विश्व
के अनेक देशों के निवासियों की भारतीय संस्कृति में सदैव विशेष रूचि रही है, ये लोग इसके
बारे में ज्यादा से ज्यादा जानना चाहते हैं। भारत के ऋषि-मुनियों ने 5000 से अधिक समय
पहले समाज और व्यक्ति के लक्ष्यों की व्याख्या की। कुल मिलाकर ऐसी व्याख्या
आज भी कायम है लेकिन समयानुकूल दृष्टिकोण में कुछ परिवर्तन आता गया। भारतीय परंपरा
के अनुसार जीवन का लक्ष्य आनंद या यूं कहिए कि पूर्ण स्वतंत्रता है। यदि आज के
परिप्रेक्ष्य में इसे समझा जाये तो मानना होगा कि अपनी क्षमता के अनुसार समझना, देखना, सोचना और महसूस
करना तथा दूसरों को भी ऐसा करने में मदद देना हमारे लक्ष्यों में शामिल है।
भारतीय संस्कृति ने ऐसा करने के लिए अलग से कुछ लघु लक्ष्य निर्धारित किये जिन्हें
धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष का
नाम दिया गया।
धर्म
का अर्थ है ऐसे मूलभूत मूल्य, जिनसे हमारे जीवन का संचालन होता है। अर्थ के
मायने है आर्थिक और राजनीतिक शक्ति, जबकि काम का मतलब है विभिन्न वस्तुओं और
सेवाओं का उपयोग एवं उपभोग।
भारतीय
संस्कृति में यह माना जाता है कि पहले धर्म को निभाना जरूरी है जिसके बाद
राजनीतिक और आर्थिक शक्ति हासिल की जा सकती है और इसके बाद वस्तुओं और सेवाओं को
उपयोग एवं उपभोग किया जाता है। यदि इसी क्रम में कर्तव्यों का निर्वहन किया जाये
तो मोक्ष की प्राप्ति संभव है। यह भी देखा गया है कि अगर इस क्रम का पालन न किया
जाये, जैसा
कि अमरीका जैसे देश में किया जाता है, जहां धर्म के बजाय अर्थ और काम को ज्यादा महत्व
दिया जाता है, सब
कुछ अस्त-व्यस्त होने लगता है।
यूनान
की एक उक्ति के अनुसार जीवन प्रकृति का उपहार है, लेकिन बुद्धि के इस्तेमाल से किये गये
प्रयासों से जीवन सुंदर बनता है। इसी तरह भागवत गीता में कहा गया है कि 'योगा कामसु
कोशलम' इसका
मतलब है कि प्रभावी तरीके से अपने कर्तव्य का पालन योगा है। 'प्रेसन्ना
चेतसे बुद्धि परिया वाशी थे' - मतलब है कि प्रसन्न रहने से आप प्रभु के निकट
आ जाते हैं। समूची भागवत गीता को दो वाक्यों में गागर में सागर की तरह प्रस्तुत
किया जा सकता है,
यानी आप प्रभावी तरीके से अपना कर्तव्य निभायें और प्रसन्न रहें, यही गीता का सार
है और बुद्धिमत्ता का आधार है।
अकसर
यह कहा जाता है कि अगर भारतीय संस्कृति इतनी महान है तो भारतीय सर्वश्रेष्ठ
प्रदर्शन क्यो नहीं कर पाते। इसका उत्तर यही दिया जा सकता है कि लगातार सीखने से
ही प्रगति के रूप में पुरस्कार मिलता है। भारतीय संस्कृति ने अत्याधिक योगदान
दिया, लेकिन
समय के साथ-साथ इसमें अभिमान आने लगा। जब किसी में अहंकार आता है तो वह धीरे-धीरे
अनभिग्य भी हो जाता है, जो प्रगति में गिरावट का रास्ता भी बनता है। भारत को निरंतर सीखने
का प्रयास करना होगा, क्योंकि केवल उत्तम शिष्य ही उत्तम गुरू बन सकता है।
जरूरत
इस बात की है कि अहम और आत्म सम्मान के बीच की लक्ष्मण रेखा का पता लगाया जाये।
आत्मसम्मान संस्कृति की बुनियाद मानी जाती है, जबकि अहं से प्रगति में गिरावट का
सिलसिला शुरू होता है। भारत को अपनी संस्कृति, अपनी भाषा, अपनी उपलब्धियों
पर आत्मसम्मान करना चाहिए, लेकिन उसे अधिक अहं और अभिमान से दूर रहना
होगा। खुला दृष्टिकोण और विनम्रता महानता की निशानी है न कि दुर्बलता की। जरूरत इस
बात की है कि भारतीय संस्कृति में किसी भी मुद्दे के खुले दिमाग से विशलेषण की
आदत विकसित की जाये। हमें अपनी धरोहर का सम्मान और विश्लेषण करना होगा, क्योंकि इसके
बारे में अधिक से अधिक जानने से बीते समय की बुद्धिमत्ता सजीव होगी और उस काल की
गलतियों से हम नसीहत हासिल कर सकेंगे। भारत और विश्व के प्रति सम्मान पूर्वक
जानना, सोचना
और विशलेषण करना ही भारतीयों के लिए सही दृष्टिकोण हैं। बीते समय में भी भारत महान था और भविष्य में भी
इसकी महानता में चार चांद लगने वाले हैं, लेकिन हमें सम्मान पूर्वक किसी भी
विषय की तह तक जाने का दृष्टिकोण हासिल करना है।
भारतीय
संस्कृति सिखाती है कि किस तरह बुद्धिमत्तापूर्ण तरीके से जिया जाये और किस तरह
मोक्ष प्राप्त किया जाये। प्रसिद्ध वैज्ञानिक डॉ. आईन्स्टाईन ने कहा था कि
भारतीय संस्कृति ने मुझे जीवन की वास्तविकता और चुनौतियां स्वीकार करने की
शिक्षा दी है। उन्होंने यह भी कहा था कि मैंने अपना कर्तव्य निभाया है और अब
मेरे कार्य का समय समाप्त हो रहा है और मैं शांति और संतोष के साथ जा रहा हूं। यह
कहा जा सकता है कि भारतीय संस्कृति प्रभावी तरीके से जीने और संतोषपूर्वक मोक्ष
प्राप्त करने का मार्गदर्शन करती है।
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