मद्रास
हाईकोर्ट के लिव-इन रिलेशन में त्यागने के बाद पीडिता को गुजारा भत्ता देने के
आदेश पर चल रही बहस "सिक्स मैन एंड एलीफेंट" विश्लेषण से भी बढ़कर है।
मौजूदा बहस में जो अहम पहलू भुला दिया गया, वह यह है कि जब
एक कोर्ट अपना फैसला देता है, तो यह लिव-इन रिलेशन में अलग होने के
सभी तरह के मामलों के लिए कानूनी मिसाल स्थापित करता है।
यही
वो वजह है, जो न्यायालय को पंचायत के कानून से अलग करती है,
जो
कि एक समान गांव या समुदाय के लिए "केस-टू-केस जस्टिस" करती है। भारत न
तो एक समान गांव की तरह है और न ही एक जैसा समुदाय कहीं है। यहां हिंदू, मुस्लिम,
क्रिश्चन,
पारसियों
के लिए शादी, तलाक और गुजारे भत्ते के अलग-अलग कानून हैं।
इसके अलावा खासतौर पर "क्रॉस रिलीजन" और सम्प्रदायों के विवाहों के लिए
एक विशेष कानून भी है।
जब
विवाह न होने पर (नॉन-मैरिजेज) ही गुजारा-भत्ता के आदेश दिए जा रहे हैं, तो
यह फैसला सभी धार्मिक कानूनों और विशेष कानून में कारक होना चाहिए। न्यायालय कड़ाई
से कानून की अनुपालना करते हुए न्याय करता है। पर कानून कई दफा अन्यायपूर्ण भी
होता है। यदि कानून केवल वैधानिक विवाह टूटने पर ही गुजारा भत्ता की अनुमति देता
है, तो न्यायालय को लिव-इन के पीडित के लिए न्याय करने के लिए उच्च
न्यायिक विवेक को अपनाना चाहिए और वैवाहिक कानून को नुकसान पहुंचाए बिना न्याय
करना चाहिए, जो कि परिवारों को बनाए रखने का कार्य करते
हैं।
इसके
लिए किसी महान कानूनी विद्वान की जरूरत नहीं है कि लिव-इन रिलेशन क्यों वैधानिक
विवाह के बराबर नहीं हैं। एक कानूनन विवाह दाम्पत्य अधिकारों को मानते हुए बना रह
सकता है। यह किसी भी एक पक्ष के चाहने पर नहीं टूट सकता (इस्लामिक शरीयत कानून को
छोड़कर, जहां पति छोड़ सकता है)। लेकिन लिव-इन रिश्ता स्वेच्छा से आपसी
आकर्षण से होता है, आपसी सहमति पर नहीं होता।
इसमें
कोई भी पार्टनर लिव-इन रिश्ते को लागू नहीं कर सकता, पर दोनों में से
कोई भी आसानी से छोड़ सकते हैं। सोचिए, अगर पुरूष की बजाय एक महिला लिव-इन
छोड़कर किसी दूसरे पुरूष के पास चली जाती, तो उसके लिव-इन पुरूष सहयोगी के पास
वैधानिक विवाह की तरह कोई समाधान था, मसलन दाम्पत्य अधिकारों की पुनस्र्थापन
जैसा कोई समाधान। क्या इसमें कोई शक है कि विवाह आपसी सहमति का एक जुड़ाव होता है,
जबकि
लिव-इन में कोई भी किसी को छोड़कर जा सकता है?
