इराक
में जारी गृह
युद्ध से भारत
के लिए बहुत
बुरी खबरें आ
रही हैं। अभी
जो बुरी खबर
आई है, वह
भारत की पूरी
सरकार का ध्यान
खींच चुकी है।
इराकी शहर मोसुल
में 40 भारतीयों को अगवा
कर लिया गया
है। यह सभी
भारतीय किसी प्रोजेक्ट
पर काम करते
थे। मोसुल पर
अल कायदा के
सहयोगी संगठन की अगुवाई
वाले इस्लामिक रिपब्लिक
ऑफ इराक एंड
सीरिया के लड़ाकुओं
के कब्जे के
बाद इन मजदूरों
को सुरक्षित जगहों
पर ले जाया
जा रहा था,
लेकिन उनको किसी
गिरोह ने अगवा
कर लिया।
भारत
की पूरी सरकार
इन मजदूरों की
सुरक्षित वापसी के काम
में लग गई
है। प्रधानमंत्री खुद
घटनाक्रम पर नजर
रखे हुए हैं।
उन्होंने साफ कह
दिया है कि
चाहे जो करना
पड़े भारतीयों को
सुरक्षित लाना सर्वोच्च
प्राथमिकता है। राष्ट्रीय
सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल
हर मिनट की
घटनाओं को देख
रहे हैं। आसियान
के लिए नियुक्त
विशेष दूत सुरेश
रेड्डी को इराक
भेज दिया गया
है क्योंकि, मोसुल
में उनके कुछ
संपर्क सूत्र बताए जाते
हैं। सबसे बड़ी
परेशानी यह है
कि इन मजदूरों
को रिहा करवाने
के लिए सरकार
के अधिकारियों की
समझ में नहीं
आ रहा है
कि किससे बात
की जाए। इस
इलाके में इराकी
सरकार की अपनी
कोई हैसियत नहीं
है। इस्लामिक रिपब्लिक
ऑफ इराक एंड
सीरिया के लड़ाकुओं
के नेता से
किसी का संपर्क
नहीं है। उनसे
कूटनीतिक चैनल से
बात की भी
नहीं जा सकती।
अजीब बात है
कि नई सरकार
की सभी चुनौतियां
उसी सरजमीन से
आ रही हैं
जहां से अमरीकी
राष्ट्रपतियों की आती
रही हैं। भारत
के लिए चिंता की बात
यह है कि
उत्तरी इराक के
उसी इलाके में
भारत से जाकर
काम करने वाले
लोग बड़ी संख्या
में रहते हैं।
मोसुल के पास
ही पूर्व राष्ट्रपति
सद्दाम हुसेन का शहर
तिरकित है जहां
काम करने वाली
कुछ नर्सों
के बारे में
बताया जा रहा
है कि उनको
भी भारी परेशानी
का सामना करना
पड़ रहा है।
तेल से जुड़ी
राजनीति, कूटनीति और अर्थशास्त्र
से भारत बहुत
अधिक प्रभावित होने
वाला है। इराकी
गृहयुद्ध के चलते
भारत के नवनिर्वाचित
प्रधानमंत्री के वे
सपने भी प्रभावित
होने वाले हैं
जो उन्होंने चुनाव
अभियान के दौरान
देखा था। उनके
सपने थे कि
देश की अर्थव्यवस्था
को फिर से
पटरी पर ला
देंगे, विकास की गति
तेज कर देंगे,
बेकार नौजवानों को
नौकरियां देंगे और महंगाई
कम कर देंगे।
यह सारे सपने
तेल की नियमित
सप्लाई पर निर्भर
हैं। पश्चिम एशिया
के जो देश
इराक के गृहयुद्ध
से सीधे तौर
पर प्रभावित हैं,
उनमें प्रमुख हैं
साउदी अरब, इरान,
इराक, सीरिया संयुक्त
अरब अमीरात और
कुवैत। इन देशों
से भारत के
कुल पेट्रोलियम आयात
का 57 प्रतिशत हिस्सा
आता है। जाहिर
है यहां की
अस्थिरता भारत की
संपन्नता के सपनों
पर सबसे बड़ा
हमला माना जाएगा।
भारत के साथ-साथ अमरीका
पश्चिम एशिया की हुई
राजनीति में बुरी
तरह से उलझ
गया है। इराक और
सीरिया में वहां
की सरकारों के
खिलाफ हथियारबंद विद्रोहियों
का हमला चल
रहा है। दोनों
ही देशों
में शासक शिया
मत के मानने
वाले हैं जबकि
विद्रोही पूरी तरह
से सुन्नी मतावलंबी
हैं। दुनिया जानती
है कि इराक
में फर्जी कारणों
से हमला करना
अमरीकी विदेशनीति की बहुत
बड़ी असफलताओं में
शुमार है। जब
तक अमरीकी फौजें
इराक में रहीं
अमरीकी कृपा से
राज कर रहे
शिया प्रधानमंत्री की
मौज थी लेकिन
करीब ढाई साल
पहले जब सभी
अमरीकी सैनिक इराक से
विदा हो गए
तो अब वहां
जिस संगठन को
इराकी अलकायदा कहा
जाता था उसने
अपने आपको संगठित
कर लिया है।
वहीं संगठन अब
इस्लामिक स्टेट ऑफ इराक
एंड सीरिया के
नाम से जाना
जाता है। इस्लामिक
स्टेट ऑफ इराक
एंड सीरिया कोई
सरकार नहीं है
लेकिन जब इराक
के सबसे बड़े
शहर मोसुल पर
इनका कब्जा हुआ
और इराकी सेना
वहां से भागीं
तो इन लोगों
ने मोसुल में
शरिया कानून लागू
कर दिया। इनके
हथियारबंद लड़ाकुओं ने बहुत
सारे कैदियों को
जेल से छुड़ा
लिया, बैंक में
लूटपाट की और
फरमान जारी कर
दिया कि कोई
भी लड़की तब
तक घर से
बाहर नहीं निकलेगी
जब तक कि
उसके साथ कोई
मर्द न हो।
चोरी करने वालों
का हाथ काटने
का नियम लागू
कर दिया गया।
ऐलान किया गया
की मोसुल में
निजाम-ए -मुस्तफा
कायम हो गया
है। मोसुल के
नए हुक्मरान कह
रहे हैं कि
यह अमरीका के
उस हमले का
बदला है जो
उसने नैटो के
साथ मिलकर इराक
पर किया था।
जाहिर है कि
अमरीका विरोधी भावना उफान
पर है और
अमरीका यहां सब
कुछ गंवा चुका
है। अमरीका की
विदेशनीति की धज्जियां
तो बार बार
उड़ी हैं लेकिन
जो पश्चिम एशिया
में हो रहा
है वह अमरीकी
शासकों के लिए
बहुत ही दुखद
है। जिस अलकायदा
के विरोध के
लिए अमरीका ने
अफगानिस्तान पर हमला
किया था, उसी
की सहयोगी संस्था
इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ इराक
एंड सीरिया को
सीरिया के शिया
शासक बसहर अल
असद के खिलाफ
हथियार दिए जा
रहे हैं और
इराक में उसी
अलकायदा संगठन की सामरिक
उफान को देख
कर अमरीका चुप
है और अपने
प्रिय इराकी शासक
राष्ट्रपति मलिकी की तबाही
देखने के लिए
अभिशप्त है। अमरीकी
नीतियों के लालबुझक्कड़ स्वरूप
का नतीजा है
कि आज अमरीका
ऐसी दुविधा में
है जिसके सामने
सांप छंछूदर की
दुविधा भी शर्म
से लाल हो
जाए। बहरहाल अमरीकी
विदेश नीति की
तो वह परवाह
करेगा। भारत के
चालीस मजदूरों के
अगवा होने के
बाद यह लड़ाई
भारत के लिए
भी बहुत ही
महत्वपूर्ण हो गई
है। प्रार्थना की
जानी चाहिए कि
गलत अमरीकी विदेश
नीति के नतीजों
से भारत के राष्ट्रीय हितों
का नुक्सान नहीं
होगा।
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