64साल के गणतंत्र के बाद भी आखिर क्या कारण है कि भारत से जाति पर आधारित
राजनीति खत्म नहीं हो रही है। अभी जारी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव इसका ताजा
उदाहरण है। हमने फस्र्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम (एफपीटीपी) यानी जो पहले खंभा छुए
वही विजेता या यों कहें कि जो सबसे ज्यादा वोट पाए वह विजेता वाली चुनाव पद्धति
अपनाई है। जब हम संविधान बना रहे थे, हमारे सामने कुछ अन्य
पद्धतियां भी थीं लेकिन हमने ब्रिटेन के मॉडल को अंगीकार करते हुए इस पद्धति को
सर्वश्रेष्ठ समझा। नजीज़ा यह हुआ कि चौधरी के कहने पर वोट देने वाला बारम्बार ठगा
हुआ किसान हो या प्रजातंत्र की बारीकियां समझने वाला व्यक्ति; दोनों के वोट समान माने गए। भारतीय समाज में गरीबी, अशिक्षा
व सामंतवादी अवशेषों की वजह से इस पूरी अवधारणा को पटरी से उतार दिया गया।
एफपीटीपी पद्धति की सबसे बड़ी खराबी है कि यह समाज को विभाजित करती है। विखंडन की
यह प्रक्रिया तब तक नहीं रु कती, जब तक कि सबसे छोटा पहचान
समूह भी विखंडित नहीं हो जाता। उदाहरण के तौर पर एक विधानसभा क्षेत्र में मान
लीजिए नौ प्रत्याशी हैं, जिनमें से आठ को 9000 के आसपास वोट मिले हैं लेकिन नौंवें प्रत्याशी को 9005 हज़ार वोट मिले हैं तो यही प्रत्याशी विजयी घोषित होगा। हालांकि 88 प्रतिशत मतदाताओं ने उसे खारिज किया है। अगले चुनाव में ये सभी आठों
प्रत्याशी इस बात की कोशिश में लग जाएंगे कि किसी तरह से छोटे-छोटे पहचान समूहों
की भावनाओं को उभारा जाए और कोशिश की जाए कि किस तरह महज छह प्रतिशत वोट और बढ़ाए
जाएं ताकि अगले चुनाव में जीत हासिल हो। समाज तोड़क है एफपीटीपी चूंकि यह पहचान
समूह धार्मिंक, जातिगत, क्षेत्रीय,
उपजातीय व भावनात्मक आधार पर परंपरागत रूप से ही पहले से बने होते
हैं; इसलिए राजनीतिक दलों के लिए आसान पड़ता है कि उन्हीं
में से किसी एक को अपने साथ जोड़े। एक दूसरी दुारी यह भी है कि नए और तार्किक आधार
पर पहचान समूह बनाना; मसलन, विकास के
मुद्दों के आधार पर पेशेवरों का ग्रुप बनाना मशक्कत का कार्य होता है। इसलिए
राजनीतिक पार्टयिां पहले विकल्प को चुनती हैं। राजनीतिशास्त्र के सर्वमान्य
विश्लेषणों के मुताबिक अशिक्षित व अतार्किक समाज में भावनात्मक मुद्दे अचानक ही
तेजी से उभरते हैं और कई बार इतने प्रबल हो जाते हैं कि मूल मुद्दों पर भारी पड़ते
हैं।
पूरी
विधिमान्य और तार्किक व्यवस्था को या संवैधानिक संस्थाओं को अपने अनुरूप ढ़ालना
शुरू कर देते हैं। 1984 में शुरू हुए राममंदिर के लिए उबाल को इसी संदर्भ
में देखा जाना चाहिए। लेकिन चूंकि भावनात्मक मुद्दे अतार्किक सोच व पहचान समूह के
आधार पर ही होते हैं। इसलिए दूसरा राजनीतिक दल फौरन ही कोई अन्य भावनात्मक मुद्दा
और इसी बड़े पहचान समूह में से एक छोटा पहचान समूह पकड़ता है।1984 के राममंदिर-जनित हिंदू एकता की प्रतिक्रिया के रूप में मंडल कमीशन सामने
आता है और हिंदुओं में ही एक नए पहचान समूह (हालांकि यह पहचान समूह पहले से ही
सुषुप्त लेकिन अस्तित्व में था) को राजनीतिक पार्टयिां उभारना शुरू करती हैं।
लिहाज़ा, 1990 तक आते-आते देश बैकर्वड और फॉर्वड में बंट
जाता है। बात यहीं तक नहीं रु कती। इसी के साथ शुरू होता है, जातिगत राजनीति का जबर्दस्त तांडव और तब होता है- कांशीराम, मुलायम सिंह यादव, लालू प्रसाद की राजनीति का
अभ्युदय जिसे नाम दिया जाता है-सामाजिक न्याय वाली पार्टयिां। सिलसिला यहीं नहीं
रु कता। आंध्र प्रदेश में कम्मा और कापू पूरी तरह से तलवार तान लेते हैं। कर्नाटक
