बुधवार, 17 अप्रैल 2013

विश्व हीमोफीलिया दिवस


शाही बीमारी कहे जाने वाले रोग 'हीमोफीलिया' का पता उस वक्त चला था जब ब्रिटेन की महारानी विक्टोरिया के वंशज एक के बाद एक इस बीमारी की चपेट में आने लगे थे। शाही परिवार के कई सदस्यों के हीमोफीलिया से पीड़ित होने के कारण ही इसे शाही बीमारी कहा जाने लगा। पुरुषों में इस बीमारी का खतरा ज्यादा होता है।
सत्रह अप्रैल को दुनियाभर में विश्व हीमोफीलिया दिवस मनाया जाता है। इस साल के विश्व हीमोफीलिया दिवस का लक्ष्य इस बीमारी के प्रति जागरूकता फैलाना और सभी के लिए उपचार है। हीमोफीलिया एक आनुवांशिक बीमारी है जो महिलाओं की तुलना में पुरुषों में ज्यादा होती है। इस बीमारी से ग्रस्त व्यक्ति में खून के थक्के आसानी से नहीं बन पाते हैं। ऐसे में जरा-सी चोट लगने पर भी रोगी का बहुत सारा खून बह जाता है। दरअसल, इस बीमारी की स्थिति में खून के थक्का जमने के लिए आवश्यक प्रोटीनों की कमी हो जाती है।
इसके प्रति जागरूकता फैलाने के लिए 1989 से विश्व हीमोफीलिया दिवस मनाने की शुरुआत की गई। तब से हर साल 'वर्ल्ड फेडरेशन ऑफ हेमोफीलिया' (डब्ल्यूएफएच) के संस्थापक फ्रैंक कैनेबल के जन्मदिन 17 अप्रैल के दिन विश्व हेमोफीलिया दिवस मनाया जाता है। फ्रैंक की 1987 में संक्रमित खून के कारण एड्स होने से मौत हो गई थी। डब्ल्यूएफएच एक अंतर्राष्ट्रीय संगठन है जो इस रोग से ग्रस्त मरीजों का जीवन बेहतर बनाने की दिशा में काम करता है। हीमोफीलिया दो प्रकार का होता है। इनमें से एक हीमोफीलिया '' और दूसरा हीमोफीलिया 'बी' है। हीमोफीलिया '' सामान्य रूप से पाई जाने वाली बीमारी है। इसमें खून में थक्के बनने के लिए आवश्यक 'फैक्टर 8' की कमी हो जाती है। हीमोफीलिया 'बी' में खून में 'फैक्टर 9' की कमी हो जाती है। पांच हजार से 10,000 पुरुषों में से एक के हीमोफीलिया '' ग्रस्त होने का खतरा रहता है जबकि 20,000 से 34,000 पुरुषों में से एक के हीमोफीलिया 'बी' ग्रस्त होने का खतरा रहता है।
महिलाओं के इस बीमारी से ग्रस्त होने का खतरा बहुत कम होता है। वे ज्यादातर इस बीमारी के लिए जिम्मेदार आनुवांशिक इकाइयों की वाहक की भूमिका निभाती हैं। वर्तमान में एक कठोर वास्तविकता यह है कि इस रोग से ग्रस्त 70 प्रतिशत मरीजों में इस बीमारी की पहचान तक नहीं हो पाती और 75 प्रतिशत रोगियों का इलाज नहीं हो पाता। इसकी वजह लोगों के पास स्वास्थ्य जागरूकता की कमी और सरकारों की इस बीमारी के प्रति उदासीनता तो है ही साथ ही एक महत्वपूर्ण कारक यह भी है कि इस बीमारी की पहचान करने की तकनीक और इलाज महंगा है। परिणामस्वरूप इस बीमारी से ग्रस्त ज्यादातर मरीज बचपन में ही मर जाते हैं और जो बचते हैं वे विकलांगता के साथ जीवनयापन करने को मजबूर होते हैं।
भारत में हीमोफीलिया के लगभग 7,50,000 रोगी हैं। यहां इस बीमारी से ग्रस्त मरीजों में से 12 प्रतिशत की ही जांच हो पाती है। इस साल विश्व हीमोफीलिया दिवस के अवसर पर हीमोफीलिया फेडरेशन ऑफ इंडिया (एचएफआई) देशभर में कई कार्यक्रम आयोजित कर रहा है। इस अवसर पर विभिन्न राज्यों में हीमोफीलिया मरीजों की जांच व इलाज से लिए स्वास्थ्य शिविरों का आयोजन किया जा रहा है। वहीं बेंगलुरू में आकाश में गुब्बारे उड़ाए जाएंगे। इन गुब्बारों पर हीमोफीलिया बीमारी के विषय में कई तथ्य लिखे होंगे।
