देश
में बदलते सामाजिक-आर्थिक और आबादी संतुलन के साथ वृद्धजनों के रहन-सहन की दशाएं
भी चुनौतीपूर्ण होती जा रही हैं। चिकित्सा विज्ञान की तरक्की के साथ देश के आम
नागरिक के जीवनकाल में महत्वपूर्ण वृद्धि हुई है। एक तरफ यह खुशी की बात है लेकिन
दूसरी दुख की भी बात है। जैसे-जैसे व्यक्ति का जीवनकाल बढ़ रहा है वैसे-वैसे
वृद्धजनों की समस्याएं भी बढ़ती जा रही हैं। 2011 की जनगणना के
आंकड़ों के विश्लेषण से पता चलता है कि भारत में वृद्धजनों की आबादी 10
करोड़ से अधिक हो चुकी है।
वृद्धजनों
को परिवार के सहारे और देखभाल की जरूरत होती है लेकिन संयुक्त परिवार प्रथा के
बजाय अकेले परिवारों के चलन और निरंतर प्रवास के कारण खासतौर से शहरी क्षेत्रों
में वृद्ध जनों को अकलेपन का सामना करना पड़ता है। भावनात्मक, सामाजिक,
वित्तीय,
चिकित्सीय
और कानूनी ढांचा नाजुक होता जा रहा है और इसलिए वृद्धजनों को उनके मानवाधिकारों से
निरंतर वंचित रखा जाता है।
मानवाधिकार
लोगों का हक है क्योंकि वे मनुष्य हैं। वृद्धजनों (महिला और पुरुष) को भी किसी
अन्य व्यक्ति की तरह समान अधिकार हासिल हैं। बुढ़ापे की ओर कदम बढ़ाने पर व्यक्ति के
मानव अधिकार कम नहीं हो जाते। हालांकि व्यवहार में किसी भी अंतर्राष्ट्रीय कानून
में आज वृद्धजनों के मानव अधिकारों को कोई उल्लेख नहीं मिलता।
परिवार
के सहारे और देखभाल के अभाव में वृद्धजनों में सुरक्षा की भावना विलुप्त हो रही
है। यह स्थिति उनके जीवन को दिन प्रति दिन दर्दनाक और असुरक्षित बना रही है। देश
में अत्यधिक औद्योगिकीकरण और वाणिज्यिक क्षेत्रों के कारण अधिकांश वृद्धजन खुद को
अलग-थलग पाते हैं। जीवन के हर स्तर पर आयु संबंधी जरूरतों से उन्हें वंचित रखा
जाता है। आबादी में उनका हिस्सा बढ़ने के बावजूद समाज उन पर उचित ध्यान नहीं दे रहा
है।
वृद्धजनों
के मानव अधिकार
- जीने का अधिकार को कानून की सुरक्षा दी जाए
- अमानवीय बर्ताव से सुरक्षा का अधिकार दिया जाए
- स्वतंत्रता और व्यक्तिगत सुरक्षा का अधिकार
- प्रत्येक वृद्ध को निष्पक्ष एवं सार्वजनिक सुनवाई के अधिकार का हक
- नागरिक अधिकार एवं दायित्व -
- घर, परिवार और निजी जीवन में आदर का अधिकार
- विचार और चेतना की आजादी का अधिकार
- भेदभाव से सुरक्षा का अधिकार
- संपत्ति का अधिकार
वृद्धजनों
को ये अधिकार दिलाने के लिए एजवेल फाउंडेशन ने एक सर्वेक्षण और शोध अध्ययन किया।
इस सर्वेक्षण में वृद्धजनों के मानव अधिकारों के बारे में आम सोच की जानकारी जुटाई
गई। वृद्धजनों के मानवाधिकार बहुत व्यापक शब्द है जो बुढ़ापे से जुड़े अनेक कारकों
से निर्धारित होते हैं। वृद्धजनों में सुरक्षा के स्तर का आकलन करना भी इस
सर्वेक्षण का मकसद था। इसके लिए समर्पित, अनुभवी और काबिल स्वयंसेवकों का चयन
किया गया। इसके लिए स्वयंसेवकों को पर्याप्त दिशानिर्देश, निर्देश और
प्रशिक्षण भी उपलब्ध कराया गया। सर्वेक्षण में सभी आयुवर्गों के 32,100
लोगों से बातचीत की गई। इंटरनेट, फोन और व्यक्तिगत माध्यम के जरिए जुलाई
और अगस्त, 2013 में यह सर्वेक्षण किया गया।
कुल
32,100 लोगों में से 52 प्रतिशत अर्थात 16,748
महिलाएं थी जबकि शेष 47.8 प्रतिशत पुरुष थे। इनमें 20.6
