लोकतंत्र की कोई ऐसी
सुनिश्चित सर्वमान्य परिभाषा नहीं की जा सकती जो इस शब्द के पीछे छिपे हुए संपूर्ण
इतिहास तथा अर्थ को अपने में समाहित करती हो। भिन्न-भिन्न युगों में विभिन्न विचारकों
ने इसकी अलग अलग परिभाषाएँ की हैं, परंतु यह सर्वदा स्वीकार किया है कि लोकतंत्रीय
व्यवस्था वह है जिसमें जनता की संप्रभुता हो। जनता का क्या अर्थ है, संप्रभुता कैसी
हो और कैसे संभव हो, यह सब विवादास्पद विषय रहे हैं। फिर भी, जहाँ तक लोकतंत्र की परिभाषा
का प्रश्न है अब्राहम लिंकन की परिभाषा - लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा
शासन - प्रामाणिक मानी जाती है। लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होती है, उसकी अनुमति
से शासन होता है, उसकी प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है। परंतु लोकतंत्र
केवल एक विशिष्ट प्रकार की शासन प्रणाली ही नहीं है वरन् एक विशेष प्रकार के राजनीतिक
संगठन, सामाजिक संगठन, आर्थिक व्यवस्था तथा एक नैतिक एवं मानसिक भावना का नाम भी है।
लोकतंत्र जीवन का समग्र दर्शन है जिसकी व्यापक परिधि में मानव के सभी पहलू आ जाते हैं।
लोकतंत्र की आत्मा
जनता की संप्रभुता है जिसकी परिभाषा युगों के साथ बदलती रही है। इसे आधुनिक रूप के
आविर्भाव के पीछे शताब्दियों लंबा इतिहास है। यद्यपि रोमन साम्राज्यवाद ने लोकतंत्र
के विकास में कोई राजनीतिक योगदान नहीं किया, परंतु फिर भी रोमीय सभ्यता के समय में
ही स्ताइक विचारकों ने आध्यात्मिक आधार पर मानव समानता का समर्थन किया जो लोकतंत्रीय
व्यवस्था का महान् गुण है। सिसरो, सिनेका तथा उनके पूर्ववर्ती दार्शनिक जेनों एक प्रकार
से भावी लोकतंत्र की नैतिक आधारशिला निर्मित कर रहे थे। मध्ययुग में बारहवीं और तेरहवीं
शताब्दी से ही राजतंत्र विरोधी आंदोलन और जन संप्रभुता के बीज देखे जा सकते हैं। यूरोप
में पुनर्जागरण एवं धर्मसुधार आंदोलन ने लोकतंत्रात्मक सिद्धांतों के विकास में महत्वपूर्ण
योग दिया है। इस आंदोलन ने व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता पर जोर दिया तथा राजा की
शक्ति को सीमित करने के प्रयत्न किए। लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप को स्थिर करने में
चार क्रांतियों, 1688 की इंगलैंड की रक्तहीन क्रांति, 1776 की अमरीकी क्रांति, 1789 की फ्रांसीसी क्रांति और 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति का बड़ा योगदान है। इंगलैंड
की गौरवपूर्ण क्रांति ने यह निश्चय कर दिया कि प्रशासकीय नीति एवम् राज्य विधियों की
पृष्ठभूमि में संसद् की स्वीकृति होनी चाहिए। अमरीकी क्रांति ने भी लोकप्रभुत्व के
सिद्धांत का पोषण किया। फ्रांसीसी क्रांति ने स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के सिद्धांत
को शक्ति दी। औद्योगिक क्रांति ने लोकतंत्र के सिद्धांत को आर्थिक क्षेत्र में प्रयुक्त
करने की प्रेरणा दी।
लोकतंत्र के प्रकार
सामान्यत: लोकतंत्र-शासन-व्यवस्था तीन प्रकार की मानी जानी है :
(1) विशुद्ध या प्रत्यक्ष
लोकतंत्र तथा
(2) प्रतिनिधि सत्तात्मक
या अप्रत्यक्ष लोकतंत्र
(3) उदार लोकतंत्र
प्रतिनिधि
लोकतंत्र
प्रतिनिधि लोकतंत्र
में जनता सरकारी अधिकारियों को सीधे चुनती है। प्रतिनिधि किसी जिले या संसदीय क्षेत्र
