बुधवार, 18 जून 2014

विरोध की आïवाज पर संदेह

पिछले दो दशकों में भारत में तेजी से गैरसरकारी संगठन यानी एनजीओ का फैलाव हुआ। पर्यावरण, स्वास्थ्य, शिक्षा, श्रमिकों के हित, महिला बाल कल्याण ऐसे तमाम क्षेत्रों में एनजीओ ने कार्य करना प्रारंभ किया और उसके काफी सकारात्मक परिणाम देखने मिले। जनहित के व्यापक दायित्व, जिन्हें पूरा करना प्राथमिक रूप से सरकार की जिम्मेदारी है, उसे एनजीओ ने साझा करना प्रारंभ किया। कहींझुग्गी-झोपड़ी या जगह-जगह घूम कर काम करने मजदूरों के बच्चों को शिक्षित किया, कहींस्वास्थ्य सुविधाएं उपलब्ध कराईं। बेसहारा और जरूरतमंद महिलाओं को अपने पैरों पर खड़े होने में मदद की, उन्हें उनके हुनर से आजीविका कमाना सिखाया, अनाथ या विकलांग बच्चों के लिए आश्रयघर बनाए। कई शालाओं में मध्याह्नï भोजन की व्यवस्था किसी एनजीओ ने कराई, तो कई जगह बच्चों के टीकाकरण का जिम्मा एनजीओ ने उठाया। कहींनदियों को बचाने की मुहिम छेड़ी तो कहींजंगल काटने का विरोध किया। एड्स और कैैंसर जैसी घातक बीमारियों के निदान, इलाज रोकथाम के लिए भी एनजीओ खासे सक्रिय रहे। दंगे, प्राकृतिक आपदा या अन्य किसी आपात स्थिति में भी एनजीओ सक्रिय भूमिका निभाते देखे गए हैं। देश में गठित छोटे-बड़े एनजीओ के अलावा कई विदेशी एनजीओ भी भारत में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से कार्यरत हैं। कई एनजीओ विदेशों से वित्तीय सहायता प्राप्त करते हैं, कुछ बड़े औद्योगिक घरानों की मदद से संचालित होते हैं। समाजसेवा के क्षेत्र में डिग्री हासिल कर, किसी गैरसरकारी संगठन के जरिए अपना भविष्य बनाने वाले युवाओं की अच्छी-खासी तादाद देश में हो गई है। बहुत से उच्चशिक्षित लोगों ने बड़े पद या नौकरियां छोड़ कर एनजीओ के माध्यम से समाजसेवा का बीड़ा उठाया। देश के गरीब, पिछड़े, सुविधाहीन, शोषित तबके के बड़े हिस्से को एनजीओ के कारण काफी राहत पहुंची। ऐसा कहा जाने लगा कि समाज के इस वर्ग में अभावों से उपजे गुस्से को उफान लेने से रोकने और सत्ता तंत्र तक उसकी आंच पहुंचे इसलिए एनजीओ को बढ़ावा दिया गया। एनजीओ के फैलाव से समाज में बहुत से लोगों की भृकुटियां भी तनींकि आखिर देखते-देखते इस वर्ग की ताकत इतनी बढ़ कैसे गई। विदेशों से मिलने वाली वित्तीय सहायता और उसके इस्तेमाल पर भी सवाल उठे। अब खुफिया ब्यूरो की एक रिपोर्ट में भी ऐसे ही कुछ सवाल उठाए गए हैं बल्कि यहां तक कहा गया है कि इनसे भारत को आर्थिक नुकसान हो रहा है।


आइबी ने विकास पर एनजीओ के प्रभाव नाम की अपनी रिपोर्ट में कहा कि देश में कई विकास परियोजनाओं का अच्छी खासी संख्या में गैर सरकारी संगठनों के विरोध का दो से तीन प्रतिशत तक आर्थिक वृद्धि पर नकारात्मक असर पड़ेगा। इसमें यह भी दावा किया गया कि कुछ एनजीओ और उनके अंतरराष्ट्रीय दानदाता गुजरात सहित कई नई आर्थिक विकास परियोजनाओं को निशाना बनाने की योजना बना रहे हैं। इस रिपोर्ट में पर्यावरण बचाव के लिए कार्य कर रही अंतरराष्ट्रीय संस्था ग्रीनपीस का नाम प्रमुखता से लिया गया है। यह सही है कि देश में कार्यरत सभी एनजीओ एकदम निस्वार्थ भाव से सेवा नहींकर रहे हैं और कईयों की कार्यप्रणाली वित्तीय प्रबंधन पर सवाल भी उठे हैं। कुछेक मामलों में यह भी देखा गया है कि स्थिति का गलत ब्यौरा देकर विदेशों से धन की भारी सहायता ली गई और जरूरतमंदों तक उसे पहुंचाने की जगह अपनी जेबें गर्म की गईं। इसके बावजूद आईबी की रिपोर्ट को आंख मूंदकर सही नहींमाना जा सकता। जीडीपी में दो-तीन प्रतिशत की कमी एनजीओ के कारण हो रही है, इसका आकलन आईबी ने किस आधार पर किया है, इसका कोई पुख्ता प्रमाण अब तक नहींदिया गया है। आर्थिक विकास परियोजनाओं का विरोध होने से देश को नुकसान होगा, यह एक तात्कालिक अनुमान हो सकता है, किंतु इन विकास परियोजनाओं से जो दीर्घकालिक हानि होगी, उसका आकलन भी किया जाना जरूरी है। रिपोर्ट में क्या है, इसका विश्लेषण होने के साथ-साथ यह जानना भी जरूरी है कि रिपोर्ट का मकसद क्या है। एनजीओ के द्वारा गरीब या शोषित तबके को अगर विरोध की आवाज उठाने की शक्ति मिली है, तो इसका नुकसान किस वर्ग को उठाना पड़ेगा, यह देखना जरूरी है। यह माना जा रहा है कि कार्पोरेट घराने अपनी तथाकथित विकास परियोजनाएं बिना किसी विघ्न-बाधा के संपन्न करना चाहते हैं और इसमें किसी भी किस्म का विरोध उन्हें रास नहींआता। इसलिए वे एनजीओ पर अंकुश लगाना चाहते हैं। अगर सरकार आईबी की इस रिपोर्ट को स्वीकार कर उस आधार पर कार्रवाई करती है तो मात्र एनजीओ पर ही लगाम नहींकसेगी, लोकतंत्र में विरोध की आवाज उठाने की बहुतेरी संभावनाएं भी कुंठित होगी। सफल लोकतंत्र के लिए यह घातक होगा। एनजीओ को आंख मूंद कर बढ़ावा देने या उन पर रोक लगाने से बेहतर यह है कि इसमें एक संतुलित भाव अपना कर निष्पक्ष तरीके से निर्णय लिया जाए। नयी सरकार से उम्मीद है कि वह बिना किसी पूर्वाग्रह के फैसला लेगी।

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