1991
में वित्तमंत्री के रूप में मनमोहन सिंह ने जिस “पूर्व की ओर
देखो” नीति की रूपरेखा तैयार की थी, प्रधानमंत्री के
रूप में वह इसे अमली जामा पहनाने में लगे हैं.
इस
नीति के तहत भारत पूर्व और विशेषकर दक्षिण पूर्व एशिया के देशों के साथ राजनीतिक
और आर्थिक क्षेत्रों समेत सभी क्षेत्रों में मजबूत सहयोग संबंध विकसित करने के लिए
प्रयत्नशील है. इन्हीं प्रयत्नों की कड़ी के रूप में पिछले दिनों प्रधानमंत्री
मनमोहन सिंह ने जापान और थाईलैंड की यात्रा की.
मनमोहन
सिंह की जापान यात्रा का सांकेतिक महत्व अधिक था, और दोनों देशों
ने पूरी कोशिश की कि शेष विश्व भी इसे पहचाने. जापान के सम्राट अकिहितो और
सम्राज्ञी मिचिको ने प्रोटोकॉल तोड़ कर मनमोहन सिंह को रात्रिभोज पर आमंत्रित किया
हालांकि वह भारत के राष्ट्राध्यक्ष नहीं हैं. सम्राट और साम्राज्ञी कुछ समय बाद
भारत की यात्रा पर आने वाले हैं. मनमोहन सिंह को जापान में अतिरिक्त सम्मान तो
मिला पर उनकी यात्रा के दौरान जापान के साथ वैसे असैनिक परमाणु सहयोग समझौते पर
दस्तखत करने की भारत की इच्छा पूरी नहीं हुई जैसा समझौता वह अमेरिका के साथ कर
चुका है. मनमोहन सिंह ने यह दावा तो किया कि उनकी जापान यात्रा परमाणु समझौते पर
दस्तखत करने की दिशा में एक औपचारिक कदम है और उन्हें उम्मीद है कि दोनों देश
शीघ्र ही इस पर हस्ताक्षर करेंगे, लेकिन वह इस सवाल का जवाब नहीं दे पाये
कि क्या ऐसा अगले वर्ष होने जा रहे लोकसभा चुनाव से पहले संभव हो सकेगा.
मनमोहन
सिंह की यात्रा को जापानी मीडिया ने तो बहुत महत्व नहीं दिया लेकिन माना जा रहा है
कि इस दौरान उनके और प्रधानमंत्री शिंजो अबे के बीच सहज और दोस्ताना संबंध बन गए
हैं और इसका दोनों देशों के आपसी संबंधों को और अधिक मजबूत बनाने की प्रक्रिया पर
सकारात्मक असर पड़ेगा. इस संदर्भ में यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि 2006-2007 के
बीच जब लगभग एक वर्ष तक शिंजो अबे जापान के प्रधानमंत्री थे, तब
उन्होंने ही भारत-जापान संबंधों को सुदृढ़ बनाने के लिए विशेष प्रयास शुरू किए थे
और ‘भारत-प्रशांत' की अवधारणा दी थी जो अब भूराजनीतिक
विमर्श का अनिवार्य हिस्सा बन गई है. मनमोहन सिंह की यात्रा के दौरान हुए आर्थिक
समझौते तो आशा के अनुरूप ही थे, लेकिन अधिक महत्वपूर्ण बात यह है कि
पिछले कुछ समय के दौरान भारत और जापान के बीच रणनीतिक संबंध भी तेजी के साथ विकसित
हुए हैं और इस यात्रा से इस प्रक्रिया में और भी तेजी आने की उम्मीद की जा रही है.
आश्चर्य
नहीं कि चीन में इस पर खासी तीखी प्रतिक्रिया हुई है. चीन द्वारा म्यांमार,
पाकिस्तान,
बांग्लादेश
और श्रीलंका के साथ रणनीतिक सहयोग बढ़ाने की कोशिशों को भारत में चीन द्वारा उसकी
घेराबंदी करने की कोशिश के रूप में देखा जाता है. दिलचस्प बात यह है कि भारत
द्वारा जापान आदि चीन के पड़ोसी देशों के साथ रणनीतिक संबंधों को विकसित करने के
प्रयासों को चीन में भी इसी रूप में देखा जा रहा है और वहा. के अखबार ग्लोबल
टाइम्स ने अपने संपादकीय में भारत और जापान के बीच समुद्री सुरक्षा के क्षेत्र में
सहयोग बढ़ाने के बारे में हुए विचार-विमर्श पर उंगली उठाते हुए यह आरोप लगाया है.
