रविवार, 7 अक्तूबर 2012

women empowerment



  
सशक्तिकरण का अर्थ किसी कार्य को करने या रोकने की क्षमता से हैजिसमें महिलाओं को जागरूक करके उन्हें आर्थिक,सामाजिकराजनैतिकभौतिक,आर्थिक,मानसिक एवं स्वास्थ्य सम्बन्धी साधनों को उपलब्ध कराया   जाए ताकि उनके लिए सामाजिक न्याय और महिलापुरुष समानता का लक्ष्य निर्धारित हो सके।
 महिला सशक्तिकरण का अर्थ है महिला को आत्मसम्मान,आत्मनिर्भरता  आत्मविश्वास प्रदान करना। यदि कोई महिला अपने और आपने अधिकारों के बारे में सजग है, यदि उसका आत्मसम्मान बढ़ा हुआ है तो वह सशक्त है औरसमर्थ भी है।महिलाओं के अधिकारों से सम्बंधित कुछ अधिकार निम्नलिखत है।   

लैंगिक न्याय (Gender Justice) 
संविधानकानूनी प्राविधान और अंतरराष्ट्रीय दस्तावेज
हमारे संविधान का अनुच्छेद 15(i)लिंग के आधार पर भेदभाव करना प्रतिबन्धित करता है पर अनुच्छेद 15(ii)महिलाओं और बच्चों के लिये अलग नियम बनाने की अनुमति देता है। यहीं कारण है कि महिलाओं और   बच्चों को हमेशा वरीयता दी जा सकती है।
संविधान में 73वें और74वें संशोधन के द्वारा स्थानीय निकायों को स्वायत्तशासी मान्यता दी गयी। इसमें यह भी बताया गया कि इन निकायों का किसप्रकार से गठन किया जायेगा।संविधान के अनुच्छेद    243(d) और 243(t) अंतर्गतइन निकायों के सदस्यों एवं उनके प्रमुखों की एक तिहाई सीटें महिलाओं के लिए सुरक्षित की गयीं हैं। यह सच है कि इस समय इसमें चुनी महिलाओं का कामअक्सर उनके पति ही करते हैं पर शायद एक दशक बाद यह दृश्य बदल जाय।
उपभोक्ता संरक्षण अधिनियम एक महत्वपूर्ण अधिनियम है। हमारे देश में इसका प्रयोग उस तरह से नही किया जा रहा है जिस तरह से किया जाना चाहिये। अभी उपभोक्ताओं में और जागरूकता चाहिये। इसके अन्दर हर  जिले में उपभोक्ता मंच  का गठन किया गया है। इसमें कम से कम एक महिला सदस्य होना अनिवार्य है।परिवार न्यायालय अधिनियम के अन्दर परिवार न्यायालय का गठन किया गया है। पारिवारिक विवाद के मुकदमें इसी न्यायालय के अन्दर चलते हैं। इस अधिनियम के अंतर्गतन्यायालय में न्यायगण की नियुक्ति करते समयमहिलाओं को वरीयता दी गयी है।
अंर्तरार्ष्टीय स्तर पर सबसे महत्वपूर्ण दस्तावेज Convention of Elimination of Discrimination Againstwomen(CEDAW)(सीडॉहै। सन1979 मेंसंयुक्त राष्ट्र ने इसकी पुष्टि की। हमने भी इसके  अनुच्छेद5(k),16(i),16(ii), और 29 को छोड़बाकी सारे अनुच्छेद को स्वीकार कर लिया है। संविधान के अनुच्छेद51के अंतर्गत न्यायालय अपना फैसला देते समय या विधायिका कानून बनाते समयअंतर्राष्ट्रीय संधि का सहारा ले   सकते हैं।


स्वीय विधी (Personal Law)     
लिंग के आधार पर सबसे ज्यादा भेद- भाव Personallaw में दिखाई देता है और इस भेदभाव को दूर करने का सबसे अच्छा तरीका है कि समान सिविल संहिता (Uniform Civil Code) बनाया जाय।
हमारे संविधान का भाग चार का शीर्षक है –‘राज्य की नीति के निदेशक तत्व’ (Directive Principles of theStatepolicy) इसके अंतर्गत रखे गये सिद्घान्त,न्यायालय द्वारा क्रियान्वित (Enforce) नहीं किये जा सकते हैं पर देश को चलाने में उन पर ध्यान रखना आवश्यक है।अनुच्छेद 44 इसी भाग में है। यह अनुच्छेद कहता है कि हमारे देश में समान सिविल संहिता बनायी जाय पर इस पर पूरी तरह से अमल नहीं हो रहा है।
