गुरुवार, 21 मार्च 2013

भविष्‍य का मार्ग है नाभिकीय ऊर्जा


ब्रह्माण्‍ड का हरेक परमाणु अपने ह्रदय, जिसे नाभिक कहते हैं, के भीतर अकल्‍पनीय शक्तिशाली बैटरी संजोए रहता है। इस तरह की ऊर्जा जिसे अक्‍सर टाइप-1 ईंधन कहते हैं, पारं‍परिक ऊर्जा यानी टाइप-0 ईंधन की तुलना में लाख गुना ज्‍यादा शक्तिशाली होती है। पारंपरिक ईंधन असल में मृत पौधे और जानवर होते हैं, जो कोयला, पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस और अन्‍य जीवाश्‍म ईंधनों के रूप में विद्यमान होता है। कल्‍पना कीजिए कि माल से पूरी तरह भरे 50 डिब्‍बों की एक किलोमीटर लंबी ट्रेन में 10 हजार टन कोयला लदा है। इतनी ऊर्जा यूरेनियम जैसे टाइप-1 ईंधन के महज 500 किलोग्राम, जिसे एक कार में ही ढो सकते हैं, से उत्‍पन्‍न की जा सकती है। जब प्रौद्योगिकी का पूर्ण दोहन हो जाए, तो कोई प्रकृति प्राप्‍य थोरियम की बहुत थोड़ी मात्रा करीब 62.5 किलोग्राम या इससे कम से ही इतनी ऊर्जा प्राप्त कर सकता है।
ऊर्जा और अर्थव्‍यवस्‍था
आर्थिक सशक्तिकरण के लिए भारत को आज तेज गति से विकास की जरूरत है। इस दशक में हमारा ध्‍यान मुख्‍य आधारभूत ढांचे के विकास और देश के 6 लाख गांवों के उन्‍नयन पर होगा। इस सबके लिए हमें भारी ऊर्जा की जरूरत होगी। अनुमान है कि ऊर्जा की कुल मांग मौजूदा 1.5 लाख मेगावाट से बढ़कर 2030 तक 9.5 लाख मेगावाट हो जाएगी।
नाभिकीय ऊर्जा का अंतरराष्‍ट्रीय परिदृश्‍य
तो क्‍या हम जापान के 40 साल पुराने फुकुशिमा संयंत्र में हुए हादसे को आमंत्रण देंगे, जिससे चरम प्राकृतिक तनाव पैदा होगा और जो विकसित राष्‍ट्र बनने के हमारे सपने को तोड़ देगा? कुछ यूरोपीय देशों विशेषकर जर्मनी का अपने नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों को बंद करने का निर्णय हमारे नाभिकीय कार्यक्रमों के विरुद्ध मजबूत तर्क नहीं बनना चाहिए। जर्मनी का निर्णय उसके मौजूदा परिदृश्‍य के लिए सही है। जर्मनी में अपेक्षाकृत ज्‍यादा ऊर्जा उपलब्‍ध है, इसलिए वह कुछ संयंत्रों पर तालाबंदी को झेल सकता है। सबसे महत्‍वपूर्ण यह कि जर्मनी अपने नाभिकीय संसाधनों का पूर्ण दोहन कर चुका है।
भारतीयों को यह कहकर गुमराह किया जाता है कि कुछ पश्चिमी देशों ने अपने नाभिकीय कार्यक्रमों को पूर्णत: समाप्‍त कर लिया है या जापान नाभिकीय ऊर्जा संयंत्रों के विस्‍तार पर पुनर्विचार कर रहा है। अध्‍ययन के मुताबिक, ज्‍यादातर समृद्ध देश अपनी ऊर्जा जरूरतों का 30 से 40 फीसदी इसके जरिए पैदा कर रहे हैं। भारत में हम 150 गीगावाट कुल बिजली उत्‍पादन में से 5,000 मेगावाट भी नाभिकीय ऊर्जा से पैदा नहीं कर पा रहे हैं। ज्‍यादातर उत्‍पादन तो कोयले से हो रहा है। भारत को क्‍या चाहिए, इसे भारतीयों को तय करना चाहिए। इसके अलावा, भारत भविष्‍य के नाभिकीय ईंधन थोरियम से संपन्‍न है। हम दुनिया की ऊर्जा राजधानी के रूप में उभरने के अवसर को नहीं खो सकते। भारत में पहला जीवाश्‍म ईंधन मुक्‍त देशबनने का सपना पूरे करने की क्षमता है। इससे भारत को पेट्रोलियम और कोयले पर सालाना 100 अरब डॉलर के खर्च से भी मुक्ति मिलेगी।
