(I) साम्यवाद, समाजवाद और मुक्त समाज
दुनिया भर में समकालीन
तौर पर मुख्य तौर पर तीन आर्थिक तंत्र या ढांचा अस्तित्व में रहे हैं- मुक्त समाज,
साम्यवादी समाज और समाजवादी समाज. अंतिम तंत्र पहले के दो तंत्रों के मतों का मिश्रण
है। हालांकि समाजवाद, भारत के पहले स्व. प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु का काफी लंबे
अरसे की भरोसेमंद विचारधारा रही है और इस वजह से इसका आजादी (1947) के वक्त से भारत
की आर्थिक नीतियों पर असर रहा है। सरकार के तमाम कामकाज का उद्देश्य ही समाजवाद था।
दिसंबर 1954 में संसद ने भी ‘समाज के समाजवादी ढांचे’पर मुहर लगा दी थी। इससे पहले
उसने इसी माह में इसे भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने भी अपने अवाडी सत्र में स्वीकार
लिया था। वक्त के साथ समाजवादी ढांचा अप्रत्यक्ष तौर पर साम्यवाद में तब्दील होता चला
गया। यह अंतिम खतरा जनता पार्टी की चुनावी जीत के साथ खत्म हो गया। हालांकि जनता पार्टी
की आर्थिक नीति के पैकेज पर फिलहाल पार्टी और सरकार में चर्चा जारी है, स्वतंत्रता
दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति के संदेश से यह आभास मिलता है कि, वर्तमान में
किसी भी दर से, जनता पार्टी सरकार का समाजवाद, जो कांग्रेस सरकार का तंत्र है, को विदा
कहने का कोई इरादा नहीं है। संदेश से केवल योजना पर जोर देने में ही बदलाव के संकेत
मिले हैं-समाजवादी नीतियों का समग्र खुलासा-कृषि और ग्रामीण क्षेत्र में. इसमें ऐसी
कोई बात नहीं है जिससे यह आभास मिले कि समग्र नीति के ढांचे में परिवर्तन की किसी जरुरत
को पहचाना गया है। राष्ट्रपति ने जिन निराशाजनक हालातों की बात की है, उसका इशारा इन
नीतियों पर पिछले तीन दशक में अमल की ओर ही है। इस सवाल का जवाब खोजा जाना हैः क्या
वर्तमान नीतिगत प्रणाली का रुझान कृषि की ओर करके ‘असंतोष और हताशा के ज्वालामुखी के
फटने’ के खतरे से बचा जा सकता है?
(II) एक मुक्त समाज के आर्थिक घटक
किसी समाज को मुक्त
इसीलिए कहा जाता है क्योंकि वहां हर नागरिक एक आजाद व्यक्ति है, ‘किसी दूसरे व्यक्ति
की मनमानी अपेक्षा के बोझ से आजादी’के लिहाज से। आजाद समाज में लोग आर्थिक क्षेत्र
में भी व्यावहारिकता के सिद्धांत के तहत आर्थिक क्षेत्र में भी नाकामी की बजाय कामयाबी
की राह पर चलते हैं और वहां नाकामी या कामयाबी का फैसला उनके अपने व्यक्तिपरक मापदंडों
से किया जाता है। अगर क्रियाशीलता (functionally) के लिहाज से देखा जाए तो एक मुक्त
समाज को एक व्यावहारिक समाज के तौर पर भी परिभाषित किया जा सकता है। क्योंकि इसमें
एक व्यक्ति की गतिविधियों का अंतिम उद्देश्य अपनी खपत की जरुरतों को पूरा करना होता
है और वह अन्य मामलों की तरह इसमें भी आजाद होता है। एक मुक्त समाज को उपभोक्ता के
वर्चस्व वाले समाज के तौर पर भी परिभाषित किया जाता है।
एक मुक्त समाज के
मुख्य आर्थिक घटकों को संक्षेप में इस तरह से बताया जा सकता हैः
- पहला
और सबसे महत्वपूर्ण बिंदु यह है कि मुक्त समाज के आर्थिक मामलों का नियंत्रण,
दिशा और व्यवस्था तीनों ही पूरी तरह से उपभोक्ता के ही हाथ में होती है। इसलिए
पारिभाषिक तौर पर उपभोक्ता द्वारा सरकार को सौंपी गई जिम्मेदारी -जो वो एक संप्रभुता
वाले मतदाता के तौर पर देते हैं- को छोड़कर बाकी तमाम आर्थिक गतिविधियां का अंतिम
उद्देश्य अधिकतम उपभोक्ता तुष्टीकरण ही होता है।
- उपभोक्ता
नियंत्रण और अर्थव्यवस्था की दिशा, एक मूल्य विनियमित बाजार तंत्र से प्रभावित
होती है। उपभोक्ता शॉपिंग सेंटरों या अन्य बाजारों में अपनी जरुरत के लिहाज से
निरंतर जानकारी मुहैया कराते रहते हैं, उनकी पसंद-नापसंद की झलक जिंसों के मूल्यों
में परिवर्तन और संस्थानों की आय से झलकती है।
- कारोबारी
कीमतों और कमाई के संकेतों को बखूबी भांपकर उत्पादकों को अपने उत्पादन को उपभोक्ता
की जरुरतों के मुताबिक करने का निर्देश देते हैं।
- उपलब्ध
