बुधवार, 27 मार्च 2013

वन्य जीव संरक्षण


प्रकृति के महत्वपूर्ण अंगों में वन्य जीवों का प्रमुख स्थान है। भारत में संपूर्ण विश्व के लगभग 5 प्रतिशत वन्य प्राणी निवास करते हैं। पूरी दुनिया में पायी जाने वाली लगभग 130 लाख वन्य प्रजातियों में से लगभग 76,000 प्रजातियाँ हमारे देश में पायी जाती हैं। इन प्रजातियों में 340 स्तनधारी, 1200 पक्षी, 420 सरीसृप, 140 उभयचर, 2000 मत्स्य, 50,000 कीट, 4000 मोलस्क तथा नगण्य बिना रीढ़ वाले जीव हैं। भारत का यह सौभाग्य है कि विश्व के 12 सर्वाधिक जैव विविधाता वाले देशों में से एक है। इस भूमि का क्षेत्रफल 32,87,267 वर्ग किमी है। इसके अलावा यह क्षेत्र 7,516 किमी लंबे समुद्री किनारे, विशालकाल नदियों, झीलों, हिमालय जैसी पर्वत श्रृंखलाओं, थार का रेगिस्तान, दलदलों, द्वीप समूहों एवं विभिन्न वनस्पतियों से समृध्द है।
राष्ट्रीय वन्य जीवन कार्य योजना वन्य जीवन संरक्षण के लिए कार्यनीति कार्यक्रम और परियोजना की रूप रेखा प्रस्तुत करती है। भारतीय वन्य जीवन बोर्ड जिसके अध्यक्ष प्रधानमंत्री होते हैं, वन्य जीवन संरक्षण की अनेक योजनाओं के अमलीकरण की निगरानी और निर्देशन करने वाला शीर्ष सलाहकार है। वर्तमान में संरक्षित क्षेत्र के अंतर्गत 84 राष्ट्रीय उद्यान और 447 राष्ट्रीय अभयारण्य आते हैं, जो देश के सकल भौगोलिक क्षेत्र का 4.5 प्रतिशत है। वन्य जीवन सुरक्षा अधिनियम, 1972 जम्मू कश्मीर को छोड़कर, क्योंकि इसका अपना अधिनियम है, शेष सभी राज्यों में स्वीकार किया जा चुका है। इसमें वन्य जीवन संरक्षण और विलुप्त होती जा रही प्रजातियों के संरक्षण के लिए दिशा-निर्देश दिये गये हैं। दुर्लभ और विलुप्त होती जा रही प्रजातियों के व्यापार पर इस अधिनियम ने रोक लगा दी है।
फरवरी, 2008 में प्रस्तुत राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की रिपोर्ट के अनुसार देश में 2001-02 में बाघों की संख्या 3642 थी जो 2008 मै घटकर 1411 हो गयी थी। भारत में पिछले एक दशक के दौरान पहली बार बाघों की संख्या में वृद्धि हुई है। इसके लिए संरक्षण के बेहतर प्रयासों को श्रेय जाता है। इस समय बाघों की संख्या 1706 है, जो वर्ष 2008 की संख्या के मुकाबले 295 अधिक है।
बड़ी बिल्ली की अन्य प्रजाति- तेंदुए के बारे में भी कहानी कोई अलग नहीं है। वर्ष 2012 के पहले नौ महीनों में भारत में 252 तेंदुए की मौत हुई, जो भारतीय वन्य जीव संरक्षण सोसायटी के पास उपलब्ध आंकड़ों के अनुसार वर्ष 1994 से यह संख्या सबसे अधिक है।  सन 1911 में यह संख्या 187 थी। एक दशक पहले यह संख्या औसतन लगभग 200 प्रति वर्ष थी।   
भारत में जनवरी महीने में कम से कम तीन और बाघों की मृत्यु हो गई है। 1994 से 2010 तक हमने 923 बाघ खो दिए हैं। देश में लगभग 100 वर्ष पहले बाघों की संख्या करीब 40 हजार थी, जो अब मुट्ठी भर रह गई है। बाघों की संख्या में कमी की कहानी वास्तव में समूचे विश्व में एक समान ही है। अनुमान है कि विश्व में बाघों की संख्या कोई 3500 से 4000 के आसपास है। इनमें से आधे भारत में हैं।