प्रतिशत दिल्ली और एनसीआर के तथा 79.4 प्रतिशत शेष भारत के थे। सर्वेक्षण
में शामिल 49.4 प्रतिशत शहरी क्षेत्रों के और 50.6
प्रतिशत ग्रामीण क्षेत्रों के थे। 46.2 प्रतिशत निजी क्षेत्र में काम कर रहे
थे जबकि 44 प्रतिशत विद्यार्थी थे। 4.1 प्रतिशत का अपना काम था और 2.9
प्रतिशत कारोबारी गतिविधियों से जुड़े थे जबकि 2.7 प्रतिशत सरकारी
नौकरी कर रहे थे। इस तरह सर्वेक्षण में विभिन्न वर्ग और विविध रोजगार एवं सामाजिक परिस्थिति
के लिहाज से विविध प्रकार के लोगों से सपंर्क किया गया।
सर्वेक्षण
से बड़ी दिलचस्प मगर आंखे खोलने वाली जानकारी सामने आई। 2,720 यानी 8.5
प्रतिशत लोग रोजाना अपने बड़े-बूढ़ों से बात नहीं करते। 23.2 प्रतिशत सिर्फ 1
वृद्धजन से रोजाना बात करते हैं जबकि 32.2 प्रतिशत रोज 2 वृद्धजनों से
बात करते हैं। 15.4 प्रतिशत रोज 3 वृद्धजनों से
बात करते हैं जबकि 20.7 प्रतिशत ने कहा कि वे रोज 3
वृद्धजनों से बात करते हैं। लेकिन जब उनसे पूछा गया कि किस तरह की बात करते हैं तो
82.8 प्रतिशत ने बताया कि वे व्यक्तिगत रूप से वृद्धजनों से मिलने जाते
हैं। हर छठा व्यक्ति अर्थात 17 प्रतिशत लोग फोन से ही वृद्धजनों से
बात करते हैं। सिर्फ 48 प्रतिशत ने कबूल किया कि वे वृद्धजनों से ईमेल
से संपर्क में रहते हैं जबकि 32,100 में से सिर्फ 12 लोगों ने बताया
कि वे अपने परिवार में वृद्धजनों को पत्र लिखते हैं।
44.9
प्रतिशत लोगों ने बताया कि वे विभिन्न मुद्दों पर अपने वृद्धजनों से अकसर सलाह
लेते हैं। इनमें उन्होंने रिश्तों, पारिवारिक मामलों, स्वास्थ्य,
करियर,
कानूनी
मामलों इत्यादि के बारे में सलाह लेने की बात स्वीकार की। करीब आधे लोगों ने कहा
कि वे अकसर अपने बड़ों से सलाह लेते हैं। सिर्फ 3.2 प्रतिशत ने कहा
कि अब तक उन्होंने अपने जीवन में वृद्धजनों की सलाह कभी नहीं ली।
सर्वेक्षण
में वृद्धजनों के बारे में आम धारणा का पता चला। 84.9 प्रतिशत लोगों
ने स्वीकार किया कि वृद्धजन सेवानिवृत्त होने के बाद भी सार्थक साबित होते हैं।
लेकिन इनमें से 43.8 प्रतिशत इस धारणा से पूरी तरह असहमत थे। वे
मानते हैं कि सेवानिवृत्त होने के बाद व्यक्ति कुछ काम का नहीं रहता।
दरअसल
85 प्रतिशत लोग मानते हैं कि वृद्धजन सेवानिवृत्त होने के बाद भी कमा
सकते हैं। इससे पता चलता है कि लोग सेवानिवृत्ति को फिजूल मानते हैं और वह सिर्फ
आयु तक ही सीमित नहीं है। करीब तीन चौथाई लोग मानते हैं कि वृद्धजनों को नशे के
आदि लोगों की श्रेणी में नहीं रखना चाहिए। हर चौथे व्यक्ति ने माना कि घर में
वृद्धजनों का आदर गायब होता जा रहा है। आधे से अधिक लोग मानते हैं कि काम के दौरान
वृद्धजनों के साथ भेदभाव किया जाता है। लेकिन कुछ लोग इसे सिर्फ आयु से नहीं
जोड़ते। उनका मानना है कि इसके और भी कारण हो सकते हैं। अधिसंख्य लोग मानते हैं कि
सरकार और समाज वृद्धजनों की मदद नहीं करते ताकि वे अपने जीवनयापन के लिए कुछ कमा सकें।
करीब 60 प्रतिशत मानते हैं कि वृद्धजनों के साथ वित्तीय धोखाधड़ी होने की
आशंका होती है।
आम
लोगों की सोच है कि वृद्धजनों के लिए सामाजिक सुरक्षा योजनाएं पर्याप्त नहीं हैं।
अधिकांश लोग यह भी मानते हैं कि वृद्धजनों के लिए पर्याप्त कानून नहीं हैं।
सर्वेक्षण
