प्रतिनिधियों के चुनाव
के अनेक तरीके हो सकते हैं। लाटरी के टिकट निकाल कर बिना समझे बूझे प्रतिनिधियों का
चुनाव कर लेना तो एक ऐसा तरीका है जिसकी लोकतंत्र में कोई गुंजाइश नहीं है। दूसरे तरीके
सामान्यत: निर्वाचन की मतदान प्रणाली पर ही आधृत हैं,। यद्यपि ये तरीके भी पूर्णत:
निर्दोष ही हों यह आवश्यक नहीं; पदप्राप्ति के इच्छुक प्रत्याशी प्राय: मतदाताओं को
घूम देकर अथवा डराघमकार कर जोरजबर्दस्ती से उनका मत प्राप्त कर लेते हैं। विभिन्न प्रकार
के अल्पसंख्यक वर्ग उचित प्रतिनिधित्व से वंचित रह जाते हैं। राजनीतिक तथा अन्य प्रकार
के दल कभी कभी चुनाव के लिए किसी अयोग्य उम्मीदवार को खड़ा कर देते हैं। ऐसी हालत में
उस दल के लोगों को चाहे-अनचाहे उसी को अपना मत देना पड़ता है। इन दोषों को दूर अथवा
कम करने और मतदान को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष बनाने के लिए समय-समय पर निर्वाचन की विभिन्न
प्रणालियों का विकास किया गया है।
यूनानी नगर-राज्य प्रत्यक्ष
लोकतंत्र का उदाहरण था। राज्य की विमर्शकारिणी संस्था (प्रतिनिधि सभा) में प्रत्येक
नागरिक स्वयं अपना प्रतिनिधि होता था। आधुनिक विशालकाय राष्ट्रिक-राज्य में प्रत्यक्ष
लोकतंत्र व्यवहार्य नहीं है। आधुनिक राज्य की जनसंख्या नगरराज्य की अपेक्षा बहुत अधिक
बड़ी होती है, अत: उनकी आबादियों की परस्पर कोई तुलना नहीं हो सकती। यदि आधुनिक राज्य
की प्रत्येक नागरिक स्वयं अपना प्रतिनिधित्व करने लगे तो विमर्शमूलक विधान सभा अव्यवस्था
और कोलाहल का स्थल बन कर रह जाएगी; उसमें न तो किसी प्रकार का विचारविमर्श हो सकेगा
और न किसी कार्य का संचालन ही संभव होगा। राज्य का शासन यंत्र शीघ्र ही ठप पड़ जाएगा।
इसलिए आजकल प्रतिनिधिक लोकतंत्र चलता हैं। अब राज्य के नागरिक (प्रजा) विधानमंडल के
लिए अपने प्रतिनिधियों का चुनाव सामूहिक रूप से करते हैं। कुछ देशों के नागरिक तो इसी
तरह कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव) एवं न्यायपालिका नागरिक तो इसी तरह कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव)
एव न्यायपालिका (जूडीशियरी) के लिए भी अपने प्रतिनिधि चुनते हैं। ये प्रतिनिधि ही उनकी
और से और उनके हित में राज्य का संचालन करते हैं।
निर्वाचन
प्रणाली के अंग
किसी भी निर्वाचन प्रणाली
के वस्तुत: पाँच अंग होते हैं :
(1) निर्वाचनक्षेत्रों
के निर्धारण से संबंद्ध नियम;
(2) मतदाताओं की अर्हता
से संबंद्ध नियम;
(3) उम्मीदवारों की
अर्हता और मनोनयन संबंधी नियम
(4) मतदान की विधि
और मतपत्र गणना संबंधी नियम; और
(5) निर्वाचन संबंधी
विवादों के निबटारे के लिए किसी न किसी तरह की व्यवस्था किंतु प्रचलित भाषा में निवचिन
प्रणाली को उपर्युक्त केवल चौथे अंग तक ही सीमित माना जाता है, अत: यहाँ इसी अंग पर
विचार किया जाएगा।
सर्वाधिक
मतप्राप्त व्यक्ति की विजय (फर्स्ट पास्ट द पोस्ट)
"फर्स्ट पास्ट
द पोस्ट" (सर्वाधिक मतप्राप्त व्यक्ति की विजय) प्रणाली सबसे प्राचीन है। यह प्रणाली
ब्रिटेन में तेरहवीं शताब्दी से ही प्रचलित रही है। राष्ट्रमंडल के देशों और अमेरिका
में मतदान की यही सर्वसामान्य प्रणाली है। भारत में लोकसभा एवं विधान सभाओं के चुनावों
में इसी प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। इसे "सरल बहुतमत प्रणाली" भी कहते