हीमोफीलिया अधिकांशतः पुरुषों को होने वाला आनुवांशिक रोग है जिसमें शरीर से रक्त का बहना नहीं रूकता। बिना चोट लगे भी कोहनी, घुटना या कूल्हा आदि में आंतरिक रक्तस्राव से जोड़ सूज जाते हैं जिससे असहनीय पीड़ा होती है और रोगी के विकलांग बनने का खतरा बढ़ जाता है। । चोट या दुर्घटना की स्थिति में यह बीमारी जानलेवा साबित होती है। इस रोग की एक वजह रक्त प्रोटीन की कमी बताई जाती है, जिसे 'क्लॉटिंग फैक्टर' कहा जाता है। इस फैक्टर के कारण ही बहता रक्त का थक्का जमता है और खून बहना रुकता है। हीमोफीलिया ए(फैक्टर-8) प्रति 10 हजार लड़के में से किसी एक को जन्म के समय होता है। हीमोफीलिया-बी के मामले प्रति 50 हजार लड़कों में से किसी एक को जन्म के समय होते हैं। हीमोफीलिया-सी सेक्स से इतर क्रोमोजोम की कार्यप्रणाली बिगड़ने से होता है। ऐसे रोगी में रक्तस्त्राव की गति ज्यादा होती है।
हीमोफीलिया का मामला जितना पुराना होता जाता है,दुर्घटना की स्थिति में रक्त स्त्राव की मात्रा और बारंबारता उतनी ज्यादा होती है। पुराने हीमोफीलिया के मामले में आंतरिक(शरीर के भीतर) रक्तस्त्राव ऐसे स्थान पर होता है जहां हड्डियों के जोड़ के स्थान पर रक्त प्रवेश करता है। उचित इलाज न होने पर ऐसे जोड़ के स्थायी रूप से खराब हो जाने की आशंका रहती है। हीमोफीलियाग्रस्त बच्चे में इसके लक्षण जन्म के समय ही नहीं दिखने लगते। ये लक्षण तब दिखने शुरु होते हैं जब वह चलना-फिरना शुरू करता है। हीमोफीलिया के रोगी की उम्र सामान्य व्यक्ति की तुलना में कम से कम 10 वर्ष कम होती है। ऐसे रोगी के मुंह और मसूड़े से रक्तस्त्राव होता है और दाँत झड़ जाते हैं। नाक और पेशाब के रास्ते से भी खून निकल सकता है। पाचन संबंधी समस्या भी होती है। यह रोग चिकित्सकों और वैज्ञानिकों के लिए एक चुनौती है। यह एक ऐसी बीमारी है जिससे संक्रमित होने के बाद यह खतरा पीढ़ियों तक बना रहता है। इसका कोई स्थायी इलाज़ नहीं है मगर नियमित उपचार से इसे नियंत्रण में ज़रूर रखा जा सकता है। इसके लिए जीवन-शैली में बदलाव की सख्त ज़रूरत होती है। पुनर्स्थापना चिकित्सा या 'रिप्लेसमेंट थेरैपी' हीमोफीलिया का सबसे महत्वपूर्ण इलाज है। इसके अंतर्गत उन क्लॉटिंग फैक्टर्स को पुनर्स्थापित या रिप्लेस किया जाता है जो या तो कम हैं या बिल्कुल नहीं हैं। ये फैक्टर रोगी को नियमित रूप से दिए जाते है। हीमोफीलिया के इलाज की एक बड़ी परेशानी यह होती है कि प्लाज्मा से प्राप्त उत्पादों की कमी है। डीएनए से निकाले गए नए रिकॉम्बिनेंट क्लॉटिंग फैक्टर के कारण हीमोफीलिया के इलाज मे काफी प्रगति हुई है। रिकॉम्बिनेंट क्लॉटिंग फैक्टर रक्त में मौजूद प्राकृतिक क्लॉटिंग फैक्टर्स की तरह ही काम करते है। इस क्लॉटिंग फैक्टर के लिए मनुष्य या किसी अन्य जीव के खून का इस्तेमाल नहीं किया जाता जिसके कारण संक्रमण का खतरा भी नहीं रहता। रिकॉम्बिनेंट क्लॉटिंग फैक्टर में वायरस होने की संभावना नहीं रहती। अमेरिका और ब्रिटेन के प्रतिष्ठित चिकित्सा संस्थान मानते हैं कि रिकॉम्बिनेंट फैक्टर-8 का उपयोग सर्वोत्तम है। हीमोफीलिया के रोगी को एस्पीरिन और nonsteroidal anti-inflammatory(Aleve, Motrin, ibuprofen) दवा