शुक्रवार, 20 जून 2014

उपभोक्तावाद का बढ़ता दबदबा

'उपभोक्तावाद' शब्द पहली बार वर्ष 1915 में प्रयोग में आया। ऑक्सफोर्ड इंग्लिश डिक्शनरी के अनुसार, उसने उपभोक्ताओं के अधिकारों और हितों की बात की और उनपर जोर दिया। यद्यपि युगों से धनी और गरीब के बीच असमानताएं चली रही थीं किन्तु यह मान लिया गया था कि वे मानव समाज के साथ अपरिहार्य रूप जुड़े हैं क्योंकि सबकी कार्यक्षमता एक समान रही और ही समाज में संपत्ति का बंटवारा समान रूप से रहा।

इंग्लैंड और अन्यत्र 'सम्पचुएरी कानून (व्यय संबंधी कानून) मध्य युग या उसके पहले से चले रहे थे। खास प्रकार के उत्कृष्ठ कपड़ों और आभूषणों का इस्तेमाल केवल सामाजिक पायदानों के ऊपर बैठे लोग ही कर सकते थे। समाज के अन्य लोगों को उनके इस्तेमाल के अधिकार थे। इस प्रकार पहनावों और रहन-सहन को देखकर हम जान सकते थे कि कौन किस वर्ग का है। इंग्लैंड की महारानी एलिजाबेथ प्रथम के विषय में कहा जाता है कि उनके पहनावों से यह बात रेखांकित होती थी कि उनका मकसद खास प्रकार के राजनीतिक जरूरतों को पूरा करना था।

जहां तक भोग-विलास की वस्तुओं का प्रश्न है उनका उपभोग धनाढ्य लोग सदियों से करते रहे थे। मात्र विलास की वस्तुओं तक पहुंच मात्र चंद लोगों की ही रही। शेष जनता को उनके उपभोग का अवसर शायद ही मिल पाता था। ग्रीक इतिहास इस बात का गवाह है कि धनाढ्य लोग भोग-विलास की वस्तुओं का उपभोग समाज के प्रत्येक वर्गों से अपने को अलग दिखलाने के लिए करते थे। वस्तुओं का ध्यानाकर्षी उपभोग तो जमाने से चला रहा था। निचले तबकों के लोग जब भी काफी धन बटोर लेते थे। तब समाज के ऊपरी तबकों के जैसा आचरण करने लगते थे उनके खान-पान और रहन-सहन की नकल करने लगते थे।

औद्योगिक क्रांति के बाद इस स्थिति में काफी कुछ बदलाव आया। उसके पहले दूसरे देशों पर आक्रमण और लूटपाट के जरिए लाए गए धन के आधार पर ही समाज के शीर्ष पर बैठे कतिपय लोग अपना रहन-सहन ऊंचा कर पाते थे। औद्योगिक क्रांति ने जिन परिवर्तनों के द्वार खोले उनके परिणामस्वरूप उत्पादकता बड़ी तेजी से बढ़ी। विज्ञान और प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में निरंतर होने वाले परिवर्तनों ने उत्पादकता को बढ़ाने में योगदान दिया। कालक्रम में व्यापार का स्वरूप भूमंडलीय बन गया और अन्यत्र उत्पन्न होने वाली वस्तुएं भी देर-सबेर उपलब्ध होने लगीं। आवागमन की सुविधाएं बढ़ीं और उन्होंने दूरी को कम किया। अब लोग केवल स्थानीय उत्पादों पर निर्भर नहीं रहे।

यह समस्या आई कि कैसे वस्तुओं का उपभोग निरंतर बढ़े जिससे बाजार में मांग बनी रहे और उत्पादन निर्बाध रूप से बढ़े। अठारहवीं सदी के उत्तराद्र्ध से उपभोग बढ़ाने पर जोर दिया जाने लागा। फलस्वरूप विज्ञापनों की अहमियत बढ़ी। समाज में वर्ग विभाजन अब पहले की तरह अवरोध नहीं रहा। जिस किसी की जेब में पैसे होते, वह बाजार में जाकर अपनी इच्छा के अनुसार वस्तुएं खरीद सकता था।  कालक्रम में के्रडिट कार्ड के चलन के फलस्वरूप कोई भी उपभोक्ता अपनी संभावित भावी आय के आधार पर भी खरीदारी कर सकता था। इस तरह तात्कालिक आय खरीदारी के मार्ग में बाधक नहीं बन सकती थी।

अब से लगभग एक शताब्दी पूर्व बाजार का वह महत्व था जो अभी है।  किसी भी बाजार अर्थ व्यवस्था में वस्तुएं धुरी का काम करती हैं। वे सामाजिक लेन-देन और विनिमय के साधन होती हैं। कहना होगा कि बाजार लोगों की आवश्यकताओं को उत्पादन के साथ समायोजित करता है। इस क्रम में विज्ञापन की अहम् भूमिका रही। विज्ञापन ही वह कड़ी बनी जिसने उपभोक्ता और उत्पादक को एक साथ जोड़ा। बाजार चार 'पी' को समायोजित करता है। वे हैं: प्रोडक्ट (उत्पाद), प्राइस (कीमत), प्रोमोशन (प्रोत्साहन) और प्लेस (स्थान)
अगर आप किसी अमेरिकी किशोर से पूछें कि उनके लिए जनतंत्र का क्या मतलब है तो आए दिन यही उत्तर मिलेगा कि जनतंत्र का मतलब है जो भी मर्जी हो उसे बेरोकटोक खरीदने का अधिकार। वर्ष 1989 में अंततोगत्वा इस अधिकार को मान्यता मिली तब वहां के निवासी बेरोकटोक खरीदारी करने में व्यस्त हो गए। अर्थव्यवस्था के दरवाजे खोल दिए जाने के बाद बेरोकटोक विदेशी वस्तुएं आने लगीं। राज्य का नियंत्रण इस बात को लेकर खत्म हो गया कि क्या, कैसे और किनके लिए उत्पन्न करें। अब बाजार की शक्तियां ही इन प्रश्नों के उत्तर तलाशने लगीं।

अब हर व्यक्ति को उपभोक्ता के तौर पर तब्दील कर दिया गया। वह केवल वस्तुएं ही नहीं खरीदता बल्कि स्वास्थ्य सेवाएं, शिक्षा वगैरह भी खरीद-बिक्री की चीजें बन गईं। उनकी भी खरीद-बिक्री धड़ल्ले से होने लगीं। इतना ही नहीं, किस उम्मीदवार को वोट दें और किसे नहीं, इसका फैसला भी इस आधार पर होने लगा कि चुने जाने के बाद वह उम्मीदवार हमें क्या देने की क्षमता रखता है।

जहां तक शॉपिंग का प्रश्न है वह इंगित करता है कि हम अपनी जिन्दगी को किस प्रकार सुव्यवस्थित करते हैं। हमारा रूपान्तरण कैसे उपभोक्ता के रूप में हो जाता है। कहा जाता है कि उपभोक्ता का दबदबा पिछली शताब्दी के आंरभ में हुआ किन्तु 1950 आते-आते वह पूरी तरह पल्लवित-पुष्पित हुआ। आरंभिक दिनों के दौरान उपभोग का लोगों के जीवन में उतना महत्व नहीं दिखा किन्तु पिछली सदी के मध्य तक वह लोगों की पहली प्राथमिकता बन गया। लोग मॉल्स और डिपार्टमेंट स्टोर के सामने पंक्तिबद्ध दिखने लगे।

दो प्रकार से समाज के निचले पायदानों पर बैठे लोगों ने ऊपर उठने की कोशिश की। पहला तरीका था : ध्यानाकर्षी अवकाश। उन्होंने यह दिखलाने की कोशिश की कि उनके पास खर्च करने को इतना धन है कि वे बिना कोई काम किए उच्च जीवन-स्तर का आनंद ले सकते हैं। दूसरा तरीका था ध्यानाकर्षी उपभोग। मध्यम और निम्न वर्गीय लोगों ने अपना उपभोग हर प्रकार से बढ़ा कर उच्च आय वर्ग के लोगों से बराबरी आरंभ कर दी।

पिछली शाताब्दी में मैकडोनाल्ड रेस्तरां की श्रृंखला तेजी से विश्वव्यापी बन गई। इसने ' मैकडोनाल्ड थीसिस या समाज के 'मैकडोनाल्डाइजेशन की बात कही गई।  मैकडोनाल्ड रेस्तरां श्रृंखला ने इंगित किया कि उसकी कार्यकुशलता के आधार पर भविष्य का अनुमान लगाया जा सकता है। ऐसे तौर-तरीकों को अपनाया गया कि कारोबार में तरतीब से इजाफा हो और बिना किसी रुकावट के आगे बढ़े।

उपभोक्तावाद का जैसा चित्रण एमिलाजोला ने अपने उपन्यास ' लेडीज पैराडाइज' में मिलता है वैसा अन्यत्र नहीं मिलता। उन्होंने उपभोक्तावाद के सब पहलुओं पर विस्तार से प्रकाश डाला है। 1860 के दशक के दौरान बीस वर्षीय डेनिश बॉडु अपने दो छोटे भाईयों के साथ गांव से पेरिस आती है। वहां एक बहुत बड़ा डिपार्टमेंट स्टोर बन रहा है और कालक्रम में उसका विस्तार बड़ी तेजी से हुआ। उसके विस्तार और काम करने के ढंग के ऊपर व्यापक प्रकाश डाला है। विज्ञापन से लेकर लोगों द्वारा खरीदी जाने वाली वस्तुओं को उनके ठिकानों पर पहुंचाने की प्रक्रिया पर प्रकाश डाला गया है। यदि कोई वस्तु पसंद आए तो एक खास अवधि के दौरान वापस करने की भी सुविधा दी गई। डिपार्टमेंट स्टोर के संचालक महिलाओं को आकर्षित करने की ओर विशष रूप से ध्यान देते थे। चूंकि वस्तुओं की कीमतें निश्चित थीं इसलिए सौदेबाजी की कोई गुंजाइश थी। यह ख्याल रखा जाता था कि वस्तुएं उत्तम कोटि की हों। बिजली की व्यवस्था ने डिपार्टमेंट स्टोर का कार्यदिवस बढ़ाने के साथ ही उसे आकर्षक बनाया। रेलगाडिय़ों और मोटर वाहनों ने बिना दिक्कत के लोगों के वहां आने की सुविधा प्रदान की।

जहां तक भारत का प्रश्न है, नवधनाढ्यों की देखादेखी उन्हीं के समुदाय के अन्य लोगों ने बड़े-बड़े महल बनवाने आरंभ कर दिए हैं। कुछ वर्षों पहले इस्पात के कारोबार में लगे लक्ष्मी मित्तल ने अपनी बेटी की शादी के ऊपर 2004 में चार करोड़ पौंड खर्च किए थे। उनकी देखादेखी उनके छोटे भाई प्रमोद मित्तल ने अपनी बेटी की शादी  बार्सिलोना में की जिस पर : करोड़ यूरो खर्च आया। लगभग 200 रसोइए भारत और थाईलैंड से बुलाए गए। बड़े भाई लक्ष्मी मित्तल की बेटी की शादी में बॉलीवुड से जुड़े अनेक लोगों को बुलाया गया और उनके आने-जाने का खर्च मित्तल ने उठाया। जावेद अख्तर ने इस मौके के मद्देनजर एक नाटक भी लिखा। शाहरूख  खां को आमंत्रित मेहमानों के मनोरंजन के लिए तीन लाख पौंड दिए गए।


जब से नवउदारवादी युग आरंभ हुआ है। तब से भारत में अरबपतियों की संख्या बढ़ी है। और वे दिलखोल कर खर्च कर रहे हैं। दावत हो या शादी-ब्याह या जन्मदिन वे  बेहिचक खर्च कर यह रेखांकित करने का प्रयास कर रहे हैं कि वे किसी से कम नहीं हैं। अब शादियां समुद्र में या किसी यूरोपियन द्वीप में होने लगी हैं। गाडिय़ों की कौन कहे, हेलीकाप्टर और छोटे हवाई जहाज दहेज में दिए जाने लगे हैं। स्पष्ट है कि वह जमाना कब का खत्म को चुका है जब सादा जीवन व्यतीत करना इज्जत की बात समझी जाती थी। आज तो यह दिखलाने की कोशिश जोर-शोर से हो रही है कि कौन कितना खर्च कर सकता है। वह मजदूरों जैसा काम नहीं करता फिर भी ऊंची आय प्राप्त कर ठाट-बाट से रह सकता है। वह ध्यानाकर्षी अवकाश भोगी वर्ग से जुड़ा है। उसकी तमन्ना 'एटिल्लाÓ बना कर समाज के ऊपर अपना दबदबा जमाना है।

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