लेकिन चीन सरकार की ओर से व्यक्त प्रतिक्रिया में केवल यह आशा जताई गई है कि भारत
और जापान के आपसी संबंधों में विकास क्षेत्रीय शांति, स्थिरता और
विकास के हित में होगा. इस संदर्भ में यह तथ्य भी उल्लेखनीय है कि मनमोहन सिंह की
जापान यात्रा से ठीक पहले भारत और चीन के बीच लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा
पर मुठभेड़ की स्थिति उत्पन्न हो गई थी. उधर चीन और जापान के बीच भी कुछ द्वीपों को
लेकर विवाद है.
भारत-जापान
संबंधों का एक पहलू यह भी है कि हालांकि जापान की ओर से सबसे अधिक सहायता भारत को
ही दी जाती है, लेकिन निवेश के मामले में तस्वीर बिलकुल उल्टी
है. जहां चीन में जापान ने 100 अरब डॉलर का निवेश किया है, वहीं
भारत में उसका निवेश मात्र 14 अरब डॉलर का है. भारत-जापान समग्र
आर्थिक साझेदारी समझौते के नतीजे अभी तक सामने नहीं आये है लेकिन मनमोहन सिंह की
यात्रा के बाद भारत को उम्मीद है कि स्थिति में बदलाव आएगा.
जिस
तरह भारत “पूर्व की ओर देखो” की नीति पर चल रहा है, उसी
तरह थाईलैंड “पश्चिम की ओर देखो” की नीति अपनाए
हुए है. जाहिर है कि ये दोनों नीतियां एक ही बिन्दु पर मिलती हैं. बैंकॉक में
प्रधानमंत्री यिंग्लुक शिनावात्रा और मनमोहन सिंह के बीच हुई वार्ता और दोनों
देशों के बीच हुए समझौते द्विपक्षीय संबंधों के मजबूत होने का संकेत देते हैं.
पिछले पांच वर्षों में दोनों देशों के बीच व्यापार 15 प्रतिशत
प्रतिवर्ष की दर से बढ़ा है और अब वह आठ अरब साठ करोड़ डॉलर का आंकड़ा पार कर चुका
है. मनमोहन सिंह ने थाई निजी कंपनियों को भारत में ढांचागत क्षेत्र में निवेश करने
के लिए आमंत्रित किया. भारत के थाईलैंड के साथ प्रगाढ़ हो रहे संबंधों का
उत्तर-पूर्वी राज्यों के लिए भारी महत्व है क्योंकि यदि भारत-म्यांमार-थाईलैंड
समीकरण बन गया, तो इन राज्यों का शेष विश्व के साथ सीधा संपर्क
बन जाएगा. मनमोहन सिंह की थाईलैंड की यात्रा के दौरान इस त्रिपक्षीय राजमार्ग
योजना पर बातचीत भी आगे बढ़ी है.
बर्मा
और भारत के साथ जापान की शीर्ष स्तर की
बैठकों के बाद चीनी मीडिया जापान पर बेहद
आक्रामक हो गया है. चीनी अख़बार ग्लोबल टाइम्स ने (चीनी भाषा के संस्करण में)
जापान को "मेनोपॉज़ल" यानी रजोनिवृत्त देश करार दिया है, जो
असरदार नहीं रह गया. अख़बार कहता है कि जापान की “चीन को घेरने”
की
कोशिशें महज़ भ्रम ही हैं. अख़बार की हेडलाइन है: “मेनोपॉज़ल”
जापान
असंतुलित, चीन को अपने स्तर तक खींचने की कोशिश. अख़बार का अंग्रेजी संस्करण
काफ़ी नरम दिखता है और इसमें 'रजोनिवृत्ति' जैसा का कहीं
उल्लेख नहीं है.
बीजिंग
का हुआन्की शीबाओ (ग्लोबल टाइम्स) लिखता है, “जापान भारतीय
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का स्वागत कर रहा है और दोनों देश नौसैनिक सुरक्षा सहयोग
पर बात कर रहे हैं. कुछ ही दिन पहले जापानी प्रधानमंत्री शिंजो आबे बर्मा गए थे.