निवेश संसाधन, यानी घरेलू बचत और विदेशी बचत का प्रवाह, कारोबारियों और उत्पादकों
की ऐसी गतिविधियों से बदलता है-जो कि बाजार तंत्र में समग्र मूल्य निर्धारण का
एक महत्वपूर्ण अंग है-या फिर यह ऐसे उत्पादन चैनल में चला जाता है जो उपभोक्ता
की पसंद से मेल खाता हो।
- आधुनिक
समाज में-फिर वह मुक्त, साम्यवादी या फिर समाजवादी-उत्पादन की प्रक्रिया कुछ वक्त
लेती है और प्रौद्योगिकीय कारणों से इसे मांग में तेजी को पहले से ही भांपना पड़ता
है। वायदा बाजार, जो कि समग्र मूल्य का एक और अभिन्न अंग-विनियमित मंडी तंत्र-है,
ऐसे पूर्वानुमित उत्पादन में अहम भूमिका निभाता है। वायदा बाजार, बाजार की बदलती
परिस्थितियों का पूर्वाभास देकर, उत्पादन की खामियों से संसाधनों के अपव्यय को
कम कर सकता है या खत्म भी कर सकता है।
(III) मुक्त समाज की कार्यात्मक पूर्व
कल्पनाएं
- कारोबार,
कार्यसंबंधी श्रृंखला की पहली कड़ीः इस उपभोक्ता निर्देशित आर्थिक तंत्र की
श्रृंखला में, देखा जा सकता है कि कार्यसंबंधी पहली कड़ी कारोबार है जो उत्पादकों
को उपभोक्ता के फैसलों की जानकारी देता है, उनका खुलासा करता है। जब हम किसी समाज
को शेष देश से कुछ अलग रखकर, जिसका कि यह एक अभिन्न अंग है, देखते हैं तो यही
कारोबार तमाम आर्थिक हलचल का केंद्र बनकर सामने आता है। तब राष्ट्रीय बाजार के
लिए किया जा रहा उत्पादन, जल्द ही उस छोटे से समूह के लिए उत्पादन में तब्दील
हो जाएगा। और तब इस समूह के लोग गरीबी और संभवतया और आदिम जीवनशैली की ओर धकेल
दिए जाएंगे। यह इस बात पर निर्भर है कि इस समाज के बाजार का आकार क्या है। इसीलिए
मुक्त समाज के पूरी तरह से कारगर तौर पर कामकाज के लिए आंतरिक और बाहरी कारोबार
पर अंकुश का न होना सबसे बड़ी पूर्व शर्त है। तर्क और अनुभव ने यह बता दिया है
कि यह आजादी अर्थव्यवस्था को लगातार समृद्ध बनने देगी। जो राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था
के विश्व बाजार से तालमेल के साथ इसकी विशेष प्रतिभा का पूरा-पूरा इस्तेमाल करने
से आएगी, जिसकी मांग-राष्ट्रीय बाजार की सीमित मांग के उलट-आसानी से पूरी नहीं
की जा सकती।
- निजी
संपत्ति का सृजनः दूसरा,
मुक्त समाज के पूरी तरह से कारगर तरीके से काम करने के लिए जरुरी है संस्थागत
पहचान, निजी संपत्ति की, न केवल पारिवारिक घर, उसमें मौजूद टिकाऊ उपभोक्ता सामग्री
या कार के लिहाज से बल्कि पूंजीगत संपत्ति के तौर पर भी जो उत्पादन का साधन है।
एक मुक्त समाज में, सबसे बेदर्द उपभोक्ता के अनुशासन की वजह से, प्रबंधन को, अस्तित्व
बनाए रखने के दबाव के तहत, लगातार लागत, गुणवत्ता और आय पर नजर रखनी पड़ती है।
इसके लिए फैसलों में सतत लचीलापन जरुरी है। उपभोक्ता का अनुशासन, कंपनी के शेयरों
के स्टॉक मार्केट में मूल्य के लिहाज से, बड़ी कंपनियों के मामले में भी कारगर
होता है। उत्पादन के साधनों के केवल सामाजिक स्वामित्व-यानी किसी भी एक व्यक्ति
का स्वामित्व नहीं- के जरिये यह संभव नहीं है। अनुभव से देखने को मिलता है कि
तरक्की के लिए जरुरी सबसे ताकतवर बल, स्वामित्व का जादू ही है।
- उत्पादन
के साधनों पर स्वामित्व के जादू की ताकत का मतलब, सोवियत कृषि से ज्यादा प्रभावी
और बेहतर तरीके से कहीं पर भी नहीं देखा जा सकता। 1964 में, सामूहिक कृषि के तहत
तीन फीसदी का उत्पादन और कामगारों को दिए गए निजी प्लॉट, सोवियत संघ के कुल कृषि
उत्पादन का एक तिहाई और सोवियत पशु उत्पादन का आधा भी नहीं था। खाद्यान्न और कृषि
जरुरतों के लिए रूस की पूंजीवादी दुनिया पर निर्भरता-यह निर्भरता काफी चौंकाने
वाली है क्योंकि सोवियत संघ की एक तिहाई श्रम शक्ति कृषि में जुटी है और कुल आबादी
का आधा इसी पर निर्भर है-और अगर साम्यवादी विचारधारा के हावी होने पर सोवियत कृषि
उत्पादन से निजी स्वामित्व पूरी तरह से हटा लिया जाता तो इसके परिणाम बेहद घातक
रुप ले लेते। क्या हमारे विचारक इस अनुभव से कोई सबक लेंगे?
