पोषण (nutrition) वह विशिष्ट रचनात्मक उपचयी क्रिया
जिसके अन्तर्गत पादपों में संश्लेषण तथा स्वांगीकरण और विषमपोषी जन्तुओं में भोज्य
अवयव के अन्तःग्रहण, पाचन, अवशोषण, स्वांगीकरण द्वारा प्राप्त उर्जा से शारीरिक वृद्धि,
मरम्मत, ऊतकों का नवीनीकरण और जीवन क्रियाओं का संचालन होता है, सामूहिक रूप में पोषण
कहलाती है । पोषण के अन्तर्गत निम्नलिखित बिन्दुओं पर विचार किया जाता है-
1. पोषक तत्वों का सेवन,
2. पोषक तत्वों का प्रत्येक दिन के आहार में उचित
में रहना,
3. पोषक तत्वों की कमी से शरीर में विकृतिचिह्नों
का दिखाई पड़ना।
पोषण
की कमी
पोषण की कमी के कारण मुख्यत: ये है :
(1) खाद्य पदार्थ में पोषक तत्वों की पूर्ण मात्रा
में कमी,
(2) भोजन के पाचन और अवशोषण के बाद पोषक तत्व रुधिर
में प्रवाहित होते हों किंतु किसी विकार के कारण इनको शारीरिक तंतु अपने में ग्रहण
न सकें।
अल्पाहार से पोषण का स्तर उपयुक्त नहीं रहता। इस
अवस्था को "न्यून पोषण" (under-nutrition) कहते हैं। इस प्रकार के
"कुपोषण" (malnutrition) की अवस्था में एक या अनेक पोषक तत्व प्रतिदिन भोजन
में रहते ही नहीं। इसलिये शरीर में कुपोषण के चिह्न दिखाई पड़ते हैं। "न्यून पोषण"
वाले व्यक्ति दुर्बल और कम वजनवाले होते हैं, किंतु उनके शरीर में कोई विकृति का चिह्न
दिखाई पड़ता।
पोषक
तत्व
शरीर के पोषण के लिये दो तत्वों की नितांत आवश्यकता (essential) है। ईधन तत्व और दूसरा शारीरिक बनावट के पदार्थ उत्पादक, तंतुवर्धक और
ह्रास पूरक तत्व। शरीर में शक्ति उत्पन्न करने के लिये ईंधन तत्व की आवश्यकता होती
है। कार्बोहाइड्रेट, वसा ओर प्रोटीन के कुछ भाग ईंधन तत्व हैं। ऊर्जा प्रदान करने के
साथ-साथ ये सभी ईंधन ऊष्मा भी पैदा करते हैं। ऊष्मा और ऊर्जा पोषण के चिह्न हैं। जीवधारियों
का शरीररूपी यंत्र के अवयव सामान्य यंत्रों की भाँति घिसते हैं, पर साथ-साथ इनकी मरम्मत
भी होती रहती है, यदि मरम्मत करने की सामग्री खाद्य में विद्यमान हो। जिन तत्वों से
शरीर के अवयव 18 से 20 वर्ष की आयु तक बनते हैं, उन्हीं तत्वों के शरीर के ह्रास की
पूर्ति होती है और साथ-साथ शरीर की वृद्धि भी होती है। यह काम विशेषत: प्रोटीनों के
द्वारा होता है।
ईंधन तत्व से कैलोरी प्राप्त होती है। यद्यपि वर्तमान
काल में विटामिन और खनिज तत्वों का विशेष मह्रतव है, तथापि पोषण के लिये कैलोरी का
महत्व भी अपने स्थान पर है। ईंधन तत्वों का कार्य अवयवों में ऊष्मा पैदा करना, पेशियों
को क्रियावान् रखना तथा शरीर के उच्चतर काम (जैसे मस्तिष्क, यकृत्, अंत: स्त्राव, ग्रंथि,
गुर्दा, इत्यादि के कार्य) में भाग लेना है।
शरीर में कुछ क्रियाएँ ऐसी हैं जो शिथिल और सुषुप्त
