सोमवार, 12 अगस्त 2013

50 सालों में गायब हुईं 220 भाषाएं

पिछले पांच दशकों में देश की करीब 20 फीसदी भाषाएं विलुप्त हो गई हैं। वड़ोदरा के भाषा रिसर्च ऐंड पब्लिकेशन सेंटर द्वारा कराए गए एक सर्वे से यह निष्कर्ष सामने आया है। 1961 में देश में 1100 भाषाएं थीं, जिनमें से करीब 220 खत्म हो गई हैं। गायब होने वाली भाषाएं देश में फैले घुमंतू समुदायों की हैं। बंजारे, आदिवासी या अन्य पिछड़े समाजों की भाषा पूरे विश्व में लगातार नष्ट होती गई है। यह आधुनिकता की सबसे बड़ी विडंबना है।

ताकतवर देशों ने जहां-जहां अपने उपनिवेश बनाए, वहां अपनी भाषा-संस्कृति थोपी। आज पूरे लैटिन अमेरिका की भाषा स्पैनिश हो गई है। उसके मूल निवासी अपनी मातृभाषा भूल चुके हैं। लेकिन यह कोशिश दूसरे स्तरों पर भी हुई है। एक ही देश में सामाजिक-राजनीतिक रूप से मजबूत वर्ग एक कॉमन कल्चर को प्रचारित करता है और उसे एक तरह से अनिवार्य बना डालता है। इसके जरिए वह अपना दबदबा बनाए रखने की कोशिश करता है। उसकी भाषा के जरिए ही रोजी-रोजगार और सम्मान प्राप्त होता है, इसलिए अपने सर्वाइवल के लिए संघर्ष कर रहा समुदाय मुख्यधारा में अपनी थोड़ी सी जगह बनाने के लिए अपनी मूल भाषा छोड़कर उस भाषा को अपना लेता है। फिर धीरे-धीरे उसकी भाषा ही खत्म हो जाती है।


वर्चस्ववाद की यह प्रवृत्ति आज भूमंडलीकरण में दिखाई दे रही है। इसका मकसद पूरे विश्व में एक तरह की संस्कृति स्थापित करना है, ताकि दुनिया भर में एक जैसा उपभोक्ता वर्ग तैयार किया जा सके। अंग्रेजी के जरिए यह कार्य हो रहा है। इसलिए आज हिंदी समेत अन्य भारतीय भाषाओं पर भी खतरा पैदा हो गया है। याद रखना चाहिए कि एक भाषा के साथ एक संस्कृति, एक खास तरह का अनुभव संसार और विचार भी मर जाता है। एक भाषा के साथ दुनिया बहुत कुछ खो देती है, जिसका अहसास तत्काल नहीं हो पाता। शायद इसलिए प्रख्यात बुद्धिजीवी बेनेडिक्ट एंडरसन का कहना है कि एक सच्चे कॉस्मोपॉलिटन समाज को बहुभाषी होना चाहिए, यानी उसमें एक साथ कई भाषाओं का चलन हो। अगर हम चाहते हैं कि दुनिया सबके जीने लायक बने तो इसकी विविधता का सम्मान करना होगा और हर तरह की भाषाओं को बचाने का प्रयास करना होगा।

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