बुधवार, 14 अगस्त 2013

स्वदेशी तकनीक से आगे बढ़ती नौसेना

भारतीय नौसेना ने एक बड़ी कामयाबी हासिल करते हुए अपनी पनडुब्बी आईएनएस अरिहंत के परमाणु रिएक्टर को सक्रिय कर दिया है। यह भारत में ही बनाई और डिजाइन की गई देश की पहली परमाणु पनडुब्बी है। ज़मीन और आकाश के बाद अब पानी के भीतर से परमाणु युद्ध करने की भारत की क्षमता को पूरा करने की दिशा में यह एक बड़ा कदम है। असल में पानी के अंदर परमाणु हमला करने की क्षमता किसी भी परमाणु देश के सामरिक हितों के लिए बहुत ज़रूरी है क्योंकि परमाणु हमला होने की स्थिति में पलटवार करने के लिए पानी के भीतर के हथियार सुरक्षित रहते हैं। पानी के भीतर होने के कारण दुश्मन पर किसी भी अनजान जगह से परमाणु हमला किया जा सकता है।

नौसेना और रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन के संयुक्त प्रयासों से आईएनएस अरिहंत का 83 मेगावाट रिएक्टर सैकड़ों परीक्षणों के दौर से गुजरने के बाद सफलतापूर्वक चालू हो गया है। समुद्र में उतारे जाने के बाद आईएनएस अरिहंत के संचालन संबंधी परीक्षण होंगे। ये परीक्षण 18 महीने तक चलेंगे। नौसेना की सेवा में शामिल होने के बाद यह भारत की दूसरी परमाणु पनडुब्बी बन जाएगी। पिछले साल ही रूस निर्मित परमाणु क्षमता युक्त पनडुब्बी आईएएनएस चक्र-2 को नौसेना में शामिल कर लिया गया था। मूल रूप से के-152 नेरपा नाम से निर्मित अकुला-2 श्रेणी की इस पनडुब्बी को रूस से एक अरब डॉलर के सौदे पर 10 साल के लिए लिया गया है। आईएनएस अरिहंत और आईएनएस चक्र की मौजूदगी से हिन्द महासागर में सामरिक स्थिरता के साथ-साथ भारतीय सामरिक और आर्थिक हितों की सुरक्षा सुनिश्चित होगी।

भारतीय रक्षा अनुसंधान संगठन ने अरिहंत पर तैनात करने के लिए मध्यम दूरी का परमाणु प्रक्षेपास्त्र बीओ-5 भी तैयार किया है, जो 700 कि.मी. तक हमला कर सकता है। इसकी 3500 कि.मी. तक मारक क्षमता विकसित करने पर काम चल रहा है। इसका आखिरी परीक्षण 27 जनवरी को विशाखापत्तनम के तट पर किया गया था। दुनिया के गिने-चुने देश ही अभी तक परमाणु पनडुब्बी बना सके हैं। इनमें अमेरिका, चीन, फ्रांस, रूस और ब्रिटेन शामिल हैं। इस तरह भारत दुनिया का छठा देश होगा। भारत पिछले छह दशक के दौरान अपनी अधिकांश सुरक्षा जरूरतों की पूर्ति दूसरे देशों से हथियारों को खरीदकर कर रहा है। वर्तमान में हम अपनी सैन्य जरूरतों का 70 फीसदी हार्डवेयर और सॉफ्टवेयर आयात कर रहे हैं। जहाजों और पनडुब्बियों के वर्तमान और भावी ऑर्डरों को देखते हुए ऐसा लगता है कि इस प्रवृत्ति पर रोक लगाने के लिए मजबूत कदम नहीं उठाये गए तो भविष्य में भी हमारी आयात पर निर्भरता बनी रहेगी।

चीन के पास इस समय 3 परमाणु पनडुब्बियों समेत करीब 50 से 60 पनडुब्बियां हैं जबकि भारत के पास 12 पनडुब्बियां हैं। देश की पहली स्वदेशी परमाणु पनडुब्बी अरिहंत का परिचालन कुछ समय बाद शुरू हो पायेगा। इसी तरह फ्रांस के सहयोग से बन रही 6 परंपरागत स्कॉर्पियन पनडुब्बियां वर्ष 2020 तक ही मिल पाएंगी। देश में नौसैनिक ताकत को मजबूत करने के लिए सरकारी रक्षा ढांचा ठीक करने के साथ-साथ पश्चिमी देशों के साथ समन्वय कर नवीनतम तकनीकों का हस्तांतरण तथा रक्षा उपकरणों को खरीदने में व्याप्त लालफीताशाही को खत्म किया जाना चाहिए। आईएएनएस चक्र के मामले में भी काफी देर हुई क्योंकि भारत ने यह पनडुब्बी किराए पर लेने के लिए वर्ष 2004 में रूस के साथ 90 करोड़ डॉलर का करार किया था। इसे कुछ साल पहले नौसेना में शामिल किए जाने की उम्मीद थी, लेकिन व्यवस्थागत कमियों के कारण इसकी आपूर्ति का समय बदल गया।

