मंगलवार, 10 जून 2014

भारतीय उद्योगों के लिए सबक

एम्बेसडर कारें भारत की कई पीढिय़ों की यादों का हिस्सा रहीं। 1960-70 के दशकों में भारत के ज्यादातर हिस्सों में नजर आने वाली अकेली कार एम्बेसडर ही थी। 1980 के दशक में मारुति-800 ने इसे सड़कों से धकेला। धीरे-धीरे यह सिर्फ मंत्रियों, सरकारी अफसरों और दफ्तरों के उपयोग की कार बन गई। 1990 के दशक में भारतीय बाजार विदेशी कारों के लिए खुला। इस दौर में एम्बेसडर अधिकांशत: टैक्सियों में तब्दील हो गई। धीरे-धीरे इस क्षेत्र में भी इसका वर्चस्व टूट गया। 1980 के दशक में सालाना तकरीबन 24,000 एम्बेसडर कारें बिकती थीं। अब यह संख्या महज 5000 रह गई थी।

अब इसे बनाने वाली कंपनी हिंदुस्तान मोटर्स (एचएम) ने पश्चिम बंगाल स्थित उत्तरपाड़ा कारखाने को फिलहाल बंद करने का एलान किया है। इससे वहां के लगभग 2,600 कर्मचारियों का भविष्य अधर में लटक गया है। बंद की अवधि में उन्हें वेतन नहीं मिलेगा। कारखाना दोबारा चालू होने की संभावना  बहुत कम है।

कंपनी के मुताबिक अप्रैल 2012 से दिसंबर 2013 तक उसे 120 करोड़ रुपए का घाटा हुआ। मगर यह प्रश्न प्रासंगिक है कि इसके लिए जिम्मेदार कौन है? एम्बेसडर का जो बना-बनाया बाजार था, एचएम उसे उस दौर में आगे क्यों नहीं बढ़ा पाई, जब भारत में कारों का बाजार तेजी से फैला। आज हर महीने देश में डेढ़ लाख से ऊपर कारें बिकती हैं। नई और बाहरी कंपनियां बाद में आकर इस बाजार में जम गईं।

क्या यह कहना गलत होगा कि एचएम प्रतिस्पर्धा में टिकने के लिए आवश्यक कल्पनाशीलता और क्षमता दिखाने में विफल रही? एम्बेसडर का डिजाइन पुराने जमाने जैसा बना रहा। उसके बारे में धारणा कायम रही कि ये अत्यधिक ईंधन खाती है और कम रफ्तार देती है, जबकि वक्त और उपभोक्ताओं की पसंद तेजी से आगे बढ़ी। स्पष्टत: एम्बेसडर एक ऐसी मिसाल बन कर विदा हो रही है, जिससे भारतीय उद्योग जगत को सबक लेने की जरूरत है। वैश्वीकृत अर्थव्यवस्था के दौर में प्रतिस्पर्धा कड़ी है।


इसमें वही उत्पाद टिक सकता है, जो उपभोक्ताओं की बदलती मांग के मुताबिक परिवर्तित हो, निरंतर नई खूबियों के साथ सामने आए और नई पीढ़ी को रोमांचित करने की क्षमता रखता हो। एम्बेसडर के साथ ऐसा क्यों नहीं हुआ, एचएम को इसकी पड़ताल जरूर करनी चाहिए।

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