भारत
प्रभुसत्तासंपन्न, समाजवादी, धर्मनिरपेक्ष लोकतांत्रिक
गणराज्य है। लोकतंत्र भारत के संविधान की कभी दूर न होने वाली बुनियादी विशेषताओं
में से एक है तथा यह इसकी बुनियादी संरचना का अंग है (केसवानंद भारती बनाम केरल
राज्य और अन्य एआइआर 1973 एससी 1461)। लोकतंत्र की परिकल्पना
(जैसे कि संविधान में परिकल्पित की गई है)चुनाव की विध से संसद और राज्य
विधायिकाओं में जनप्रतिनिधित्व की पूर्व कल्पना करती है (एन पी पुन्नूस्वामी बनाम
रिटर्निंग अधिकारी एआइआर 1952 एससी 64)। लोेकतंत्र के बने रहने
के लिए कानून के शासन को बने रहना चाहिए तथा यह आवश्यक है कि बेहतरीन उपलब्ध
व्यक्ति देश के समुचित शासन के लिए जनप्रतिनिधि के रूप में चुने जाने चाहिए (गदख
यशवंतराव कंकाराव बनाम बालासाहेब विखेपाटील एआइआर 1994 एससी 678)। और जन प्रतिनिधि के रूप
में बेहतरीन उपलब्ध व्यक्तियों के चुने जाने के लिए चुनाव ऐसे वातावरण में
स्वतंत्र और निष्पक्ष कराए जाने चाहिए जहां निर्वाचक अपनी स्वतंत्र इच्छा के
अनुसार अपने वोट का इस्तेमाल करने में समर्थ हों। इस प्रकार स्वतंत्र और निष्पक्ष
चुनाव लोकतंत्र की रीढ़ का निर्माण करते हैं।
भारत
ने सरकार बनाने के लिए ब्रिटिश संसदीय प्रणाली अपनाई है। हमारे यहां निर्वाचित
राष्ट्रपति,
निर्वाचित
उपराष्ट्रपति,
निर्वाचित
संसद और हर राज्य के लिए निर्वाचित राज्य विधायिकाएं हैं। अब हमारे यहां निर्वाचित
नगरपालिकाएं,
पंचायतें
और अन्य स्थानीय निकाय भी हैं। इन कार्यालयों और निकायों के लिए स्वतंत्र और
निष्पक्ष चुनाव सुनिश्चित करने के लिए तीन पूर्वापेक्षाएं हैं - 1. इन चुनावों को कराने के
लिए एक प्राधिकरण जो राजनीतिक एवं कार्यकारी हस्तक्षेप से अलग होना चाहिए, 2. कानून जो चुनाव कराने को
शासित करें और उस प्राधिकरण के अनुरूप हों जिसे इन चुनावों को कराने के जिम्मेदारी
दी गई हो तथा 3. एक व्यवस्था जहां इन
चुनावों के संबंध में उत्पन्न सभी संदेह और विवाद निपटाए जाने चाहिएं।
भारत
के संवधिान में इन सभी अनिवार्यताओं पर उचित ध्यान दिया गया है तथा सभी तीनों
मामलों के लिए उचित रूप से उपाय उपलब्ध कराए गए हैं।
संविधान
ने भारत का स्वतंत्र निर्वाचन आयोग बनाया है जिसमें मतदाता सूची तैयार करने और
राष्ट्रपति,
उपराष्ट्रपति
, संसद और हर राज्य के लिए
राज्य विधायिकाओं के चुनाव कराने के पर्यवेक्षण, निर्देश और नियंत्रण निहित
है (अनुच्छेद 324)। ऐसे ही स्वतंत्र
संवैधानिक प्राधिकरण की रचना नगर पालिकाओं, पंचायतों और अन्य स्थानीय
निकायों के लिए की गई है। (अनुच्छेद 243 के और 243 जेडए)।
भारत
के संविधान में राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति , संसद और हर राज्य के लिए
राज्य विधायिकाओं के चुनाव के लिए कानून बनाने के लिए प्राधिकार संसद को दिया है
(अनुच्छेद 71
और
327)। नगर पालिकाओं, पंचायतों और अन्य स्थानीय
निकायों के लिए चुनाव कराने संबंधी कानून बनाने का दायित्व राज्य विधायिकाओं को
दिया गया है (अनुच्छेद 243 के और 243 जेडए)। राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति
के चुनाव संबंधी सभी संदेह और विवाद उच्चतम न्यायालय देखता है (अनुच्छेद 71) जबकि संसद और हर राज्य के
लिए राज्य विधायिकाओं के चुनाव संबंधी सभी संदेहों और विवादों के निपटारे का
प्रारंभिक न्यायाधिकार संबंधित राज्य के उच्च न्यायालय और उसके साथ उच्चतम
न्यायालय का है (अनुच्छेद 329) । नगरपालिकाओं इत्यादि के
चुनाव संबंधी विवादित मामलों का निर्णय संबंधित राज्य सरकारों के बनाए गए कानूनों
के अनुरूप निचली अदालतें करती हैं।
राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के चुनाव संबंधी
कानून राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति निर्वाचन अधिनियम 1952 के रूप में संसद ने बनाया
है। इस कानून के पूरक के रूप में राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति निर्वाचन नियम 1974 तथा उसके बाद सभी पहलुओं
में निर्वाचन आयोग के निर्देशों और अनुदेशों द्वारा पूरित किए गए हैं।
संसद
और राज्य विधायिकाओं के चुनाव कराना दो कानूनों के प्रावधानों से शासित होता है -
जनप्रतिनिधित्व कानून 1950 और जनप्रतिनिधित्व कानून 1951।
जनप्रतिनिधित्व
कानून 1950
मुख्य