का निष्कर्ष यह है कि वृद्धजनों को हमारे देश में समाज का सर्वाधिक आदरणीय सदस्य
माना जाता है लेकिन जब व्यक्तिगत बर्ताव की बात आती है तो उनके साथ इसके विपरीत
बर्ताव किया जाता है। युवा पीढ़ी बुढ़ापे से जुड़े मुद्दों के प्रति संवेदनशील नजर
आती है लेकिन विभिन्न कारणों से अपने वृद्धजनों के साथ बात नहीं करते। समाज में
वृद्धजनों की विशेष जरूरतों और अधिकारों के बारे में जागरूकता तो बहुत अधिक है
लेकिन वे व्यवहारिक रूप से इस जागरूकता का इस्तेमाल वृद्धजनों की वास्तविक सहायता
करने में खुद को असमर्थ पाते हैं। व्यक्ति का जीवन काल लंबा होने के कारण
सेवानिवृत्ति के बाद आय के साधनों के अवसर उपलब्ध कराना बहुत आवश्यक है।
वृद्धजनों
के मानवाधिकारों का देश में आदर किया जा रहा है लेकिन हालात बड़ी तेजी से बदल रहे
हैं और वृद्धजनों के मानवाधिकारों के उल्लंघन की घटनाएं अब सामने आने लगी हैं।
वृद्धजनों के साथ लोग अकसर बात करते हैं लेकिन पुरानी और युवा पीढ़ी के बीच फासला
बढ़ता जा रहा है क्यांकि परिवार में उनका रिश्ता मजबूत नहीं है। वृद्धजन
सेवानिवृत्ति के बाद भी कमा सकते हैं लेकिन उनके लिए काम के अवसर नहीं हैं। लोग
उन्हें बहुत अनुभवी, ज्ञानवान और बुद्धिमान मानते हैं लेकिन उनके
प्रदर्शन पर संदेह करते हैं। बूढ़ा तो एक दिन सबको होना है इसलिए वृद्धजनों को
आदरणीय श्रेणी में वर्गीकृत किया जाना चाहिए। विभिन्न कारणों से अधिकांश वृद्धजन
खुद को असुरक्षित महसूस करते हैं। संयुक्त परिवार प्रणाली का टूटना इसका मुख्य
कारण है।
वृद्धजनों
के साथ भेदभाव होना आम बात है लेकिन वे शायद ही कभी इसकी शिकायत करते हैं और इसे
सामाजिक परिपाटी मानते हैं। इस भेदभाव से सुरक्षा के बारे में वे बहुत कम जागरूक
होते हैं। भारत में सरकार को वृद्धजनों की सामाजिक सुरक्षा योजनाओं पर ध्यान देना
चाहिए और साथ ही समाज को भी इसकी कुछ व्यवस्था करनी चाहिए ताकि वृद्धजन
परेशानीमुक्त जीवन जी सकें। लोगों में वृद्धजनों के लिए कानूनी प्रावधानों की
जानकारी बढ़ रही है लेकिन अब भी कुछ लोगों को कानूनी प्रणाली पर संदेह है। बुढ़ापे में
स्वास्थ्य देखभाल सबसे अधिक जरूरी है इसलिए इस बारे में सरकार और अन्य संबंधित
हितधारकों को तुरंत कदम उठाने चाहिए। देश में वृद्धजनों के मानव अधिकारों का आदर
किया जा रहा है लेकिन स्थिति बहुत तेजी से बदल रही है और वृद्धजनों के
मानवाधिकारों के उल्लंघन एवं उनके साथ दुर्व्यवहार की घटनाएं बढ़ रही हैं।
आवश्यकता
इस बात की है किपरिवार में आरंभ से ही बुजर्गों के प्रतिअपनेपन का भाव विकसित
किया जाए। बच्चों में इस भाव को जगाने के साथ-साथ स्वयं भी इस बात को याद रखें
किआप वृद्धावस्था में अपने साथ कैसा व्यवहार चाहते हैं, वही अपने घर-परिवार
के व समाज के वृद्धों के साथ करें। बच्चों को भी यही संस्कार दें। विश्व में
भारत ही ऐसा देश है जहां आयु को आशीर्वाद व शुभकामनाओं के साथ जोड़ा गया है।
जुग-जुग जिया, शतायु हो.......जैसे आर्शीवचन आज भी सुनने को
मिलते हैं। ऐसे में वृद्धजनों की स्थितिपर नई सोच भावनात्मक सोच विकसित
करने की जरूरत है ताकिहमारे ये बुजुर्ग परिवार व समाज में खोया सम्मान पा सकें
और अपनापन महसूस कर सकें ।
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