लेने से बचना चाहिए। हैपेटाइटिस-बी का इंजेक्शन लगवाना चाहिए। फैक्टर-8 या 9 नियमित रूप से लेने की सलाह दी जाती है। होम्योपैथी भी हीमोफीलिया के इलाज का दावा करती है। दुर्घटना के तुरंत बाद आंतरिक और बाह्य रक्तस्त्राव रोकने के लिए अर्निका दी जाती है। दुर्बल और पीली त्वचा वाले को कार्बो वेजीटेबिलिस की सलाह दी गई है। यदि लंबे और छरहरे शरीर वाले पीड़ित व्यक्ति का बह रहा खून पतला और काला हो,तो क्रोटेलस हॉरिडस को उपयोगी बताया गया है। कटने या घाव के कारण बह रहे खून,खासकर नाक से हो रहे रक्तस्त्राव के लिए हेमामेलिस दवा मुफीद है । अवसादग्रस्त व्यक्ति का रक्तस्त्राव यदि ज्यादा और गहरे रंग का हो तो लैकेसिस दिया जाता है। यदि भीतरी और बाहरी-दोनो प्रकार के जख्म हों और खून जम न रहा हो,तोमिलेफोलियम। बार-बार और ज्यादा मात्रा में खून बहने पर फास्फोरस। यह खासकर उनके लिए बहुत उपयोगी है जो नशे के आदी हैं और जिन्हें ठंडा पसीना आता है। जिनका रक्तस्त्राव गर्मी में ज्यादा और ठंड में कम हो जाता हो उन्हें सीकेल दी जाती है। आयुर्वेद में भी हीमोफिलिया के उपचार के दावे किए जाते हैं। ऐसे रोगी के लिए आरोग्य वर्द्धिनी,महामंजिष्ठादि काढा,सुतशेखर रस,कामदुधा रस और प्रवाल पंचामृत रस को उपयोगी बताया गया है। आयुर्वेद कहता है कि हीमोफीलिया के रोगी के लिए वे दवाएं उपयुक्त हैं जो शरीर में रस और रक्त धातु(कोशिकाओं) पर असरकारक हों।ऐसी औषधियों में,इंद्रायव,पातोल,कुटकी,सारिव,पाठा और मुस्ता शामिल हैं। इन दवाओं का असर दीर्घकाल में ही परिलक्षित होता है। इसके अलावा,बिल्व का भी लंबे समय तक सेवन करना पड़ता है।नागकेशर,वास,चंदन,लक्ष,पद्मा,तपयादि-लौह,सुवर्ण मालिनी वसंत,अभ्रक भस्म और हीरम भस्म का उपयोग भी किया जाता है। लेकिन सच्चाई यही है कि हीमोफीलिया का जितना भी इलाज़ उपलब्ध है,वह एलोपैथी में ही है। हीमोफीलिया के रोगी के लिए व्यायाम करना सुरक्षित होता है मगर फुटबॉल,हॉकी और मुक्केबाजी जैसे खेलों से परहेज किया जाना चाहिए जिसमें शारीरिक सम्पर्क जरूरी है या चाहे-अनचाहे हो ही जाता है। बार-बार के रक्तस्त्राव से पैदा हुई जोड़ों की समस्या में फिजियोथैरेपी भी सहायक होती है। यद्यपि इस बारे में कोई ठोस अध्ययन नहीं हुआ है कि आहार का हीमोफिलिया से कुछ लेना देना है या नहीं,सलाह दी जाती है कि ऐसे रोगी को विटामिन ई और fish oil supplements से बचना चाहिए। जटिलता के समय में इन रोगियों को लगने वाले फैक्टर-8 इंजेक्शन हर आठ घंटे में लगाए जाते हैं और एक इंजेक्शन की कीमत तीन हजार रुपए से भी ज्यादा की होती है । एक रोगी को तीस से 40 हजार रुपए तक इलाज में खर्च करने पड़ते हैं। इतनी बड़ी राशि वहन कर पाना रोगियों के लिए काफी मुश्किल होता है। देश के कई राज्यों में हीमोफिलिया के इंजेक्शन निशुल्क उपलब्ध करवाने की व्यवस्था है। दिल्ली उच्च न्यायालय ने 2007 में एक फैसले में कहा था कि गरीबी रेखा से नीचे के लोगों को यह दवा मुफ्त और गरीबी रेखा से ऊपर के लोगों को 50 से 80 फीसदी रियायत पर दी जानी चाहिए। देश के पहले हीमोफिलिया अस्पताल का उद्घाटन बिहार में 18 सितम्बर,2006 को किया गया था।   

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