अवस्था में भी होती रहती हैं। इनमें से कुछ कार्य अनैच्छिक रूप से होते रहते हैं, जैसे
हृदय की गति आंतों में रस का पैदा होना, पाचन और उसमें गति रहना इत्यादि। कुछ कार्य
ऐच्छिक रूप से होते रहते हैं, जैसे नि:श्वास क्रिया इत्यादि। इन सब कामों के लिये ईंधन
तत्वों से ऊष्मा और ऊर्जा मिलती रहती है, जो कैलोरी में मापी जा सकती है। शांत और शिथिल
अवस्था में जो शारीरिक प्रक्रियाएँ होती रहती हैं, उनको ""आधार उपापचय""
(basal metabolism) कहते हैं। इसके अपने कई तरीके हैं।
शारीरिक कार्य जितना बढ़ता है, उपाच भी उसी अनुपात
में आता है और उसी अनुपात में ऊष्मा की कैलोरी की भी वृद्धि होती है।कुछ ऐसे द्रव्य
हैं जिनके सेवन से उपापचय की दर बढ़ जाती है, किंतु ये मनुष्य के भोजन के स्वाभाविक
द्रव्य नहीं हैं। उनका असर उपापचय पर और फिर पोषण पर भी पड़ता है। उपापचय बढ़ाने वाले
पदार्थ चाय, कॉफी, शराब इत्यादि और कम करनेवालें अफीम, चरस, चंडू इत्यादि हैं।
उपापचय की दर नापने के अनेक तरीके हैं। इसके लिये
कुछ यंत्र भी बने हैं। आधार उपापचय के नापने के कुछ सरल तरीके भी उपलब्ध हैं। औब और
दुबॉय (Aub and Bubois) के चार्ट से शरीर की सतह का क्षेत्रफल आसानी से निकाला जा सकता
है। एक दूसरे चार्ट से क्षेत्रफल के अनुसार कैलोरी की दर भी जानी जा सकती है। आयु और
लिंग के अनुसार इसमें विभिन्नता होती है, जो चार्ट में दिया रहता है।
आहार का कार्बोहाइड्रेट, वसा और प्रोटीन का प्राय:
आधा भाग शरीर को ऊष्मा प्रदान करता है, किंतु इनमें से कोई एक दूसरे का मान नहीं ग्रहण
कर सकता है। कार्बोहाइड्रेट पचने के बाद शरीर में दो रूप, ग्लूकोज और ग्लाइकोजेन, में
पाय जाता है। ग्लूकोज रक्त में तथा कोशिकाओं के बीच स्थान में पाया जाता है। यह अवयवों
की कोशिकाओं के बीच स्थान में पाया जाता है। यह अवयवों की कोशिकाओं द्वारा ईंधन के
कामों में लाया जाता है। ग्लाइकोजेन यकृत और पेशियों में संचित रहता है और वहीं से
आवश्यकतानुसार ग्लूकोज बनकर कोशिकाओं द्वारा ग्रहण किया जाता है। यदि मनुष्य की उपवास
करना पड़े, तो यह कार्बोहाइड्रेट थोड़े काल के लिये उपलब्ध होता है।
वसा बहुत परिमाण में शरीर में त्व्चा के नीचे की
झिल्लियों और उदर की झिल्लियों में संचित हो सकती है। मनुष्य की मोटाई वसा के संचय
का चिह्न है। प्रति दिन के लिये आवश्यक ऊष्मा को प्रदान करने में भोजन की वसा भाग तो
खेती ही है किंतु जो वसा रोजाना काम से अधिक होती है वह उपर्युक्त खजानों में जमा हो
जाती है। उपवास की अवस्था में कार्बोहाइड्रेट का खजाना कुछ घंटों में खाली हो जाता
है, किंतु वसा का खजाना इस अवस्था में बहुत दिनों तक ऊष्मा प्रदान करता रहता है।
प्रति दिन के आहार के प्रोटीन का प्राय: अर्धभाग