निश्चित ही भारतीय नौ सेना के हौसले बुलंद हैं और उसकी गिनती दुनिया की श्रेष्ठ नौसेनाओं में की जा सकती है। फिर भी पिछले सालों के दौरान नौसेना की ताकत बढ़ाने के लिए क्या पर्याप्त संसाधन उपलब्ध कराए गए हैं? रक्षा सौदों में घोटालों और भ्रष्टाचार के मामले आने के बाद सेना के लिए हथियारों तथा अन्य साधनों की खरीद, उत्पादन और उपलब्धता में कमी आई है। सैन्य मामलों की धीमी गति के कारण सेनाओं के पास संसाधनों की कमी बढ़ती जा रही है। रक्षा बजट में हर साल बढ़ोतरी हुई, लेकिन नौसेना को पूरा लाभ नहीं मिल पाया क्योंकि नौसेना के बजट का अधिकांश हिस्सा संसाधनों के इंतजाम पर लग जाता है।

वास्तव में भारत ने समुद्र में दुश्मन को रोकने में बेहद कारगर समझी जाने वाली पनडुब्बियों के विकास और आधुनिकीकरण पर ज्यादा ध्यान नहीं दिया है। देश की वर्तमान पनडुब्बियां बहुत पुरानी हैं और उन्हें आधुनिक बनाए जाने की सख्त जरूरत है। 1980 के दशक में जर्मनी के साथ शुरू की गई एचडीडब्ल्यू पनडुब्बी निर्माण योजना को भारत सरकार ने रद्द करके बहुत बड़ी गलती की थी, जबकि उस परियोजना पर करीब 15 करोड़ डॉलर खर्च किए जा चुके थे। पनडुब्बी एक ऐसा हथियार है, जो दुश्मन की नौसेना की निगाह में आए बिना ही उनके जंगी जहाजों, विमानवाहक पोतों और ज़मीनी ठिकानों को तबाह कर सकता है। मिसाइल और विमान दोनों ही हमला होने की सूरत में पकड़े जा सकते हैं, लेकिन समुद्र के अंदर रहने वाली पनडुब्बी जवाबी हमला करने में बेहद कारगर होती है। भारत की नौसेना अपनी समुद्री सीमा की रक्षा करने में पूरी तरह सक्षम है लेकिन समुद्री क्षेत्र के बढ़ते हुए महत्व के मद्देनजर इसे और सशक्त बनाए जाने की जरूरत है।

सुरक्षा मामलों में देश को आत्मनिर्भर बनाने में सरकार और एकेडमिक जगत की भी बराबर की साझेदारी होनी चाहिए। स्वदेशीकरण के साथ-साथ हमें तकनीक हस्तांतरण पर भी जोर देना चाहिए। इसके लिए मध्यम और लघु उद्योगों की नौसेना के आधुनिकीकरण व स्वदेशीकरण में अहम भूमिका हो सकती है। पिछले साल करीब 50 हज़ार करोड़ रुपये का खर्च हथियारों के आयात और रखरखाव पर किया गया। इसमें ज्यादातर विदेशी हथियार कंपनियों को गया। अब तक भारत के रक्षा खर्च से विदेशों को ही फायदा होता रहा है लेकिन अब यह फायदा भारतीय उद्योग को मिले इसलिए इस पर स्पष्ट और दूरगामी रणनीति बहुत आवश्यक है।


2008 में मुंबई हमलों से सबक लेते हुए भारतीय नौसेना को देश के तटीय और समुद्री सुरक्षा ढांचे में व्यापक फेरबदल के लिए अत्याधुनिक उपकरणों की जरूरत है। पिछले दिनों इस पर रामराव समिति ने सिफारिश की थी कि डीआरडीओ को केवल 10 से 12 सामरिक महत्व की प्रौद्योगिकी पर ध्यान देना चाहिए और दूसरे छोटे कामों से बचना चाहिए। देश की रक्षा जरूरतों पर विदेशी निर्भरता खत्म करने के लिए हमें खुद की औद्योगिक सैन्य संस्कृति विकसित करनी होगी।

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