ऊर्जा के हरित स्रोत सौर ऊर्जा और पवन ऊर्जा स्‍थायी नहीं हैं। ये मौसम और सूर्यातप पर बहुत ज्‍यादा निर्भर हैं। वहीं नाभिकीय ऊर्जा अपेक्षाकृत स्‍वच्‍छ और विश्‍वसनीय ऊर्जा का जबरदस्‍त स्रोत है। आज 29 देश 441 नाभिकीय संयंत्रों का संचालन कर रहे हैं, जिसकी कुल क्षमता 375 मेगावाट है। इस उद्योग को अब 14,000 से ज्‍यादा नाभिकीय वर्षों का अनुभव है। कुल 58.6 गीगावाट की और 60 इकाइयां निर्माणाधीन हैं।
नाभिकीय दुर्घटना की विनाशकारी क्षमता की तुलना प्राय: द्वितीय विश्‍वयुद्ध में अमरीका द्वारा जापान पर किए गए परमाणु बम हमले से की जाती है। आप परमाणु बम की तुलना नाभिकीय संयंत्र से कतई नहीं कर सकते। असैन्‍य नाभिकीय संयंत्रों का डिजाइन इस तरह किया जाता है कि वह थोड़ी ऊर्जा सतत रूप में लंबे समय तक उत्‍पन्‍न करता रहे।
परमाण्विक चुनौतियों से लड़ने में मानवता सक्षम
हमें फुकुशिमा-दाइची मामले को नाभिकीय दुर्घटना के ऐतिहासिक ढांचे में देखना और विश्‍लेषित करना चाहिए। वहां संपत्ति और   सामान्‍य दिनचर्या भले ही बुरी तरह प्रभावित हुई, परंतु इससे प्रत्‍यक्षत: किसी की जान नहीं गई। 1986 की चेर्नोबिल दुर्घटना से इसकी तुलना करें तो हम पाएंगे कि हमने नाभिकीय दुर्घटना से निपटने में कितनी प्रगति की है। फुकुशिमा-डाइची संयत्र ऊर्जा उत्‍पादन क्षमता के लिहाज से पांच गुना बड़ा था और इसमें नौ गुना ज्‍यादा ईंधन था। परंतु चेर्नोबिल दुर्घटना की तुलना में इसमें अधिकतम 0.4 प्रतिशत ही विकिरण हुआ।
6 नवंबर, 2011 को हम दोनों ने 2,000 मेगावाट की बहुचर्चित कुडनकुलम नाभिकीय संयंत्र की सुरक्षा विशेषताओं का जायजा लेने के लिए इस संयंत्र का दौरा किया। हमने वहां वैज्ञानिकों और विशेषज्ञों के साथ बैठक करने, स्‍थानीय लोगों से मिलने और संयंत्र की विभिन्‍न सुविधाओं के अध्‍ययन में पूरा दिन बिताया। इसके बाद हम इसके सुरक्षा उपायों से पूर्णत: संतुष्‍ट हुए।
 किसी नाभिकीय संयंत्र में सुरक्षा के चार महत्‍वपूर्ण पहलू होते हैं, जिस पर इस संयंत्र में ध्‍यान दिया गया है।
1)  संरचनात्मक समेकित सुरक्षा:  संयंत्र की संरचना को सर्वोच्च सुरक्षा मानकों के साथ तैयार किया गया है जो भूकंप से बचाव के मामले में दोगुना सुरक्षित और अच्छी तरह सीलबंद है। सुनामी और चक्रवातों के जोखिम से निबटने के लिए संयंत्र कम से कम छह मीटर (पंप घर) ऊँचा है। डीजल जेनरेटरों से चार गुना अधिक अतिरेक के साथ सहायक डीजल सेट 9.3 मीटर की ऊँचाई पर है। फुकुशिमा में संरचना के क्षतिग्रस्त होने का मुख्य कारण हाइड्रोजन में विस्फोट था, जो नियंत्रण से बाहर हो गया। इससे निजात पाने के लिए कुडनकुलम संयंत्र ने समूचे संयंत्र में 154 हाइड्रोजन पुनर्संयोजकों को स्थापित किया है, ताकि रिसाव होने पर हाइड्रोजन को अवशोषित किया जा सके और किसी भी तरह की संरचनात्मक क्षति को रोका जा सके।
2) तापीय-जलीय सुरक्षा: कुडनकुलम संयंत्र में सर्वाधिक उन्नत सुविधा निष्क्रिय ताप हटाने की प्रणाली (पीएचआरएस) है, जो कि संयंत्र में समस्या आने की स्थिति में संयंत्र को तत्काल ठंडा करने को सुनिश्चित करने वाली नवीनतम प्रणाली है। पीएचआरएस भाप को पुनः परिचालित करने वाली एक विशिष्ट प्रणाली है, जो वातानुकूलन के काम बंद करने और यहां तक कि सर्वाधिक खराब संभव स्थिति यानि प्रशीतक में खराबी उत्पन्न होने पर भी वातावरण में बगैर किसी प्रकार के विकिरण का रिसाव किए संयंत्र को ठंडा रख सकता है। बौछारों की एक व्यापक प्रणाली जिसे पूरे संयंत्र में विस्‍तृत तौर पर स्थापित किया गया है, के ज़रिए भी आपात स्थिति में रिएक्टर को शीघ्रता से ठंडा किया जा सकता है।
3)  न्यूट्रॉनिक सुरक्षा: किसी भी परमाणु संयंत्र की खराबी का सबसे महत्वपूर्ण कारण उत्पन्न किए जा रहे न्यूट्रॉनों को नियंत्रित करने की क्षमता में कमी आना हो सकता है। यह कार्य नियंत्रण छड़ों से किया जाता है। नियंत्रण छड़ों के अतिरिक्त कुडनकुलम संयंत्र ने इस क्षेत्र में मूल तत्व को पकडने वाली नवीनतम प्रौद्योगिकी को अपनाया है। यह मूलतः गेडोलियम ऑक्साइड के साथ एक अंतर्निहित संरचना है, जो काफी असंभव परमाणु दुर्घटना की स्थिति में न्यूट्रॉन को पकड़ लेगी। मूल तत्व को पकडने वाली प्रणाली चरम प्रतिरोधक है, जो मानवीय हस्तक्षेप अथवा बाह्य विद्युत आपूर्ति की आवश्यकता के बिना ईंधन और संयंत्र को ठंडा कर सकता है।
4) अपशिष्ट प्रबंधन: यह एक प्रचलित मिथक है कि परमाणु अपशिष्टों को समुद्र में फेंक दिया जाता है, जो समुद्री जीवों को समाप्त और जल को दूषित करता है। यह पूरी तरह गलत है। हां, कई दशक पहले कुछ राष्ट्र परमाणु कचरे को पर्यावास से दूर गहरे समुद्र में डालते थे पर यह प्रक्रिया अब समाप्त हो चुकी है। बंद लूप चक्र के साथ एक हजार मेगावाट संयंत्र से प्रति वर्ष तीन प्रतिशत से भी कम कचरा उत्सर्जित होता है, जिसे कांच का रूप देने पर यह छह घन मीटर से अधिक का स्थान भी नहीं लेगा। एक अन्य तर्क यह है कि परमाणु दुर्घटनाएं और विकिरण न केवल इससे प्रभावित जनसंख्या को नुकसान पहुचाएंगी, बल्कि इसका असर आने वाली पीढ़ियों पर भी होगा। 1945 में हिरोशिमा और नागासाकी बमबारी के बाद अमेरिकी सरकार ने 1946 में परमाणु बमबारी हताहत आयोग (एबीसीसी) की स्थापना की, जिसे बाद में अमरीका और जापान के संयुक्त उपक्रम के तौर पर 1974 में विकिरण प्रभाव अनुसंधान फांउडेशन (आरईआरएफ) के रुप में पुनः स्थापित किया गया। एबीसीसी और आरईआरएफ ने छह दशक से भी अधिक समय में पीढ़ी दर पीढ़ी विकिरण और परमाणु आपदा के प्रभाव का गहन दीर्घकालिक अध्ययन किया है। आम धारणा के विपरीत यह निष्कर्ष सामने आया कि इस प्रकार के जोखिमों का प्रभाव केवल इससे अगली पीढ़ी तक ही सीमित होता है
 फुकुशिमा में दायची संयंत्र पर प्रभाव डालने वाले हालिया प्राकृतिक आपदा के मद्देनजर दो चिंताएं काफी व्यापक हैं। पहला, संयंत्र आपदा के प्रति सुरक्षा और दूसरा, पर्यावरणीय प्रभाव और  संयंत्र द्वारा उत्सर्जित परमाणु कचरे से संबंधित है। पहले हम दूसरे मुद्दे पर विचार करते हैं।
परमाणु ऊर्जा का अवसर लागत
बगैर किसी तार्किक विकल्प के परमाणु ऊर्जा से परहेज एक अधूरी प्रतिक्रिया है। काफी अनिश्चितताओं के साथ भविष्य की ज़रूरतों का आंशिक हिस्सा, हालांकि बहुत थोड़ा सा, सौर और वायु ऊर्जा से प्राप्त होगा। एक हिस्सा पनबिजली द्वारा भी प्राप्त होगा। लेकिन इस बात की पूरी संभावना है कि हम जीवाश्म ईंधन आधारित बिजली पर निर्भरता को जारी रखेंगे।