से चुने जाते हैं या कई समानुपातिक व्यवस्थाओं में सभी मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते
हैं। कुछ देशों में मिश्रित व्यवस्था प्रयुक्त होती है। यद्यपि इस तरह के लोकतंत्र
में प्रतिनिधि जनता द्वारा निर्वाचित होते हैं,लेकिन जनता के हित में कार्य करने की
नीतियां प्रतिनिधि स्वयं तय करते हैं। यद्यपि दलगत नीतियां, मतदाताओं में छवि, पुनः
चुनाव जैसे कुछ कारक प्रतिनिधियों पर असर डालते हैं, किन्तु सामान्यतः इनमें से कुछ
ही बाध्यकारी अनुदेश होते हैं। इस प्रणाली की सबसे बड़ी खासियत यह है कि जनादेश का
दबाव नीतिगत विचलनों पर रोक का काम करता है,क्योंकि नियमित अंतरालों पर सत्ता की वैधता
हेतु चुनाव अनिवार्य हैं।
प्रत्यक्ष
लोकतंत्र
प्रत्यक्ष लोकतंत्र
में सभी नागरिक सारे महत्वपुर्ण नीतिगत फैसलों पर मतदान करते हैं। इसे प्रत्यक्ष कहा
जाता है क्योंकि सैद्धांतिक रूप से इसमें कोई प्रतिनिधि या मध्यस्थ नहीं होता। सभी
प्रत्यक्ष लोकतंत्र छोटे समुदाय या नगर-राष्ट्रों में हैं।
उदार
लोकतंत्र
एक तरह का प्रतिनिधि
लोकतंत्र है, जिसमें स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव होते हैं। उदार लोकतंत्र के चरित्रगत
लक्षणों में, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, कानून व्यवस्था, शक्तियों के वितरण आदि के अलावा
अभिव्यक्ति, भाषा, सभा, धर्म और संपत्ति की स्वतंत्रता प्रमुख है।
वह शासनव्यवस्था जिसमें
देश के समस्त नागरिक प्रत्यक्ष रूप से राज्यकार्य संपादन में भाग लेते हैं प्रत्यक्ष
लोकतंत्र कहलाती हैं। इस प्रकार का लोकतंत्र अपेक्षाकृत छोटे आकार के समाज में ही संभव
है जहाँ समस्त निर्वाचक एक स्थान पर एकत्र हो सकें। प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो ने ऐस लोकतंत्र
को ही आदर्श व्यवस्था माना है। इस प्रकार का लोकतंत्र प्राचीन यूनान के नगरराज्यों
में पाया जाता था। यूनानियों ने अपने लोकतंत्रात्मक सिद्धांतों को केवल अल्पसंख्यक
यूनानी नागरिकों तक ही सीमित रखा। यूनान के नगरराज्यों में बसनेवाले दासों, विदेशी
निवासियों तथा स्त्रियों को राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखा गया था। इस प्रकार यूनानी
लोकतंत्र घोर असमानतावाद पर टिका हुआ था।
वर्तमान युग में राज्यों
के विशाल स्वरूप के कारण प्रचीन नगरराज्यों का प्रत्यक्ष लोकतंत्र संभव नहीं है, इसीलिए
आजकल स्विट्जरलैंड के कुछ कैंटनों को छोडकर, जहाँ प्रत्यक्ष लोकतंत्र चलता है, सामान्यत:
प्रतिनिधि लोकतंत्र का ही प्रचार है जिसमें जनभावना की अभिव्यक्ति जनता द्वारा निर्वाचित
प्रतिनिधियों द्वारा की जाती है। जनता स्वयं शासन न करते हुए भी निर्वाचन पद्धति के
द्वारा शासन को वैधानिक रीति से उत्तरदायित्वपूर्ण बना सकती है। यही आधुनिक लोकतंत्र
का मूल विचार है।
संसदात्मक
तथा अध्यक्षात्मक लोकतंत्रीय संगठन
आजकल सामान्यतया दो
प्रकार के परंपरागत लोकतंत्रीय संगठनों द्वारा जनस्वीकृति प्राप्त की जाती है - संसदात्मक
तथा अध्यक्षात्मक। संसदात्मक व्यवस्था का तथ्य है कि जनता एक निश्चित अवधि के लिए संसद्
सदस्यों का निर्वाचन करती है। संसद् द्वारा मंत्रिमंडल का निर्माण होता है। मंत्रिमंडल
