वैश्विक पटल पर भारत समेत एशियाई देश
शहरीकरण में कदम रखने वाले अपेक्षाकृत नए खिलाड़ी हैं। लैटिन अमेरिका सहित
पाश्चात्य देशों का एशिया से काफी पहले ही शहरीकरण हो चुका है। 1901 में भारत में कुल 10.8 फीसद आबादी ही शहरों में रहती थी। 1991 तक यह आंकड़ा 26 प्रतिशत पर पहुंच गया था और 2011 में 31 प्रतिशत तक। इसके विपरीत चीन का शहरीकरण पहले ही हो चुका है। 1991 में एक-तिहाई चीनी शहरों में रहते थे।
2011 तक वहां आधी आबादी शहरों में बस चुकी
थी। हालांकि भारत ने अतीत में जो कुछ गंवाया था उसकी पूर्ति अब बड़ी तेजी से कर
रहा है। पिछले दशक के दौरान 2800 नए
कस्बों (टाउन) का निर्माण हुआ।
भारत में टाउन उन शहरों को कहा जाता है
जिनकी आबादी पांच हजार से अधिक है और जहां आबादी का न्यूनतम घनत्व प्रति वर्ग
किलोमीटर 400 व्यक्ति है। तमाम विकासशील देशों में
शहरीकरण तेजी से हो रहा है। सन 2050 तक
शहरीकरण की यही गति बरकरार रहने की उम्मीद है। यद्यपि अलग-अलग देशों में इसकी दर
अलग-अलग रहेगी। उदाहरण के लिए 2011 से
2030 तक वैश्विक शहरी आबादी में 140 करोड़ की वृद्धि का अनुमान है, जिसमें 27.6 करोड़ वृद्धि चीन में और 21.8
करोड़ भारत में होगी। ये दोनों देश नई शहरी आबादी में 37 प्रतिशत का योगदान देंगे। 2030 से 2050 तक हालात बदल जाएंगे। तब विश्व की शहरी आबादी में 130 करोड़ की वृद्धि होगी, जो 2011-30 कालखंड में होने वाली वृद्धि से कम है। इसमें सबसे बड़ी 27 करोड़ की हिस्सेदारी भारत की होगी।
इसके बाद नाइजीरिया रहेगा। वहां 12.1
करोड़ लोग शहरों में बस जाएंगे। ये दोनों देश विश्व की नई शहरी आबादी में 31 फीसदी का अंशदान देंगे। इस बीच चीन
में नई शहरी आबादी में महज 4.4
करोड़ की वृद्धि होगी। वैश्विक दृष्टिकोण से भारत के शहरीकरण की प्रक्रिया बहुत
तेज और बेहद महत्वपूर्ण होगी। 2030 तक
भारत में दस लाख से अधिक आबादी वाले करीब 70
शहर होंगे।
मुंबई, दिल्ली, कोलकाता, चेन्नई, बेंगलूर और पुणे में एक करोड़ से अधिक
आबादी होगी। मुंबई और दिल्ली विश्व के सबसे बड़े पांच शहरों में शामिल होंगे।
शहरीकरण की बहुत सी चुनौतियां हैं। भारत में शहरीकरण की प्रक्रिया का प्रबंधन बेहद
खराब तरीके से हुआ है, खासतौर पर चीन की तुलना में। अगर इसमें
सुधार नहीं हुआ तो इससे आम आदमी का जीवन नारकीय हो जाएगा। दुर्भाग्य से भारतीय
शहरों के विकास में निवेश बहुत ही कम हुआ है। संयुक्त राष्ट्र के आकलन के मुताबिक भारत
के शहरी क्षेत्रों में प्रति व्यक्ति निवेश मात्र 17 डॉलर है। यह चीन में निवेश का सातवां हिस्सा और न्यूयॉर्क का 17वां हिस्सा है। यही नहीं, भ्रष्टाचार, गलत संसाधन आवंटन और खराब क्रियान्यन
के कारण जो राशि इस मद में खर्च की भी गई है, उसके
भी अपेक्षित परिणाम नहीं आए हैं। भारत के शहरी जीवन के स्तर को उठाने के लिए शहरों
में होने वाले खर्च में सात से दस गुना की वृद्धि करनी पड़ेगी। साथ ही यह भी
सुनिश्चित करना होगा कि शहरी विकास पर होने वाले खर्च का सही ढंग से प्रबंधन किया
जाए और भ्रष्टाचार का स्तर नीचे लाया जाए। यह एक मुश्किल काम जरूर है, पर असंभव नहीं।
