देश
की उच्च न्यायपालिका
में न्यायाधीशों की
नियुक्ति और उनके
तबादले के मामले
में दो दशक
से भी अधिक
पुरानी व्यवस्था फिलहाल पूर्ववत
ही जारी रहेगी।
न्यायाधीशों के चयन
और उनकी नियुक्ति
की मौजूदा व्यवस्था
में बदलाव के
लिये पिछले दो
दशक से प्रयास
किये जा रहे
हैं लेकिन अपरिहार्य
कारणों से इसे
मूर्तरूप नहीं दिया
जा सका है।
वर्तमान व्यवस्था के अंतर्गत
उच्च न्यायालयों और
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों
के चयन का
काम न्यायाधीशों की
समिति करती है
और इसमें सरकार
की भूमिका नगण्य
है। सरकार महसूस
करती है कि
इस प्रक्रिया में
उसकी भूमिका भी
होनी चाहिए।
न्यायाधीशों
की नियुक्ति की
वर्तमान प्रक्रिया में बदलाव
लाने और इसे
अधिक पारदर्शी बनाने
की लंबे समय
से उठ रही
मांग के मद्देनजर
प्रस्तावित न्यायिक नियुक्ति आयोग
को संवैधानिक दर्जा
देने का प्रयास
किया जा रहा
था।
चूंकि
इस प्रक्रिया को
अंतिम रूप नहीं
मिल सका, इसलिए
लोकसभा चुनाव के बाद
गठित होने वाली
नई सरकार को
इस पर फिर
से गौर करने
का अवसर मिलेगा।
नई सरकार चाहे
तो मौजूदा प्रारूप
को ही संसद
से पारित करा
सकती है लेकिन
यदि वह इसमें
कुछ और बदलाव
करना चाहे तो
फिर न्यायाधीशों की
नियुक्ति की वर्तमान
व्यवस्था के बदलाव
में लंबा समय
लग सकता है।
यह
संयोग ही है
कि इससे पहले
1990 और फिर 2003 में भी
न्यायाधीशों की नियुक्ति
की वर्तमान व्यवस्था
में संविधान संशोधन
के जरिए बदलाव
के प्रयास किये
गए थे, लेकिन
दोनों ही अवसरों
पर लोकसभा भंग
हो जाने के
कारण यह प्रक्रिया
आगे नहीं बढ़
सकी थी। एक
बार फिर ऐसा
ही कुछ हुआ
और न्यायाधीशों की
नियुक्ति की मौजूदा
व्यवस्था में बदलाव
का प्रयास परवान
नहीं चढ़ सका।
प्रधानमंत्री
डा मनमोहन सिंह
के नेतृत्व वाली
संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार
इस व्यवस्था में
बदलाव करके न्यायाधीशों
की नियुक्ति के
लिये न्यायिक नियुक्ति
आयोग बनाना चाहती
थी। इस दिशा
में सरकार ने
काफी काम भी
किया था। विधि
एवं न्याय मंत्री
कपिल सिब्बल ने
29 अगस्त, 2013 को राज्य
सभा में 120वां
संविधान संशोधन विधेयक और
न्यायिक नियुक्ति आयोग विधेयक,
2013 पेश किया था।
सदन ने इस
विधेयक को संसद
की स्थाई समिति
के पास भेज
दिया था। संसद
की स्थाई समिति
ने 09 दिसंबर, 2013 को
इस विधेयक पर
अपनी रिपोर्ट संसद
में पेश की
थी।
संसदीय
समिति ने अपनी
रिपोर्ट में न्यायिक
नियुक्ति आयोग को
संवैधानिक संरक्षण देने की
सिफारिश की थी।
इस सिफारिश के
मद्देनजर ही केन्द्रीय
मंत्रिमंडल ने दिसंबर
2013 की बैठक में
उच्च न्यायपालिका में
न्यायाधीशों की नियुक्ति
और तबादले के
लिये प्रस्तावित न्यायिक
नियुक्ति आयोग को
संवैधानिक संरक्षण प्रदान करने
के लिए संविधान
के अनुच्छेद 124 मे
दो नये उपबंध
अनुच्छेद 124-क और
अनुच्छेद 124--ख जोड़ने
का भी निर्णय
किया था।
सरकार
संसद के विस्तारित
शीतकालीन सत्र में
इस संविधान संशोधन
को पारित कराना
चाहती थी लेकिन
दूसरे मुद्दों के
कारण इस विषय
को संसद से
मंजूरी नहीं मिल
सकी। यदि यह
विधेयक पारित हो जाता
तो इसे राष्ट्रपति
की संस्तुति मिलने
के बाद उच्च
न्यायालयों और उच्चतम
न्यायालय में न्यायाधीशों
की नियुक्ति की
जिम्मेदारी न्यायिक नियुक्ति आयोग
को सौंपी जा
सकती थी।
प्रस्तावित
न्यायिक नियुक्त आयोग का
अध्यक्ष देश के
प्रधान न्यायाधीश को बनाने
का प्रस्ताव था।
छह सदस्यीय आयोग
में उच्चतम न्यायालय
के दो वरिष्ठ
न्यायाधीशों के साथ
ही कानून मंत्रि,
विधि सचिव और
दो बुद्धिजीवी को
इसका सदस्य बनाने
का प्रस्ताव था।
इन बुद्धिजीवियों के
नामों का चयन
प्रधान मंत्री, प्रधान न्यायाधीश
और संसद में
प्रतिपक्ष के नेता
को करने की
व्यवस्था की गयी
थी। न्याय विभाग
के सचिव को
इसका संयोजक बनाने
का प्रस्ताव था।
