स्वीडन
की राजधानी स्टाकहोम
स्थित लोकतंत्र और
चुनावी सहायता के अंतर्राष्ट्रीय
संस्थान के एक
शोध से भारतीय
राजनीति के मौजूदा
विकासक्रम को समझने
में बहुत सुविधा
मिल सकती है।
इस शोधपत्र में
ऐसे बहुत सारे
सवाल उठाए गए
हैं जो इस
समय एक राष्ट्र
के रूप में
भारत के सामने
मौजूद चुनौतियों को
हल करने में
मदद कर सकते
हैं। लोकसभा चुनाव
के पिछले महीने
आए नतीजों से
एक बात बिल्कुल
खुलकर सामने आ
गयी है कि
अपने लोकतंत्र की
अब तक की
प्रगति से देश
के एक बड़े
वर्ग के नागरिकों
में बेचैनी है।
लेकिन यह भी
दुविधा है कि
लोकतांत्रिक व्यवस्था से उसकी
अपेक्षाओं के बारे
में तस्वीर साफ़
नहीं है। वास्तव
में हमारे लोकतंत्र
को वंशवादी और
सामन्ती प्रवृत्तियों से लदी
हुयी राजनीति ने
ऐसे मुकाम पर
लाकर खड़ा कर
दिया है कि
आज भारत में
बहुत ही अजीब स्थिति
है , संसदीय लोकतंत्र
को चारों तरफ
से ललकारा जा
रहा है। जवाहरलाल
नेहरू की विरासत
को उनके वंशजों
के हवाले से
नकार देने की
कोशिश चल रही
है। ऐसी स्थिति
में इस संस्थान
की तरफ से
मिलने वाली कुछ
जानकारी हमारे देश के
नेताओं के लिए
उपयोगी हो सकती
है।
पूरी
दुनिया में लोकतंत्र
के भविष्य पर
सवाल उठ रहे
हैं । दूसरे
विश्वयुद्ध के बाद
से ही अमरीका
ने प्रचार कर
रखा था कि
शीत युद्ध के
खात्मे के
बाद सब कुछ
ठीक हो जाएगा
लेकिन शीत युद्ध
में अमरीकी जीत
के दावे के
बाद भी आज
लोकतंत्र के बुनियादी
लक्ष्यों को हासिल
नहीं किया जा
सका है ।
गरीब और अविकसित
देशों की बात
तो बहुत दूर
की कौड़ी है।
सच्चाई यह
है कि अति
विकसित देशों में भी
मानवाधिकारों के
रक्षक के रूप
में लोकतंत्र उतना
सफल नहीं है
जितना उम्मीद की
जा रही थी।
यूरोप और अमरीका
के बहुत सारे संगठनों
ने रिसर्च के
बाद तय किया
है कि एक
अवधारणा के रूप
में लोकतंत्र को
रिक्लेम करने की
ज़रुरत है।
शीत युद्ध के बाद
भविष्यवाणी की गयी
थी कि एक
राजनीतिक विधा के
रूप में लोकतंत्र
सबसे बड़ी, कारगर
और सफल व्यवस्था बनी
रहेगी लेकिन ऐसा
नहीं हुआ। आज
लोकतंत्र के सामने
सबसे बड़ी चुनौती
न्याय और अधिकार
की डिलीवरी की
है । इंसानी
मूल्यों के पोषक
और रक्षक के
रूप में राज्य
और सरकार की
उपयोगिता पर
सवाल उठ रहे हैं।
सबको मालूम है
कि मनुष्य
और मानवता की
आवश्यकताओं की पूर्ति
के लिए लोकतंत्र
सबसे ज़रूरी और
उपयोगी साधन है
लेकिन आज जो
चुनौतियां हैं वे
इसी बात को
रेखांकित कर रही
हैं कि लोकतंत्र
विकास की तरकीबों
में सुधार और
गैरबराबरी की हालात
को कम करने
में नाकाम पाया
जा रहा
है । दुनिया
के हर इलाके
में हिंसक संघर्ष
हो रहे हैं। हिंसक संघर्षों
को कम करना
मानवता के अस्तित्व
के सवाल से
जुड़ा हुआ मुद्दा
है। हमें मालूम
है कि हिंसक
संघर्ष का मुख्य
कारण असुरक्षा होती है
। असुरक्षा तब
होती है जब
समाज के एक
वर्ग या कुछ
वर्गों को यह
अहसास हो जाए
कि वे
मुख्यधारा से अलग
