महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार
गारंटी कानून (मनरेगा) दुनिया में अपने किस्म का अनोखा कार्यक्रम है। इसके तहत
गाँवों के ग़रीबों को निश्चित पारिश्रमिक पर वर्ष में कम से कम 100 दिनों के रोज़गार की
गारंटी दी गई है। यदि काम नहीं मिला तो बेरोज़गारी भत्ता दिया जाएगा। संसद के
दोनों सदनों में पारित होने के बाद 25 अगस्त 2005 को यह कानून का रूप ले सका। उस समय इसे नरेगा नाम दिया गया। 2 अक्टूबर 2009 से इसके साथ महात्मा गांधी का नाम
जोड़ दिया गया।
मनरेगा के जीवनकाल में 2012 का वर्ष कई बदलावों का
साक्षी बना। केंद्रीय रोज़गार गारंटी परिषद ने मनरेगा के क्रियान्वयन के अनेक
पहलुओं की समीक्षा के लिए छह कार्यबल का गठन सुझाव दिया। राष्ट्रीय सलाहकार परिषद
ने राष्ट्रीय संसाधन प्रबंधन पर फोकस को इस कार्यक्रम का अभिन्न अंग बनाने की
अनुशंसाएं की। नागरिक संगठनों के संघ (नेशनल कंसोर्टियम ऑफ सिविल सोसायटी ऑर्गेनाइजेशन)
ने भी मनरेगा अवसरों चुनौतियाँ एवं आगे का रास्ता नाम से अपनी दूसरी रिपोर्ट दी।
मिहिर शाह की अध्यक्षता वाली समिति ने नियमों एवं मार्गनिर्देशों को फिर से लिखने
का कार्य किया। इन सभी अनुशंसाओं को ध्यान में रखते हुए ग्रामीण मंत्रालय ने
सुधारों की शुरुआत कर दी है। केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री जयराम रमेश ने जब से
ग्रामीण विकास मंत्रालय का कार्यभार संभाला कई बार कहा कि इसकी कमियों को दूर कर
इसे दुरुस्त कर दिया जाएगा। इस दिशा में कदम बढ़ाया भी गया है।
महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार
गारंटी कानून का लक्ष्य एक वित्तीय वर्ष में ग्रामीण परिवारों में जिसके वयस्क
सदस्य अकुशल शारीरिक कार्य करना चाहते हैं, उन्हें 100 दिनों की पारिश्रमिक
आधारित रोज़गार की गारंटी द्वारा ग्रामीण क्षेत्र के लोगों की जीवनयापन की सुरक्षा
को सशक्त करना है। रोज़गार गारंटी के कानून बनने के बाद यह सरकार की ज़िम्मेदारी
है कि वह इसके तहत आने वालों को कम से कम 100 दिनों का
रोज़गार दे या फिर न देने पर भत्ते के रूप में जीवनयापन के न्यूनतम वित्तीय साधन
उपलब्ध कराए। दूसरी ओर यह उन लोगों का कानूनी अधिकार भी है जिन्हें इस योजना के
तहत काम मिलना चाहिए। इसमें 33 प्रतिशत कार्य महिलाओं को
देने का प्रावधान करके इसे महिलाओं को सबल करने के लक्ष्य से भी जोड़ा गया है।
कानून पारित होने के पांच महीने बाद ही
इसे साकार करने का पहला चरण आरंभ हो गया। 2 फरवरी 2006 को यह कार्यक्रम
आंध्र प्रदेश के अनंतपुर से आरंभ हुआ। शुरू में यह 200
अत्यंत पिछड़े जिलों में आरंभ किया गया। अगले साल इसमें 130
और जिले जोड़े गए और इस समय यह देश के सभी जिलों में चल रहा है।
इसके तहत योग्य व्यक्ति यदि रोज़गार की
अर्जी देता है तो उसे या तो 15 दिनों के अंदर काम दिया जाएगा या नहीं देने पर बेरोज़गारी भत्ता दिया
जाएगा। दुनिया के किसी देश में ऐसा कानून उपलब्ध नहीं है। यह किसी कार्ययोजना के
तहत दिए जाने वाले रोज़गार कार्यक्रम नहीं है। यह काम की मांग के अनुरूप दिए जाने
वाला रोज़गार का कार्यक्रम है। जो किसी व्यक्ति को रोज़गार की अर्जी देने के 15 दिनों के अंदर ग्राम पंचायत जॉब कार्ड उपलब्ध कराएगा, जिस पर उसकी तस्वीर लगी होगी। आरंभ में कम से कम उसे 14 दिनों का काम मिलना ही चाहिए। ऐसा नहीं हुआ तो फिर उसे बेरोज़गारी भत्ता
मिलेगा। आरंभ में मजदूरी दर-औसतन 60 रुपया रखी गई थी। लेकिन
इसमें बदलाव होता रहा। अब मजदूरी को उपभोक्ता मूल्य सूचकांक से जोड़ देने के कारण
इसमें परिवर्तन होता रहा है। इस समय यह अलग-अलग राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों
में न्यूनतम 117 से लेकर 181 रुपये के
बीच है।
मनरेगा का सबसे खतरनाक असर कृषि पर तथा आम
अकुशल श्रमिकों पर नकारात्मक मनोविज्ञान प्रभाव के रूप में सामने आ रहा है। आम
अनुभव यह बताता है कि गाँवों में अब खेतिहर मज़दूरों का तेजी से अभाव होता जा रहा
है तथा खेती करना कठिन हो गया। अलग-अलग क्षेत्रों की रिपोर्टें बता रही हैं कि
किसानों ने कम से कम मज़दूरों से पैदा होने वाली फ़सलों की ओर मुड़ना आरंभ कर दिया
है या वे खेतों में फल आदि का पेड़ लगा रहे हैं। यही नहीं गावों में खेती से
संबंधित मशीनों की ख़रीद भी बढ़ी है। जाहिर है कि जिसके पास क्षमता होगी वही
मशीनें ख़रीद सकता है या भाड़े पर अपनी खेती में उसका उपयोग कर सकता है। हालांकि
सरकार इससे इनकार कर रही हैं।
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