भारतीय संविधान में 86 वें संविधान संशोधन
द्वारा 2000 मे शिक्षा के अधिकार को मूल अधिकार घोषित किया गया । इसके द्वारा
संविधान के अनुच्छेद 21 में नयी धारा 21 (अ) जोड़ा गया । इसमें कहा गया कि राज्य 6 से 14
वर्ष तक के बच्चों को निःशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा उपलब्ध कराएगा ।
इस संशोधन के पहले भी संविधान के अनुच्छेद 45 के भाग 4 में बच्चों के लिए निःशुल्क
एवं अनिवार्य शिक्षा की व्यवस्था थी। नीति निर्देशक सिद्धांत होने के कारण यह
न्यायलय में प्रवर्तनीय नहीं था । सर्वव्यापी प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने के लिए
राज्य बाध्य नहीं था। शिक्षा के अधिकार में कहा गया है कि ” राज्य बच्चों की शैशव अवस्था में देखभाल एवं सभी बच्चों के
लिए शिक्षा की व्यवस्था करेगा“। अतः कल्याणकारी
राज्य की अवधारणा के लिए इसे मूल अधिकार बना दिया गया है। शिक्षा का मूल अधिकार एक
वृहद् दस्तावेज़ है ।
इसके मुख्य प्रावधान इस प्रकार है
·
शिक्षक तथा छात्र
अनुपात 1:30 का होगा
·
संविदा शिक्षकों
की नियुक्ति नहीं होगी
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निजी स्कूलों में
25% सीटों पर गरीबी रेखा के नीचे रहने वाले बच्चों को प्रवेश देना होगा ,जिसका खर्च सरकार वहन करेगी
·
शिक्षकों को निजी
ट्यूशन पढ़ने की मनाही होगी
·
शिक्षकों को गैर
शिक्षण कार्य में नहीं लगाया जाएगा
·
विद्यालयों में
उपयुक्त आधारभूत संरचना का विकास होगा
·
बच्चों के
अभिभावकों को भी स्कूल प्रबंधन में शामिल किया जाएगा, इसके लिए अभिभावक स्कूल
कमेटी की स्थापना की जायेगी
·
पहली से पांचवी
कक्षा तक के लिए स्कूल अधिकतम एक किमी तथा 8वीं से10वीं तक अधिकतम 3 किमी की दूरी पर स्थापित
होगा
·
केवल योग्य और
स्थाई शिक्षकों की ही नियुक्ति होगी
·
शिक्षा पर व्यय
को केंद्र और राज्य संयुक्त रूप से वहन करेगा यह 65:35 का होगा
·
इसको कानून की निगरानी
में रखने के लिए “राष्ट्रीय
बुनियादी शिक्षा आयोग “ का गठन किया
जाएगा। इस आयोग के अध्यक्ष की नियुक्ति एक आयोग द्वारा की जाएगी ,जिसमें प्रधानमंत्री ,मानव संसाधन विकास मंत्री ,लोक सभा अध्यक्ष तथा
संसद के दोनों सदनों के विपक्ष के नेता भी शामिल होंगे।
क्या है वास्तविकता
निश्चित तौर पर शिक्षा का अधिकार लागू होने के डेढ़ साल बाद 96.6% बच्चे स्कूल
जाने लगे हैं। लेकिन अभी भी इस आयु वर्ग के 81 लाख बच्चे इस लाभ से वंचित
हैं।सबसे बड़ी समस्या यह है कि जो बच्चे स्कूल जाना शुरू भी करते हैं वो कुछ समय के
बाद किसी न किसी कारण से स्कूल छोड़ देते हैं। वहीँ उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान इत्यादि राज्यों में लड़कियों
के स्कूल जाने की तादाद नगण्य है। एक राष्ट्रीय रिपोर्ट के अनुसार पांचवी कक्षा तक
के बच्चे पढ़-लिख नहीं पाते है। बच्चों के स्कूल न जाने के अलग-अलग कारण हैं।सबसे
बड़ी समस्या उन बच्चों की है,जिनका काम परिवार में धनोपार्जन करना हैं।
कानून में सिर्फ न्यायोचित गुनवत्ताओं का उल्लेख है ।परन्तु , इसके पैरामीटर तय नहीं किये गए हैं। जिन
बुनियादी सुविधाओं की बात की गयी है उसपर अधिकतर स्कूल खरे नहीं उतरते हैं। अभी देश में लगभग 8 लाख शिक्षकों की
आवश्यकता है लेकिन, राज्यों में