हमारे संविधान के भाग तीन का शीर्षक है – मौलिक अधिकार (FundamentalRights) इनका क्रियान्वन (enforcement) न्यायालय द्वारा किया जा सकता है। इस समय न्यायपालिका के द्वारा मौलिक अधिकारों और राज्य की नीति के निदेशक तत्वों में संयोजन हो रहा है। न्यायपालिका मौलिक अधिकारों की व्याख्या करते हुये राज्य की नीति के निदेशक तत्वों की सहायता ले रहे हैं। बहुत सारे लोग न्यायालयों को प्रोत्साहित कर रहे हैं कि वह देश में समान सिविल संहिता के लिये बड़ा कदम उठाए। उनके मुताबिक:
संविधान के अनुच्छेद 13 के अंतर्गत स्वीय विधि (PersonalLaw) और किसी दूसरे कानून में कोई अन्तर नहीं है। यदि स्वीय विधि (Personallaw) में भेदभाव है तो न्यायालय उसे अनुच्छेद 13 शून्य घोषित कर सकता है।
स्वीय विधिसंविधान के अनुच्छेद 14 तथा 15 का उल्लंघन करते हैं और उन्हें निष्प्रभावी घोषित किया जाना चाहिये।
संसदराजनैतिक कारणों से इस बारे में कोई कानून नहीं बना पा रही है इसलिये न्यायालय को आगे आना चाहिये।
न्यायपालिका आगे क्या करेगी – यह तो भविष्य ही बतायेगा पर शायद पहल उन महिलाओं को करनी पड़ेगी जो इस तरह के भेदभाव वाले   स्वीय विधि से प्रभावित होती हैं।
यदि न्यायालयों के निर्णयों को आप देंखे तो पायेंगे कि न्यायपालिका किसी भी स्वीय विधि (Personal Law) को निष्प्रभावी घोषित करने में हिचकिचाती है लेकिन उस कानून की व्याख्या करते समय वह महिलाओं के पक्ष में रहता है। यही कारण है कि अपवाद को छोड़कर न्यायालयों ने कानून की व्याख्या करते समयउसे महिलाओं के पक्ष में परिभाषित किया। इसके लिये चाहे उन्हें कानून के स्वाभाविक अर्थ से हटना पड़े।
महिलाओं को भरण-पोषण भत्ता (maintenance)
अधिकतर धर्मों के लिये स्वीय कानून (PersonalLaw) अलग-अलग है। 
अलग-अलग धर्मों में महिलाओं के भरण-पोषण भत्ता की अधिकारों की सीमा भी अलग-अलग है पर यह अलगाव अब टूट रहा है।
IndianDivorceAct ईसाइयों पर लागू होता है। इसकी धारा 36 में यह कहा गया है कि मुकदमे के दौरान पत्नी कोपति की आय का 1/5 भाग भरणपोषण भत्ता दिया जाय। पहलेअक्सर न्यायालय  केवल  मुकदमा चलने के दौरानबल्कि समाप्त होने के बाद भी 1/5 भाग भरणपोषण के लिए पत्नी को दिया करते हैं।  यह सीमा  केवल ईसाईयों पर बल्कि सब धर्मों पर लगती थी। इस समय यह समीकरण बदल गया है और कम से कम पति की आय का 1/3 भाग पत्नी को भरण-पोषण भत्ता दिया जाता है। यदि पत्नी के साथ बच्चे भी रह रहे हों तो उसे और अधिक भरण-पोषण भत्ता दिया जाता है।
पत्नी को भरण-पोषण भत्ता प्राप्त करने के दफा फौजदारी की धारा 125 में भी प्रावधान है। इस धारा की सबसे अच्छी बात यह थी कि यह हर धर्म पर बराबर तरह से लागू होती थी। वर्ष 1975 में शाहबानो का केस आया। इसमें उसके वकील पति ने शाहबानो को तलाक दे दिया। उसे मेहर देकरकेवल इद्दत के दोरान ही भरण-पोषण भत्ता दिया पर आगे नहीं दिया। शाहबानो ने फौजदारी की धारा125 के अंतर्गत एक आवेदन पत्र दिया। 1975 में उच्चतम न्यायालय द्वारा Mohammad Ahmad Kher Vs. Shahbano Begum में यह फैसला दिया कि यदि मुसलमान पत्नीअपनी जीविकोपार्जन नहीं कर पा रही है तो मुसलमान पति को इद्दत के बाद भी भरण-पोषण भत्ता देना होगा।
