1991 में भारत के रिजर्व बैंक में विदेशी मुद्रा भण्डार इस हद तक कम हो जाने
दिया गया कि सरकार दो सप्ताह के आयात के बिल चुकाने में भी सक्षम नहीं थी। यही
मौका होता है जब अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान संकट मोचक का छद्म वेश धारण करके
सामने आते हैं। देश आर्थिक संकट से तो जूझ रहा था पर विश्व बैंक और अन्तराष्ट्रीय
मुद्राकोष को पता था कि भारत कंगाल नहीं हुआ है। और वह इस स्थिति का फायदा उठा सकते
हैं। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्राकोष के सुझाव पर भारतीय रिजर्व बैंक ने अपने भण्डार
में रखे हुये 48 टन सोना गिरवी रखकर विदेशी मुद्रा की जुगाड़
की। आईएमएफ बड़ी तत्परता से भूमिका निभा रहा था। उदारवाद के मोहपाश में बंधे
तत्कालीन वित्त मंत्री डॉ. मनमोहन सिंह भी अब सरकार और अन्तराष्ट्रीय वित्तीय
संस्थानों के बीच मध्यस्थ की भूमिका निभा रहे थे। यही वह समय था जब सरकार हर सलाह
के लिये विश्व बैंक - आईएमएफ की ओर ताक रही थी। हर नीति और भविष्य के विकास की
रूपरेखा अब वाशिंगटन में तैयार होने लगी थी। वाशिंगटन केवल अमेरिका की राजधानी
नहीं है बल्कि यह विश्वबैंक का मुख्यालय भी है।
इन संस्थानों ने भारत सरकार की संरचानात्मक समायोजन (स्ट्रक्चरल
एडजेस्टमेंट) करने की नीति अपनाने के लिये मजबूर कर दिया। इसका मतलब यह था कि
सरकार अब देश के हर ढंाचे में आमूलचूल बदलाव करने के लिये तैयार हो गई। इसका सीधा
सा मतलब यह भी है कि सरकार अपने खर्चों को तो कम करेगी ही, साथ
ही खर्चे कम करने वाली तकनीकें भी अपनायेगी। कर्मचारियों को नौकरी से निकालना,
जनकल्याण पर खर्च कम करना, केवल फायदे वाले
क्षेत्रों में निवेश करना और व्यवस्था-संरचनाओं का निजीकरण्ा करना इसी नीति के
हिस्से हैं। चूंकि सरकार विश्व बैंक के प्रभाव में थी इसलिऐ बड़ी-बड़ी परियोजनायें
शुरू करने की नीति भी भारत ने अपना ली। यह जानना जरूरी है कि विश्व बैंक एक समूह
है। इस समूह में पांच संस्थायें शामिल हैं। जैसे-
(1)
इंटरनेशनल बैंक फार रीकंस्ट्क्शन एण्ड डेवलपमेंट (आई बी आर डी):
यह इस समूह की सबसे पुरानी और सबसे बड़ी संस्था है। इसमें सबसे ज्यादा लोग काम
करते हैं और धन भी इसमें सबसे ज्यादा है। विश्वबैंक इसी के पीछे आधुनिक विराम और
गरीबी मिटाने की प्रक्रिया को आगे बढ़ाता है। गरीबी मटाने के नाम पर यह तीन काम
करता है। पहला-सर्वे शोध और अध्ययन करके बड़ी परियोजनाओं की जरूरत को स्थापित करना,
दूसरा इन परियोजनाओं को संचालित करने के लिये देशों को कर्ज
उपलब्ध्ष करवाना और तीसरा-संरचनात्मक समायोजन एवं व्यापक आर्थिक नीतियों में ऐसा
बदलाव करवाना जिससे उदारवाद और भूमण्डलीकरण को बढ़ावा मिले।
(2)
इन्टरनेशनल डेवलपमेंट ऐसोसिएशन (आई.डी.ए.):
विराम को नकली मानवीय चेहरा पहनाने के उद्देश्य से आई.डी.ए. शून्य ब्याज दर या
बहुत कम ब्याज दर पर कर्ज उपलब्ध करवाता है।
(3)
इन्टरनेशनल फायनेंस कापोरेशन (आई.एफ.सी.):
यह संस्था निजी क्षेत्र को कर्ज उपलब्ध करवाती है। हांलांकि इस प्रक्रिया में
सरकार ही अपनी गारण्टी के आधार पर निजी क्षेत्र को कर्ज्र लेने का अवसर देती है।
(4)
मल्टीनेशनल इन्वेस्टमेंट गारण्टी एजेंसी (एम आई जी ए):
यह संस्था निवेश की गारण्टी उपलब्ध करवाती है, एक
तरह से यह बीमा जैसी सुरक्षा की बात है। व्यावहारिक रूप से यह राष्ट्रीयकरण के
विरूध्द होता है और फिर भी सरकारें इसका समर्थन करने के लिये बाध्य है।
(5)
इंटरनेशनल सेंटर फॉर द सेटलमेंट ऑफ इन्वेस्टमेंट डिस्टयूट (आई सी एस
आई डी): विश्व बैंक समूह की सत्ता
की ताकत का अंदाज इस तथ्य से लगाया जा सकता है कि इस समूह पर भारत के कोई कानून और
संविधान लागू नहीं होता है। यदि कोई भी विवाद होता है तो आई सी एस आई डी के समक्ष
मामले जाते हैं। विश्व बैंक समूह पर इसके सदस्य देशों का नियंत्रण होता है। खास
बात यह है कि विश्व बैंक में एक देश का एक वोट नहीं होता है बल्कि जो देश जितना धन
बैंक में डालता है उसे उतना ही महत्व मिलता है। स्वाभाविक है कि अमीर देशों का
निर्णंय ही यहां लागू होता है। आंकड़ों के स्तर पर देखा जाये तो यह वैश्विक
राजनीति और स्पष्ट रूप से सामने आ जाती है। इसमें अकेले अमेरिका ने 16.39 प्रतिशत धन निवेश किया हुआ है और भारत जैसे बड़े देश का निवेश केवल 2.78 प्रतिशत है। बांग्लादेश, भूटान और श्रीलंका को
मिलाकर भारत को एक कार्यकारी निदेशक मिलता है। इसका मतलब है कि भारत में कौन सी
परियोजनायें चलेंगी, किस काम के लिये कर्जा दिया जायेगा यह
अब भी भारत जैसे देश नहीं तय कर सकते है।भारत के लिये विश्व बेक की सहायता रणनीति
(2005-2008) में कहा गया है कि विश्व बैंक समूह विकास की
नीतियों का निर्माण करने के लिये एक बौध्दिक धरातल तैयार करेगा.........बैंक
राजनैतिक रूप से उपयुक्त ज्ञान उत्पादक और ज्ञानदाता की भूमिका का विस्तार करेगा।
व्यवस्था
को प्रभावित करने की रणनीति
अन्तर्राष्ट्रीय
वित्तीय संस्थानों ने बहुत ही रणनीतिगत तरीके से अपने प्रभाव को स्थापित किया है।
वे जिस प्रक्रिया का पालन करते है वह दिल और दिमाग दोनों पर नियंत्रण करती है और
यदि आप व्यवस्था के विचारतंत्र पर कब्जा कर लेते हैं तो व्यवस्था स्वयमेव ही
नियंत्रण में आ जाती है।
ज्ञान
का उत्पादन: यदि अन्तर्राष्ट्रीय
वित्तीय संस्थानों की व्यवस्था को समझने के लिये जब हम पहला चरण आगे बढ़ाते हैं तो
हमारे सामने इन संस्थानों के अध्ययनों, विश्लेषणों
और दृष्टिपत्रों का ढ़ेर लग जाता है। विश्व बैंक, एशियाई
विकास बैंक और अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने पिछले 16 वर्षो
में डेढ़ हजार दस्तावेजों का निर्माण किया है। यही कारण है कि उनका विरोध बहुत
कठिन हो जाता है क्योंकि उदारीकरण का विरोध करने वाले संगठन इस ज्ञान के उत्पादन
की प्रक्रिया में पिछड़े हुये है। महत्वपूर्ण यह नहीं है कि विश्व बैंक के अध्ययन
सही हैं या गलत, महत्वपूर्ण यह है कि वे बहस को शुरू करते
है। कुछ अनुभव बताते है कि वे हर अध्ययन में उन्हीं निष्कर्षो पर पहुंचते हैं जहां
पर वे पहुंचना चाहते हैं। भारत का योजना
आयोग तो जैसे विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक की आरामगाह है। योजना आयोग वही करता
है जो ये संस्थान चाहते हैं। आयोग ने भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों के विकास के
लिये दृष्टि पत्र - 2020 का निर्माण करवाया। इसका सुझाव भी
इन्ही संस्थानों का था । इस दस्तावेज के अध्याय भी इन्हीं संस्थानों ने लिखवाये वह
भी दो विदेशी (जापानी और आस्ट्रेलियाई) सलाहकारों से। खास बात यह है कि जापानी
सलाहकार ने कभी पहाड़ देखे ही नहीं थे पर वे पहाड़ी भारत के संदर्भ में दृष्टि
पत्र - 2020 लिख रहे थे । इस दस्तावेज में लिखा गया कि
ब्रम्हपुत्र नदी की बाढ़ से बहुत नुकसान होता है इसलिये इस पर 143 बांध बनाये जाना चाहिये। इन बांधों से 98000
मेगावाट बिजली पैदा हो सकती है। हांलाकि जरूरत केवल 5000
मेगावाट की है इसलिये शेष ऊर्जा पूर्वी एशिया को भेजी जा सकती है। वास्तव में
एशियाई विकास बैंक दक्षिण एशिया को पूर्वी एशिया से जोड़ने की योजना पहले से ही
बना चुका था पर उसकी तार्किकता सिध्द करने के लिये अध्ययन कराया गया । अब भारत
सरकार की नई नीतियों का आधार ही वह दृष्टिपत्र है।
मानकों
का निर्धारण: चूंकि अन्तर्राष्ट्रीय
वित्तीय संस्थान कर्ज एवं अनुदान देते हैं इसलिये स्वाभाविक है कि शर्ते भी उन्हीं
की होती हैं। विकास के कार्यो (खास तौर पर निर्माण कार्य,
सलाह सेवायें एवं प्रशिक्षण) में काम करने वाले व्यक्तियों, व्यावसायिक फर्मों या तकनीकी फर्मो का स्तर क्या होना चाहिये, यह भी विश्व बैंक, एशियाई विकास बैंक अपनी शर्तो में
तय कर देते हैं। इसके दो मकसद होते हैं -
पहला मकसद तो यह होता है कि काम की रूपरेखा बनने से लेकर क्रियान्वयन तक का काम
उनकी मंशा के अनुरूप होता है और दूसरा मकसद होता है कर्जे में से 30-40 फीसदी धन विकसित देश वापस ले जाना।
इसी
तरह जो सामग्री क्रय करने या निर्माण कार्य के लिये विश्व स्तरीय निविदायें निकलती
हैं उसकी शर्ते केवल अमेरिका, यूरोप या
जापान की कम्पनियां ही पूरा कर पाती हैं। विकासशील देशों की स्थानीय कम्पनियों को
काम ही नही मिल पाता है।
अच्छा
शासन तंत्र, व्यवस्था एवं लोकतंत्र:
अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान मानते हैं कि राज्य में क्रांति या विद्रोह के
अवसर पैदा न हो पायें इसके लिये समुदाय को अच्छे शासन तंत्र और लोकतंत्र के भ्रम
में रखना चाहिये। वे प्राथमिक रूप से तय करते हें कि शासन में लोगों की भूमिका नही
होना चाहिये और यदि उनकी भूमिका है तो उस शासन तंत्र का इस्तेमाल अपनी रणनीति को
लागू करने में नहीं करना चाहिये। भारत में केरल में स्थानीय स्वशासन व्यवस्था की
पुर्नसंरचना के लिये कर्ज दिया गया। और विश्लेषण इस तरह किया गया कि विकास के लिये
लोकतांत्रिक और अच्छी शासन व्यवस्था को स्थापित किया जाना चािहये। पंचायतों का रूप
इसी तरह का हो। इसके लिये जरूरी है कि वे संवैधानिक - राजनैतिक ढांचे के रूप में
सामने आयें। लेकिन उन्हें वित्तीय अधिकार नहीं दिये जाने चाहिये क्योंकि वे
राजनैतिक ढांचे का हिस्सा हैं। वे न तो
व्यवस्था बनाये रख पायेंगी न ही उनकी जबावदेहिता तय हो पायेगी इसलिये वित्तीय
व्यवहार के लिये समानांतर ढांचा खड़ा करना चाहिये। आप पायेंगे कि आज पानी का जो
निजीकरण किया जा रहा है उसमें विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक में स्थानीय शासन
व्यवस्था या निकायों के बजाये उपभोक्ता समितियां बना कर उनसे शुल्क वसूल करने की
बात कही है। ये अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान जानते हैं कि पंचायतों से शुल्क
वसूल करने के लिय कठिन कदम नहीं उठाये जा सकते है और यदि उठाये गये तो विरोध होगा
और संविधान उनका संरक्षण करेगा। यह सोच संयुक्त वन प्रबंधन समितियों के संबंध में
भी लागू हुई है।
कानून
और संविधान से ऊपर: ये अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय
संसथान कानून से ऊपर हैं इसलिये नित नये प्रयोगों में इनकी कहीं कोई जबाबदारी नहीं
है। यहां तक कि इनकी भूमिकाओं और देश के भीतर चल रह रहे कामों पर संसद तक में बहस
नहीं हो पाती है।
वर्तमान
स्वरूप: भूमण्डलीकरण के आज के दौर में भारत
ने भी पहचान लिया है कि भारत को महत्व
देना अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की मजबूरी है क्योंकि भारत सबसे तेज बढ़ती
अर्थव्यवस्था है, सबसे बड़ा बाजार है। ऐसे में
भारत ने इन संस्थानों के सामने कुछ शर्ते रखना शुरू किया।
- ज्यादा कर्ज दो - अब तक बैंक तय करते थे कि कितनी राशि दें, पर अब भारत ज्यादा मांग रहा है।
- जल्दी कर्ज दो - अब तक एक परियोजना स्वीकृत होकर राशि आने में छह साल का समय लगता था। अब प्रक्रिया तेज हुई।
- नीतियों को नरम करना - अब तक बैंक की वन नीति, आदिवासी नीति या पुर्नवास नीति कठिन होती थी और भारत को उसके अनुरूप काम करना पड़ता था पर अब उन्हें नरम बनाने की शर्त है।
सवाल
यह है कि भारत की शर्तो को अगर विश्व बैंक और एशियाई विकास बैंक स्वीकार करने लगे
हैं तो क्या हमें यह मान लना चाहिये कि देश ताकतवर हो रहा है या यह मानना चाहिये
कि जाल गहराता जा रहा है पर ऐसा नहीं है, वास्तव
में यह एक बार फिर इन संस्थानों की रणनीति का हिस्सा है। अब की बार रणनीति यह है
कि राज्य की व्यवस्था को आधार बनाकर ही भूमण्डलीकरण और उदारवाद की प्रक्रिया को
आगे बढ़ाया जाये।
विश्व
बैंक ने अपने विश्लेषण के अनुभवों से यह जाना है कि बाहर से थोपी हुई व्यवस्था के
कारण समुदाय की ओर से विरोध होने की संभावना है। उसका अनुभव नर्मदा बचाओ आंदोलन -
सरदार सरोवर बांध परियोजना के संबंध में स्पष्ट रहे हैं। प्राकृतिक संसाधन,
आजीविका और रोजगार ऐसे मुद्दे जिन पर लोग आंदोलित होते हैं। इसी
कारण विश्व बैंक को सरदार सरोवर परियोजना से पीछे भी हटना पड़ा था। इसके साथ ही
आंधप्रदेश में पीपुल्स वार ग्रुप यानी नक्सलवाद के बढ़ते प्रभाव से इन वित्तीय
संस्थानों का दखल भी प्रभावित हुआ था। ऐसे में एक तरफ तो अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय
संस्थानों की कुटिल राजनीति का पर्दाफाश हो रहा था तो वहीं दूसरी ओर विश्व बैंक -
एशियाई विकास बैंक के प्रभाव को आधार बनाकर निवेश करने वाली बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों को भी चिंतित होना पड़ा। निवेश
अब बाधित होने लगा तब विश्व बैंक ने भारत सरकार और आंध्रप्रदेश सरकार पर दबाव डाला
कि वह नक्सलवादियों से चर्चा कर शांति स्थापित करें क्योंकि हिंसा और अशांति के
बीच बहुराष्ट्रीय कम्पनियां आन्ध्रप्रदेश जैसे प्राकृतिक संसाधन सम्पन्न प्रदेश
में भी निवेश नहीं करेंगी और सरकार को नक्सलवादियों के साथ इस दबाव में चर्चा शुरू
करना पड़ी।
इसी
तरह अगर अगले स्तर पर आयें तो पता चलता है कि भारत के आधे से ज्यादा आदिवासी बहुल
जिलों (87 जिलों) में माओवादी
नक्सलवादी समूहों का विस्तार हो चुका है। हमें मानना होगा कि जैसे-जैसे शोषण का
विस्तार होगा, वैसे-वैसे सशस्त्र संघर्ष का भी विस्तार होता
है। और यह संघर्ष भी राजनीति (खासतौर पर मुख्यधारा की राजनीति) से मुक्त नहीं है।
यही कारण है कि अब भारत की सरकार को आदिवासियों के वनों पर अधिकार को मान्यता देने
वाला कानून लाने के लिये बाध्य होना पड़ रहा है।
आज
की स्थिति से यह स्पष्ट होता है कि ये वैश्विक वित्तीय संस्थायें अब भारत जैसे
देशों की शर्तों और स्थानीय परिस्थितियों को सुनियोजित ढंग से स्वीकार कर रही है और रणनीति यह है कि
अब सरकार हर काम के लिये नीतियां कानून बनाये ताकि भविष्य के राजनैतिक आर्थिक
परिणामों की जिम्मेदारी सरकार पर आये न कि अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों पर।
इसलिये अपना लक्ष्य हासिल करने के लिये ये
संस्थान स्थानीय (देश की) व्यवस्था को ही जरिया बना रहे हैं। अब दृष्टि आधारित
कार्यक्रमों पर नियंत्रण भी बना लिया है। भारत सरकार ने अगले पांच वर्षो के लिये ''भारत निर्माण कार्यक्रम'' शुरू किया है। इस
कार्यक्रम के लिये विश्व बैंक तत्काल सरकार द्वारा मांगी गई पूरी राशि (5 बिलियन डालर) का ऋण देने को तैयार है। इस कार्यक्रम का दृष्टिपत्र भी
विश्व बैंक तैयार कर रहा है और उसका ध्यान ऊर्जा, पानी,
जमीन और जंगल के संसाधनों पर है। भारत निर्माण कार्र्यक्रम को
संचालित करने के लिये सरकार की कम से कम 74 नीतियों में
बदलाव करना पड़ेगा। और यह बदलाव होगा भूमण्डलीकरण की जड़ो को मजबूत करने के लिये।
अब
विश्व बैंक सीधे-सीधे परियोजनाओं में निवेश नहीं करेगा,
निवेश करेगा स्थानीय निकायों के जरिये।' पर
रणनीति अब यह है कि नीतियों और कानूनों का पुर्ननिर्माण कराया जाये। यदि एक बार
नीतियां भूमण्डलीकरण की भावना के अनुरूप बन गई तो फिर छोटे-मोटे संकट कोई मायने
नहीं रखेगें।
भूमण्डलीकरण
की प्रक्रिया मे वित्तीय संस्थानों की भूमिका के प्रभाव
- अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों ने अपने विश्लेषण में यही कहा कि खुले बाजार से गरीबी कम होगी परन्तु आज की स्थिति यह है कि भारत में गरीब परिवारों की संख्या उतनी ही है जिनती 30 साल पहले थी।
- विश्व बैंक द्वारा संचालित गरीब हटाने वाले कार्यक्रम दुनिया के सबसे मंहगे और अनुत्पादक कार्यक्रम रहे हैं। इन कार्यक्रमों से एक डालर के बराबर मूल्य की गरीबी हटाने के लिये 166 डालर खर्च किये गये।
- विकास की जिस परिभाषा को कार्यक्रमों का आधार बनाया गया उससे प्राकृतिक पूंजी आधी हो गई है और पर्यावरण को जबरदस्त नुकसान हुआ है।
- विकास के स्थाईत्व पर सवाल है। पानी के संसाधनों की पुर्नसंरचना पर आज जो खर्च कर रहे हे वह लगातार बढ़ेगा। आज का खर्च पुर्नसंरचना पर होगा और पांच साल बाद पूरी आय कर्ज चुकाने में जायेगी। जिससे जल संसाधनों का रखरखाव नहीं हो पायेगा।
- समुदाय की अपनी आजीविका और संसाधन संरक्षण से जुड़ी हुई व्यवस्थायें टूट रही हैं और संवैधानिक संस्थाओं के समानंतर नई संस्थायें खड़ी हो रही है जिससे गांव में टकराव का वातावरण बन रहा है।
- अब चूंकि प्राथमिकतायें अन्तर्राष्ट्रीय बाजार तय कर रहा है इसलिये स्थानीय नियोजन का कौशल,क्षमता और महत्व खत्म हो रहा है। यह वास्तव में लोकतंत्र के खोखले होते जाने के संकेत हैं।
भूमण्डलीकरण
और अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की राजनीति
भूमण्डलीकरण
वास्तव में एक प्रक्रिया है और इस प्रक्रिया में यह माना जाता है कि लोकतंत्र किसी
भी व्यवस्था का सबसे जरूरी चरित्र है पर शर्त यह है कि वह लोकतंत्र इतना उदार होना
चाहिये कि वह आर्थिक व्यवस्था (जिसे हम खुला बाजार कह कर परिभाषित कर सकते है) में
हर तरह के परिवर्तन के लिये तैयार रहे। भूमण्डलीकरण की मान्यता यह है कि
अर्थव्यवस्था में होने वाले हर परिवर्तन को लोकतंत्र की मान्यता मिले,
फिर भले ही वह समाज के केवल अभिजात्य वर्ग के तात्कालिक हितों का ही
संरक्षण क्यों न करता हो। दूसरी खास बात यह है कि भूमण्डलीकरण लोकतंत्र का पूरा
उपयोग या फिर कहें कि पूरा दोहन करता है। इसमें ''लोक''
भूमण्डलीकरण के लिये लक्षित बाजार है जबकि ''तंत्र''
उस बाजार तक पहुंचने का माध्यम। भूमण्डीलकरण सामाजिक, राजनैतिक और आर्थिक व्यवस्था में बदलाव लाने की वकालत करता है। इसके लिये
इस नई सोच के पैरोकारों ने जबरदस्त अध्ययन और विचार विमर्श करके ठोस रणनीतियां
बनाई हैं। दुनिया का इतिहास (जिसमें भारत भी शामिल है) हमें बताता है कि
उपनिवेशवाद या परतंत्रता की शुरूआत हमेशा बाजार के दरवाजे से राज्य में होती हैं।
हम
सभी जानते हैं कि विकास की कभी भी एक सर्वमान्य परिभाषा नहीं रही है,
हमेशा इस पर विवाद या बहस होती रही है। विकास का सीधा जुड़ाव नजरिये
या दृष्टिकोण से है। समाज जितने हिस्सों (जैसे - दलित, आदिवासी,
जेंडर, अमीर-गरीब, शहरी-ग्रामीण,
बच्चे, शिक्षा, साम्प्रदायिकता
आदि) बंटा हुआ है उतने ही नजरिये से विकास की परिभाषा की व्याख्या की जाती है।
दलित समुदाय के लिये सम्मान और समता विकास है तो आदिवासी के लिये प्राकृतिक
संसाधनों पर नियंत्रण या अधिकार ही विकास है। विकास की परिभाषा के इसी बिखराव के
बीच से भूमण्डलीकरण अपना रास्ता निकालता है। समाज के संकटों का हल जब
सामान्यत: नहीं निकल पाता है तो हम किसी
निष्पक्ष निर्णायक (न्यायाधीश) की जरूरत महसूस करते हैं। संकट बढ़ता जाता है,
विवाद गहराता जाता है तो यह जरूरत भी बढ़ती जाती है। इस पूरी स्थिति
को बाजार कहीं दूर खड़ा देखता रहता है उसका विश्लेषण करता रहता है। जब गरीबी और
असमता चरम पर पहुंचती है तब भूमण्डलीकरण के सिद्वान्तकार यह सिध्दान्त लेकर सामने
आते हैं कि बिखराव और टूटन का कारण कुछ भी हों परन्तु इसका इलाज बाजार के पास है।
बाजार कोई भेद नहीं मानता है, दलित उसके लिये अस्पृश्य नहीं
है, बच्चों के कुपोषण को मिटाने के लिये डिब्बा बंद इलाज भी
उसके पास है। संकट में फंसा समाज इसे सबसे अच्छा विकल्प मान लेता है। और यहीं से
उसे सामाजिक मान्यता भी मिलती है।
वास्तव
में भूमण्डलीकरण केवल आर्थिक लाभ कमाने का लक्ष्य लेकर चलने वाली प्रक्रिया नहीं
है बल्कि वह संसाधनों के आर्थिक, राजनैतिक,
सामाजिक और सांस्कृतिक स्रोतों पर नियंत्रण करने का लक्ष्य लेकर
चलने वाली प्रक्रिया है। जब हम यह मानने लगते हैं कि सामाजिक समस्याओं या पिछड़ेपन
का इलाज कोई वस्तु है तो इसका मतलब है कि हम उसे अपने व्यवहार का हिस्सा बनाते है।
जैसे-जैसे वस्तु की महत्ता जीवन में मूल्यों और सिध्दान्तों से ज्यादा होती जाती
है तो फिर उसे हासिल करने के लिये पूरी व्यवस्था में बदलाव की जरूरत होती है।
भूमण्डलीकरण में बाजार सबसे पहले समाज की समस्याओं का विश्लेषण करता है और फिर
अपनी भूमिका की पहचान करता है। उसका लक्ष्य समस्याओं का हल खोजना नहीं है बल्कि
इनका उपयोग करके समाज पर नियंत्रण करना होता है। इस अंतिम लक्ष्य के साथ वह सबसे
पहले हमारे बाजार में (जिस बाजार से हमारा रोज का जुड़ाव है) कुछ वस्तुयें उतारता
है। चूंकि बाजार में कुछ उत्पाद पहले से मौजूद हैं अत: अपना स्थान बनाने के लिये
वह उत्पाद के रूप, रंग और चरित्र में बदलाव करके अलग दिखाने
की कोशिश करता है। बाजार में वस्तुयें दो तरह से आती हैं - एक तो लोगों की जरूरत
को पूरा करने के लिये और दूसरे लोगों में जरूरत को पैदा करने के लिये।
सबसे
पहले वस्तु के प्रवेश के साथ कुछ नई जरूरतें भी हमारे जीवन में प्रवेश करती हैं।
उत्पाद के पारम्परिक रूप में बदलाव किया जाता है और इस बदलाव के साथ नई तकनीक भी
समाज में प्रवेश करती है। भूमण्डलीकरण्ा इस तर्क के साथ सामने आता है कि कोई भी
तकनीक किसी एक राज्य या समाज के दायरे में सीमित नहीं रहना चाहिये क्योंकि इस तरह
की सीमाओं से लोग अधिकारों का उपयोग नहीं कर पाते हैं। इस तरह जरूरतों को पूरा
करने के लिये नई तकनीक समाज में आती है और बाजार में वही तकनीक टिक पाती है जो
फायदे और बाजार का विस्तार करती है। तकनीक का मकसद केवल उत्पादन बढ़ाना नहीं होता
है। बल्कि समाज की उपभोग करने की प्रवृत्ति को भी बदलना होता है। बिना व्यवहार में
बदलाव लाये वस्तु और तकनीक को टिकाऊ नहीं बनाया जा सकता है। जैसे कि हम यह मानते
हैं कि भूमण्डलीकरण राज, समाज और अर्थसत्ता पर
नियंत्रण करने के लिये एक खास वर्ग के द्वारा चलाई गई प्रक्रिया है, तो इसका मतलब है कि व्यवहार में बदलाव लाने के बाद वह सामाजिक सिद्वान्तों
और फिर संस्कृति की संरचना में बदलाव लाने का लक्ष्य रखता है। समाज पर व्यापक
प्रभाव छोड़ने के लिये सांस्कृतिक मुद्दों को नजर अंदाज नहीं किया जा कसता है।
इसका
स्पष्ट अर्थ यह है कि भूमण्डलीकरण का मतलब केवल व्यापार से नहीं है बल्कि यह
सामाजिक और राजनैतिक सत्ता पर काबिज होने का भी लक्ष्य साधे हुये है। भूमण्डलीकरण
के इस खेल में विकसित देश - खास तौर पर अमेरिका और यूरोपीय देश सबसे अहम खिलाड़ी
रहे है। इन देशों ने यह प्रक्रिया प्रत्यक्ष रूप से आगे नहीं बढ़ाई बल्कि अलग-अलग
स्तरों पर अलग-अलग मोहरों को इस प्रक्रिया का हिस्सा बनाया है। भूमण्डलीकरण में
तीन अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की भूमिका को सबसे अहम माना जाता है। इन
तीनों संस्थानों ने वैश्विकरण की प्रक्रिया को आगे बढ़ाने के लिये माहौल बनाने,
राज्यों की नीतियों - कानूनों को बदलवाने और दबाव बनाने के लिये
आर्थिक संसाधनों का उपयोग करने का दायित्व बखूबी निभाया है ये तीन संस्थान है -
1. विश्व बैंक
2. अन्तर्राष्ट्रीय
मुद्रा कोष और
3. एशियाई विकास बैंक
इस
तीनों अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की वैश्विकीकरण में भूमिका को हमें
ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य में समझना होगा। आज जब भी भूमण्डलीकरण या विश्व व्यापार
संगठन पर चर्चा या बहस होती है तो उस बहस का स्वाभाविक हिस्सा अन्तर्राष्ट्रीय
वित्तीय संस्थान होते हैं। यह कहना शायद गलत नहीं है कि ये संस्थान ही भूमण्डलीकरण
के ध्वज वाहक बने हैं और इनकी ताकत कितनी है यही हमें जानना भी चाहिये।
भारत
एक स्वतंत्र गणतांत्रिक राज्य है जो एक जनकल्याणकारी राज्य की स्थापना का उद्देश्य
लेकर चल रहा है। राज्य की व्यवस्था भारत के संविधान के तहत संचालित होती है। हमारे
देश की सरकारी व्यवस्था में बहुत स्पष्ट रूप से तय है कि अलग-अलग मंत्रालय और
विभाग अपनी-अपनी निश्चित भूमिकायें निभायेंगे। और
भूमण्डलीकरण के प्रभाव को सबसे पहले यहीं मापा जा सकता है भारत का वित्त
मंत्रालय यह सुनिश्चित करता है कि राज्य की व्यवस्था को संचालित करने,
विकास और प्रगति को लोकोन्मुखी बनाने और राष्ट्र को सशक्त बनाने के
लिये आर्थिक जरूरतें क्या होंगी और उन्हें कैसे पूरा किया जायेगा। स्वाभाविक है कि
इस मंत्रालय की प्राथमिकता देश, लोक और तंत्र की जरूरत के
अनुरूप काम करना है परन्तु अब व्यवस्था बदल रही है। भूमण्डलीकरण की प्रक्रिया में
भारत के वित्त विभाग में एक अलग ऐसा उप-विभाग है जिसका काम केवल अन्तर्राष्ट्रीय
वित्तीय संस्थानों के साथ संवाद और समन्वय स्थापित करना है। इस उप-विभाग में 23 वरिष्ठ अफसर काम करते है। इस उपविभाग में काम करने के लिये अफसरों के बीच
अच्छी खासी प्रतिस्पर्धा होती है क्योंकि इसके अगले चरण में उनके पास विश्व बैंक,
अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और एशियाई विकास बैंक में प्रतिनियुक्ति
पर जाने या वहां सलाहकार बनने के रास्ते खुलते नजर आते हैं।
वित्त
विभाग के बाद भारत के योजना आयोग के दफ्तर में भी इन संस्थानों को विशेष दर्जा
देते हुये कार्यालय उपलबध कराया गया है। भारत की नीति बनाने वाले वरिष्ठ अफसर यह
मानते हैं कि अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों के दफ्तर ज्ञान का पुंज होते है
और वहां प्रवेश करते ही विशेष अनुभूतियां होती हैं। इन संस्थानों की व्यापक सोच,
तथ्य और आंकड़े और विश्लेषण उन्हें अद्भुत नजर आते है। जिनके सामने
देशज ज्ञान और विश्लेषण पूरी तरह से गौण हो चुके हैे। विश्व बैंक जैसे समूहों ने
अपने विश्लेषण से यह जरूर जान लिया है कि यदि भारत पर प्रभाव डालना है तो नीति
बनाने वालों को अपने दायरे में लाना होगा। तब मौके-मौके पर प्रशिक्षणों के बहाने
अफसरों का मानस बदलने का काम किया गया। यही कारण है कि विश्व बैंक की वन नीति के
सामने उन्हे आदिवासियों के जंगल पर अधिकारों का संघर्ष बेमानी नजर आता है। ऐसा नहीं
है कि विश्व बैंक ने भारत को बहुत भारी - भरकम कर्ज के तले दबा लिया है, बैंक ने कुल 14 बिलियन डालर का कर्ज भारत को दिया है
यानी प्रतिव्यक्ति केवल 14 डालर की राशि। इसके बावजूद सपने
बेंच-बेंच कर विश्व बैंक ने भारत की प्रशासनिक सत्ता को अपने नियंत्रण में ले लिया
क्योंकि यही सबसे कमजोर कड़ी भी रही है।
अन्तर्राष्ट्रीय
वित्तीय संस्थानो की ऐतिहासिक यात्रा
1940 का दशक: हम सभी जानते हैं कि 1939 से शुरू हुये दूसरे विश्वयुद्व ने दुनिया को बहुत सारे झटके और स्थाई
समस्यायें दी है। पहले तो युद्व हुआ सत्ता और ताकत की खातिर और फिर जब युद्व खत्म
हुआ तो यह सवाल सामने खड़ा हुआ कि बर्बाद हो चुके यूरोप का फिर से कैसे खड़ा किया
जाये। यहां यूरोप के पुर्ननिर्माण की जरूरत सामने आई। ऐसे में वर्ष 1944-46 में यूरोप के पुर्ननिर्माण के काम को आगे बढ़ाने के लिये विश्व बैंक की
स्थापना हुई। धीरे-धीरे विश्व बैंक एक स्वीकार्य अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थान
के रूप में स्थापित होने लगा। तब विश्व बैंक की छवि में अमेरिका को अपना भविष्य
नजर आया ।
1950 का दशक: अमेरिका ने विश्व बैंक को
यूरोप सहित अन्य देशों में विकास और पुर्ननिर्माण के कार्य को आगे बढ़ाने के लिये
द्विपक्षीय आर्थिक सहयोग देना शुरू किया। इस आर्थिक सहयोग से (यह अनुदान नहीं
बल्कि उदार कर्ज था) उसका विश्व बैंक पर प्रभुत्व स्थापित होना शुरू हो गया। यहां
अमेरिका का मकसद यह था कि शीत युद्व के दौरान विश्व बैंक उसके पक्ष में खड़ा हो।
और यही हुआ भी। 1950 के दशक में ही यह तय हो
गया कि विश्व बैंक का अध्यक्ष हमेशा कोई अमेरिकी व्यक्ति ही बनेगा। चूंकि इस
संस्थान में प्रभावशाली यूरोपीय देशों का भी दखल था इसलिये अध्यक्षता के मामले में
यह तय हुआ कि यूरोपीय व्यक्ति अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष का अध्यक्ष हो सकता है।
1960 का दशक: इन दस सालों में विकसित
देशों के दायरे के बाहर एशिया क्षेत्र में जापान ने अपने हित खोजने शुरू किये। यह
हम जानते हैं कि विश्व बैंक की स्थापना विश्वयुद्व के नुकसान को पूरा करने के लिये
हुई थी परन्तु सभी देशों को इसका लाभ नहीं मिला। तब जापान ने यह सवाल खड़ा किया
यदि सबसे ज्यादा नुकसान किसी देश का हुआ था तो वह जापान था क्योंकि यह परमाणु बम
के हमले का शिकार था परन्तु विश्व बैंक में उसकी हिस्सेदारी नहीं है। जापान के
सवालों से एक बहस शुरू हुई परन्तु अमीर देश विश्व बैंक मे किसी को हिस्सेदारी नही
देना चाहते थे इसलिये एशियाई विकास बैंक की स्थापना का निर्णय लिया गया। इसका मतलब
यह है कि 1964 की स्थिति में
अन्तर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों पर तीन ताकतवर मूर्तियों - अमेरिका, यूरोप और जापान का कब्जा हो गया। वास्तव में औद्योगिकीकरण और मशीनीकरण के कारण
पर्यावरण को हो रहे नुकसान का विषय अब विवाद का रूप भी लेने लगा था।
1970 का दशक: इस दशक के दौरान सामाजिक
विकास की परिभाषाओं पर बहस शुरू हुई। वास्तव में संसाधनों पर नियंत्रण के जरिये
विकसित देश जिस उपनिवेशवाद को आगे बढ़ाना चाहते थे उससे राजनैतिक,
सामाजिक संघर्ष शुरू होने की संभावना थी। हालांकि तब देश (खासतौर पर
भारत जैसे) गरीब तो थे परन्तु राजनैतिक रूप से कमजोर नहीं थे इसलिए अमेरिका या
यूरोप विकासशील देशों के संसाधनों पर सीधे-सीधे कब्जा नहीं जमा पा रहे थे। ऐसे में
नीति पुर्ननिर्माण (Policy Reform) की अवधारणा ने जडे पकड़ना
शुरू किया और नीति पुर्ननिर्माण में यही मूल मंत्र दिया गया कि खुले बाजार की नीति
ही गरीबी मिटा सकती है।
1980 का दशक: पिछले दशक में गरीबी की
विकराल समस्या को विकास की प्रक्रिया में सबसे बड़ी बाधा के रूप में स्वीकार कर
लिया गया था, और समाधान निकला था खुले
बाजार की नीति के रूप में। विकसित देश विकासशील देशों का ठोस विष्लेषण कर इस
निष्कर्ष पर पहुंचे कि हर परिस्थिति में भारत, चीन और
ब्राजील दुनिया के सबसे बड़े बाजार है। इसलिये यहां विकास और औद्योगिकीरण के नाम
पर दखलदांजी शुरू हो गई। भारत पर अमेरिका ने सीधे-सीधे दबाव नहीं डाला पर भारत के
बाजार में नये-नये उत्पादों को प्रवेश दिला कर नरम उदारवादी प्रक्रिया शुरू करवा
दी। अब बाजार में नये टूथपेस्ट, साबुन और क्रीम आने लगे।
विश्व व्यापार संगठन के रूप में भूमण्डलीकरण ठोस रूप से सामने आया।
1990 का दशक: यह एक ऐतिहासिक दशक
बन गया क्योंकि यहां प्रत्यक्ष रूप से उदारवाद और भूमण्डलीकरण की नीति को सरकार ने
अपना लिया। अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने भारत के संकट का उपयोग कर व्यवस्था को
अपने प्रभाव में ले लिया। देश की लगभग हर नीति और हर क्षेत्र अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार
के लिये खुलने लगा। आयात-निर्यात शुल्क कम हुये, मानकों
में बदलाव हुआ, सरकार का नियंत्रण व्यवस्था पर से कम हुआ। इस
दशक में केवल उद्योग नहीं बल्कि बुनियादी जरूरतों (जैसे - पानी, कृषि, ऊर्जा आदि) का भी निजीकरण होना शुरू हुआ बल्कि
सेवाओं का भी बाजारीकरण हुआ। कुल मिलाकर आर्थिक विकास सामाजिक विकास पर हावी हो
गया और विकास की परिभाषा में से समुदाय की भूमिका - निर्णय का स्थान खत्म हो गया।
अब बाजार समुदाय के मानस पर पूरी तरह से हावी हो गया। अब विज्ञापन तय करने लगे कि
व्यक्ति कौन सा मंजन करेगा, किस साबुन से नहायेगा, कौन सी बनियान पहनेगा और कौन सा कण्डोम इस्तेमाल करेगा।
2000 का दशक: भूमण्डलीकरण के दौर में
बहुराष्ट्रीय कम्पनियों ने पहचान लिया कि जंगल, जमीन,
पानी सबसे धनी संसाधन हैं और इन पर सीधे-सीधे नियंत्रण नहीं किया जा
सकता है इसलिये सुधार की प्रक्रिया के नाम पर इन्हें विकास के साथ जोड़ा गया। सबसे
स्पष्ट उदाहरण है मिलेनियम डेवलपमेंट गोल्स, ये लक्ष्य विश्व
बैंक की मंशा पर संयुक्त राष्ट्र संघ ने तय किये। इस दशक की सबसे खास बात यह है कि
वित्तीय संस्थानों ने विकास संस्थानों के जरिये काम करने की रणनीति अपनाई। साथ ही
अब यह विश्वास दिला दिया गया कि हर सेवा और हर अधिकार का संस्थानिकीकरण जरूरी है। भारत में पहले से संविधान और कानून के अन्तर्गत चल रहे
संस्थानों के समानांतर नये संस्थान खड़े करने की प्रक्रिया शुरू की गई।
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