- व्यक्ति की आर्थिक आजादीः उपभोक्ता निर्देशित अर्थ तंत्र की कामयाबी की तीसरी पूर्व शर्त है व्यक्ति की निम्न लिहाज से आर्थिक आजादी-
(अ) उसकी आय का खपत और बचत में विभाजन,
(ब) खपत का विकल्प और उद्योजकों को एक मूल्य नियंत्रित बाजार तंत्र से, अपनी पसंद का माल, आयात करने या फिर बनाने का निर्देश देने का अधिकार,
(स) कई विकल्पों के बीच अपने पारिश्रमिक का बंटवारा और
(द) अपनी आजीविका चुनने की आजादी।
(ब) खपत का विकल्प और उद्योजकों को एक मूल्य नियंत्रित बाजार तंत्र से, अपनी पसंद का माल, आयात करने या फिर बनाने का निर्देश देने का अधिकार,
(स) कई विकल्पों के बीच अपने पारिश्रमिक का बंटवारा और
(द) अपनी आजीविका चुनने की आजादी।
ये चार स्वतंत्रताएं
मुक्त नागरिकों की आर्थिक आजादी का आधार हैं। जब इन स्वतंत्रताओं पर अंकुश लगा दिया
जाता है, तो उसके जीवन के आनंद में उसी लिहाज से कमी भी आ जाती है।
(IV) मुक्त समाज में विकास और सामाजिक
न्याय के अंतर्भूत घटकः
निश्चित तौर पर एक
उपभोक्ता निर्देशित तंत्र का अस्तित्व और कामकाज स्वतंत्रता के बगैर असंभव है। स्वतंत्रता
(अ, ब, स, द) यह बात तय करने के लिए जरुरी है कि उत्पादन में सामान और मानव संसाधन
का इस्तेमाल इस तरह से हो कि उत्पादकता सर्वाधिक हो। ये बाद में चर्चित स्वतंत्रताएं,
लगातार संसाधनों में बदलाव, कम प्रभावी संसाधनों को खारिज करने और संसाधनों की एक निश्चित
मात्रा से राष्ट्रीय उत्पाद को बढ़ाने में कारगर साबित होंगी।
(i) उत्पादन,
रोजगार और आय बढ़ाने की प्रवृत्तिः उपभोक्ता की संप्रभुता के तहत, तंत्र के
प्रभावी तरीके से काम करने के लिए चार बातें अनिवार्य हैं। पहला, उपभोक्ता संरक्षण
के लिए उद्योजक लागत कम करने और गुणवत्ता बढ़ाने के लिए प्रयास करेंगे। उपभोक्ता द्वारा
ऐसे काम को मंजूरी और उसकी तारीफ ऊंची लागत वाले कम गुणवत्ता का माल लगातार बदलता चला
जाएगा। यह संसाधनों में बदलाव और प्रौद्योगिकीय तरक्की से, जैसा कि पहले ही बताया जा
चुका है कम लागत और बेहतर गुणवत्ता वाले उत्पादों से संभव हो सकेगा। इससे उत्पादन लगातार
बढ़ता जाएगा और उसके कारण रोजगार, आय और जीवन स्तर भी बेहतर होता जाएगा।
(ii) रोजगार
का प्रसारः दूसरा आर्थिक तंत्र में तेजी से रोजगार उपलब्ध होगा, जहां हर कोई
मांग पूरी करने को लेकर चिंतित रहेगा-जो उपभोक्ता के बेरहम होने के साथ ज्यादा काम
करा लेने की क्षमता का द्योतक भी होगा। रोजगार का वर्तमान या बढ़ते पारिश्रमिक के साथ
बढ़ना एक प्रयोजन है, निवेश का नहीं, जैसा कि भारतीय अनुभव बता ही चुका है, न ही उत्पादन
की वर्तमान प्रौद्योगिकी का स्तर कम करने का। यह तो समग्र उत्पादन में इजाफे का परिणाम
है।
रोजगार में बढ़ोत्तरी के लिए अंतर्निहित प्रोत्साहन का खुलासाः जापान में कम पारिश्रमिक, जमीन के लिहाज से ज्यादा आबादी का दबाव, 291 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर-आबादी के दबाव के कारण देश में जमीन पर औसत मालिकाना हक 1.01 हेक्टेयर है-पूंजी के अभाव और ज्यादा लागत ने किसानों को कृषि में श्रमिक आधारित तरीकों को अपनाने पर मजबूर किया है। जापान का कृषि उत्पादन विश्व औसत (5)से कहीं ज्यादा है। जापान में प्रति एक हजार हेक्टेयर सिंचित जमीन पर 2031 मजदूर काम करते हैं। दूसरी ओर अमेरिका में, पूंजी