लगभग आधे से ज्यादा तेंदुए अवैध व्यापार के लिए मार दिए जाते हैं। बावजूद इसके कि बाघ वन्यजीव संरक्षण अधिनियम के अंतर्गत सुरक्षित हैं, उसका शिकार किया जाता है। उसके शरीर के अंगों, खासकर खाल का गैर-कानूनी तरीके से अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर व्यापार किया जाता है। चीतों के बारे में भी यही स्थिति है। उनका रहने का क्षेत्र मात्र दस प्रतिशत क्षेत्र में रह गया है और सिमटकर लगभग 75 लाख एकड़ हो गया है। आवास के अलावा बाघ अपने शिकार की प्रजातियां भी खोता जा रहा है। इससे इसका मनुष्यों के साथ टकराव हो गया है जिसके परिणामस्वरूप बाघों का ज्यादा शिकार होने लगा है। हालांकि सरकार ने सन 1972 में वन्यजीव संरक्षण अधिनियम पारित करके बाघों के शिकार पर प्रतिबंध लगा दिया था, लेकिन समस्या अभी भी वैसी ही बनी हुई है। अन्य महत्वपूर्ण बात यह है कि पहाड़ी और वन्य क्षेत्रों में सड़कों के जाल और पन-बिजली परियोजनाओं जैसे विकास कार्यों के कारण बाघों के प्राकृतिक आवास में काफी कमी हो गई है। इससे लिए वनों के निकट लोगों की तेजी से बढ़ती हुई आबादी एक अन्य कारण है।
यदि कुछ बुनियादी बातों पर ध्यान दिया जाए तो इस स्थिति में बदलाव की अभी भी आशा है, ये बाते हैं बाघों के अवैध शिकार पर कड़ी नजर, लोगों में इस बात की जागरुकता पैदा करना कि बाघों का संरक्षण स्वयं मानवता के हित में है, क्योंकि पर्यावरण व्यवस्था में संतुलन और वन्य क्षेत्रों के निकट रहने वाले लोगों की रोजमर्रा की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए बाघों का होना जरूरी है। इस क्षेत्र में समर्पित गैर सरकारी संगठनों का संज्ञान लेकर उनकी भागीदारी बढ़ाने और उन्हें पूर्ण समर्थन देने से भी लाभ होगा।
कुछ निराशाओं के बावजूद, परियोजना बाघ के अच्छे परिणाम निकले हैं। सत्तर के दशक में जब बाघों की जनसंख्या सबसे निचले स्तर पर पहुंच गई थी, उस समय 1973 में यह परियोजना शुरू की गई थी।  सत्तर के दशक में जहां यह संख्या 1200 पहुंच गई थी वहां नब्बे के दशक में यह 3500 हो गई, हालांकि बाद में इसमें फिर कमी होने लगी थी।
हाल ही में उच्चतम न्यायालय ने राज्य सरकारों और संघ शासित प्रदेशों को बाघ संरक्षण योजनाएं तैयार करने को कहा है। उसने उन्हें ऐसा करने के लिए छह महीने का समय दिया है। यह योजनाएं कार्यान्वित किए जाने से पहले राष्ट्रीय बाघ संरक्षण प्राधिकरण की स्वीकृति के लिए भेजी जानी हैं। गत वर्ष जुलाई में उच्चतम न्यायालय ने राष्ट्रीय पार्कों और वन्य जीव अभ्यारण्य में पर्यटन पर अंतरिम प्रतिबंध लगाया था। अभ्यारण्यों को बाघों के आवास की आवश्यकता के अनुसार तैयार किया गया है, पर इस ओर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। न्यायालय ने इन क्षेत्रों में पर्यटन पर लगा अंतरिम प्रतिबंध बाद में हटा लिया। लेकिन सभी हितधारकों से इस बारे में उपयुक्त कार्रवाई करने को कहा गया है।