शाहबानो के फैसले का मुसलमानों के विरोध किया। इस पर संसद ने एक नया अधिनियम मुस्लिम महिला विवाह विच्छेद संरक्षण अधिनियम Muslim Women (Protection of Rights on Divorce Divorce Act) 1986 बनाया। इसको पढ़ने से लगता है कि यदि मुसलमान पतिअपनी पत्नी को मेहर दे देता है तो इद्दत की अवधि के बाद भरण-पोषण भत्ता देने का दायित्व नहीं होगा। यह कानून मुसलमान महिलाओं के अधिकार को पीछे ले जाता था। इस अधिनियम की वैधता को एक लोकहित जन याचिका के द्वारा चुनौती दी गयी। वर्ष 2001 में Dannial Latif Vs. Union of India के मुकदमें में उच्चतम न्यायालय ने इस अधिनियम को अवैध घोषित करने से तो मना करा दिया पर इस अधिनियम के स्वाभाविक अर्थ को नहीं माना। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि इस अधिनियम के आने के बावजूद भी यदि पत्नी अपनी जीविकोपार्जन नहीं कर पाती है तो मुसलमान पति को इद्दत की अवधि के बाद भी भरण-पोषण भत्ता देना पड़ेगा। अर्थात इस अधिनियम को शून्य तो नहीं कहा पर इसे निष्प्रभावी कर दिया। उच्चतम न्यायालय का यह फैसला महिलाओं के अधिकारों के सम्बन्ध में अच्छे फैसलों में से एक है।
घरेलू हिंसा अधिनियम
हमारे देश में दो एक ही लिंग के व्यक्ति साथ नहीं रह सकते हैं और  उन्हें कोई कानूनन मान्यता या भरण-पोषण भत्ता दिया जा सकता है। यह भी एक महत्वपूर्ण सवाल है कि क्या किसी महिला कोउस पुरुष सेभरण-पोषण भत्ता मिल सकता है जिसके साथ वह पत्नी की तरह रह रही हो जब,
उन्होने शादी  की होया
वे शादी नहीं कर सकते हों।
पत्नी का अर्थ केवल कानूनी पत्नी ही होता है। इसलिए न्यायालयों ने इस तरह की महिलाओं को भरण-पोषण भत्ता दिलवाने से मना कर दिया। अब यह सब बदल गया है।
संसद नेसीडॉ के प्रति हमारी बाध्यता को मद्देनजर रखते हुए, Protection of Women from Domestic violence Act 2005 (Domestic Violence Act) महिलाओं की घरेलू हिंसा सुरक्षा अधिनियम 2005 (घरेलू हिंसा अधिनियमपारित किया है। यह 17-10-2006 से लागू किया गया। यह अधिनियम आमूल-चूल परिवर्तन करता है। बहुत से लोग इस अधिनियम को अच्छा नहीं ठहराते हैउनका कथन है कि यह अधिनियम परिवार में और कलह पैदा करेगा। समान्यतः कानून अपने आप में खराब नहीं होता है पर खराबीउसके पालन करने वालों केगलत प्रयोग से होती है। यही बात इस अधिनियम के साथ भी है। यदि इसका प्रयोग ठीक प्रकार से किया जाय तो मैं नहीं समझता कि यह कोई कलह का कारण हो सकता है।
इसका सबसे पहला महत्वपूर्ण कदम यह है कि यह हर धर्म के लोगों में एक तरह से लागू होता हैयानि कि यह समान सिविल संहिता स्थापित करने में पहला बड़ा कदम है। इस अधिनियम में घरेलू हिंसा को परिभाषित किया गया है। यह परिभाषा बहुत व्यापक है। इसमें हर तरह की हिंसा आती हैः मानसिकया शारीरिकया दहेज सम्बन्धित प्रताड़नाया कामुकता सम्बन्धी आरोप। यदि कोई महिला जो कि घरेलू सम्बन्ध में किसी पुरूष के साथ रह रही हो और घरेलू हिंसा से प्रताड़ित की जा रही है तो वह इस अधिनियम के अन्दर उपचार पा सकती है पर घरेलू संबन्ध का क्या अर्थ है।