ईंधन के रूप में खर्च होता है। आपत्काल में, जब शरीर के कार्बोहाइड्रेट और वसा समाप्त
हो जाते हें तब पेशियों का प्रोटीन घुल घुलकर ऊष्मा प्रदान करता रहता है। यह बड़ी मनोरंजक
बात है कि बारीक अवयवों का प्रोटीन बहुत पीछे खर्च होता है और साधारण अवयवों का प्रोटीन
लंबे अरसे के उपवास में पहले खर्च होता है।
पोषण के लिये ऊष्मा को जहाँ तक प्राप्त होना चाहिए
वह इन तीनों खाद्य तत्वों से रोज के भोजन से मिलता है और पोषण ठीक स्तर पर रहता है।
उपवास काल में एक के बाद दूसरा खाद्य तत्व पोषण को कायम रखने में भाग लेता है और संचित
तत्व जैसे जैसे समाप्त होते जाते हें, पोषण का स्तर गिरता जाता है। लंबे उपवास के बाद
दुर्बलता, कायाहीनता और वजन की कमी इन्हीं कारणों से होती है।
सरंचनात्मक
तत्व(structural substance): शारीरिक वृद्धि और शारीरिक बनावट के तत्व मनुष्य
के आकार और डोलडौल के निर्माणकर्ता तथा पोषण के मुख्य अंग हैं। मनुष्य के शरीर का मृदु
ऊतक अंश (soft tissue) 75% प्रोटीन से बना हुआ है। ठोस स्थूल भाग, जैसे अस्थि, कैल्सियम
और फॉस्फोरस से बनी है। यदि सरंचनात्मक तत्व स्वस्थ गर्भवती माता को पर्याप्त मात्रा
में मिलता रहे, तो गर्भ में शिशु का निर्माण सुदृढ़ होता है और शरीर की बनावट की नींव
मजबूत होती है। जीवन के वृद्धिकाल में प्रोटीन की पर्याप्त मात्रा आहार में मिलना जरूरी
है। साधारणतया एक मनुष्य को प्रति दिन 100 ग्राम प्रोटीन आहार में मिलना चाहिए। यह
मात्रा केवल अवयवों के ह्रास की पूर्ति के लिये है। गर्भवती स्त्री और बढ़नेवाले शरीर
को 50% प्रोटीन और मिलना चाहिए।
प्रोटीन विविध ऐमिनो अम्लों से बना हुआ है। सब ऐमिनो
अम्ल सब प्रोटीन में नहीं पाए जाते हैं। कुछ ऐमिनों अम्लों को मनुष्य का शरीर दूसरे
खाद्य तत्वों से बना लेता है। इनको साधारण ऐमीनों अम्ल कहते हैं। 10 ऐमिनो अम्ल ऐसे
हैं जिन्हें मनुष्य शरीर बना नहीं सकता और उनको आहार से प्राप्त करना जरूरी है। इनको
"अत्यावश्यक ऐमिनो" अम्ल (Essential amino acids) कहते हैं।
अत्यावश्यक
ऐमिनो अम्ल हैं : लाइसिन (Lycein), ट्रिप्टोफैन (Tryptophan), हिस्टिडिन
(Histidine), फोनिलऐलानिन (Phenylalanine), ल्युसिन (Leucine), आइसौल्युसिन
(Isoleucine), थ्रियोनिन (Threonine), वेलिन (Valine) और आरजिनिन (Arginine)। सामान्य
ऐमिनो अम्ल हैं : ग्लाइसिन (Glycine), ऐलिनिन (Alanine), सेरिन (Serine), नोरल्युसिन
(Norlucine), ऐस्पर्टिक अम्ल (Aspartic acid), ग्लूटैमिक अम्ल (Glutamic acid), हाइड्रॉक्सीग्लुटैमिक
अम्ल (Hydroxyglutamic acid), प्रोलिन (Proline), सिट्रलिन (Citruline), टाइरोसिन
(Tyrocine), तथा सिस्टीन (Cystine)।
केवल गेहूँ या मक्का का प्रोटीन उपयुक्त नहीं है,