कर दिए गए
हैं या
उनको ऐसा भरोसा
हो जाए कि
उपलब्ध तरीकों से वे बाकी
लोगों के साथ
बराबरी नहीं कर
सकते। हिंसक संघर्ष
के कारणों में
वंचना भी एक
अहम कारण है
। जब किसी
वर्ग को ऐसा
शक हो जाए
कि वह संसाधनों
से वंचित कर
दिया गया है
या इसे यह
आभास हो जाए
कि लोकतंत्र में
राजनीतिक शक्ति है उसकी
वजह से राज्य
को मिलती है
वह एक व्यक्ति
या समाज
के रूप में
उससे वंचित रह
गया है ।
लोकतंत्र
की स्थापना में
संस्थाओं का बहुत
बड़ा योगदान है
लेकिन यह मानी
हुयी बात है
कि लोकतंत्र की
स्थापना शुद्ध रूप से
संस्थाओं के ज़रिये
ही नहीं की
जा सकती। यह
भी ज़रूरी है
कि लोकतंत्र की
संस्थाओं को टिकाऊ
बनाने के लिए
प्रयास किये जाएँ।
इन संस्थाओं को न्याय
के वाहक के
रूप में विकसित करने के लिए
ज़रूरी है कि
लोकतंत्र की संस्कृति
को संस्थागत रूप
देने की कोशिश
की जाए ।
लोकतंत्र की संस्थाओं
से जो अधिकार
मिलते हैं उनका
प्रयोग न्याय और बराबरी
का निजाम कायम
करने के लिए
किया जाय , लोकशाही
की संस्थाओं को
शक्तिशाली बनाने का सबसे
प्रभावशाली तरीका
यह है कि
उसमें अधिकतर लोगों
को शामिल करने
की प्रक्रिया पर
शोध किया जाय
और उसको लागू
करने की कोशिश
की जाए। एक
समाज और देश के
रूप में हमको
याद रखना चाहिए
कि लोकतंत्र को
मजबूती देने का
काम राजनीतिक काम
है, उसे किसी
फार्मूले या नियम
क़ानून के बल
पर नहीं बनाया
जा सकता। इसके
लिए ज़रूरी है
कि सभी नागरिकों
के सम्मान को
महत्व दिया जाए
, संसाधनों के मालिकाना
हक तय करते
वक्त स्थानीय लोगों
को महत्व दिया
जाए , नीति बनाते
वक्त हर स्तर
पर सब
से संवाद की
स्थिति पैदा की
जाए। यह सुनिश्चित
करना भी ज़रूरी
है कि सबको
न्याय मिले और
यह दिखे भी
कि न्याय हो
रहा है ।
यानी नीति निर्धारण,
उसके परिपालन और
उसके प्रभाव में
हर तरह की पारदर्शिता
लाना किसी भी
अधिकारप्राप्त संस्था का मकसद
होना चाहिए ।
सही बात यह है
कि लोकतंत्र राजनीतिक
शक्ति हासिल करने
का सबसे मानवीय तरीका है। इसकी
सफलता के लिए
ज़रूरी शर्त यह
है कि इस
राजनीतिक शक्ति का इस्तेमाल
सकारात्मक तरीके से किया
जाना चाहिए। न्यायसंगत
होना चाहिए और
सबको यह पता
होना चाहिए कि
वे भी राजनीतिक
ताक़त के
इस्तेमाल की प्रक्रिया
में शामिल हैं
। लोकतंत्र या
किसी भी राजव्यवस्था
का मकसद और
उसकी बुनियादी
ज़रुरत इंसानी सुरक्षा है। अब
तक पाया गया
है कि इंसानी
सुरक्षा के नाम
पर हासिल की
गयी शक्ति में
कुछ ऐसी विसंगतियां
आ जाती हैं
जो लोकतंत्र को
जड़ से कमज़ोर
करती हैं। लोकतंत्र
की सभी संस्थाओं
में जांच और
नियंत्रण की प्रक्रिया
को स्थाई रूप
से शामिल किया
जाना चाहिए। ज़ाहिर
है कि इनमें
से कुछ मान्यताओं
को अगर आज
के भारत के
सन्दर्भ में लागू
किया जा सके
तो हमारे लोकतंत्र
के विकास में
भी महत्वपूर्ण योगदान
होगा।
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