इस अधिनियम में घरेलू सम्बन्ध को भी परिभाषित किया गया है। इसके मुताबिक कोई महिला किसी पुरूष के साथ घरेलू सम्बन्ध में तब रह रही होती जब वे एक ही घर में साथ रह रहे हों या रह चुके हों और उनके बीच का रिश्ता:
खून का होया
शादी का होया
गोद लेने के कारण होया
वह पति-पत्नी की तरह होया
संयुक्त परिवार की तरह का हो।
इस अधिनियम में जिस तरह से घरेलू सम्बन्धों को परिभाषित किया गया हैउसके कारण यह उन महिलाओं को भी सुरक्षा प्रदान करता है जो,
किसी पुरूष के साथ बिना शादी किये पत्नी की तरह रह रही हैं अथवा थींया
ऐसे पुरुष के साथ पत्नी के तरह रह रही हैं अथवा थीं जिसके साथ उनकी शादी नहीं हो सकती है।
इस अधिनियम के अंतर्गत महिलायेंमजिस्ट्रेट के समक्षमकान में रहने के लिएअपने बच्चों की सुरक्षा के लिएगुजारे के लिए आवेदन पत्र दे सकती हैं और यदि इस अधिनियम के अंतर्गत यदि किसी भी न्यायालय में कोई भी पारिवारिक विवाद चल रहा है तो वह न्यायालय भी इस बारे में आज्ञा दे सकता है।
लैंगिक न्याय और अपराध
विवाह सम्बन्धी अपराधों के विषय में
लैंगिक न्याय से सम्बन्धितसबसे ज्यादा विवादास्पद विषय दण्ड न्याय का है। यहां पर  केवल लैंगिक न्याय को देखना है पर उसका अभियुक्त के अधिकारों के साथ तालमेल भी बैठाना है। इसके पहले कि हम इस विषय पर हम नजर डालेंभारतीय दण्ड संहिता (Indian Penal Code) में वैवाहिक सम्बन्धी अपराध से संबन्धित धाराओं को देखना ठीक रहेगा जिन्हें भारत सरकार के द्वारा राष्ट्रीय महिला आयोग ने यह कहते हुये हटाने की मांग की गयी थी कि वे 19 वीं शताब्दी की मान्यता को बनाये रखती हैं जिसमें पत्नी को पति की सम्पत्ति माना जाता था और जो पत्नियों को पति से न्याय दिलाने में मुश्किल पैदा करता है।
वैवाहिक सम्बन्धी अपराधभारतीय दण्ड संहिता के 20वें अध्याय में हैं। इस अध्याय में छः धारायें हैं पर हम बात करेंगे धारा 497 (Adultery) और 498 (Enticing or taking away or detaining with criminal intent a married woman) की।
आचरण कानूनी तौर पर गलत हो सकता है और अपराध भीपर इन पर इन दोनों में अंतर है। यदि कोई आचरणकानून के विरूद्घ है तो वह कानूनी तौर पर गलत आचरण है। सारे कानूनी तौर पर गलत आचरण के लिये सजा नहीं है और जिनके लिये है वे अपराध या फिर जुर्म कहलाते हैं। अर्थात हर अपराधकानूनी तौर पर गलत आचरण होता है पर हर गलत आचरण अपराध नहीं होता है। कानूनी तौर पर गलत आचरण के व्यावहारिक परिणाम (civil consequences) हो सकते हैं।
किसी विवाहित व्यक्ति के लिए अपने पती/पत्नी की अनुमति के बिनाकिसी अन्य व्यक्ति के साथ संभोग करना कानूनी तौर पर गलत आचरण है पर भारतीय दण्ड संहिता की धारा 497 केवल उस पुरूष को दण्डित करती है जो कि किसी विवाहित महिला के साथ उसके पति की अनुमति के बिना संभोग करता है। यहाँ यह आचरण विवाहित महिला के लिए अपराध नहीं है। यदि कोई विवाहित पुरूष किसी अविवाहित महिला के साथ अपनी पत्नी की अनुमति के बिना संभोग करता है तो यह अपराध नहीं है हालांकि कि यह कानूनी तौर पर गलत आचरण है।