  प्रत्येक वर्ष मानवीय गतिविधियां वातावरण में 30 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड बढ़ा रही हैं। आईपीसीसी के आकलन के अनुसार, इस उत्सर्जन का 26 प्रतिशत (लगभग 7.6 अरब टन) विद्युत उत्पादन की आवश्यकताओं का सीधा परिणाम है। विश्व स्वास्थ्य संगठन के अनुमान के अनुसार, लगभाग 13 लाख लोग केवल शहरी बाह्य वायु प्रदूषण की वजह से अपनी ज़िंदगी खो बैठते हैं और 1,40,000 लोग जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों के साथ तालमेल न बैठा पाने के शिकार बनते हैं। इसलिए विद्युत उत्पादन की गतिविधियों की वजह से उत्पन्न प्रदूषण और इससे संबंधित जलवायु परिवर्तन हर वर्ष प्रत्यक्षतः अथवा परोक्षतः 481,000 मौतों के लिए ज़िम्मेदार है। इसकी तुलना में परमाणु विकिरण पर संयुक्त राष्ट्र वैज्ञानिक समिति (यूएनएससीईएआर) ने चेर्नोबिल में हुए अब तक के सर्वाधिक भीषण ना‍गरिक परमाणु आपदा के मामले में दुर्घटना की वजह से 57 प्रत्यक्षत: प्रभावित और 4,000 कैंसर के मामलों (कई बार इलाज हो जाता है) से पीडि़त होने की बात कही।
 परमाणु संयंत्र की सुरक्षा के मुद्दे
परमाणु ऊर्जा उत्पादन के इतिहास में संयंत्र ठप्प पड़ने के अब तक चार प्रमुख मामले सामने आए हैं। 1957में ईँधन पुनर्प्रसंस्करण में काइसटिम दुर्घटना, इससे अपेक्षाकृत छोटी थ्री माइल आइलैंड परमाणु दुर्घटना (संयुक्त राष्‍ट्र), काफी बड़ी चेर्नोबिल दुर्घटना (रूस, 1986) और हाल में फुकुशिमा में हुई दुघर्टना। पहली दुर्घटना साफ तौर पर अल्पविकसित तकनीक के कारण हुई और अगली दो दुर्घटनाओं का ज़िम्मेदार मानवीय त्रुटि को ठहराया जाता है। 2011की फुकुशिमा आपदा के मामले में भी असाधारण प्राकृतिक बल ने कार्य किया। भयंकर भूकंप के साथ ज़बरदस्‍त सुनामी की घटना बेहद कम ही सामने आती है। छह दशकों में इस प्रकार की महज चार घटनाओं के चलते इस तकनीक को पूर्णत: समाप्त नहीं कर देना चाहिए।
हम कुछ उदाहरण ले सकते हैं। 1903 में राइट बंधुओं ने मनुष्यों के उड़ने के स्वप्न को साकार किया। 1908 में प्रथम उड़ान आपदा सामने आई, जिसमें ऑरविल राइट गंभीर रूप से घायल हो गए और उनके सहयात्री की मृत्यु हो गई। आज उड़ान की वजह से हर वर्ष 1,500 लोगों की मौत होती है। सोचिए अगर 1908 की घटना अथवा उसके बाद की घटनाओं के आधार पर उड़ानों पर रोक लगा दी जाती तो क्या हम आज सुदूर शहरों और महासागरों और महाद्वीपों के पार उड़ पाते?
 थोरियम: भविष्य का परमाणु ईंधन
रेडियोधर्मी पदार्थों में थोरियम के बारे में काफी कम जानकारी है। थोरियम काफी मात्रा में उपलब्ध है। परंपरागत परमाणु ईंधन यूरेनियम के मुकाबले यह चार गुना अधिक उपलब्‍ध है। यह कहीं अधिक शुद्ध रुप में भी प्राप्त होता है। यह माना जाता है कि पृथ्वी पर थोरियम में निहित ऊर्जा भंडार पेट्रोलियम, कोयला और अन्य जीवाश्म ईंधन तथा यूरेनियम को एक साथ मिलाने से भी ज्‍यादा है। इसके अलावा थोरियम से निकला कचरा कम विषाक्त होता है। भारत के पास सबसे अधिक थोरियम होने के कारण उसके पास यह अवसर है कि थोरियम पर विशेष अनुसंधान और विकास पर ध्यान केन्द्रित करते हुए अपना मौजूदा परमाणु कार्यक्रम सुचारू रूप से चला सके, जो हम कर रहे हैं।

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