पर दोनों को मिलाने से जो प्रोटीन बनता है वह कुछ हद तक अच्छा है। दूध के मिलाने से
प्रोटीन बड़े उपयुक्त हो जाते हैं।शाकाहारियों को प्रोटीन वनस्पति के प्रोटीन से प्राप्त
होता है। यदि उसमें दूध या दूध के बने पदार्थ मिला दिए जाएँ तो उनमें कोई कमी नहीं
रह जाती। सोयाबीन का प्रोटीन भी बड़ा उपयुक्त सिद्ध हुई हैं जांतव और वानस्पतिक प्रोटीनों
में कोई अंतर है तो यही कि जांतव प्रोटीन प्राय: सब का सब अवशोषित हो जाता है जबकि
वानस्पतिक प्रोटीन का अवशोषण पूर्ण रूप से नहीं होता।
आहार सामिष हो या निरामिष, अत्यावश्यक ऐमिनो अम्लवाला
प्रोटीन पर्याप्त मात्रा में मिलना चाहिए। दूध ओर अन्य डेयरी पदार्थ उत्तम पोषण के
लिये जरूरी हैं। अंडा और दूध ही ऐसी चीज़ें हैं जिनमें प्रत्येक अवयव के विकास और बनाने
की शक्ति है। ये दोनों ही शिशुओं के विकास और वृद्धि के लिये बने हैं। अंडे के ऐल्ब्यूमिन
(albumin) और ग्लोब्यूलिन में पक्षी की हड्डी, मांस और शरीर के अल्स अवयवों को बनाने
की क्षमता है। इसमें सभी अत्यावश्यक ऐमिनो अम्ल पाए जाते हैं। मांस से भी सभी अत्यावश्यक
ऐमिनो अम्ल वर्तमान हैं। सब्ज़ियों के प्रोटीनों में कुछ आवश्यक ऐमिनो अम्लों की कमी
है, पर तरह तरह की सब्जियों को खाने से यह कमी पूरी की जा सकती है। आटे के प्रोटीन-ग्लुटेन
(gluten) में प्राय: सभी आवश्क एमिनो अम्ल हैं, किंतु लाइसिन (lysin) की मात्रा कम
है और प्रतिदिन के लाइसिन की आवश्यकता पूरी करने के लिये बहुत अधिक मात्रा में आटा
खाना पड़ेगा। मक्का के प्रोटीन ज़ीन (Zeene) में ट्रिप्टोफेन की कमी है और सोयाबीन
की प्रोटीन में बहुत अल्प मात्रा में मेथिऑनिन (metheonine) की कमी है। इन सभी का मिश्रण
सभी तरह से पूर्ण मात्रा में ऐमिनो अम्ल को प्रदान करता है।
जो पुरुष हलका काम करता है उसको 3,000 कैलोरी वाला
आहार प्रतिदिन चाहिए। जो स्त्री पुरुष बराबर काम करती है, उसे भी उतना ही कैलोरी का
आहार चाहिए। जो पुरुष कठिन काम करते हैं, उनको 4,000 कैलोरी वाले आहार की आवश्यकता
है।यह स्मरण रखने की बात है कि 12 वर्ष की उमरवाले बालक
का भोजन एक युवक के बराबर होता है और 14 से 18 साल की लड़की के लिये 2,800 - 3,000
कैलोरी का आहार पोषण के लिये ठीक है। इसी अवस्था के बालक के पोषण के लिये 3,000 -
3,400 कैलोरी का आहार मिलना चाहिए।प्रतिदिन के आहार के भिन्न भिन्न तत्वों का अनुपात
यह है : प्रोटीन 100 ग्राम (41 कैलरी), वसा 100 ग्राम (930 कैलरी) और कार्बोहाइड्रेट
400 ग्राम (1,640 कैलरी), कुल कैलोरी लगभग 3000 ।
इनके अतिरिक्त विटामिन और खनिज तत्व पोषण के आवश्यक
हैं।
खनिज
तत्त्व
नमक
:
सोडियम क्लोराइड (sodium chloride) भोजन में रुचि बढ़ाता है और शरीर के जल और लवण के