उपर बताये गयेकानूनी तौर पर गलत आचरण (जो अपराध नहीं हैंउन पर भी तलाक हो सकता है।
इसी तरह से भारतीय दण्ड संहिता की धारा 498 मेंविवाहित महिला को गलत इरादे से संभोग करने के लिये भगा ले जाने को अपराध करार करती है।
दण्ड प्रक्रिया की धारा 198 (ii) के अंतर्गतइन दोनों अपराधों की संज्ञान भी खास परिस्थिति में ही लिया जा सकता है। अथार्त सब लोग इस बारे में शिकायत नहीं कर सकते हैं।
दुनिया के बहुत सारे देशों में इस तरह के आचरण को अपराधों की श्रेणी में नहीं रखा गया है पर तलाक लिया जा सकता है।
यह दोनों धाराओं में महिलाओं से पक्षपात परिलक्षित होता है। इन दोनों धाराओं की वैधता को चुनौती दी गयी थी पर उच्चतम न्यायालय ने सबसे इन दोनों धाराओं के लिए 1959 में Alamgir Vs. State of Biihar में वैध मान लिया। उच्चतम न्यायालय ने इसके बाद के निर्णयों में यही मत बहाल रखा। न्यायालय के अनुसारधारा 498, के प्राविधान धारा 497 की तरह पतियों के अधिकारों की सुरक्षा के लिये है  कि पत्नियों के अधिकारों के लिये। आज के समय में धारा 498 की नीतिमहिलाओं की सामाजिक स्थिति एवं शादी के आपसी अधिकारों  कर्तव्य से असंगत है। यह नीति के सवाल हैं और इनका न्यायालय से कोई सम्बन्ध नहीं है।
यौन अपराध (Sexual offence)
विधि आयोग ने 1980 में अपनी 84वीं रिपोर्ट दी। इस रिपोर्ट की कुछ संस्तुतियों की स्वीकृति के बाद, Criminal Law Amendment Act 1983 ( Act no. 43 of 1983) के द्वारा फौजदारी कानून में इस विषय पर आमूल-चूल परिवर्तन किया गया।
इस संशोधन अधिनियम से,
भारतीय दण्ड संहिता की धारा 375  376 के स्थान पर नई धारायें स्थापित की गयी और धारायें 376- से 376- जोड़ी गयी।
साक्ष्य अधिनियम में भी नयी धारा 114-A जोड़ी गयी। इस संशोधन के द्वाराकुछ परिस्थितियों में आरोपी को सिद्घ करना है कि बलात्कार नहीं हुआ है।
दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 323 भी बदली गयी। अब न्यायालय बलात्कार के मुकदमे का विचारण बन्द कमरे में कर सकता हैया मीडिया में उसके प्रचार को मना कर सकता है।
बलात्कार परीक्षणसाक्ष्यप्रक्रिया Rape Trials: Evidence, Procedure
विधि आयोग ने अपनी 84वीं रिपोर्ट पर साक्ष्य अधिनियम को भी बदलने के लिए संस्तुति की थी। इस रिपोर्ट के द्वारा साक्ष्य अधिनियम की धारा 146की उपधारा 4 और नयी धारा 53-A जोड़ने की बात है। लेकिन सरकार ने रिपोर्ट की इन संतुतियों को स्वीकार नहीं किया। यह संशोधन साक्ष्य अधिनियम में नहीं किया गया है। इसके बावजूद न्यायालयों ने इसके सिद्घान्त को अपने निर्णयों के द्वारा स्वीकार कर लिया है।
न्यायालयों को बलात्कार के मामलों पर संवेदनशीलता से विचार करना चाहिए। न्यायालयों को मुकदमें की व्यापक संभावनाओं को देखना चाहिए और अभियोक्त्री के कथन में मामूली विसंगतियों या अमहत्वपूर्ण अंतर के कारण डांवाडोल नहीं होना चाहिए। यदि अभियोक्त्री का साक्ष्य विश्वास उत्पन्न करता है तो उस पर बिना किसी समर्थित गवाही के भरोसा किया जाना चाहिए।