हम शहरों में तीन बुनियादी
जरूरतों-पानी की आपूर्ति,
जल एवं मल प्रबंधन और बिजली की
उपलब्धता पर नजर डालें तो भारत के शहरों की बदहाली स्पष्ट हो जाएगी। अफसोस की बात
है कि भारत में एक भी शहरी क्षेत्र नहीं है, जहां
स्वास्थ्य को खतरे में डाले बिना सरकारी नल में आने वाले पानी को पिया जा सके और
जहां सीवर की गंदगी को उचित ढंग से शोधन के बाद ही नदी-नालों में बहाया जाता हो, ताकि पर्यावरण और मानव स्वास्थ्य के
लिए खतरा पैदा न हो। हालिया वर्षो में कई शहरों में पानी की गुणवत्ता और आपूर्ति
में सुधार होने के बजाय और गिरावट देखने को मिल रही है। भारत के अधिकांश शहरों में
आमतौर पर 40 से 60 फीसदी पानी बर्बाद हो जाता है। देश की राजधानी दिल्ली में बिना शोधन
के ही गंदगी को यमुना नदी में बहा दिया जाता है। थर्ड वर्ल्ड सेंटर फॉर वाटर
मैनेजमेंट का आकलन है कि भारत में कुल गंदे पानी के 10 प्रतिशत से भी कम को उचित रूप में
शोधन करके नदी-नालों-झीलों में डाला जाता है। दिसंबर में केंद्रीय प्रदूषण
नियंत्रण बोर्ड ने सुप्रीम कोर्ट को सूचित किया कि सीवर की गंदगी के शोधन के
जिम्मेदार दिल्ली जल बोर्ड के अधिकारियों को जल शोधन के काम की जरा भी जानकारी और
समझ नहीं है। इससे पहले अदालत को बताया गया था कि 1994 के बाद से यमुना की साफ-सफाई के लिए पांच हजार करोड़ रुपये खर्च किए
जा चुके हैं, फिर भी यह खुला नाला बनी हुई है और कई
स्थानों में इसमें ऑक्सीजन का स्तर शून्य पर आ गया है। इससे पता चलता है कि केवल
पैसा नहीं, बल्कि उसका किस तरह इस्तेमाल होता है, यह अधिक महत्वपूर्ण है।
2005 में केंद्र सरकार ने एक योजना तैयार
की थी, जिसके तहत 2012 तक पूरे देश में बिजली की आपूर्ति
सुनिश्चित करने का लक्ष्य रखा गया था। अफसोस है कि इस योजना के क्रियान्वयन की गति
बेहद धीमी है। आज भी तीन में से एक भारतीय तक बिजली की पहुंच नहीं है। जिन इलाकों
में बिजली पहुंच भी गई है,
वहां इसकी आपूर्ति बहुत कम है। वर्तमान
में देश में प्रति व्यक्ति बिजली उपभोग विश्व के औसत का एक-तिहाई है। यह चीन के
औसत उपभोग का 35 फीसदी और ब्राजील का 28 फीसदी है। बिजली की इस अंधेरगर्दी के
कारण ही देश का शहरीकरण और विकास बाधित हो रहा है। अगर बुनियादी सुविधाओं के ये
अस्वीकार्य स्तर कायम रहे तो एक दशक में ही शहरी क्षेत्रों को उन नारकीय हालात से
गुजरना होगा जिनका सामना आज तक किसी भी पीढ़ी ने नहीं किया है। बिजली, पानी, सीवर, आवास और परिवहन समस्याओं से ही नहीं, बल्कि स्वास्थ्य, आर्थिक, सामाजिक और पर्यावरण के अभूतपूर्व संकट से भी जूझना होगा। अफसोस की
बात है कि भारत के एक भी शहर में 2030 तक
भूउपयोग, आवास, बिजली, परिवहन, पानी और अपशिष्ट प्रबंधन को शामिल करते हुए कोई मास्टर प्लान मौजूद
नहीं है। संतोष की बात है कि भारत के पास इन समस्याओं से निपटने का प्रबंधन, प्रौद्योगिकी और निवेश क्षमता है। कमी
है तो राजनेताओं और नौकरशाहों की इच्छाशक्ति की। यह कब होगा इसी पर देश का भविष्य
निर्भर करता है।
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