का कम अभाव है, जमीन का औसतन मालिकाना हक 157.6 हेक्टेयर है। आबादी का घनत्व 22 व्यक्ति प्रति स्क्वेयर किलोमीटर है। देश ने पूंजी-आधारित कृषि उत्पादन को अपनाया। वहां प्रति एक हजार हेक्टेयर सिंचित भूमि पर महज 17 मजदूर काम करते हैं। खेती के ये तौर-तरीके किसी योजना आयोग की सिफारिश पर लागू नहीं किए गए। बल्कि इसका फैसला मुक्त अर्थव्यवस्था के स्वतंत्र किसानों ने किया जिनके कामकाज का तौर-तरीका पूरी तरह से संप्रभु उपभोक्ता करता है। इसके विपरीत रूस, पूंजी आधारित अमेरिकी कृषि उत्पादन तकनीकों को अपनाता है। कम वेतन के बावजूद और बहुत कम उत्साह जगाने वाले परिणामों के बावजूद।
रोजगार में बढ़ोत्तरी के लिए अंतर्निहित प्रोत्साहन का खुलासाः जापान में कम पारिश्रमिक, जमीन के लिहाज से ज्यादा आबादी का दबाव, 291 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर-आबादी के दबाव के कारण देश में जमीन पर औसत मालिकाना हक 1.01 हेक्टेयर है-पूंजी के अभाव और ज्यादा लागत ने किसानों को कृषि में श्रमिक आधारित तरीकों को अपनाने पर मजबूर किया है। जापान का कृषि उत्पादन विश्व औसत (5)से कहीं ज्यादा है। जापान में प्रति एक हजार हेक्टेयर सिंचित जमीन पर 2031 मजदूर काम करते हैं। दूसरी ओर अमेरिका में, पूंजी का कम अभाव है, जमीन का औसतन मालिकाना हक 157.6 हेक्टेयर है। आबादी का घनत्व 22 व्यक्ति प्रति स्क्वेयर किलोमीटर है। देश ने पूंजी-आधारित कृषि उत्पादन को अपनाया। वहां प्रति एक हजार हेक्टेयर सिंचित भूमि पर महज 17 मजदूर काम करते हैं। खेती के ये तौर-तरीके किसी योजना आयोग की सिफारिश पर लागू नहीं किए गए। बल्कि इसका फैसला मुक्त अर्थव्यवस्था के स्वतंत्र किसानों ने किया जिनके कामकाज का तौर-तरीका पूरी तरह से संप्रभु उपभोक्ता करता है। इसके विपरीत रूस, पूंजी आधारित अमेरिकी कृषि उत्पादन तकनीकों को अपनाता है। कम वेतन के बावजूद और बहुत कम उत्साह जगाने वाले परिणामों के बावजूद।
(iii) सामाजिक
न्यायः तीसरा, उपभोक्ता की पूर्ण संप्रभुता के तहत, उत्पादन, वितरण, आयात-निर्यात
और सभी निजी लोगों की आय-पारिश्रमिक, ब्याज, किराया, लाभ-में एकाधिकार न की न कोई जरुरत
है और न ही कोई गुंजाईश। यह तो राष्ट्रीय उत्पाद में योगदान से निर्धारित होगी। ऐसी
परिस्थितियों में अनपेक्षित लाभ की कोई संभावना नहीं होती। इसलिए कोई भी दूसरे की कमाई
हड़प नहीं सकता। यानी इसमें सामाजिक अन्याय के लिए कोई जगह नहीं है। दूसरी ओर, समाजवादी
अर्थव्यवस्था में, एकाधिकार, प्राथमिकता और अनुदानों के चलते सामाजिक अन्याय निश्चित
है। क्योंकि इसमें व्यक्तियों-समूहों की बिना मेहनत और बिना योग्यता ही कमाई हो जाती
है, जो समाज के बाकी हिस्से का हक मार सकती है।
(iv) आय
में अंतर कम करनाः चौथा, उपभोक्ता की संप्रुभता के चलते, आर्थिक विकास के
साथ आय में अंतर कम होता जाता है। यह केवल सामाजिक अन्याय के अभाव (देखें iii)के कारण
नहीं, बल्कि यह ब्याज, किराये और लाभ में कमी, उच्च आय वर्ग के लोगों की आय में गिरावट
और दूसरे लोगों के पारिश्रमिक और वेतन में प्राकृतिक बढ़ोत्तरी के कारण होता है। मुक्त
अर्थव्यवस्था की प्रगति के साथ, राष्ट्रीय उत्पाद (जीडीपी)में पारिश्रमिक, वेतन बढ़कर
41.3 प्रतिशत हो गया। पश्चिम जर्मनी में यही प्रतिशत बढ़कर 48.9 से 54.7 हो गया। इसके