में लिंगायत और वोक्कालिंगा अलग हो जाते हैं। उत्तर भारत में यादव-कुर्मी बंट जाते
हैं, ब्राह्मण-ठाकुर बंट जाते हैं। सिलसिला इतने से भी नहीं
रु कता। पसमांदा मुसलमान और अशरफ मुसलमानों को अलग करने की कोशिश की जाती है,
पिछड़ों और अति-पिछड़ों के बीच एक नया पहचान समूह बनाने का उपक्रम
होता है और यहां तक कि दलितों में भी एक महादलित पहचान समूह खड़ा करने की कोशिश की
जाती है। चर्मकार को पासी से अलग करने का प्रयास होता है। जनस्वीकार्यता की
उपेक्षा राजनीतिशास्त्र की अवधारणाओं का एक अन्य पहलू होता है जिसके तहत
प्रजातंत्र में राजनीतिक दल की स्वीकार्यता की एक शर्त होती है कि उसका अपना एक
कैडर हो जो नीचे तक जाकर जनता से अपनी बात कहे लेकिन भारतीय लोकतांत्रिक व्यवस्था
में कुछ राष्ट्रीय राजनीतिक दलों को छोड़ कर किसी क्षेत्रीय दल ने यह जहमत उठाना
गंवारा नहीं किया। उसका कारण यह था कि कैडर खड़ा करने के लिए सैद्धांतिक संबल की
ज़रूरत होती है, जिसका क्षेत्रीय दलों में सर्वथा अभाव रहा।
इस अभाव को पूरा करना बहुत आसान था, जब इन पार्टयिों के
नेताओं ने पहचान समूह के साथ अपने को जोड़ा और उनमें सशक्तीकरण की एक झूठी चेतना
जगाई। अगर ‘मंदिर वहीं बनाएंगे’ के
नारे से भाजपा ने अपनी दुकान खड़ी की तो मुलायम ने अपने आदमियों से ‘परिंदा भी पर नहीं मार पाएगा’ कहलवाकर अपनी राजनीति
रातों- रात चमकाया। ‘तिलक-तराजू-तलवार’ का नारा इसी दौर में आता है। मुलायम सिंह ने अपने शासनकाल में पीएसी की
भर्ती में यादवों को भरना शुरू किया। बसपा सुप्रीमो मायावती ने मंच से कहना शुरू
किया- देखो आज जिले के इतने कलक्टर और इतने कप्तान दलित वर्ग के हैं। लालू प्रसाद
ने भरे दरबार में सवर्ण चीफ सेक्रेटरी को जब बड़े-बाबू कहते हुए उपहास के लहजे में
बोला तब उनका एक बड़ा वर्ग जो सदियों से दबा-कुचला था, अचानक
से अपने को सशक्त समझने लगा। हेलीकॉप्टर से उतरकर लालू प्रसाद यादव ने चुनाव के
दौरान यादव बाहुल्य राघोपुर की एक जनसभा में सिर्फ तीन मिनट का भाषण दिया। अब यहां
पेड़ से ताड़ी उतारते हो तब कोई टैक्स तो नहीं मांगता।
उत्साहित भीड़ का जवाब था-ना साहिब।
लालू ने दूसरा सवाल दागा-नदी से मछली मारते हो तब कोई सरकारी आदमी कुछ कहता तो
नहीं। जनता से जवाब आया-जी, नाहीं। लालू यादव की अगली सलाह थी-खूब ताड़ी पियो,
मछली खाओ, मस्त रहो। हेलीकॉप्टर का रॉटर नाचा
और लालू यादव उड़ गए। उस विधानसभा से उनको जबर्दस्त जीत हासिल हुई। सशक्तीकरण के
भ्रम से उबरना शुरू हुआ सशक्तीकरण की झूठी चेतना के लिए सामाजिक न्याय के इन
पुरोधाओं ने राज्य के संवैधानिक व कानूनी संस्थाओं को तोड़ना-मरोड़ना शुरू किया।
नतीज़ा यह हुआ कि कप्तान व एसपी अपमान से बचने के लिए सजदे के भाव में आ गए।
कलक्टर और एसपी ने चप्पल उठाना शुरू किया, सार्वजनिक अवसरों
पर मंत्री-मुख्यमंत्री के सामने हाथ बांधे खड़े रहने लगे और लगा कि पूरा शासन और
कानूनी व्यवस्था इन तथाकथित सामाजिक न्याय के पुरोधाओं की चेरी हो गई है। इसी बीच
दो राष्ट्रीय पार्टी कांग्रेस और भाजपा ने अपना राजनीतिक धरातल छोड़ना शुरू किया।
स्थिति यहां तक आ गई कि उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के वोट महज सात से आठ प्रतिशत
रह गए तो बीजेपी के 14 से 16 प्रतिशत।
अगर देश भर में देखें तो जहां कांग्रेस 2009 के चुनाव में 27
प्रतिशत वोट हासिल कर सकी वहीं बीजेपी सिर्फ 18 प्रतिशत। उधर, दूसरी तरफ क्षेत्रीय दलों को लगभग 40
प्रतिशत वोट मिले। दरअसल, समाज को बांटने वाले
खेल की शुरुआत करने के बाद भाजपा और कांग्रेस खुद ही बाहर हो गई। लेकिन
समाजशास्त्रीय अवधारणाओं के हिसाब से भावनात्मक मुद्दों की राजनीति की एक मियाद
होती है। अगर किसी पहचान समूह की तर्कशक्ति व शिक्षा का स्तर शुरू से ही
अपेक्षाकृत बेहतर रहा है, तब वह जल्दी ही समझ जाता है कि
सशक्तीकरण झूठा था, भावनाएं सिर्फ अपनी रोटी सेंकने के लिए
जगाई गई थी और तब उसका मोहभंग होता है। बिहार में यही हुआ। उत्तर प्रदेश में भी
जिन-जिन जिलों में दलित शिक्षा बेहतर हुई है, वहां बहुजन
समाज पार्टी को अपेक्षाकृत कम मत मिले हैं।
अब राज धर्म, राजनीति शास्त्र , राजनीति धर्म . समय के साथ बदलते
स्वरुप एक दूसरे में ऐसे मिल गए कि अंतर करना कठिन हो रहा है. राजनीति में जातिवाद
का क्या अर्थ ? जातिवाद अब धर्म हो गया है तो यह भी उसी
श्रेणी में खड़ा हो गया जिसमे राज धर्म, राजनीति धर्म व अन्य
कोई धर्म. अब जब व्यवस्था बन गयी है तो चाहें कोई क्षेत्र हो राजनीति ही क्या
प्रत्येक क्षेत्र में जाति वाद तो रहेगा. एक जाति का परिवार अपनी ही जाति के
परिवारों के साथ अपना समाज बनता है. आपस में रिश्तेदारी करते हैं, सुख दुःख बांटते हैं, वक्त पड़ने पर एक दूसरे के लिए
खड़े होते हैं. मदद भी करते हैं, जब हम अपनी जाति के लिए लाभ
पहुचाने और तमाम सामाजिक कार्य एवं दायित्वों का निर्वहन कर रहे हैं तो राजनीति के
लिए यदि कोई अपनी जाति का समर्थन करता है और अपनी जाति से समर्थन मांगता है या
अपेक्षा रखता है तो ये किस प्रकार से अव्यवहारिक अथवा निंदनीय हो सकता है.
छोटा सा उदाहरण
लीजिये जब हमें कोई लाभ प्राप्त होता है तो उसको हम अपने परिवार में सर्व प्रथम
बांटते हैं. मनुष्यों की बात तो छोड़िये पशु जिन्हें हम निरीह प्राणी मानते हैं वे
भी अपने समूह को ही प्रत्येक क्षेत्र में प्राथमिकता देते हैं. एक साथ झुण्ड में
खड़े होते हैं, खाने पीने में भी अन्य वर्ग के पशुओं के स्थान पर
अपने ही वर्ग के पशुओं को साथ रखते हैं फिर भी ये निरीह
प्राणी हम से श्रेष्ठ हैं क्योंकि ये हमारी तरह अपनी जाति में उप जातियों, वर्ग में में नहीं बटें हैं. हम लोग तो अपनी ही जाति में कई वर्गों
एवं उप जातियों में बटें हैं और आपस में ही एक दूसरे को हेय द्रष्टि से देखते हैं.
कभी कभी तो जाति संघर्ष भी हो जाता है. अपने साथ साथ दूसरों के जीवन को नरक बना
देते हैं.
अपने भी दिल पर
हाथ रख कर सोचें. क्या अभी हमारे विचारों में कहीं भी कुछ बदलाव करने की हूक उठी
है या जो हम करें वो ठीक पर जब दूसरा करता है तो कष्ट होता है, ये दोहरा मापदंड क्यों. यदि राष्ट्र के हित के लिए किसी भी प्रकार के
बदलाव कि आवश्यकता महसूस करते हैं तो खुले दिल से क्यों नहीं करते. जब घटना स्वयं
के साथ घट जाती है तब ही क्यों प्रगतिशील विचार धारा वाले बनते हैं, तब क्यों आदर्श बघारते हैं . मैं यह नहीं कहता कि ऐसा किया जाये . सबको
अपने अपने ढंग से सोचने एवं जीने का अधिकार है पर जहाँ राष्ट्र हित की बात हो तो
जाति का आधार लेना राष्ट्र हित में लिए जाने वाले फैसलों को प्रभावित करता है
जिसका खामियाजा सबको ही भुगतना पड़ता है.
भले ही राजनीति
में जातिवाद की जड़ें बहुत गहरी हैं पर राष्ट्र हित
में इसमें मट्ठा डालने की नितांत आवश्यकता है. भले ही हम सामाजिक व्यवस्था के
अंतर्गत जाति प्रथा से बाहर न
निकल पायें. हालांकि इसकी शुरुआत हो गयी है, पर राष्ट्र हित
में हमें अपने विवेक का प्रयोग करना ही होगा, धर्म , जाति, उप जाति, वर्ग जो भी हो
उससे निकल कर. तभी हम मजबूत होंगे और सुखी होंगे और साथ ही हमारा राष्ट्र भी.
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