तो
ऎसे में यौन सम्बंध बनाना और संतानोत्पत्ति अकेले लिव-इन अफेयर्स को विवाह के
बराबर कैसे बना सकता है? फिर भी जाहिर तौर पर जस्टिस करनान,
परित्यक्त
महिला की विपत्ति पर जाते हुए, उसे गुजारा भत्ता दिलाने की दिशा में
कई कानूनी त्रुटियों में चले गए।
उन्होंने
उसे गुजारा भत्ता सुनिश्चित करने के लिए नॉन-बाइंडिंग लिव-इन रिलेशन को गलती से
वैधानिक विवाह के बराबर ला खड़ा किया। लिव-इन रिलेशन को वैधानिक विवाह के दर्जे के
बराबर लाते हुए, जज ने असल में दोनों स्थितियों के बीच कानूनी
भेद को मिटाते हुए, वैधानिक विवाहों को लिव-इन संसर्ग की दिशा में
नीचे ला खड़ा किया।
इस
प्रक्रिया में उन्होंने विवाह के तमाम कानूनों को न्याय करने के लिए गैर-कानूनी
ठहरा दिया। इस मामले में परित्यक्त लिव-इन महिला एक हिंदू है और परित्यागी एक
मुस्लिम है। यह क्रॉस लिव-इन रिलेशन है। क्या उन्होंने हिंदू या शरीयत कानून के
तहत विवाह किया था या क्या उन्होंने विशेष कानून के तहत विवाह पंजीयन कराया था।
कुछ
लोगों का मानना है कि क्यों न लिव-इन रिलेशन को गंधर्व विवाह की तरह देखा जाए।
पहली बात तो यह कि गंधर्व विवाह हिंदू अवधारणा है और हिंदू महिला और मुस्लिम पुरूष
के बीच लागू नहीं होगी। खैर, इस मसले पर निष्पक्ष विश्लेषण की जरूरत
है। गुजारा भत्ता, जैसा कि कानून में है की बात तब आती है,
जब
एक वैधानिक विवाह टूटता है। लेकिन इस मामले में जो वैवाहिक गुजारा भत्ते के आदेश
दिए गए हैं, जहां न तो विवाह हुआ और न ही अलगाव हुआ। जज ने
इस बात को भी अनदेखा किया कि भारत में विवाह के कानून एक समान नहीं हैं, बल्कि
विभिन्न धर्म, सम्प्रदाय के लिए अलग-अलग हैं।
हिंदू
विवाह कानून (1954) हिंदुओं के अलावा सिक्ख, बौद्ध, जैन
पर भी लागू होता है, मुस्लिम, क्रिश्चन और
पारसियों के सिवाय। पारसी विवाह कानून 1936 केवल उन्हीं पर लागू होता है।
क्रिश्चियन विवाह कानून 1872 भी केवल क्रिश्चियन पर लागू होता है।
ये सब कानून उसी धर्म के जोड़ों पर लागू होते हैं, दूसरों पर नहीं।
हिंदू विवाह कानून हिंदू परम्पराओं के तहत हुए विवाहों को ही मान्यता देता है। ऎसा
ही मुसलमानों में है, क्रिश्चियन, पारसियों में
है। लेकिन विशेष विवाह कानून के तहत पंजीयन क्रॉस-रिलीजन विवाहों को मान्यता देता
है। मतलब कि विशेष विवाह को छोड़कर, बाकी विवाह सम्बंधित धर्म की परम्पराओं
के तहत होने पर ही मान्य होते हैं। फिर भी जस्टिस करनान का फैसला विवाह के लिए
जरूरी परम्पराओं, रीति-रिवाजों को खारिज करता है। विवाह की तरह
ही विभिन्न धमोंü में तलाक और गुजारे भत्ते में भी भिन्नता है।
वे
यह नहीं पूछते कि इस जोड़े ने विशेष विवाह कानून के तहत पंजीकरण क्यों नहीं कराया।
सवाल है कि क्या एक लिव-इन महिला मुस्लिम पुरूष से वैधानिक पत्नी से बेहतर गुजारा
भत्ता प्राप्त कर सकती है? और क्या यह गुजारा भत्ता तब भी जारी
रहेगा, जब वह किसी दूसरे लिव-इन और विवाह में बंध जाएगी। इस फैसले में,
जो
कि कानूनी मिसाल है, इस तरह की सभी स्थितियों पर गौर करना चाहिए,
वरना
यह सिर्फ एक पंचायती निर्णय बनकर रह जाएगा।
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