नियोजन की गति काफी धीमी है देश में 6.7 लाख शिक्षकों के पास एनसीटीए द्वारा तय
योग्यता नहीं है ।
शिक्षा का अधिकार के तहत 25% सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित थी। लेकिन, देखा गया है कि इन स्कूलों में इन बच्चों को
अपमानित किया जाता है । इस कानून में सबसे बड़ी बाधा वित्तीय मामलों को लेकर है। राज्य
और केंद्र के बीच में इसी मामले को लेकर विवाद है।
वहीँ दूसरी ओर पिछले कुछ दशकों में प्राइवेट स्कूल काफ़ी तेज़ी से उभर कर आए
हैं | ये विद्यालय अलग-अलग
स्तरों व आकारों के हैं। इसी तरह उनकी शिक्षा की गुणवत्ता भी अलग-अलग हैं। बहुत कम
स्कूल कुलीन व शहरी तबक़ों को ध्यान में रखकर बने हैं। वहीं अधिकतर स्कूल
मध्यमवर्ग व निम्न-मध्यमवर्ग के भरोसे चल रहे हैं। इन स्कूलों के शिक्षण-शुल्क
सरकारी स्कूलों की तुलना में कहीं अधिक हैं। साथ ही माता-पिता अपने बच्चों को लेकर
प्राइवेट स्कूल की ओर ही जाते हैं। इसके पीछे की सोच यह है कि ज्यादा शुल्क चुका
कर अपने बच्चों के लिए बेहतर शिक्षा की गारंटी पाना। समाज में इस सोच को व्यापक
जगह मिली है और ऐसा लगता है कि बेहतर शिक्षा एक वर्ग-विशेष का मसला बनकर रह गया
है।
इसी तथ्य को भांपते हुए
सुप्रीम कोर्ट ने पिछले साल कहा था कि हर साल प्राइवेट स्कूल शिक्षण-शुल्क नहीं
बढ़ा सकते। उन्हें हर तीन साल पर शुल्क बढ़ाने का निर्देश दिया गया। फिर भी निजी व
आवासीय पाठशाला संघ ने सुप्रीम कोर्ट के आदेश की अवहेलना करते हुए देश भर में
प्राइवेट स्कूल के शिक्षण-शुल्क में दस फीसदी की बढ़ोतरी कर दी है। सुप्रीम कोर्ट
अपने आदेश के जरिये प्राइवेट व सरकारी स्कूलों के बीच के अंतर को मिटाना चाहता था।
क्या उपाय किये जा सकते हैं
इन बाधाओं को परस्पर सामंजस्यता के
साथ ही दूर किया जा सकता है । केंद्र और राज्य को प्रभावी ढंग से नीतियों को लागू
करने के लिए समूचे कदम उठाने चाहिए । उदाहरण स्वरूप, पढने की कोई उम्र नहीं होती इस बात को ध्यान में रखते हुए
मानव संसाधन विकास मंत्रालय ने देश में 300 कम्युनिटी कॉलेज खोलने का निर्णय लिया : ---
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नये सत्र से खुल
रहे कॉलेजों में छोटी अवधि के व्यावसायिक कोर्स चलेंगे
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किसी भी उम्र या
व्यवसाय से जुड़े लोगों को मिलेगी पढ़ाई करने की सुविधा
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वोकेशनल कोर्स से
कुशलता ला सकेंगे लोग
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शिक्षा को सरकार
को सर्वोच्च प्राथमिकता देनी होगी
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यह देखना जरूरी
है कि इस मद में दिया गया पैसा कितना प्रभावकारी तरीके से खर्च किया गया है। साथ
ही कितना पैसा इस्तेमाल नहीं हो रहा है
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ढाँचागत सुविधाओं
का विकास करना होगा
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शिक्षकों की सही
योग्यता होनी चाहिए
·
साथ ही इसमें हर
उम्र के लोगों को प्राथमिक स्तर तक की शिक्षा अनिवार्य तथा निः शुल्क कर दी जानी
चाहिये ।ताकि “सब पढ़ें सब बढ़ें”
का नारा चरितार्थ हो सके।
Ranjeeta Choudhary
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