दुर्लभ जीवों के संरक्षण को महत्व देने के लिए देश में पांच और वन्य जीवों के पांच और पार्क बनाने को स्वीकृति दी गई है। बाघों से छह और संरक्षणस्थल बनाने का भी प्रस्ताव है। इनकों मिलाकर ऐसी अभ्यारण्यों की संख्या 41 से बढ़कर 52 हो जाएगी। राष्ट्रीय पार्कों और वन्यजीव अभ्यारण्यों की संख्या भी उत्तरोत्तर बढ़ रही है। 
योजना आयोग ने भी 12वीं योजना में बाघ संरक्षण के लिए आवंटन में उदारता बरती है। कहने का तात्पर्य है कि बाघ संरक्षण को बड़ा महत्व दिया गया है। आयोग ने 12वीं योजना में बाघ संरक्षण के लिए 5889 करोड़ रुपए का आवंटन किया है जबकि 11वीं योजना में यह राशि मात्र 651 करोड़ रुपए थी। इससे आवंटित राशि में नौ गुना वृद्धि होने का पता चलता है। अन्य सभी दुर्लभ प्रजातियों के लिए आवंटित राशि 3600 करोड़ रुपए है। इनमें हाथी, शेर, हिरन, गैंडा और तेंदुआ शामिल हैं, जिनकी संख्या 45,000 से अधिक है। यह दलील दी जाती है कि बाघ को महत्व देने से अन्य कुछ प्रजातियां जैसे हिरन व गैंडा स्वतः लाभान्वित होंगी। यह किसी हद तक सत्य हो सकता है लेकिन अन्य प्रजातियों के बारे में संभवतः अधिक ध्यान देने की आवश्यकता है।
हजारों वर्ष से बाघों के शिकार को हैसियत का प्रतीक मान लिया गया है। उसे यादगार के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसके अंग एशिया की परंपरागत दवाइयों में प्रयोग किए जाते हैं। इसके परिणामस्वरूप 1930 तक बाघों की संख्या में कमी आती रही। बाघों की नौ प्रजातियों में से तीन प्रजातियां पहले ही विलुप्त हो गई हैं। इसलिए खासकर बाघों की आबादी और सामान्य रूप में वन्य जीवों की अन्य प्रजातियों की घटती संख्या पर रोक लगाने के लिए अधिक कारगर उपाय करने की आवश्यकता है। यह हमारे हित में है और इस बारे में त्रुटि महंगी सिद्ध हो सकती है। चुनौती बड़ी जरूर है लेकिन इसे पूरा करना ही होगा।
यह पूरी दुनिया का दुर्भाग्य है कि आज वन्य प्राणियों का तेज़ी से विनाश हो रहा है। वन्य प्राणियों के विनाश के लिए मुख्यत: दो कारण ज़िम्मेदार होते हैं-प्राकृतिक कारण व मानवीय कारण। वैसे तो दोनों प्रकार के कारण वन्य जीवों के विनाश के लिए उत्तरदायी हैं, फिर भी प्राकृतिक कारण, मानवीय कारणों की अपेक्षा का हानिकारक सिध्द हुए हैं। इसका कारण प्राकृतिक कारकों की धीमी प्रक्रिया का होना है। प्राकृतिक कारकों द्वारा वन्य प्राणियों का विनाश एक अत्यंत धीमी प्रक्रिया है। इसका प्रथम ज्ञात विनाश डायनासोरों से संबंधिात है, यह महाविनाश 7 करोड़ वर्ष पूर्व हुआ था। वर्तमान समय में सत्रहवीं शताब्दी से आज तक 120 पक्षी प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। मानवीय कारण वन्य जीवों के विनाश में सर्वाधिाक महत्वपूर्ण भूमिकाएँ निभाते हैं। इनके अंतर्गत वनों की कटाई, प्राकृतिक संसाधानों का अविवेकपूर्ण दोहन आदि आते हैं। इनके कारण वन्य जीवों के प्राकृतिक आवासों में कमी आई है और असंख्य प्रजातियाँ या तो लुप्त हो चुकी हैं या लुप्त होने की कगार पर हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के अनुसार पूरी दुनिया में जीवों की लगभग 130 लाख प्रजातियों में से लगभग 10,000 प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं या विलुप्त होने की कगार पर हैं।