संसद् के प्रति उत्तरदायी है और सदस्य जनता के प्रति उत्तरदायी होते है। अध्यक्षात्मक
व्यवस्था में जनता व्यवस्थापिका और कार्यकारिणी के प्रधान राष्ट्रपति का निर्वाचन करती
है। ये दोनों एक दूसरे के प्रति नहीं बल्कि सीधे और अलग अलग जनता के प्रति विधिनिर्माण
तथा प्रशासन के लिए क्रमश: उत्तरदायी हैं। इस शासन व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्र का
प्रधान (राष्ट्रपति) ही वास्तविक प्रमुख होता है। इस प्रकार लोकतंत्र में समस्त शासनव्यवस्था
का स्वरूप जन सहमति पर आधारित मर्यादित सत्ता के आदर्श पर व्यवस्थित होता है।
लोकतंत्र
का व्यापक स्वरूप
लोकतंत्र केवल शासन
के रूप तक ही सीमित नहीं है, वह समाज का एक संगठन भी है। सामाजिक आदर्श के रूप में
लोकतंत्र वह समाज है जिसमें कोई विशेषाधिकारयुक्त वर्ग नहीं होता और न जाति, धर्म,
वर्ण, वंश, धन, लिंग आदि के आधार पर व्यक्ति व्यक्ति के बीच भेदभाव किया जाता है। वास्तव
में इस प्रकार का लोकतंत्रीय समाज ही लोकतंत्रीय राज्य का आधार हो सकता है।
राजनीतिक लोकतंत्र
की सफलता के लिए उसका आर्थिक लोकतंत्र से गठबंधन आवश्यक है। आर्थिक लोकंतत्र का अर्थ
है कि समाज के प्रत्येक सदस्य को अपने विकास की समान भौतिक सुविधाएँ मिलें। लोगों के
बीच आर्थिक विषमता अधिक न हो और एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण न कर सके। एक ओर
घोर निर्धनता तथा दूसरी ओर विपुल संपन्नता के वातावरण में लोकतंत्रात्मक राष्ट्र का
निर्माण संभव नहीं है।
नैतिक आदर्श एवं मानसिक
दृष्टिकोण के रूप में लोकतंत्र का अर्थ मानव के रूप में मानव व्यक्तित्व में आस्था
है। क्षमता, सहिष्णुता, विरोधी के दृष्टिकोण के प्रति आदर की भावना, व्यक्ति की गरिमा
का सिद्धांत ही वास्तव में लोकतंत्र का सार है।
लोकतंत्र
के उपादान
आधुनिक युग में लोकतंत्रीय
आदर्शों को कार्यरूप में परिणत करने के लिए अनेक उपादानों का आविर्भाव हुआ है। जैसे
लिखित संविधानों द्वारा मानव अधिकारों की घोषणा, वयस्क मताधिकारप्रणाली द्वारा प्रतिनिधि
चुनने का अधिकार, लोकनिर्माण, उपक्रम, पुनरावर्तन तथा जनमत संग्रह जैसी प्रत्यक्ष जनवादी
प्रणालियों का प्रयोग, स्थानीय स्वायत्त शासन का विस्तार, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायालयों
की स्थापना, विचार, भाषण, मुद्रण तथा आस्था की स्वतंत्रता को मान्यता, विधिसंमत शासन
को मान्यता, बलवाद के स्थान पर सतत वादविवाद और तर्कपद्धति द्वारा ही आपसी संघर्षों
के समाधान की प्रक्रिया को मान्यता देना है। वयस्क मताधिकार के युग में लोकमत को शिक्षित
एवं संगठित करने, सिद्धांतों के समान्य प्रकटीकरण, नीतियों के व्यवस्थित विकास तथा
प्रतिनिधियों के चुनाव के सहायक होने में राजनीतिक दलों की उपादेयता - आधुनिक लोकतंत्र
का एक वैशिष्ट्य है। मानव व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास के लिए प्रशासन को जनसेवा
के व्यापक क्षेत्र में पदार्पण करने के लिए आधुनिक लोकतंत्र को लोक कल्याणकारी राज्य
का आदर्श ग्रहण करना पड़ा है।
लोकतंत्र
के शत्रु
भ्रष्टाचार
आतंकवाद एवं हिंसा
वंशवाद, परिवारवाद,
कारपोरेटवाद
मजहबी कानून
राजनैतिक हत्या
अवांछित गोपनीयता
प्रेस पर रोक
अशिक्षा एवं निरक्षरता
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें