उत्तरी
इराक में इन
दिनों जो चल
रहा है उसे
समझना हो तो
पहले उस इलाके
का नक्शा देखना
होगा। इसके बिना
क्षेत्र में उभर
रही ताकतों के
गहरे अर्थ समझना
आसान नहीं है।
फिर यहां हमें
कुछ बातें ध्यान
में रखने की
जरूरत भी है।
पहली बात तो
यह है कि
किसी क्षेत्र पर
कब्जा जमाने की
यह किसी वार
लॉर्ड की कोशिश
नहीं है। यह
दो पंथों के
बीच का गतिरोध
भी नहीं है।
यह राजनीतिक इस्लाम
की महत्वाकांक्षा का
प्रकटीकरण है।
दूसरी
बात यह है
कि न्यूयॉर्क में
वल्र्ड ट्रैड सेंटर पर
हमले के बाद
अमेरिकी फौज पाक-अफगान क्षेत्र और
इराक में उतरी
तो अमेरिकी फौजी
प्रतिष्ठान कहने लगे
कि अमेरिकी जनता
पॉलिटिकल इस्लाम के साथ
लंबे युद्ध के
लिए तैयार रहे।
किंतु 10-12 वर्षों के युद्ध
की थकावट ने
इस तथ्य को
पृष्ठभूमि में डाल
दिया और अपनी
फौजों को वापस
बुलाने का औचित्य
ठहराने की कोशिश
में लंबे युद्ध
को भुला दिया
गया। अब ऐसा
लग रहा है
कि लंबा युद्ध
फिर लौट आया
है और दुनिया
को याद दिला
रहा है कि
इस्लाम के भीतर
बहुत कुछ होना
बाकी है। विश्लेषक
ध्यान दिला रहे
हैं कि यह
इस्लाम में सुधार
होने के पूर्व
का मंथन है।
ज्यादातर प्रमुख धर्मों में
यही हुआ है।
उत्क्रांति (एवॉल्यूशन) की प्रक्रिया
में जब सभ्यतागत
परिवर्तन और आधुनिकता
जब अपनी राह
बनाते हैं तो
यही होता है।
तीसरी बात यह
है कि इस्लाम
भी अपनी विभिन्न
शाखाओं की प्रतिद्वंद्विता
से परेशान है,
जिसमें कई सदियों
से हिंसक छटा
नजर आती रही
है। जब तक
कि एक या
दूसरे पंथ की
जीत, प्रभुत्व अथवा
हार से यह
प्रतिद्वंद्विता शांत नहीं
होती तब तक
आधुनिकता की कोई
संभावना नहीं है।
हम
इराक-सीरिया में
जो देख रहे
हैं वह इस्लाम
के भीतर का
ही हिंसक संघर्ष
है। अमेरिकी फौजों
के जाने के
बाद इसकी आशंका
व्यक्त की ही
जा रही थी।
इसके लक्षण कई
माह पहले ही
मिलने लगे थे
जब अल कायदा
की मौजूदगी के
कारण रामादी और
फालुजा जैसे शहरों
में हिंसा भड़क
उठी। द इस्लामिक
स्टेट ऑफ इराक
एंड ग्रेटर सीरिया
(आईएसआईएस) या इस्लामिक
स्टेट ऑफ इराक
एंड द लेवेंट
(आईएसआईएल) अल कायदा
से ही निकला
गुट है। यह
परदे के पीछे
घात लगाकर
मौके का इंतजार
कर रहा था।
कई देशों की
सीमा वाले क्षेत्र
में 10 हजार लड़ाकों
(भाड़े के लोगों
सहित) को तैयार
करना कोई आसान
काम नहीं है।
इसमें करीब दो
साल का वक्त
लगा है। बेशक
सीरिया में चल
रहे गृह युद्ध
से इराक से
लगी सीमा के
आर-पार उपद्रवी
शक्तियों के निर्माण
में मदद मिली,
लेकिन इसमें भिन्न
उद्देश्यों व भिन्न
छटा वाली अतिवादी
ताकतों के कई
गुट मौजूद हैं।
फिर वहां किसी
स्थापित राष्ट्र की मजबूत
सुरक्षा के अभाव
में यह एक
ही भौगोलिक युद्ध
क्षेत्र में तब्दील
हो गया है।
जाहिर है आईएसआईएस
को बाहर से
मदद मिल रही
है और सब
जानते हैं कि
यह मदद कहां
से आ रही
है। ऐसी किसी
फौज को कायम
रखने के लिए
आपको पैसा, हथियार
और गोला-बारूद
की जरूरत होती
है। वास्तव में
सीरिया, लेबनान और इराक
युद्धों का एक
ही युद्ध में
विलय हो गया
है। ठीक कुछ
साल पहले के
अफ-पाक युद्ध
की तरह। इस
स्थिति में कुछ
बहुत ही अहम
जटिलताएं हैं। इराक
में अमेरिकी मौजूदगी
ने वहां सुन्नी
सत्ता को ध्वस्त
कर आबादी के
मुताबिक शिया हुकूमत
स्थापित कर दी
जबकि इससे ईरान
के प्रभाव में
इजाफा और सऊदी
अरब के प्रभाव
में गिरावट अपरिहार्य
थी। सऊदी कभी इस
स्थिति से या
सीरिया में सत्ता
बदलने में उलझने
के प्रति अमेरिकी
उदासीनता से कभी
खुश नहीं थे।
इसी उदासीनता के
कारण सीरिया के
वृहद् संघर्ष में
अलावाइट-शिया पंथ
को मजबूती मिली।
ईरान-हिजबुल्ला-अलावाइट-इराक
(सारे शिया या
शिया छटा वाले)
धुरी ने पश्चिमी
अफगानिस्तान से लेकर
मध्यपूर्व के पूर्वी
हिस्से तक शिया
पंथ की पकड़
मजबूत की है।
अब उत्तरी इराक
में सुन्नी ताकतों
के उदय से
इस प्रभुत्व को
खतरा पैदा हुआ
है। अमेरिका द्वारा
प्रशिक्षित इराकी फौज पस्त
हो गई है
और इस तरह
इराक फिर गृह
युद्ध की ओर
लौटता दिखाई दे
रहा है। इसका
मतलब है कि
दक्षिण इराक तक
के इलाकों में
उथलपुथल। इस जटिल
स्थिति में विभिन्न
वैचारिक छटाओं वाले कई
खिलाड़ी पैदा हो
गए हैं और
इसके कारण संयुक्त
अरब अमीरात, तुर्की,
सऊदी अरब और
खुद अमेरिका अलग-अलग गुटों
को समर्थन दे
रहे हैं। हालांकि
अल कायदा से
जुड़े आईएसआईएस के
ताकतवर फौजी गुट
के रूप में
उभरने से अब
इन देशों को
अपने समर्थन पर
फिर विचार करना
होगा। इसका सीरिया
व इराक की
स्थिति पर गहरा
प्रभाव पड़ेगा।
इस
सबका पश्चिम एशिया
की सुरक्षा पर
क्या प्रभाव पड़ेगा?
पहला तो यह
कि सीरिया में
अनिश्चितता बढ़ेगी जहां हाल
के चुनाव में
बशर असद की
जीत ने उन्हें
नई ताकत देकर
उनका आत्मविश्वास बढ़ाया
है। आईएसआईएस सीरिया
में सऊदी समर्थन
प्राप्त विभिन्न सुन्नी गुटों
के खिलाफ है।
दूसरी बात यह
होगी कि सुन्नी
ताकतों के लगातार
हमलों से कमजोर
पड़ चुकी इराकी
फौज के एकजुट
रहने की संभावना
नहीं है। तीसरा
तथ्य यह कि
तेल संपदा वाले
पट्टे में हिंसा
बढ़ती ही जा
रही है तथा
हालत और खराब
हुई तो तेल
व गैस की
ढुलाई प्रभावित होगी।
चौथी बात यह
है कि ईरान-हिजबुल्ला गठजोड़ बहुत
मजबूती से उभर
रहा था, लेकिन
अब उसे धक्का
पहुंचा है। अब
ईरान अपने फायदे
बरकरार रखने के
लिए कहां तक
इसमें उलझेगा यह
इस बात पर
निर्भर है कि
क्षेत्र में हिंसा
कितनी बढ़ती है।
ऊंट किसी भी
करवट बैठे पश्चिम
एशिया में इस्लाम
के राजनीतिक भविष्य
पर निर्णायक प्रभाव
पडऩे वाला है।
यह
सही है कि
राजनीतिक इस्लाम से जुड़ा
आंदोलन सुदूर नाईजीरिया (बोको
हरम), सोमाालिया (अल
शबाब), सिनाई और यमन
में भी सक्रिय
है पर अब
स्पष्ट है कि
दो ही क्षेत्रों
में राजनीतिक इस्लाम
प्रभुत्व के लिए
कड़ा संघर्ष कर
रहा है। ये
दो क्षेत्र हैं
सीरिया-इराक-लेबनान
और आंतरिक रूप
से पाकिस्तान। इन
दो स्थितियों में
प्रत्यक्ष संबंध हो भी
सकता है और
नहीं भी हो
सकता है। पर
इसमें समान तथ्य
है ईरान के
दोनों तरफ सलाफी
गुटों का उदय।
अब जब
उसकी विचारधारा को
खतरा पैदा हो
गया है तो
ईरान कैसी प्रतिक्रिया
करेगा इसका अनुमान
लगाना वाकई मुश्किल
है।
अंतिम
मुद्दा यह है
कि यह हिंसा
अफगानिस्तान से अंतरराष्ट्रीय
फौजों की अंतिम
वापसी के छह
माह पहले हो
रही है। तो
क्या यह पाक-अफगान में अल-कायदा की वापसी
की तैयारी है,
क्योंकि अफगान व पाक
तालिबान से इसके
रिश्ते हैं। 14 साल पहले
इसे जिस इलाके
से निकाल दिया
गया था वहां
जाने के पहले
क्या यह पश्चिम
एशिया में अपना
एजेंडा पूरा करना
चाहता है? जो
भी हो स्थिति ठीक वैसी
होगी जैसी अफगानिस्तान
से सोवियत फौजों
के जाने के
बाद हुई थी।
अब इसका दुनिया
की सुरक्षा पर
क्या प्रभाव पड़ेगा,
अभी कहना मुश्किल
है। मगर यह
तय है कि
यह लंबा युद्ध
है।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें