पिछले
एक दशक से
वैश्विक परिदृश्य में जो
बदलाव हो रहे
हैं, उन्हें तकनीकी
दृष्टि से सकारात्मक
और निर्माणात्मक मानने
वालों की संख्या
कम है। इसलिए
सवाल यह उठता
है कि आखिर
दुनिया में ऐसा
क्या हो रहा
है जिससे संरक्षणवादियों,
सुधारवादियों और एकतावादियों
के गढ़ दरकने
लगे हैं? इसका
कारण क्या अर्थव्यवस्था
का वर्तमान स्वरूप
है जिसके विरुद्ध
कभी पूंजीवाद के
गढ़ अमेरिका में
'वॉल आक्यूपाईÓ; जैसा
आंदोलन चलाया जाता है
तो कभी फ्रांस
में सरकोजी जैसे
सुधारवादियों की जगह
कम अनुभवी होलांद
जैसे व्यक्ति को
राष्ट्रपति पद के
लिए चुनकर 'मरकोजीवाद
को प्रबल चुनौती
दी जाती है?
लेकिन एक सवाल
यह उठता है
कि यदि इसी
प्रकार से सुधारवादी
पंूजीवादियों के विरुद्ध
दक्षिणपंथी या फिर
उनकी अनुषंगी विचारधाराएं
लगातार प्रबल होती गईं,
तो भविष्य में
किस तरह के
टकरावों को जन्म
देगा और उसके
भावी परिणाम क्या
होंगे?
अभी
पिछले दिनों यूरोपियन
यूनियन की संसद
के लिए चुनाव
सम्पन्न हुए। इन
चुनावों में दक्षिणपंथी
पार्टियों को जिस
तरह की बढ़त
मिली है, उसे
देखकर वैश्विक राजनीतिक
के जानकारों को
थोड़ी हैरत अवश्य
हुई है। इस
चुनाव परिणाम से
यूरोपियन यूनियन के भविष्य
को लेकर संशय
का एक घेरा
बनता दिख रहा
है। विशेष बात
तो यह है
कि इस चुनाव
में उन राजनीतिक
दलों को बड़ी
जीत हासिल हुई
है जो ब्रूसेल्स
(ईयू मुख्यालय) विरोधी
भावनाओं का प्रतिनिधित्व
करते हैं। चूंकि
उनकी संख्या पहले
के मुकाबले दोगुनी
से भी ज्यादा
हो गई है
इसलिए यह माना
जा सकता है
कि यूरोपियन यूनियन
की एकता के
लिहाज से ये
खतरनाक संकेत हैं। हालांकि
ये दल बहुमत
में अभी भी
नहीं हैं, बल्कि
751 सदस्यों वाली यूरोपियन
यूनियन की संसद
में बहुमत मध्यमार्गी
दलों के ही
पास है लेकिन
फिर भी दक्षिणपंथी
दलों की बढ़ी
हुई शक्ति के
कारण अब मध्यमार्गियों
को पहले की
अपेक्षा कहीं ज्यादा
विरोध झेलना होगा।
ध्यान
देने योग्य बात
यह है कि
यूरोपियन यूनियन की संसद
में अब तक
सात पार्टियों का
दखल रही है
लेकिन इस बार
उनकी संख्या अधिक
न•ार आ
रही है। यहां
यह भी जानने
योग्य बात है
कि यूरोपीय संसद
के लिए चुनाव
लडऩे वाली राजनीतिक
पार्टियां देशों के हिसाब
से नहीं, बल्कि
विचारधाराओं के हिसाब
से बंटी हुई
हैं। उदाहरण के
तौर पर यूरोपियन
पीपुल्स पार्टी (ईपीपी) रूढि़वादी
विचारधारा वाली पार्टी
है। इसके बाद
सोशलिस्ट्स एंड डेमोक्रैट्स
(एस एंड डी)
है जो समाजवादी
दल है; तत्पश्चात उदारवादी
पार्टी (एएलडीई), ग्रीन पार्टी,
वामपंथी पार्टी (जीयूई/एनजीएल)
तथा कुछ अन्य
छोटी पार्टियों, जैसे-
ईसीआर और ईएफडी,
के साथ-साथ
उग्रदक्षिणपंथियों की पार्टी
का स्थान आता
है। 2014 के चुनावों
में सबसे अधिक
28.50 प्रतिशत मत तथा
यूरोपीय संसद की 751 सीटों
में से 214 सीटें
ईपीपी (ग्रुप ऑफ द
यूरोनियन पीपुल्स) को ही
प्राप्त हुई हैं।
दूसरे स्थान पर
एस एण्ड डी
यानि ग्रुप ऑफ
द प्रोग्रेसिव एलायंस
ऑफ सोशलिस्ट्स एण्ड
डेमोक्रेट्स इन द
यूरोपियन पार्लियामेंट रही है
जिसे 25.43 प्रतिशत मत (191 सीटें)
मिले, जीयूई/एनजीएल
को 45, ग्रीन/ईएफए को
52, एएलडीई को 64, ईसीआर को
46, ईएफडी को 38, एनआई यानि
नॉन अटैच्ड मेंबर्स
(वे सदस्य जो
किसी भी राजनीतिक
पार्टी से सम्बद्ध
नहीं है) को
41 और अन्य को
60 सीटें हासिल हुईं। पूंजीवाद
समर्थक और सुधारवादियों
के लिए सबसे
संकट की बात
यह है कि
यूरोसेप्टिक, फॉर राइट
नेशनलिस्ट, यूरोसेप्टिक कंजरवेटिव, नॉन
इंस्क्रिट्स जैसी पार्टियों
को 200 के आसपास
सीटें मिल गई
हैं। ये वे
पार्टियां हैं जो
ईयू की सुपर
नेशनैलिटी को नहीं
स्वीकार करती यानि
ईयू विरोधी हैं
इसके साथ ही
ये उदारवाद और
समाजवाद का भी
विरोध करती हैं
तथा उग्र राष्ट्रीयता
अथवा दूसरे शब्दों
में कहें तो
फासीवाद व नवफासीवाद
का समर्थन करती
हैं।
गौर
से देखें तो
2008 में आई मंदी
के बाद से
दो तरह के
सवाल उठने आरम्भ
हुए। पहला यह
कि क्या पूंजीवादी
संस्थाएं विश्वास करने योग्य
हैं? और द्वितीय
यह कि क्या
सुधारवादी युवा भविष्य
की चिंता से
सम्पन्न हैं? लातिन
अमेरिकी देशों को छोड़
दें, जहां इस
तरह की संस्थाओं
के प्रति पहले
से ही नजरिया
अनुदार था, तो
वर्ष 2008 से दुनिया
के तमाम देशों
में न केवल
वित्त और बैंकिंग
क्षेत्र पर बौद्धिक
प्रहार हो रहे
हैं बल्कि प्राइवेट
इक्विटी के शीर्ष
पर भी हमले
होते दिखे। लेकिन
देखा यह गया
कि अधिकांश पूंजीवादी
देशों को गौर
से देखें तो
पता चलता है
कि बहुत सारी
प्राइवेट इक्विटी फ र्मों
को शवों की
तरह ढोया गया
या उन्हें सरकारीतंत्र
की जीवनरक्षक प्रणालियों
पर रखा गया
लेकिन उसका शिकार
बने आम आदमी
की तरफ देखा
भी नहीं गया।
कहने का तात्पर्य
यह है कि
बेरहम पूंजीवाद के
इस बीहड़ प्रदेश
में मानव पूंजी
की चिंता नहीं
की गई, बल्कि
मूल चिंतन पहले
की तरह ही
वित्तीय लाभ का
रहा जिसमें सरकारें
भी शामिल हो
गईं। स्वाभाविक तौर
पर दोनों प्रश्नों
का उत्तर नकारात्मक
ही आएगा। ऐसे
में इस तरह
के राजनीतिक या
समूहों का उदय
हो जो इसका
और इसे संरक्षण
देने वाली राष्ट्रीय
या अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था
का पुरजोर विरोध
करें।
यूरोपीय
संघ की नई
संसद कैसी होगी
इसका अंदाजा तो
सीटों के आंकड़े
देखकर लगाया जा
रहा है। इसमें
अधिकांश दल ऐसे
हैं जो आने
वाले समय में
बढ़ती बेरोजगारी के
कारण अप्रवासी नीति
को कठोर बनाने
की मांग मजबूती
से पेश करेंगे।
यदि ऐसा नहीं
हुआ तो ये
यूरोपीय संघ को
समाप्त करने के
लिए भी मुहिम
चलाना तेज कर
देंगे। ऐसी स्थिति
में यूरोप के
दो देशों विशेषकर
जर्मनी और फ्रांस
के लिए असहज
स्थिति पैदा हो
जाएगी। कमोबेश ही स्थिति
ब्रिटेन की भी
हो सकती है।
एक बात और,
फ्रांस में अप्रवासी
और ईयू विरोधी
पार्टी नेशनल फ्रंट पहले
नंबर पर रही,
जबकि सोशलिस्ट तीसरे
नंबर पर आ
गए। इसी तरह
से ब्रिटेन में
ईयू से नाता
तोड़ लेने की
वकालत करने वाली
इंडिपेंडेंस पार्टी (यूकेआईपी) ने
लेबर पार्टी को
ही नहीं, प्रधानमंत्री
डेविड कैमरन की
कंजर्वेटिव पार्टी को भी
पीछे छोड़ दिया
है। लगभग यही
स्थिति यूरोप ईयू के
अन्य सदस्य देशों
की है। स्विट्जरलैंड
में पहले ही
इस बात के
लिए जनमत कराया
जा चुका है
कि वहां आने
वाले प्रवासियों का
कोटा निर्धारित किया
जाए। यही नहीं,
जनवरी 2013 के आखिरी
सप्ताह में ब्लूमबर्ग
के मुख्यालय (लंदन)
में ब्रिटेन के
प्रधानमंत्री डेविड कैमरन यह
घोषणा कर चुके
हैं कि अगर
2015 में होने वाले
चुनावों में कंजरवेटिव
पार्टी जीतती है और
उनकी सरकार बनती
है तो 2017 में
वे यूरोप में
अपने भविष्य को
लेकर एक जनमत
सर्वेक्षण कराना चाहेेंगे।
यूरोप
में इन बदलावों
के लिए एक
पक्ष को और
भी लिया जा
सकता है। पूंजीवादी
उदारवाद के साथ-साथ यूरोप
में होने वाले
परिवर्तन के लिए
कुछ हद तक
इस्लाम का बढ़ता
प्रभाव या इस्लामोफोबिया
भी हो सकता
है। उल्लेखनीय है
कि यूरोप के
देशों में आव्रजकों
की संख्या तेजी
से बढ़ रही
है जिसमें अफ्रीकियों
की संख्या सबसे
ज्यादा है और
उनमें भी मुसलमानों
का प्रतिशत सबसे
अधिक। मुस्लिम आव्रजकों
की लगातार बढ़ती
आबादी के कारण
जहां एक तरफ एथनिक
बहुलता बढ़ेगी जिससे सरकारों
को साम्य बिठाने
में कई प्रकार
की चुनौतियों का
सामना करना पड़ेगा।
2009 में स्विस दक्षिणपंथी पार्टी
द्वारा मस्जिद की मीनार
के निर्माण पर
रोक पर जनमत
संग्रह कराए जाने
के पीछे कुछ
ऐसे ही कारण
मौजूद थे। राष्ट्रीय
सांख्यिकी कार्यालय के मुताबिक
स्विट्जरलैंड जैसे देश
में फिलहाल चार
लाख 90 हजार मुसलमान
हैं जिनकी संख्या
2030 तक छह लाख
63 हजार हो जाएगी।
मुस्लिम जनसंख्या की वृद्धि
में यही तेजी
पूरे यूरोप में
देखी जा सकती
है, यह स्थिति
दक्षिणपंथियों को स्वीकार
नहीं है।
बहरहाल
यूरोप में इस्लाम
विरोधी, यूरो विरोधी,
ईयू विरोधी, प्रवासन
विरोधी, सुधारवाद विरोधी और
पूंजी व संरक्षणवाद
विरोधी जो बयार
चलना शुरू हुई
है उस पर
दुनिया को नजर
रखनी होगी अन्यथा
इसके परिणाम आने
वाले समय के
लिए चौंकाने वाले
होंगे। हालांकि
इन चुनौतियों के
बाद भी यूरोपीय
संघ को अपने
नये डेटा सुरक्षा
नियम तय करने
होंगे जो 1995 के
बने हैं और
उनमें सुधारों की
काफी गुंजाइश है।
उल्लेखनीय है कि
इंटरनेट कंपनियों के अलावा
अमेरिकी खुफिया एजेंसी एनएसए
जैसे संगठनों के
डेटा जमा करने
की आदत से
बहुत से यूरोपीय
नागरिक असुरक्षित महसूस कर
रहे हैं। अमेरिका
के साथ मुक्त
व्यापार संधि के
लिए प्रभावी प्रयासों
के साथ-साथ
यूरोपीय संस्थाओं की साख
को बढ़ाना होगा
अन्यथा यूरोपीय संघ बिखराव
की ओर जा
सकता है।
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