हमारे देश में वन्य जीवों को विलुप्त होने से रोकने के लिए सर्वप्रथम 1872 में ''वाइल्ड एलीकेंट प्रोटेक्शन एक्ट''  पारित हुआ था। इसके बाद 1927 में ''भारतीय वन अधिनियम'' का निर्माण किया गया। जिसके प्रावधानों के अनुसार वन्य जीवों के शिकार एवं वनों की अवैधा कटाई को दण्डनीय अपराधा घोषित किया गया। देश आज़ाद होने के पश्चात, भारत सरकार द्वारा ''इंडियन बोर्ड फॉर वाइल्ड लाइफ'' की स्थापना की गई। फिर 1956 में पुन: 'भारतीय वन अधिानियम' पारित किया गया। 1972 में ''वन्य जीवन संरक्षण अधानियम'' पारित किया गया। यह एक व्यापक केन्द्रीय कानून है, जिसमें विलुप्त होते वन्य जीवों तथा अन्य लुप्त प्राय: प्राणियों के संरक्षण का प्रावधान है।
वन्य जीवों के संरक्षण हेतु, भारत के संविधान में 42 वें संशोधान(1976) अधिनियम के द्वारा दो नए अनुच्छेद 48-। व 51 को जोड़ कर वन्य जीवों से संबंधित विषय के समवर्ती सूची में शामिल किया गया। वन्य जीवों की बिगड़ती स्थिति के सुधार एवं वन्य जीवों के संरक्षण के लिए ''राष्ट्रीय वन्य जीव योजना'' 1983 में प्रारंभ की गई। भारत में राष्ट्रीय उद्यान तथा अभ्यारण्यों का पिछले दो दशकों में तेज़ी से हुआ विकास इस बात का द्योतक है कि हमारी सरकार वन्य जीव संरक्षण की दिशा में तेज़ी से प्रयासरत है। 1935 में, हमारे देश में मात्र एक राष्ट्रीय उद्यान था, जबकि सबसे ज्यादा राष्ट्रीय उद्यान मधयप्रदेश में है। भारत में अभयारण्यों की कुल संख्या 441 है, जो देश के कुल क्षेत्रफल के 4.5 प्रतिशत भाग पर स्थित हैं। भारत में वन्य जीव एवं पर्यावरण के संरक्षण हेतु अनेक जन आंदोलन भी चलाए गए हैं। इसमें से देश के उत्तरी भाग में चलाया गया ''चिपको आंदोलन'' और दक्षिण भारत में चलाया गया ''एठिपको आंदोलन'' प्रमुख हैं। इन आंदोलनों के साथ-साथ वन्य जीव संरक्षण हेतु भारत में चलाई जा रही कुछ महत्वपूर्ण परियोजनाओं का भी बहुत योगदान है। इनमें बांधा परियोजना, कस्तूरी मृग परियोजना, हंगुल परियोजना, थामिन परियोजना, हाथी परियोजना, गिरसिंह अभ्यारण्य परियोजना आदि प्रमुख हैं।
यह हमारे लिए खुशी की बात है कि वन्य जीवों के संरक्षण हेतु किये गये उपायों एवं प्रयासों से उत्साहजनक परिणाम सामने आए हैं। वन्य जीवों के संरक्षण के लिए किये जानेवाले सरकारी उपायों के साथ-साथ समाज के सभी वर्गों में जागरूकता उत्पन्न करना भी सरकार के लिए अति आवश्यक कार्य है। मनुष्य की इस संदर्भ में जागरूकता के अभाव में वन्य जीवों का विनाश हो रहा है। अत: मूक निरीह और संकोची स्वभाव के वन्य जीवों की रक्षा हेतु देश के प्रत्येक नागरिक को आगे आकर पहल करनी होगी।

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