हैं। जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं वही चुन लिया जाता है।
यह प्रणाली सामान्यत:
एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र प्रणाली से संबद्ध होती है। इस प्रणाली की आलोचना में
तीन बातें कही जाती हैं। पहली यह कि इसके अंतर्गत सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार
निर्वाचित हो जाता है, भले ही निर्वाचक मंडल के काफी बड़े समुदाय ने उसके विरुद्ध मत
दिए हों। अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा निर्वाचित होने पर भी वह विरुद्ध मत रखने वाले बहुसंख्यक
समुदाय का भी प्रतिनिधि बन जाता है। भारत के 1952 के प्रथम निर्वाचन में अनेक विजयी
उम्मीदवारों के मामले में यही हुआ था। दूसरी बात यह है कि यह प्रणाली ब्रिटेन के समान
द्विदलीय परंपरा के ही अनुकूल होती है किंतु उससे दुर्बल और अल्पसंख्यक दलों का सफाया
हो जाता हैं। उसमें विभिन्न प्रकार के अल्पसंख्यक समुदायों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व
ही नहीं मिल पाता। तीसरी बात यह है कि यह प्रणाली प्राय: मतदाताओं के ऐसे समुदायों
को जिन्हें थोड़ा ही अधिक बहुमत प्राप्त है, सदन में बहुत बढ़ा चढ़ाकर दिखाने में सहायक
बन जाती है। संपूर्ण मतदान के अनुपात में किसी दल को मिलने वाले कुल मतों द्वारा उस
दल के जितने सदस्य न्यायत: चुने जाने चाहिए उससे कहीं अधिक चुन लिए जा सकते हैं।
1952 के भारत के प्रथम आम चुनाव में यही हुआ था।
कुछ राजनीतिक विचारकों
एवं राजनेताओं ने यह सुझाव दिया है कि जिस दल की संमति से सरकार चलने वाली हो उसे कम
से कम कुल मतदाताओं की बहुसंख्या का समर्थन तो प्राप्त होना ही चाहिए। इसी लक्ष्य को
ध्यान में रखकर निर्वाचन प्रणाली में कुछ सुधार सुझाये गए है। पुनरावर्तित गुप्त मतदान-प्रणाली
इन सुधारों में से एक है। सबसे सरल तरीका वह है जिसका प्रयोग विधान सभाओं द्वारा किये
जाने वाले चुनाव में उदाहरणार्थ, अमेरिका के दलीय सम्मेलन द्वारा राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति
पद के लिए खड़े होने वाले उम्मीदवारों के चुनाव में, किया जाता है। शलाका पद्धति द्वारा
गुप्त मतदानों की शृंखला तब तक चलती रहती है जब तक कोई उम्मीदवार पड़े हुए समस्त मतों
में से एकांतत: सर्वाधिक मत प्राप्त नहीं कर लेता।
द्वितीय
गुप्त मतदान
इसके अंतर्गत प्रथम
गुप्त मतदान में कोई उम्मीदवार तभी चुना जा सकता है जब वह पड़े हुए समस्त मतों मे से
एकांतता सर्वाधिक मत प्राप्त कर ले। ऐसा संभव न होने पर नामवापसी के लिए कुछ समय दिया
जाता है। फ्रांस में इसके लिए एक सप्ताह या पंद्रह दिन का समय दिया जाता था। इसके बाद
दूसरा गुप्त मतदान होता है। इस मतदान में जिस उम्मीदवार को सर्वाधिक मत प्राप्त होते
हैं वह विजयी हो जाता है। इस तरह चुनाव का परिणाम अतंत: सर्वाधक मत प्राप्त व्यक्ति
की विजय की पद्धति (फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम), (अर्थात् द्वितीय मतदान स संपुष्ट
प्रथम परिणाम की पद्धति) से ही निश्चित होता है। फ्रांस के तृतीय गणतंत्र के समय यही
प्रणाली व्यवहृत होती थी। स्पष्टत: भारत में विधान सभा के निर्वाचन जैसे बड़े पैमाने
पर होने वाले चुनावों में इस प्रणाली का प्रयोग नहीं किया जा सकता।
वैकल्पिक
मत
प्रत्येक निर्वाचक
उम्मीदवारों के नामों के सामने मतपत्र पर 1, 2, 3, आदि अंक लिखकर अपनी वरीयता के क्रम
का संकेत कर देता है। प्रथम वरीयताओं की गणना पहले कर ली जाती है। यदि इस गणना में
दो से अधिक उम्मीदवार आये तो जिस उम्मीदवार को प्रथम वरीयता के मत न्यूनतम मिले होते
हैं उसका नाम चुनाव प्रतियोगिता से हटा दिया जाता है। इसके बाद मतदाताओं की द्वितीय
वरीयताओं को बचे हुए उपयुक्त उम्मीदवार या उम्मीदवारों में बाँट दिया जाता है। इस प्रकार
निरसन और क्रमिक वरीयताओं के अंतरण की प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कोई उम्मीदवार
पड़े हुए कुल मतों में से सर्वाधिक मत प्राप्त नहीं कर लेता।
किंतु जैसा कि पुनरावर्तित
गुप्त मतदान या द्वितीय गुप्त मतदान प्रणाली में होता है उत्पन्न होने वाली प्रत्येक
नयी स्थिति के संबंध में विचार विमर्श के लिए समय लेते हुए बार-बार वोट देना एक बात
है और एक ऐसे चयन परिणाम के संबंध में जिसे पहले से ठीकठीक नहीं जाना जा सकता मतपत्र
पर अंक लिख कर एक काल्पनिक निर्णय व्यक्त कर देना बिलकुल दूसरी बात है। इसमें पूरा
संदेह बना रह जाता है कि कोई मतदाता अंतिम प्रतियोगिता में प्रत्यक्ष चयन की स्थिति
आने पर भी इसी तरह "क" के मुकाबले में "ख" को ही वरीयता देता।
इस प्रणाली को बरीयतामूलक
मत प्रणाली भी कहते हैं। इसे संभवत: सर्वप्रथम 1770 में चेवलियर दी बोर्दा ने प्रस्तावित
किया था। 1930 में लिवरल पार्टी ने ब्रिटेन में इसे सर्वाधिक रूप में स्वीकार कर लेने
का आग्रह किया था। आस्ट्रेलिया में भी कुछ संघीय एवं राज्यीय चुनावों में इसका प्रयोग
किया जाता है।
कमियाँ
एवं उनको दूर करने के उपाय
"सर्वाधिक मतप्राप्त
व्यक्ति की विजय की प्रणाली" प्राय: सदैव ही सबसे बड़े दलों के ही अनुकूल और दुर्बल
एवं अल्पसंख्यक दलों के प्रतिकूल होती है। आनुयातिक प्रतिनिधित्व का सहारा लिए बिना
ही इस प्रवृत्ति को दूर करने के लिए कुछ तरीके सुझाए गए हैं किंतु इन सारी प्रणालियों
के प्रयोग के लिए बहुसदस्यीय निर्वाचक क्षेत्र अपेक्षित होते हैं।"
एकल
अहस्तांतरणीय मत
इसकी सरलतम विधि यह
है कि प्रत्येक निर्वाचक को केवल एक ही मतपत्र दिया जाता है। मान लिजिये कि किसी निर्वाचन
क्षेत्र को चार सदस्य चुनने हैं और कुल 12 हजार मतदाता वोट देते हैं। ऐसी स्थिति में
यदि किसी उम्मीदवार को 2401 मतदाताओं का समर्थन प्राप्त हो गया तो उसकी विजय निश्चित
है। जापान में यह प्रणाली 1900 से ही प्रयोग में आ रही हैं।
सीमित
मतदान
इसे 1831 में प्रेड
ने प्रस्तावित किया था। ब्रिटेन में 1867 में सुधार अधिनियम (रिफार्म ऐक्ट) के बनने
के बाद कुछ समय तक इसका प्रयोग हुआ था, तब उक्त अधिनियम द्वारा बड़े नगरों में कई त्रिसदस्यीय
निर्वाचक क्षेत्र बना दिये गए थे। प्रत्येक मतदाता को तीन जगहों के लिए केवल दो वोट
दिये गए थे। इस प्रणाली का व्यावहारिक प्रभाव यह पड़ा था कि प्रतिनिधित्व को विभाजित
कर देने के लिए पार्टियों में सौदेबजी होने लगी और ऐसे उम्मीदवार छटने लगे, जिनकी विजय
की कोई संभावना नहीं थी।
संभूत
मतदान (क्यूमूलेटिव वोट)
यह प्रणाली 1953 में
प्रकाश में आयी। इसमें मतदाता को चुनाव क्षेत्र में जितनी जगहें होती हैं उतने वोट
दे दिये जाते हैं और उसे इसकी स्वतंत्रता होती है कि वह चाहे तो अपने सारे वोटों को
किसी एक उम्मीदवार के पक्ष में डाल दे अथवा अपनी इच्छानुसार अन्य उम्मीदवारों को बाँट
दे। इस प्रणाली में मतदाताओं को अधिक महत्व प्राप्त हो जाता है।
कभी कभी अल्पसंख्यकों
का प्रतिनिधित्व पृथक निर्वाचन प्रणाली द्वारा प्राप्त किया जाता है। अंग्रेजी शासनकाल
में भारत में यही किया गया था। मुसलमान लोग हिंदुओं से अलग अपने प्रतिनिधि चुनते थे।
यह भी हो सकता है। कि अल्पसंख्यकों के लिए कुछ जगहें सुरक्षित कर दी जाऐं जैसा कि भारत
में परिगणित जातियों एवं कबीलो के लिए किया गया है।
आनुपातक
प्रतिनिधित्व
सर्वाधिक मत प्राप्त
व्यक्ति की विजय प्रणाली का अनुसरण सामान्यत: एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र में ही होता
है जब कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के लिए बहु सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र अपेक्षित
होते हैं। एक ही जगह आनुपातिक रूप में विभाजित नहीं की जा सकती। किसी निर्वाचनक्षेत्र
में प्रत्येक उम्मीदवार के लिए अथवा उम्मीदवारों को खड़ा करने वाली पार्टी के लिए पड़े
वोट के अनुपात में ही जगहें निर्धारित की जाती हैं।
आनुपातक प्रतिनिधित्व
मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं : (1) एकल हस्तांतरणीय वोट और (2) सूची प्रणाली। इन
दोनों प्रकार के भी अनेक रूप होते हैं। इन्हें एक दूसरे से भी मिला दिया जा सकता है
अथवा "फस्र्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली में भी इनका मिश्रण किया जा सकता है।"
एकल
हस्तान्तरणीय वोट
इस प्रणाली का आविष्कार
यूरोप में आधुनिक दलीय संघटन के विकास के पूर्व ही हो चुका था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध
में ही सार्वभौम मताधिकार की मांग जोरों से होने लगी थी। इस मांग का प्रतिरोध नहीं
किया जा सकता था। किंतु राजनेता "बहुसंख्यकों के अत्याचार" के प्रति संशक
थे। वे अल्पसंख्यकों की तथा उनके हितों की रक्षा करना चाहते थे। इसी उद्देश्य से
1857 में उदारदलीय डेनिश राजनीतिज्ञ सी. जी. आंड्रास और लंदन के बैरिस्टर टामस हेर
ने इस प्रणाली का आविष्कार किया। इस प्रणाली को ख्याति मिली क्योंकि ब्रिटिश उदारतावाद
के बौद्धिक नेता जॉन स्टुअर्ट मिल ने इस प्रणाली को स्वीकार कर लिया और 1861 में प्रकाशित
अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "रिप्रेजेंटेटिव गवर्नमेंट" (प्रातिनिधिक शासन) में
इसपर विचार किया।
इस प्रणाली के अंतर्गत
चाहे जितनी भी सीटें हो मतदाता को केवल एक ही वोट प्राप्त होता है। वह उम्मीदवार के
नाम के आगे 1, 2, 3, 4 आदि अंक लिखकर विभिन्न उम्मीदवारों के प्रति अपनी वरीयता का
संकेत करता हुआ अपना वोट दे सकता है। इसे एक उदाहरण से स्पष्ट कर देना ठीक होगा। मान
लीजिए कि एक चार सदस्यों वाला निर्वाचनक्षेत्र है। इसमें कुल 12 हजार वोट पड़े। डÜप
कोटा के अनुसार जिसे कम से कम 2401 प्रथम वरीयताओं के वोट प्राप्त हो जाऐं उसका निर्वाचित
हो जाना निश्चित है। अब मान लीजिए कि मैदान में 9 उम्मीदवार हैं और इनमें से केवल दो
को ही डÜप कोटा से अधिक मत मिलते हैं- एक को 2451 और दूसरे को 2481; बचे हुए वोट शेष
उम्मीदवारों में बँट जाते हैं। प्रथम गणना में उक्त दोनों उम्मीदवार निर्वाचित घोषित
कर दिए जाते हैं। इसके बाद दूसरी गणना होगी। द्वितीय गणना में न्यूनतम वोट प्राप्त
करनेवाले उम्मीदवार को मैदान से हटा दिया जा सकता है और निरस्त प्रत्याशी की द्वितीय
वरीयताएँ तथा दोनों विजयी प्रत्याशियों के अतिरिक्त मतपत्र शेष उम्मीदवारों को हस्तांतंरित
किये जा सकते हैं। दूसरा तरीका यह है कि उनके सभी मतदाताओं की द्वितीय वरीयताएँ देख
ली जाऐं, शेष उम्मीदवारों में से प्रत्येक को प्राप्त कुल वोट गिन लिए जाऐं और प्रत्येक
को मिले कुल वोट का भाग दे दिया जाए। (अतिरिक्त वोट श्र् विजयी उम्मीदवार को मिले कुल
वोट) इस प्रकार दोनों उम्मीदवारों में से जिसे भी डÜप कोटा मिल जाए उसे निर्वाचित घोषित
कर दिया जाए। वोटों की गणना इसी तरह तब तक चलती जाएगी जब तक सभी सीटों के लिए डÜप कोटा
प्राप्त करने वाले उम्मीदवार न मिल जाऐं।इसका उद्देश्य प्रत्येक वोट को एक मूल्य प्रदान
करना है।
आयरलैंड और टसमानिया
के गणतंत्रों में मुख्य प्रातिनिधिक सभा के चुनावों के लिए इसी प्रणाली का उपयोग किया
गया है। आस्ट्रेलिया और न्यू साउथवेल्स के द्वितीय सदनों (सेकंड चैंबर्स) के चुनाव
में भी इसका उपयोग होता है। भारत में भी विधान परिषदों (उच्च सदनों) के सदस्यों के
चुनाव में यही प्रणाली अपनायी जाती है।
सूची
प्रणाली
आनुपार्तिक प्रतिनिधित्व
का यह दूसरा प्रकार है। इसके अंतर्गत प्रत्येक मतदाता से कहा जाता है कि वह व्यक्तिगत
उम्मीदवारों में चुनाव न करके उम्मीदवारों की उन सूचियों में चुनाव करे जो विभिन्न
दलों या संघटनों द्वारा प्रस्तुत की गई हैं।
बेलिजयम में 1899 में
यही तरीका अपनाया गया था। हालैंड डेन्मार्क, नार्वें, स्वीडन, फिनलैंड, फ्रांस, पश्चिमी
जर्मनी और इटली में भी यही तरीका प्रचलित है।
इस प्रणाली के विभिन्न
रूप होते हैं। यहाँ दो प्रमुख रूपों पर विचार किया जा रहा है। इनमें से एक को
"सर्वोच्च औसत द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व" कहते हैं। बेलजियम के डी"
हांट ने इसका उद्भावन किया था, इसीलिए इसे डी, हांट का नियम भी कहते हैं।
सीटों का बटवारा एक-एक
करके होता है। यदि किसी उम्मीदवार को संबंधित सीट मिल गयी तो प्रत्येक सीट के लिए प्राप्त
सर्वाधिक औसत मतपत्र पानेवाला प्रत्येक उम्मीदवार सूची में स्थान पा जाता है। इस परिणाम
को प्राप्त करने का सूत्र यह है कि प्रत्येक विनिधान के अवसर पर प्रत्येक सूची के कुल
आरंभिक वोट तब तक प्राप्त सीटों की संख्या से एक अधिक द्वारा विभक्त कर दिए जाते हैं।
प्रथम विनिधान (बंटवारा) के समय प्रत्येक सूची के लिए विभाजक, होता है। और इसी कारण
सूचियों के आरंभिक वोट ही औसत होते हैं। द्वितीय विनिधान के समय विजयी सूची का विभाजक
2 होगा जब कि शेष का विभाजक 1 ही रह जाता है। इसी तरह तीसरे और चौथे विनिधान के समय
भी सीटों का बँटवारा किया जाता है।
दूसरी विधि "महत्तम
शेष" द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व कहते हैं। इसमें निर्वाचनलब्धि का हिसाब पड़े
हुए कुल वोटों की संख्या को नियत सीटों की संख्या से विभाजित करके लगा लिया जाता है।
फिर प्रत्येक सूची को उतने ही स्थान दे दिए जाते हैं जितनी बार उक्त लब्ध संख्या प्रत्येक
सूची में आयी होती है। यदि इसके बाद भी कुछ सीटें बच जाती हों तो उनका विनिधान प्रत्येक
सूची के आंरभिक वोटों से उन वोटों को, जिनका लब्धि द्वारा किसी एक या अनेक सीटों को
प्राप्त करने में वह उपयोग कर चुकी है, निकालकर बचे हुए वोटों की संख्या के विस्तार
के अनुसार आनुक्रमिक गति से कर दिया जाता है।
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