कई अधिवक्ताअभियोक्त्री से बलात्कार के संबंध में निरंतर प्रश्न करते रहने की नीति अपनाते हैं। उससे बलात्कार संबंधित घटना के ब्यौरे को बार-बार दोहराने की अपेक्षा इसलिये नहीं की जाती हैताकि अभिलेख पर तथ्यों को लाया जा सके अथवा उसकी विश्वसनीयता का परीक्षण किया जा सके बल्कि इसलिये कि घटनाक्रम के निर्वचन को मोड़कर उसमें विसंगति लायी जा सके। न्यायालय को यह देखना चाहिए कि प्रतिपरीक्षाआहत व्यक्ति को परेशान करने या जलील करने का तरीका तो नहीं है। प्रतिपरीक्षा के समयन्यायालय को मूक दर्शक के रूप में नहीं बैठना चाहिये पर उस पर कारगर रूप से नियंत्रण करना चाहिये।
यह भी विचारणीय है कि क्या यह अधिक वांछनीय नहीं किजहां तक संभव हो लैंगिक आघात के मामलों का विचारण महिला न्यायाधीशों द्वाराकिया जाए। इस तरह आहत महिला आसानी से अपना बयान दे सकती है।
जहां तक संभव होन्यायालय आहत महिला का नाम निर्णयों में  लिखें जिससे उसे आगे जलील  होना पड़े।
हम यह आशा करते हैं कि विचारण न्यायालय दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 327(ii) और (iii) के अन्दर निहित अधिकारों का उपयोग उदारतापूर्वक करेंगे। सामान्यतबलात्कार के मुकदमे बन्द न्यायालय में होने चाहिये और खुला विचारण अपवाद होना चाहिए।
न्यायालयों ने इन छः सिद्धानतों को प्रतिपादित किया हैः
किसी महिला की गवाही केवल इसलिये नहीं नकारी जा सकती है कि वह आसान सतीत्व चरित्र की है;
यदि अभियोक्त्री का साक्ष्य विश्वास उत्पन्न करता है तो उस पर बिना किसी समर्थित गवाही के भरोसा किया जाना चाहिए;
प्रतिपरीक्षा के समयन्यायालय को मूक दर्शक के रूप में नहीं बैठना चाहिये पर उस पर कारगर रूप से नियंत्रण करना चाहिये;
जहां तक संभव हो लैंगिक आघात के मामलों का विचारण महिला न्यायाधीशों द्वाराकिया जाए;
न्यायालय आहत महिला का नाम निर्णयों में  लिखें;
सामान्यतबलात्कार के मुकदमे बन्द न्यायालय में होने चाहिये और खुला विचारण अपवाद होना चाहिए।
दहेज (Dowry) संबन्धित कानून
दहेज बुरी प्रथा है। इसको रोकने के लिये दहेज प्रतिषेध अधिनियम 1961बनाया गया है पर यह कारगर सिद्घ नहीं हुआ है। इसकी कमियों को दूर करने के लिये फौजदारी (दूसरा संशोधनअधिनियम 1976 के द्वारामुख्य तौर से निम्नलिखित संशोधन किये गये हैं:
भारतीय दण्ड संहिता में धारा 498-,
साक्ष्य अधिनियम में धारा 113-यह धारा कुछ परिस्थितियां दहेज मृत्यु के बारे में संभावनायें पैदा करती हैं;
दहेज प्रतिषेध अधिनियम को भी संशोधित कर मजबूत किया गया है।
पर क्या केवल कानून बदलने से दहेज की बुराई समाप्त हो सकती है,शायद नहीं यह तो तभी समाप्त होगी जब हम दहेज  मांगनेया देने या लेने से मना करें।
दहेज की बुराई केवल कानून से दूर नहीं की जा सकती है। इस बुराई पर जीत पाने के लिये सामाजिक आंदोलन की जरूरत है। खास तौर पर ग्रामीण क्षेत्र मेंजहां महिलायें अनपढ़ हैं और अपने अधिकारों को नहीं जानती हैं। वे आसानी से इसके शोषण की शिकार बन जाती हैं।
न्यायालयों को इस तरह के मुकदमे तय करते समय व्यावहारिक तरीका अपनाना चाहिये ताकि अपराधीप्रक्रिया संबन्धी कानूनी बारीकियों के कारण या फिर गवाही में छोटी -मोटीकमी के कारण  छूट पाये। जब अपराधी छूट जाते हैं तो वे प्रोत्साहित होते हैं और आहत महिलायें हतोत्साहित। महिलाओं के खिलाफ आपराधिक मुकदमे तय करते समय न्यायालयों को संवेदनशील होना चाहिये।