बहुत से लोग इसे चीन को घेरने के जापान के ‘खेल’ की
तरह देख रहे हैं. “जापान चीन के समक्ष बहुत कमज़ोर पड़ चुका है,
न
सिर्फ़ शक्ति के स्तर पर बल्कि मानसिक रूप से भी. हमें न तो एक ‘मेनोपॉज़ल’
देश
के साथ ‘मौत तक संघर्ष’ करने की ज़रूरत है और न ही जापान के
साथ झगड़े को लेकर खुद को दोष देने की ज़रूरत है.” अख़बार आगे कहता
है, “उच्च आत्मविश्वास और गुस्से के बगैर ताकत के प्रदर्शन के साथ चीन का
एक असली शक्ति बनना तय है. चीन को न तो जापान के साथ प्रदर्शन की होड़ में शामिल
होने की ज़रूरत है और न ही मेल-मिलाप करने की.” भारतीय
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह चार दिन की जापान यात्रा पर थे और दोनों देशों ने
नौसैनिक सुरक्षा सहयोग पर चर्चा की है. कुछ दिन पहले जापानी प्रधानमंत्री शिंजो
आबे बर्मा गए थे. इसे जापान की चीन को टुकड़ा-टुकड़ा घेरने के खेल का हिस्सा माना
जा रहा है.
जापान
की रणनीति चीन के पड़ोस में अपनी सक्रियता बढ़ाने की है.जापान की सावधानी से साबित
होता है कि 21वीं सदी में जापान पर चीन का भारी प्रभाव
रहेगा.लेकिन चीन को घेरने की जापान की सोच सिर्फ़ एक भ्रम ही है. चीन के साथ
प्रतियोगिता कर वह कुछ मोलभाव तो हासिल कर सकता है लेकिन एशिया में चीन के बढ़ते
प्रभाव को रोकना उसके बस में नहीं है.
चीन
की बढ़ती ताकत ने एशिया-प्रशांत क्षेत्र में शक्ति संतुलन को बदल दिया है. इससे
चीन के साथ विशेष भौगोलिक परिस्थितियां साझा करने वाले जापान को तकलीफ़देह प्रभाव
झेलना पड़ रहा है.जापान को यह हकीकत समझने में वक्त लगेगा कि चाहे वह एक वक्त
पूर्वी एशिया की एकमात्र शक्ति रहा हो लेकिन अब उसे चीन के लिए रास्ता ख़ाली करना
पड़ेगा, जिसकी जीडीपी और नौसैनिक शक्ति जापान को दरकिनार कर देगी.
यह
प्रक्रिया जापान के लिए मुश्किल होगी लेकिन यह एक न एक दिन तो होना ही है. जापान
जो तरीके आज़मा रहा है वह उसे राहत देने की कोशिशें भर हैं लेकिन इनका एशिया के
विकास पर कोई फ़र्क नहीं पड़ेगा. अपने देश का मनोबल ऊंचा रखने के लिए जापान चीन के
मुकाबले अपनी अवनति को छुपाने की हर कोशिश कर रहा है. लेकिन चीन को अपना
आत्मविश्वास पाने और ताकत साबित करने के लिए जापान के साथ प्रतियोगिता करने की ज़रूरत
नहीं है.
चीन
और जापान के बीच जारी तनाव को “रणनीतिक” कहने की ज़रूरत
नहीं है. दरअसल जापान और चीन का संपूर्ण रणनीतिक भविष्य पहले ही तय हो चुका है.
दोनों देशों के बीच मतभेदों से होने वाले फ़ायदे या नुकसान से किसी भी देश के
भविष्य पर असर नहीं पड़ने वाला. चीन को चापान पर बहुत ज़्यादा ऊर्जा खर्च करने की
ज़रूरत भी नहीं है.एक विकसित होता और युवा चीनी समाज को जापान के साथ संघर्ष को
टाल नहीं सकता. आत्मविश्वास के साथ एक महान शक्ति के रूप में विकसित होने के लिए
चीन को परिपक्व होना पड़ेगा और यह रास्ता अभी लंबा है.विकास की राह चीन और जापान
के बीच आखिरी फ़ैसला करने का यह वक्त नहीं है और न ही चीन के लिए जापान के साथ
अपने संबंध दुरुस्त करने का मौका है. चीन को बस इसे “आराम से लेना
चाहिए.”
चीन
को यह समझना चाहिए कि जापान की कोशिशें चीन की रणनीति को कभी प्रभावित नहीं कर सकतीं.
चीन को यह तय करना होगा कि वह कब और कितनी गंभीरता से इसका जवाब देता है.दरअसल चीन
और जापान दोनों को ही एक दूसरे की राह रोकने, अवरोध बनने से
बचना होगा.सिर्फ़ आपसी विश्वास और आदर से ही दोनों शांतिपूर्वक साथ-साथ रह सकते
हैं.
यह
माना जाता है कि यह सह-अस्तित्व न सिर्फ़ दोनों देशों के विकास के लिए सहयोगी होगा
बल्कि अंतर्राष्ट्रीय समुदाय की शांति और विकास में भी योगदान देगा.
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