शनिवार, 30 मार्च 2013

लुक वेस्ट पॉलिसी



यह नीति पश्चिम एशिया की नीति के नाम से जानी जाती है। वैसे तो यह पूर्व देखो  नीति के समान पुरानी तो नहीं है लेकिन बहुत ज्यादा नयी भी नहीं है। हाँ ये साफ तौर पर कहा जा सकता है कि यह नीति स्पष्टता के साथ 1990 के दशक के बाद ही उभर कर आयी है। इससे पहले इसमें इतनी प्रखरता नहीं थी। किन्तु नीति गतिमान जरूर थी। इसकी बाजिब वजह भी थी। दरअसल 1960 के दशक में इस क्षेत्र में तेल क्रान्ति  हुई। इस क्रान्ति ने यहाँ पर औद्योगिकरण को जन्म दिया। इस औद्योगिकीकरण ने वृहत पैमाने पर खाड़ी में रोजगार का सृजन किया। यहाँ पर उत्पन्न अवसर को हासिल करने के लिए दुनिया के तमाम हिस्सों से श्रमिक आने लगे। इन श्रमिको में भारत से आये कामगारो का भी एक बड़ा हिस्सा शामिल है। ये श्रमिक यहाँ पर अर्जित आय का बड़ा भाग भारत भेजने लगे। जिससे भारत को दुर्लभ मुद्रा सुलभता से उपलब्ध होने लगी। इसकी सुलभता ऐसे ही बनी रहे इसके लिए आवश्यक हुआ कि इन श्रमिकों के हितों की रक्षा परदेश में की जाए। इसलिए सरकार इस क्षेत्र के विभिन्न देशों के साथ सम्पर्क बढ़ाने लगी। ताकि इन देशों में मौजूद भारतीयों को सुरक्षा प्रदान की जा सके। मगर इन देशों के साथ संबंध में जलविभाजक काल 1990 का दशक रहा। इस दशक के प्रारम्भ मे भारत ने नई आर्थिक नीति को आत्मसात किया। इसका परिणाम यह हुआ कि देश में अन्दर और बाहर से निजी क्षेत्रों के निवेश की बाढ़ आ गयी। इस बाढ़ ने देश के उद्योग-धन्धे   को खूब फलने-फूलने का अवसर प्रदान किया। इस अवसर ने लोगों को आजीविका का साधन मुहैया कराया। इससे क्रयशक्ति वृद्धि हुई और इसके साथ ही बहुत सारे लोगो में  क्रय  करने की क्षमता का सृजन हुआ। इस प्रकार भारत में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं की माँग बढ़ी। इस मांग ने उद्योगों के विस्तार को तीव्रता प्रदान की। यह तीव्रता अपने साथ ऊर्जा की वृहत पैमाने पर मांग लेकर आयी। इसकी मांग को पूरा करने के लिए आवश्यक हो गया कि पश्चिम एशिया के साथ आर्थिक संबंधों को प्रगाढ़ किया जाए। यह तब और भी जरूरी हो गया जब ऊर्जा का कोई अन्य वैकल्पिक क्षेत्र तत्कालीन समय में उपलब्ध नहीं था। इसका एक अन्य कारण भी है जिसने भारत को पश्चिम एशिया के साथ अपने संबंधों को नया आयाम देने के लिए बाध्य किया। जैसा की सभी जानते है कि भारत में इंडोनेशिया के बाद दुनिया के सर्वाधिक मुसलमान रहते है। ये मुसलमान सांस्कृतिक रूप से तो पूर्णतः भारतीय है किन्तु इनके दिलों के तार यहाँ से जुडे हुए है। इसका कारण इतिहास में छुपा है। दरअसल पुर्नजागरण काल में जब प्राचीन काल से भारतीय सभ्यता और संस्कृति से जोड़कर देखा जा रहा था उस समय भारत में रहने वाले मुसलमान अपनी जडे़ पश्चिम एशिया में तलाश रहे थे। इसी तलाश में ये इतना आगे निकल गये कि अपने को खाड़ी देशों से जोड़कर देखने लगे। ऐसी स्थिति में भारत को अपनी आंतरिक सुरक्षा को पुख्ता रखने के लिए इनसे संबंध को पुख्ता रखना आवश्यक हो गया। यह कितना जरूरी है इसका अनुमान दो घटनाओं से सहज पूर्वक लगाया जा सकता है। इसमे से पहली घटना ईरान से संबंध रखती है। इधर कई वर्षो से ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर पश्चिमी देश बेहद खफा है। उन्होंने इसके कार्यक्रम को रोकने के लिए नाना प्रकार के प्रतिबन्ध लगा रखे है। इस दबाव से भारत भी नहीं बचा। किन्तु इसके बाद भी ईरान के साथ अपने संबंधे को बनाए हुए है। यही नहीं अमेरिका के तमाम दबाव के बाद भी भारत तेहरान में हुए नाम शिखर सम्मेलन में भी गया। यह सब करने का एक मात्रा कारण भारत में रहने वाले शिया मुस्लिम है। यदि देश पश्चिमी देशों के दबाव में आकर ईरान के साथ अपने संबंधें को तिलांजली दे देगा है तो शिया समुदाय बिदक जाएगा। ऐसा भी हो सकता है कि वह सरकार विरोधी गतिविधियों में भी संलिप्त हो जाए। वहीं दूसरी ओर देश में अधिसंख्यक सुन्नी के प्रकोप से बचने के लिए सरकार ने सीरिया के मुद्दे पर तटस्थ नीति का अनुपालन किया। यह सही है कि सरकार ने पश्चिमी देशों के प्रस्ताव का समर्थन किया। मगर यह समर्थन तभी दिया गया जब उसमें असद सरकार को विस्थापित करने की शर्त को हटा दिया गया। कुल मिलाकर कहने का अर्थ यही है कि यह नीति क्रमशः आन्तरिक, ऊर्जा और भारतीय श्रमिकों की सुरक्षा को केन्द्र में रखकर ही शुरू की गयी। जिसमें समय के साथ और त्वरण प्रदान किया गया।

इसी त्वरण का परिणाम है कि 2005 में बकायदा लुक ईस्ट पॉलिसी की तर्ज पर लुक वेस्ट पॉलिसी का श्रीगणेश किया गया। यह पॉलिसी भारत के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुई। इसने दोनों क्षेत्रों के मध्य आपसी अन्तरक्रिया  को गति प्रदान किया। इस गति में इतनी तीव्रता थी कि इनके संबंध आर्थिक और सांस्कृतिक सीमाओं में ही बंधे नहीं रहे बल्कि इससे आगे बढ़ते हुए सुरक्षा की परिधि तक पहुँच गए। यह परिधि 2008 में भारत के प्रधनमंत्री की ओमान और कतर यात्रा के दौरान स्पष्ट रूप से सामने आयी। कतर के साथ भारत ने आर्थिक समझौते के साथ ही रक्षा और सुरक्षा के क्षेत्रा में भी आपसी समझौते किए जो कि बहुत ही महत्वपूर्ण है। यह इसलिए महत्व नहीं रखता है क्योंकि यह समझौता पश्चिमी में वर्तमान के नये उभरते हुए नेता के साथ हुआ। आज पश्चिम एशिया की राजनीति और कूटनीति में इस देश का कद बहुत ऊँचा हो गया है। इसका अन्दाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पश्चिम एशिया या यह कहे मुस्लिम जगत में सक्रिय  सभी प्रमुख संगठनों यथा तालिबान, हमास का मुख्यालय कतर में ही है। इतना ही नहीं मिस्र, लीबिया और ट्यूनेशिया में हुए सत्ता परिवर्तन में इस देश की अग्रणी भूमिका रही है। इससे यह बात तो साफ है कि कतर के साथ संबंध् इस क्षेत्र में भारत को नयी भूमिका प्रदान करेगा। इसी सन्दर्भ में ओमान से हुए समझौते का भी उल्लेख करना जरूरी है। इन दोनों ने निवेश प्रक्रिया  को प्रोत्साहित करने के लिए 100 मिलियन डालर के कोष का निर्माण किया जिसे बढाकर 1.5 बिलियन डालर तक ले जाने पर सहमति बनी है। इस निवेश कोष से अर्द्धसंरचना, पर्यटन, स्वास्थ्य, दूरसंचार, नगरीय अर्द्धसंरचना और अन्य क्षेत्रों पर दोनों देशों में निवेश किया जाएगा। इसके अलावा भारतीय श्रमिकों की रक्षा के लिए द्विपक्षीय सामाजिक समझौता हुआ। यही के अन्य देश कुवैत के साथ 2009 में शिक्षा, विज्ञान और प्रौद्योगिकी तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम के आदान-प्रदान को लेकर तीन समझौते हुए। ये समझौते भारत के उपराष्ट्रपति के कुवैत यात्रा के दौरान हुए। इस क्षेत्रा के सबसे बड़े और प्रभावशाली देश सउदी अरब की 2010 में भारत के प्रधानमंत्री ने यात्रा की। यह यात्रा भारत के लिए बहुत ही लाभदायक सिद्ध हुई। इसी यात्रा के दौरान दोनों देशों के मध्य सामरिक संबंध के नये युग की शुरूआत हुई। इसके पडोसी संयुक्त अरब अमीरात की साल 2010 में ही राष्ट्रपति ने की। इसमें आर्थिक, व्यापारिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक विषयों से संबंधित कई मुद्दों पर आपसी सहमति बनी। यहाँ पर यात्रा के दौरान राष्ट्रपति ने इंडियन वर्क्स रिसोर्स सेन्टर का उद्घाटन किया। यह केन्द्र दुबई में स्थित है। इसका उद्देश्य अर्द्धकुशल और अकुशल श्रमिको को यूएई में समाज कल्याण सेवा मुहैया करना है। इसी प्रकार और कई भी समझौते हुए है जिन्होने भारत की लुक वेस्ट पॉलिसी को मजबूत किया है। किन्तु अभी इनके  संबंधो  में वह त्वरण नहीं आया है। इसके कई कारण है। पहला कारण तो इजराइल है इसे यहाँ के देश अपना सबसे बड़ा दुश्मन मानते है। इनके इस दुश्मन के साथ भारत के बहुत ही प्रगाढ़ आर्थिक और सामरिक संबंध है। भारत इससे बहुत बडी संख्या में हथियार खरीदता है जिसकी कीमत 10 बिलियन डालर के आसपास है। इन्ही पैसों का प्रयोग यह फिलिस्तीन को पीड़ित करने के लिए करता है। हाँलाकि भारत फिलिस्तीन मुद्दे का हमेशा से समर्थन करता रहा है और उसकी स्वतन्त्रता का पक्षध्रर  भी रहा है किन्तु इजराइल के साथ भारत का प्रगाढ़ होता संबंध खाड़ी के देशों को इसे संदेह की नजर से देखने के लिए मजबूत करता है। दूसरा कारण मदरसे है। ये मदरसे पाकिस्तान में बहुतायत मात्रा में मिलते है। विशेष रूप से अफगानिस्तान और पाकिस्तान के सीमा से लगे क्षेत्रों में मिलते है। इनमे पढ़ने वाले छात्रों को धर्मिक शिक्षा दी जाती है जो कि गलत नहीं है। गलत इसके जरिए उन्हें धर्मान्द्धता बनाना है और फिर इस धर्मान्द्धता में उन्हें जेहाद के लिए तैयार करना है। इसके लिए इन मदरसों से छात्रों को प्रशिक्षण कैम्प में ले जाया जाता है। यहां पर इन्हें तमाम आतंकवादी कार्यवाही को अन्जाम देने के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। इन्हें इस सबके के लिए सर्वाधिक धन खाड़ी देश से ही भेजा जाता है। यही धन इन मदरसो और कठमुल्लाओं को अपने कुत्सित उद्देश्य को पूरा करने के लिए लड़ाके उपलब्ध कराता है। इनका प्रयोग पाकिस्तानी सरकार भारत में अस्थिरता फैलाने के लिए करती है। इससे देश में शान्ति और सुरक्षा का माहौल खराब होता है। इनके साथ  संबंधों के अधिक गति से आगे न बढ़ने की एक और वजह रही है, वह कश्मीर समस्या है। इस मुद्दे पर पश्चिम एशिया का रूख स्पष्ट नहीं है। वैसे अभी हाल में आर्गेनाइजेशन ऑफ इस्लामिक कोआपरेशन ने कश्मीर मुद्दों को संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव के द्वारा सुलझाने की बात कही। उसका यह वक्तव्य साफ करता है कि कश्मीर को ये लोग भारत का अभिन्न अंग नहीं मानते। बावजूद इन मतभेदों के भारत के साथ खाडी देशों के संबंधों में सुधार हुआ है जिसे नकारा नहीं जा सकता है।

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