उच्चतम न्यायालय का कथन अपनी जगह सही है पर मेरे विचार से दहेज की बुराई तभी दूर हो सकती है जब,
महिलायें शिक्षित हों;
और आर्थिक रूप से स्वतंत्र हों।
इसके लियेसमाज में एक मूलभूत परिवर्तन की जरूरत है जिसमें महिलाओं को केवल यौन या मनोरंजन की वस्तु  समझा जाय ही बच्चा पैदा करने की वस्तु।
काम करने की जगह पर महिलाओं के साथ छेड़छाड़: Sexual harassment at working place
काम करने की जगह पर महिलाओं के साथ छेड़छाड़ उससे कहीं अधिक है जितना कि हम और आप समझते हैं। यह बातशायद काम करने वाली महिलाये या वे परिवार जहां कि महिलायें घर के बाहर काम करती हैं ज्यादा अच्छी तरह से समझ सकते हैं। इस बारे में संसद के द्वारा बनाया गया कोई कानून नहीं है।
समानता (equality), स्वतंत्रता (liberty) और एकान्तता (privacy)
किसी भी सफल न्याय प्रणाली के लिये समानता (equality), स्वतंत्रता (liberty) और एकान्तता, (privacy) का अधिकार महत्वपूर्ण है। यह लैंगिक न्याय के परिपेक्ष में भी सच है। यह बात न्यायालयों ने कई निर्णयों में कहा है।
समान कामसमान वेतन Equal pay for equal work
समानता का अधिकार संविधान के अनुच्छेद 14 से 18 में है पर यह लैंगिक न्याय के दायरे में ‘समान कामसमान वेतन’ के दायरे में महत्वपूर्ण है। ‘समान कामसमान वेतन’ की बात संविधान के अनुच्छेद 39 (में कही गयी है पर यह हमारे संविधान के भाग चार ‘राज्य की नीति के निदेशक तत्व’ (Directive Principles of the State policy) के अन्दर है। यह न्यायालय द्वारा क्रियान्वित (Enforce) नहीं किया जा सकते है पर देश को चलाने में इसका ध्यान रखना आवश्यक है।
महिलायें किसी भी तरह से पुरूषों से कम नहीं है। यदि वे वही काम करती है जो कि पुरूष करते हैं तो उन्हें पुरूषों के समान वेतन मिलना चाहिये। यह बात समान पारिश्रमिक अधिनियम (Equal Remuneration Act) में भी कही गयी है
स्वतंत्रता (liberty)
मौलिक अधिकारसंविधान के भाग तीन में हैं। यह सारेकुछ  कुछस्वतंत्रता के अलग अलग पहलूवों से संबन्ध रखते हैं पर इस बारे में संविधान के अनुच्छेद 19 तथा 21 महत्वपूर्ण हैं। अनुच्छेद 19 के द्वारा कुछ स्पष्ट अधिकार दिये गये हैं और जो अनुच्छेद 19 या किसी और मौलिक अधिकार में नहीं हैं वे सब अनुच्छेद 21 में समाहित हैं।
एकान्तता (privacy)
हमारे संविधान का कोई भी अनुच्छेदस्पष्ट रूप से एकान्तता की बात नहीं करता है। अनुच्छेद 21 स्वतंत्रता एवं जीवन के अधिकार की बात करता है पर एकान्तता की नहीं।
निष्कर्ष (Conclusion)
हम लोग इस समय 21वीं सदी में पहुंच रहे हैं। लैंगिक न्याय की दिशा में बहुत कुछ किया जा चुका है पर बहुत कुछ करना बाकी भी है। क्या भविष्य में महिलाओ को लैंगिक न्याय मिल सकेगा। इसका जवाब तो भविष्य ही दे सकेगा पर केवल कानून के बारे में बात कर लेने से महिला सशक्तिकरण नहीं हो सकता है। इसके लिये समाजिक सोच में परिवर्तन होना पड़ेगा। 



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