनप्रतिनिधि हैंआज देश में ध्रुवीकरण की बात सुनने में आती है। एक नया ध्रुवीकरण भी हो रहा है जिसे हमारे नेताओं को समझना होगाइसमें एक तरफ तो देश के नेता हैं और उनके समर्थन में भ्रष्ट प्रशासनिक व्यवस्था है। दूसरी तरफ न्यायपालिका और देश का जनमानस है। न्यायपालिका की तारीफ करनी पड़ेगी कि वह जनता की तकलीफों को समझ रही है और तदनुसार आदेश पारित करती हैपरंतु हमारे सत्ताधारी नेताओं ने अपनी आंखों में स्वार्थ की पट्टी बांध ली है। ऐसे में देश के भविष्य के बारे में चिंता और निराशा,दोनों होती है। उपरोक्त ध्रुवीकरण का एक नजारा उत्तार प्रदेश में देखने को आ रहा हैजहां एक ईमानदार आइएएस अधिकारी को इसलिए निलंबित कर दिया गया कि उसने माफिया गिरोहों से मोर्चा लिया। 1प्रदेश सरकार तरह-तरह की दलील दे रही है कि सांप्रदायिक स्थिति न बिगड़े इसलिए ऐसा किया गयापरंतु जमीन से जुड़े सभी लोग जानते हैं कि यह एक लचर दलील है जिसका सच्चाई से कोई लेना-देना नहीं। स्थानीय अधिकारियों की रिपोर्ट से यह भी स्पष्ट हो गया है कि दीवार स्थानीय लोगों ने ही गिराई थी और क्षेत्र में कोई सांप्रदायिक तनाव था ही नहीं। इस प्रकार की लड़ाई अब बढ़ती ही जाएगी। एक तरफ अपराधी और उनके समर्थकों की कौरवी सेना होगी और दूसरी तरफ बचे-खुचे ईमानदार व्यक्तिजिन्हें न्यायपालिका और समाज में शुचिता के आकांक्षी लोगों का समर्थन हासिल है। यह स्थिति किसी के लिए अच्छी नहीं होगी। अच्छा होता यदि हमारे राजनेता अपने स्वार्थ से ऊपर उठकर समाज की प्रगतिसमुदायों में सद्भाव और देश की उन्नति के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाते।

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