रूप से निर्वाचक सूचियों की तैयारी और संशोधन संबंधी मामलों से संबंधित है। इस
कानून के प्रावधानों के पूरक के रूप में इस कानून की धारा 28 के तहत निर्वाचन आयोग के
परामर्श से केंद्र सरकार ने निर्वाचक पंजीकरण नियम 1960 बनाए हैं तथा ये नियम
निर्वाचक सूचियों की तैयारी, उनके आवधिक संशोधन और अद्यतन, पात्र नाम शामिल करने, कुपात्र नाम हटाने, विवरण इत्यादि ठीक करने
संबंधी सभी पहलुओं को देखते हैं। ये नियम राज्य की लागत पर फोटो सहित पंजीकृत
मतदाताओं के पहचान कार्ड के मुद्दे भी देखते हैं। ये नियम अन्य विवरण के अलावा
निर्वाचक के फोटो सहित फोटो निर्वाचक सूचियां तैयार करने के लिए निर्वाचन आयोग को
सशक्त भी बनाते हैं।
चुनावों
का वास्तविक आयोजन कराने संबंधी सभी मामले जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के प्रावधानों से शासित
हैं जो इस कानून की धारा 169 के तहत निर्वाचन आयोग के परामर्श से केंद्र
सरकार ने निर्वाचक पंजीकरण नियम 1961 से पूरित किए गए हैं। इस
कानून और नियमों में चुनाव आयोजित कराने के सभी चरणों ( चुनाव कराने की अधिसूचना
के मुद्दे,
नामांकन
पत्र दाखिल करने, नामांकन पत्रों की जांच, उम्मीदवार का नाम वापस
लेना,
चुनाव
कराना,
मतों
की गिनती और इस तरह घोषित परिणाम के आधार पर सदनों के गठन ) के लिए विस्तृत
प्रावधान किए गए हैं।
संविधान
द्वारा निर्वाचन आयोग में निहित चुनावों के पर्यवेक्षण, निर्देश और नियंत्रण आयोग
को ऐसे हालात से निपटने के लिए विशेष आदेश और निर्देश देने के लिए भी सशक्त बनाते
हैं जिनके लिए संसद द्वारा बनाए गए कानूनों में कोई प्रावधान नहीं किए गए हैं या
अपर्याप्त प्रावधान है। ऐसी रिक्ति को भरने का आदर्श उदाहरण निर्वाचन प्रतीक
(आरक्षण और आवंटन) आदेश 1968 का प्रवर्तन है जो
राष्ट्रीय और राज्य स्तर पर राजनीतिक दलों की मान्यता, उनके लिए चुनाव प्रतीक का
आरक्षण,
ऐसे
मान्यताप्राप्त दलों के अलग समूहों के बीच विवादों के समाधान और चुनाव पर सभी
उम्मदवारों को प्रतीक आवंटन संबंधित सभी मामले शासित करता है।
ऐसा
ही एक रिक्त क्षेत्र वह है जहां निर्वाचन आयोग राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के
मार्गदर्शन के लिए आदर्श आचार संहिता के प्रवर्तन में संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत अधिकारों का
इस्तेमाल करता है। आदर्श आचार संहिता अनोखा दस्तावेज है जो राजनीतिक दलों ने
चुनावों के दौरान अपने आचरण को शासित करने के लिए खुद ही तैयार किया है ताकि यह
सुनिश्चित हो सके कि चुनावों के दौरान सभी राजनीतिक दलों को समान अवसर उपलब्ध हों
तथा खासतौर से सत्तारुढ़ दल (दलों) को अपने उम्मीदवार के निर्वाचन संभावनाओं को
बढ़ाने के लिए आधिकारिक ताकत और आधिकारिक मशीनरी का दुरुपयोग करने से रोका जा सके।
चुनाव
के संबंध में या उससे उत्पन्न सभी संदेह और विवाद से जुड़े चुनाव बाद के सभी मामलों
का निपटारा भी जनप्रतिनिधित्व कानून 1951 के प्रावधानों के अनुरूप
किया जाता है। इस कानून के तहत ऐसे सभी संदेह और विवाद संबंधित राज्य के उच्च
न्यायालय के समक्ष उठाए जा सकते हैं लेकिन सिर्फ चुनाव होने के बाद ही ऐसा किया जा
सकता है तथा चुनाव प्रक्रिया के दौरान ऐसा नहीं किया जा सकता।
उक्त
उल्लेखित जनप्रतिनिधित्व कानून 1950 और 1951 तथा निर्वाचकों के
पंजीकरण्र नियम 1960 तथा चुनाव आयोजन नियम 1961 पूर्ण संहिता का निर्माण
करते है जो संसद के दोनों सदनों और राज्य विधायिकाओं के चुनाव संबंधी सभी मामले
देखता है। निर्वाचन आयोग या उसके तहत काम करने वाले किसी प्राधिकार के किसी निर्णय
से असंतुष्ट कोई व्यक्ति इन कानूनों और नियमों के अनुरूप राहत पा सकता है।
ये
कानून और नियम निर्वाचन आयोग को निर्वाचक सूचियों की तैयारी/संशोधन और चुनाव कराने
के विविध पहलुओं तथा आयोग के समक्ष आने वाले ऐसे सभी मामलों से निपटने के लिए
निर्देश और विनिर्देश जारी करने में समर्थ बनाते हैं। उनके अनुपालन में आयोग ने
अनेक निर्देश और विनिर्देश जारी किए हैं जो आयोग ने निर्वाचक पंजीकरण अधिकारियों, निर्वाचन अधिकारियों, पीठासीन अधिकारियों, उत्तीदवारों, पोलिंग एजेंट और मतगणना
एजेंटों के लिए विविध पुस्तकों में शामिल किए हैं।
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