विपरीत समाजवादी भारत में यह प्रतिशत एक कम अंतर के बीच घटता-बढ़ता रहा। 1974-75 में
यह 28 प्रतिशत था या 1960-61 के 29.9 प्रतिशत से कम था। मुक्त समाज में लोगों की समृद्धि
साफ तौर पर देखी जा सकती है।
थोक इस्तेमाल वाले
सामान के उत्पादन की ओर आर्थिक रुझान और इस माल को बेचने के लिए डिपार्टमेंट स्टोर्स,
सेफवे, शॉपिंग सेंटर और रिटेल शॉप्स की संख्या में तेजी से इजापे में इसे देखा जा सकता
है। इनमें से कई उत्पाद तो ऐसे हैं, जो 18वीं सदी के रईसों और कुलीनों को भी ईर्ष्या
से भर देते। इन दुकानों में जो भीड़ उमड़ती है, वह रईसों की नहीं किसानों, फैक्टरी
मजदूरों और वेतनभोगियों की होती है। साम्यवादी देशों को छोड़ दिया जाए तो कार को आज
उपभोग की वस्तु श्रेणी में नहीं रखा जा सकता। किसी भी साम्यवादी समाज में खंड एक और
दो में उल्लेखित कोई बात खरी नहीं हो सकती। सरकार, उपभोक्ताओं की जरुरतों को तय करती
है, माल और सेवा का वितरण तय करती है। वैकल्पिक इस्तेमाल के लिए संसाधनों का आवंटन
भी वही तय करती है। व्यक्तियों को मूलभूत आर्थिक अधिकारों का आनंद उठाने को नहीं मिलता।
वायदा बाजार जैसी कोई चीज नहीं होती।
(v) भारत
में समाजवाद का लेखा-जोखाः पिछले तीन दशक से हमारे द्वारा इसे लागू करने के
कारण समाजवाद की समीक्षा प्रासंगिक होगी। हमारी सामाजिक नीतियों के तहत उपभोक्ता का
नियंत्रण और अर्थव्यवस्था की दिशा अवरुद्ध होती है। अन्य बातों के अलावा विनिमय नियंत्रण
सेः आयात और निर्यात प्रतिबंध से, पूंजीगत मामलों के नियंत्रण से, 1956 के औद्योगिक
नीति प्रस्ताव से, निवेश के संसाधनों के आवंटन से (जिसमें विदेश से आने वाली पूंजी
भी शामिल है)शामिल है, एक योजना आयोग से, कई उपक्रमों के राष्ट्रीयकरण से, सरकारी व्यापार
के कारण, राज्य के वित्तीय संस्थाओं से, रिजर्व बैंक के उधार पर नियंत्रण से, केंद्र
और राज्य सरकारों द्वारा बनाए जाने वाले आर्थिक कानूनों द्वारा, ढेर सारे अनुदानों
और विशेष प्रोत्साहन के कारण और अभी पिछली अप्रैल तक, रबी के अनाज की आवक-जावक पर नियंत्रण
के जरिये। इन सभी कदमों के कारण, हम अर्थव्यवस्था को चार क्षेत्रों में बांट सकते हैं।
एक सार्वजनिक क्षेत्र जिस पर सबसे अधिक ध्यान दिया जाता है। औद्योगिक क्षेत्र जो नीतियों
पर निर्भर होता है। कृषि क्षेत्र जिसे प्रताड़ित और अनदेखा किया जा सकता है। उसे शब्दों
की कोरी सहानुभूति तो बहुत मिलती है, लेकिन उसमें भ्रष्टाचार बहुत ज्यादा है। औद्योगिक
क्षेत्र की आधारभूत कमी यही है कि इसे उत्पादन की आय-गुणवत्ता, विश्व बाजार में इसकी
प्रतिस्पर्धात्मक शक्ति और रोजगार व आय में इसके योगदान से आंका जाता है। अगर कुछ अपवादों
को छोड़ दिया जाए तो एक भी ऐसा बड़ा उत्पादन नहीं है जिसे अनुदान न दिया गया हो-आमतौर
पर यह अनुदान घरेलू बाजार में उपभोक्ता पर कर लादकर दिया जा सकता है या फिर निर्यात
के जरिये जिसे विदेशी बाजार में कोई अनुदान नहीं मिलता। फिर भी यह क्षेत्र छलांगे मारता
हुआ आगे निकल गया है। नीतियों में जानबूझकर किए गए कुछ परिवर्तनों और संसाधनों के प्राथमिकता
के आधार पर आवंटन से। इस्तेमाल संसाधनों के लिहाज से रोजगार में इसका योगदान बेहद निराशाजनक
रहा है। औद्योगिक उत्पादन (निर्माण), 1975-76 में सकल राष्ट्रीय उत्पाद (जीएनपी) का