इस
आयेाग को न्यायाधीशों
की नियुक्ति, तबादले
और इस पद
के दावेदारों की
गुणवत्ता से संबंधित
कामकाज की जिम्मेदारी
सौंपी जानी थी।
आयोग को देश
के प्रधान न्यायाधीश,
उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों
और उच्च न्यायालय
के मुख्य न्यायाधीशों
तथा न्यायाधीशों की
नियुक्ति के लिये
सिफारिश करने के
साथ ही एक
उच्च न्यायालय के
मुख्य न्यायाधीश और
अन्य न्यायाधीशों की
किसी दूसरे उच्च
न्यायालय में तबादले
की सिफारिश करने
का अधिकार प्रदान
किया जा रहा
था।
उच्च
न्यायालय के न्यायाधीशों
की नियुक्ति संबंधी
प्रक्रिया में राज्यपाल,
मुख्यमंत्री और संबंधित
राज्य के उच्च
न्यायालय के मुख्य
न्यायाधीश की लिखित
में राय प्राप्त
करना भी आयोग
के काम में
शामिल है। यह
सारी कार्यवाही आयोग
द्वारा कामकाज के लिये
बनाये गये नियमों
के अनुसार ही
की जाती।
उच्चतम
न्यायालय और उच्च
न्यायालयों में न्यायाधीशों
के पद रिक्त
होने की स्थिति
में इस बारे
में केन्द्र सरकार
को आयोग के
पास सूचना भेजनी
पड़ती। न्यायालयों में वर्तमान
रिक्त स्थानों के
बारे में यह
कानून बनने की
तारीख से तीन
महीने के भीतर
सूचना देने की
व्यवस्था की जा
रही थी। इसी
तरह, यदि किसी
न्यायाधीश का कार्यकाल
पूरा हो रहा
हो तो ऐसी
स्थिति में यह
पद रिक्त होने
की तारीख से
दो महीने पहले
ही आयोग को
सूचित करने का
भी इसमें प्रावधान
था। किसी न्यायाधीश
के निधन होने
के कारण रिक्त
हुए पद के
बारे में भी
दो महीने के
भीतर ही आयोग
को सूचित करने
का प्रावधान किया
गया है।
न्यायिक
नियुक्ति आयोग में
प्रावधान है कि
इसके न्यायाधीशों के
चयन की प्रक्रिया
आयोग के संयोजक
उच्च न्यायालयों के
मुख्य न्यायाधीशों, केन्द्र
सरकार और राज्य
सरकारों से पात्र
उम्मीदवारों के बारे
में सिफारिशें आमंत्रित
करके शुरू करेंगे।
इस
समय उच्चतम न्यायालय
में प्रधान न्यायाधीश
सहित न्यायाधीशों के
31 और 24 उच्च न्यायालयों
में न्यायाधीशों के
906 स्वीकृत पद हैं।
एक अनुमान के
अनुसार इस समय
विभिन्न उच्च न्यायालयों
में न्यायाधीशों के
करीब 275 पद रिक्त
हैं। उच्च न्यायालयों
में न्यायाधीशों के
रिक्त पदों का
सीधा प्रभाव लंबित
मुकदमों के निबटाने
की प्रक्रिया को
प्रभावित करता है।
न्ययाधीशों
की नियुक्ति की
वर्तमान व्यवस्था को लेकर
उठ रहे सवालों
के संदर्भ में
उच्चतम न्यायालय के पूर्व
न्यायाधीश डा ए
आर लक्ष्मणन की
अध्यक्षता वाले 18वें विधि
आयोग ने 2008 में
अपनी 214वीं रिपोर्ट
में भारत में
1993 से प्रभावी न्यायाधीशों की
नियुक्ति की प्रक्रिया
में बदलाव पर
विचार का सुझाव
दिया था।
आयोग
की राय थी
कि संविधान के
अनुच्छेद 124 (2) और 217 (1) न्यायाधीशों की
नियुक्ति के मामले
में कार्यपालिका और
न्यायपालिका की भूमिका
में बहुत खूबसूरती
से संतुलन कायम
किया गया था।
लेकिन 1993 के उच्चतम
न्यायालय के निर्णय
और राष्ट्रपति को
इस मसले पर
दी गयी सलाह
ने इसमें असंतुलन
पैदा कर दिया।
विधि आयोग का
सुझाव था कि
इस मामले में
कार्यपालिका और न्यायपालिका
के बीच मूल
संतुलन बनाने के लिए
इसकी नये सिरे
से समीक्षा की
जाए।
मद्रास
उच्च न्यायालय के
150वीं जयंती समारोह में
सितंबर, 2012 में राष्ट्रपति
ने भी न्यायाधीशों
की भूमिका के
बारे में निर्णय
को बेहद संवदेनशील
विषय बताते हुये
न्यायपालिका की स्वतंत्रता
और इसकी विश्वसनीयता
बनाये रखने पर
भी जोर दिया
था। राष्ट्रपति का
विचार था कि
न्यायपालिका की विश्वसनीयता
उन न्यायाधीशों के
स्तर पर निर्भर
करती है जो
देश की तमाम
अदालतों को संचालित
करते हैं। इसलिए
न्यायाधीशों के चयन
और उनकी नियुक्ति
की प्रक्रिया न
सिर्फ उच्च मानदंडों
के अनुरूप होनी
चाहिए बल्कि यह
प्रतिपादित सिद्धांतों पर आधारित
होनी चाहिए।
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