संतुलन देता है। इसके अभाव में दुर्बलता और थकावट मालूम होती है। अधिक नमक से शोथ होता
है। औसत प्रतिदिन 8-10 ग्राम खाया जाता है। यह नमक खाने, दूध और सब्जियों से प्राप्त
होता है।
कैल्सियम
(Calcium) : पोषण के लिये 0.9 से 1 ग्राम तक कैल्सियम की आवश्यकता
प्रतिदिन पड़ती है। यह मात्रा ढ़ाई पाव दूध से प्राप्त हो सकती है। सब्जी, अनाज और
आमिषाहार में भी यह भिन्न भिन्न मात्राओं में पाया जाता है। बढ़नेवाले बच्चे, गर्भवती
और दूध पिलानेवाली स्त्रियों के लिये इसकी मात्रा प्रतिदिन लगभग 1.5 ग्राम होना जरूरी
है। इसके अभाव में हड्डियॉ ठीक से नहीं बनतीं और सुखंडी रोग हो जाता है। गर्भवती और
दूध पिलानेवाली स्त्री के आहार में कैल्सियम की कमी से उसकी हड्डी से कैल्सियम निकलकर
हड्डियाँ कोमल होकर ओस्टेमेलेशिया (ostomalecia) का रोग हो सकता है।
फॉसफोरस
:
पोषण के हेतु इसकी मात्रा कम लगती है। किलोग्राम
भारवाले व्यक्ति के लिये 0.88 ग्राम फॉस्फोरस पर्याप्त 3,000 कैलोरी के आहार से इसकी
कमी का कोई भय नहीं।
लोह
(Iron) : पोषण के
लिये प्रति दिन 12 मिली लोहे की आवश्यकता है। इसकी मात्रा गर्भावस्था तथा दूध देने
की अवस्था में बढ़ जाती है। इसकी कमी से एक प्रकार की रक्तहीनता (anaemia) होती है।
आयोडीन
(Iodine) : नाम मात्र से पोषण के लिये उपयुक्त है। यह थाईरायड
के हॉरमोन (Thyroid hormone) के बहुत जरूरी है। इस हॉरमोन की कमी से बौनापन
(cretinism) और मिक्सीडिमा (myxidoema, एक प्रकार का शोथ) है। यदि पीने के पानी में
इसकी मात्रा कम हुई तब विकृत घेघे के रूप में प्रकट होता है।
विटामिन:
आहार में विटामिन का रहना पोषण के लिये आवश्यक है।
भिन्न-भिन्न देशों और समाजों में आहार भिन्न-भिन्न
प्रकार का होता है। आहार स्वादिष्ठ, देखने में आकर्षक और अच्छी तरह पकाया हुआ होना
चाहिए, ताकि उससे मन ऊब न जाय और रुचि बनी रहे।
देश और काल के अनुसार कार्बोहाइड्रेट की मात्रा विभिन्न
रह सकती है। गरम देश में वनस्पति की उपज बहुत अच्छी होती है। अत: यहाँ के भोजन में
कार्बोहाइड्रेट की मात्रा विशेष रहती है। शीत देशों में लोग विशेष रूप से मांस और मछली
खाते हैं। बर्फीले अति शीत देश में एस्किमा जाति के भोजन में जानवरों की वसा (fat)
की बहुतायत होती है। इन सब खाद्य पदार्थों में उचित मात्रा में कार्बोहाइड्रेट मिल
सकता है। आजकल परिवहन की सुगमता होने से दुनिया के एक स्थान से दूसरे स्थान तक आहार
सामग्री अल्प अवधि में आ जा सकती है। उन्नत देशों में पोषण का प्रबंध वैज्ञानिकों की
और राज्यचालकों की राय के समन्वय से होता रहता है। प्रत्येक देश में धनीमानी लोग मँहगी
पोषण की चीजों को खरीदते और खाते हैं। समस्या साधारण जनता और गरीब कामगार लोगों के
पोषण की है और इस समस्या का हल राज्यचालकों पर निर्भर करता है।
विभिन्न
विटामिनों की कमी से उत्पन्न विकृतियाँ:
क्रसं -- विटामिन -- रासायनिक नाम -- पूर्ण कमी से
विकृति
1 -- ए -- कैरोटिन (Carotin) -- रतौधी, आँख की सफेदी
पर झुर्री (Xerophţĥalmia)
2 -- बी1 -- थियामिन या आन्युरिन -- बेरीबेरी (Beri-beri)
3 -- बी2 -- रिबोफ्लैविन (Riboflavin) -- आँख लाल
रहना, होठ पर झुर्री, मुँह आना, जीभ फूल जाना, चमड़े की विकृति
4 -- बी -- पेलाग्रा-रक्षक (Pellagra
preventing) -- पेलाग्रा होना (विशेष चर्म-रोग)
5 -- बी6 -- पाइरिडॉक्सिन (Pyridoxin) -- वमन, मस्तिष्क
रोग तथा दस्त आना
6 -- बी12—स्यानोकोबैलै ऐमाइन (Cyanocobalamin)
-- विशेष रक्तहीनता और संग्रहणी
7 -- फोलिक अम्ल (Folic acid) -- विशेष रक्तहीनता
8 -- सी -- ऐसकौर्बिक अम्ल -- स्कर्वी (scurvy)
9 -- डी -- कैल्सिफेरोल (Calciferol) -- सुखंडी,
रिकेट (Rickets)
10—इ -- टोकोफेरोल (Tocopherol) -- पुरुषत्व और स्त्रीत्व
में कमी
11—पी -- रुटीन (Rutin) -- कोशिकाओं से रक्तपात
12—के -- ऐंफेंटामिन (Amphentamin) -- रक्त में जमने
की शक्ति का ह्रास
भारत के अतीत काल में जनता के पोषण का नक्शा बड़ा
ही उत्साहजनक है। दूध, दही और मक्खन की कमी नहीं थी। जंगलों में शिकार होता था। खेती
की उपज भी जनसमूह के हिसाब से अच्छी थी। सभी को आहार समाग्री उचित मात्रा में मिलती
थी और पोषण भी उत्तम था। जनसंख्या की वृद्धि और आहार सामग्रियों की कमी से पोषण में
गड़बड़ी हो गई।
आवश्यक पोषण का भार समाज और राज्य पर अनिवार्य है
और इन्हीं के द्वारा जनता का पोषण उत्तम हो सकता है। जैसे गर्भवती स्त्री का पोषण मातृ-सेवा-सदन
पर निर्भर है; शिशु का पोषण शिशु-सेवा-सदन पर आधारित है; इसी प्रकार पाठशाला जानेवाली
बालक बालिकाओं का पोषण उद्योग-संचालकों पर बहुत निर्भर करता है। इन सबों की देखभाल
और निरीक्षण का भार देश की राज्य व्यवस्था पर है।
गरम देशों में प्रोटीन की कमी से एक प्रकार की रक्तहीनता
पाई जाती है। इसका भी ध्यान रखना जरूरी है। विटामिनों को कमी हो और यदि इसकी पूर्ति
आहार पदार्थो से न होती हो, तो कृत्रिम विटामिन के सेवन से इसे पूरा किया जा सकता है।
गर्भवती स्त्रियों की 100 मिलीग्राम ऐसकौर्बिक अम्ल (विटामिन सी) की आवश्यकता है, जो
एक गिलास नारंगी के रस से मिल सकता हे, या 100 मिलीग्राम ऐकौर्बिक अम्ल के खाने से
प्राप्त हो सकता है। गर्भावस्था में सब विटामिनों की आवश्यकता विशेष मात्रा में होती
है। और यह आहार या कृत्रिम विटामिनों से पूरी की जा सकती है। अवस्था का लिहाज करते
हुए सर्वांग पूर्ण और संतुलित भोजन उन्हें प्रतिदिन मिलना चाहिए।
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