केवल 16.3 प्रतिशत रहा। दो दशक पहले 1955-56 के 12.9 प्रतिशत से यह बढ़ा ही था।
सार्वजनिक क्षेत्र
वाकई में एक बहुत ज्यादा मदद पाने वाला क्षेत्र है। अगर इसका वस्तुपरक और वास्तविक
अध्ययन किया जाए-मतों के चोंचलों को परे रखकर-भारत में सार्वजनिक क्षेत्र किसी भी लिहाज
से बहुत ज्यादा कामयाब नहीं कहे जा सकते। यह तो अवश्यंभावी है जब प्रबंधन और सिद्धांतों
के बीच कोई तालमेल न हो। विदेशी मदद के साथ आयातित माल की लागत और बाजारी कीमत के बीच
के अंतर को शामिल किए बगैर भी सार्वजनिक क्षेत्र, राष्ट्रीय लेखा आंकड़ों के अनुसार,
उपलब्ध संसाधनों का 55 प्रतिशत इस्तेमाल करता है, लेकिन NNP में इसका योगदान केवल
17 प्रतिशत का है। यह सब भी तब जब शीर्ष पर शक्तिशाली और निस्वार्थ व्यक्ति हो और उसके
तहत काम करने वाले भी समर्पित हों। इसमें स्वार्थी तत्वों, राजनीतिज्ञों का हस्तक्षेप
न हो, वरना तो यह उनके लिए एक दुधारु गाय की तरह ही होगा। उनके द्वारा की जा रही अनैतिक,
जो हमेशा अवैध न हो, कमाई भी संसाधनों के दुरुपयोग की तरह ही है-यह राष्ट्रीय उत्पाद
पर भारी कर्ज के बोझ की तरह हो जाएगा। बी.पी.पई ने अपनी पिछले माह ही प्रकाशित किताब
सेव कोल इंडिया वॉल्यूम-1 में राष्ट्रीयकृत कोयला उद्योग में इन घटकों का अच्छे से
खुलासा किया है। पई कोल इंडिया के एक उपक्रम में डिप्टी चीफ माइनिंग इंजीनियर हैं।
कुप्रबंधन को लेकर उनके खुलासे पर आम आदमी ही नहीं सरकार के भी ध्यान देने की जरुरत
है। कृषि क्षेत्र जहां मूल रुप से ही अस्तित्व बने रहने की संभावनाओं से भरा रहता है,
वहीं औद्योगिक क्षेत्र संकट में ही रहता है, यह बात ऊपर चर्चित मापदंडों से देखी जा
सकती है। किसी भी कृषि उत्पाद को घरेलू बाजार में उपभोक्ता से या फिर सरकार की ओर निर्यात
के लिए अनुदान नहीं मिलता। विश्व बाजार में अपने ही दम पर मौजूद कृषि निर्यात, कुल
निर्यात का 40 प्रतिशत होता है। कई कृषि उत्पादों, जैसे चावल, कॉफी या बंगाल का देसी
कपास, का रुपए में मूल्य विदेशी मूल्यों से कम होता है और उनके निर्यात पर या तो प्रतिबंध
है, कुछ शर्तें लादी गई हैं या फिर निर्यात शुल्क पर जुर्माना निर्धारित है। परिणाम
यह होता है कि चावल जैसे कृषि उत्पाद की स्मगलिंग की जाती है। हालांकि, तीनों क्षेत्र
में कृषि क्षेत्र ही सबसे ज्यादा उपेक्षित है। संसाधनों का ज्यादातर हिस्सा सार्वजनिक
और औद्योगिक क्षेत्र के ही खाते में चले जाने के कारण कृषि क्षेत्र को संसाधनों के
अभाव का सामना करना पड़ता है, जबकि आबादी का 72 प्रतिशत हिस्सा इसी पर निर्भर है और
यह राष्ट्रीय उत्पाद में लगभग आधे का योगदान देता है। भ्रष्ट क्षेत्र, जिसका की राष्ट्रपति
ने हवाला दिया है, सार्वजनिक क्षेत्र द्वारा ही पोषित होता है। विनिमय नियंत्रण, आयात
प्रतिबंधों, लाइसेंसिंग नीतियों और आर्थिक कानूनों व प्रशासनात्मक कदमों से। जैसा कि
पहले ही बताया जा चुका है, इसके कारण इतने एकाधिकार क्षेत्र बन गए हैं कि उससे भ्रष्टाचार
को बढ़ावा मिलता है। अप्रैल 1977 तक, रबी खाद्यान्न के क्षेत्र, जिनमें परमिट के बगैर
अनाज का यातायात प्रतिबंधित था, बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार और काले धन की वजह थे। जब
वाय.बी.चव्हाण वित्त मंत्री थे, उन्होंने कहा था कि देश में शायद काले धन का लेनदेन
उतना ही बड़ा है जितना कि सफेद धन का। निवेशित धन के भ्रष्टाचारयुक्त भुगतान से निजी
आय में परिवर्तन से उपजा काला धन ही विकास की राह की एक बड़ी बाधा है।सीएसओ द्वारा
जारी राष्ट्रीय लेखाकार आंकड़ों से हमें इन उपायों से मिलने वाले अंतिम परिणामों की
जानकारी मिलती है। आबादी में 72 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले किसानों की प्रति
व्यक्ति आय 1960-61 की 219.20 रु.से घटकर 1976-77 में 195.50 रुपए हो गई थी। यानी सामाजिक
नीतिगत उपाय अपनाने की पूर्वसंध्या 1950-51 के स्तर से 2.30 रु. कम। जनगणना वर्ष
1961-71 के दौरान आर्थिक सीढ़ी में सबसे नीचे मौजूद कृषिकर्मी, "75 प्रतिशत बढ़े,
कृषकों में 16 प्रतिशत की गिरावट आई और कुल आबादी में गरीबी की रेखा से नीचे मौजूद
लोग 39 प्रतिशत से बढ़कर 45 प्रतिशत हो गए। दूसरी ओर बाकी आबादी, अधिकतर शहरी, की प्रति
व्यक्ति आय दोगुनी से ज्यादा, 1950-51 के 400 रु.से बढ़कर 1976-77 में 813 रु. हो गई।"इन
आंकड़ों में कृषि की बड़ी उपेक्षा और लोगों की रुचि साफ झलकती है। उद्योगों और शहरी
धनाढ्यों का वर्चस्व, भ्रष्टाचार-एकाधिकार का फलना-फूलना साफ देखा जा सकता है। राजनीतिज्ञों
की भीड़ और कारोबारियों, उद्योगपतियों, प्रशासनिक कर्मचारियों के बीच मौजूद भ्रष्ट
तत्वों की सांठगांठ देखी जा सकती है, जो कई बार शराफत और नैतिकता के तमाम तकाजों को
ताक पर रख देती है।
(vi) बचाव
और प्रगतिः भ्रष्ट क्षेत्र की समाप्ति, संसाधनों को बड़े पैमाने पर सार्वजनिक
और औद्योगिक क्षेत्र से कृषि क्षेत्र की ओर स्थानांतरित करने की जरुरत है। हमारा विश्लेषण
दर्शाता है कि इसे हासिल करने का सबसे प्रभावी और सही तरीका पूरी तरह से दिशा बदलकर
आर्थिक मामलों में सरकारी भूमिका को गांधीवादी विचारों की ओर करना है। इसके लिए उपभोक्ता
को समाजवादी बेड़ियों से आजाद कर अन्य नीतियों में आमूलचूल परिवर्तन करना होगा। खासतौर
पर-
(i) ज्यादा धन प्रवाह
कृषि जगत की ओर करके, सार्वजनिक और निजी निवेश दोनों के जरिये,
(ii) आंतरिक और बाहरी कारोबार की राह की रुकावटें दूर करके,
(iii) 1956 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव पर नये सिरे से विचार करके,
(iv) अनुदान और औद्योगिक लाइसेंस राज को खत्म करके
(v) सार्वजनिक क्षेत्र के समग्र खर्च और आकार को कम करके, यहां तक कि सार्वजनिक क्षेत्र में कुछ निवेश को वापस लेकर
(vi) सरकार को उसके मूल और वास्तविक कर्तव्यों तक ही सीमित करके
(vii) विनिमय नियम हटाकर और पूरी तरह से मुक्त रुपए को अपनाकर
(viii) करारोपण करके और आज के लिहाज से खर्च और निवेश के स्तर को कम करके
(ix) मुक्त अर्थव्यवस्था से तालमेल या निरुपयोगी तत्वों को खत्म करने के लिए तमाम आर्थिक कानूनों और प्रशासनिक उपायों की समीक्षा करके।
(ii) आंतरिक और बाहरी कारोबार की राह की रुकावटें दूर करके,
(iii) 1956 के औद्योगिक नीति प्रस्ताव पर नये सिरे से विचार करके,
(iv) अनुदान और औद्योगिक लाइसेंस राज को खत्म करके
(v) सार्वजनिक क्षेत्र के समग्र खर्च और आकार को कम करके, यहां तक कि सार्वजनिक क्षेत्र में कुछ निवेश को वापस लेकर
(vi) सरकार को उसके मूल और वास्तविक कर्तव्यों तक ही सीमित करके
(vii) विनिमय नियम हटाकर और पूरी तरह से मुक्त रुपए को अपनाकर
(viii) करारोपण करके और आज के लिहाज से खर्च और निवेश के स्तर को कम करके
(ix) मुक्त अर्थव्यवस्था से तालमेल या निरुपयोगी तत्वों को खत्म करने के लिए तमाम आर्थिक कानूनों और प्रशासनिक उपायों की समीक्षा करके।
जनता सरकार ने जो
विरासत छोड़ी है, वह जटिल और मुश्किल दोनों ही है। अगर वह महज सरकारी नीतियों का पालन
करती रही तो शायद सरकार अपने चुनावी वायदों को पूरा नहीं कर पाएगी। तमाम बड़े मामलों
में इन नीतियों को छोड़े जाने की जरुरत है। अगर इन नीतियों का अमल अव्यावहारिक न होकर
ठोक-बजाकर किया गया तो फिर पूरी संभावना है कि सरकार अपनी गलतियों से सबक लेते हुए
प्रगति की सही राह पर चलेगी। लोग अब बेमानी मतों और बेवजह के बलि के बकरों से तंग आ
चुके हैं। वे अब वास्तविक कामयाबियां देखना चाहते हैं। अनुभव बार-बार प्रमाणित कर चुका
है कि आर्थिक मामलों में उपभोक्ता की संप्रुभता को अपनाने वाले किसी भी देश को आखिर
में निराश नहीं होना पड़ा है। जो लाभ हासिल किया गया है, वह विकास और सामाजिक न्याय
के लिहाज से चमत्कारिक रहा है। समकालीन दुनिया में पश्चिम जर्मनी (प्रोफेसर एरहार्ड
के मार्गदर्शन में), स्पेन, जापान और एशिया के कुछ मिनी-जापान इसका ज्वलंत उदाहरण रहे
हैं। दूसरी ओर, समाजवाद के पर्याप्त पुट वाली आर्थिक नीति अपनाने वाले देश हैं, जिनमें
आमतौर पर स्वार्थी व्यापारियों, उद्योगपतियों, प्रशासकों और हताशाजनक नीतियों का वर्चस्व
होता है। ये देश अराजकता और पतन का सामना करते हैं। भारत, बर्मा, श्रीलंका, पाकिस्तान
और बांग्लादेश इसके जीवंत उदाहरण हैं।
उपभोक्ता की संप्रुभता,
जिस पर सामाजिक न्याय के साथ आर्थिक विकास निर्भर होता है और मतदाता की संप्रुभता,
जो सभी लोकतांत्रिक संस्थानों का आदार है, एक मुक्त नागरिक के विभिन्न पहलू हैं। जब
ये दो संप्रुभताएं एकत्रित हो जाएं, तो हमारा समाज एक मुक्त आदर्श समाज होगा। मतदान
की संप्रुभता होने पर, अगर नागरिकों के उपभोक्ता के तौर पर अधिकारों का हनन होता है
और आर्थिक हालात बिगड़ते हैं, तो मतदाता अपना विरोध प्रकट करेगा। पहले उपचुनाव में
और अगर सरकार ने फिर भी अनदेखी की तो मार्च 1977 की तरह आम चुनाव में इसकी जोरदार प्रतिक्रिया
देखने को मिलेगी। इन भाग्य निर्धारक चुनावों में कांग्रेस के गरीबी हटाओ आंदोलन के
महज राजनीतिक होने की कलई खुल गई थी। परिणाम यह हुआ कि कांग्रेस के परंपरागत 21.5 प्रतिशत
अनुसूचित जनजाति मतदाता उससे रुठ गए। लगभग एक साथ। जनता पार्टी की नाकामी के ऐसे ही
गंभीर राजनीतिक परिणाम नकारे नहीं जा सकते, क्योंकि आबादी का 45 प्रतिशत हिस्सा गरीबी
की रेखा से नीचे है और 70 प्रतिशत अशिक्षित। इस कमजोर तबके के लिए मूलभूत अधिकार, नागरिक
स्वतंत्रता और संवैधानिक अच्छाईयों जैसे शब्दों का कोई अर्थ नहीं होता। हताशा और वायदों
के भ्रमजाल में उलझकर ये थोक के भाव में तानाशाही तरीके से एकतरफा वोट डालते हैं, जिसे
नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। न केवल जनता पार्टी बल्कि जो इसके प्रभाव क्षेत्र में
आता है, उसके लिए यह परीक्षा का दौर है। आइए उम्मीद करें कि हम उपभोक्ता और मतदाता
दोनों की संप्रुभता को अक्षुण्ण रखकर भारत में एक वास्तविक मुक्त समाज की स्थापना करेंगे।
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