सोमवार, 31 दिसंबर 2012

मॉनसून


मानसून मूलतः हिन्द महासागर एवं अरब सागर की ओर से भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर आनी वाली हवाओं को कहते हैं जो भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश आदि में भारी वर्षा करातीं हैं। ये ऐसी मौसमी पवन होती हैं, जो दक्षिणी एशिया क्षेत्र में जून से सितंबर तक, प्रायः चार माह सक्रिय रहती है। इस शब्द का प्रथम प्रयोग ब्रिटिश भारत में (वर्तमान भारत, पाकिस्तान एवं बांग्लादेश) एवं पड़ोसी देशों के संदर्भ में किया गया था। ये बंगाल की खाड़ी और अरब सागर से चलने वाली बड़ी मौसमी हवाओं के लिये प्रयोग हुआ था, जो दक्षिण-पश्चिम से चलकर इस क्षेत्र में भारी वर्षाएं लाती थीं।  हाइड्रोलोजी में मानसून का व्यापक अर्थ है- कोई भी ऐसी पवन जो किसी क्षेत्र में किसी ऋतु-विशेष में ही अधिकांश वर्षा कराती है। यहां ये उल्लेखनीय है, कि मॉनसून हवाओं का अर्थ अधिकांश समय वर्षा कराने से नहीं लिया जाना चाहिये। इस परिभाषा की दृष्टि से संसार के अन्य क्षेत्र, जैसे- उत्तरी अमेरिका, दक्षिणी अमेरिका, उप-सहारा अफ़्रीका, आस्ट्रेलिया एवं पूर्वी एशिया को भी मानसून क्षेत्र की श्रेणी में रखा जा सकता है। ये शब्द हिन्दी व उर्दु के मौसम शब्द का अपभ्रंश है। मॉनसून पूरी तरह से हवाओं के बहाव पर निर्भर करता है। आम हवाएं जब अपनी दिशा बदल लेती हैं तब मॉनसून आता है।. जब ये ठंडे से गर्म क्षेत्रों की तरफ बहती हैं तो उनमें नमी की मात्र बढ़ जाती है जिसके कारण वर्षा होती है।
अंग्रेज़ी शब्द मॉनसून पुर्तगाली शब्द monção (मॉन्सैओ) से निकला है, जिसका मूल उद्गम अरबी शब्द मॉवसिम (मौसम") से आया है। यह शब्द हिन्दी एवं उर्दु एवं विभिन्न उत्तर भारतीय भाषाओं में भी प्रयोग किया जाता है, जिसकी एक कड़ी आरंभिक आधुनिक डच शब्द मॉनसन से भी मिलती है। इस परिभाषा के अनुसार विश्व की प्रधान वायु प्रणालियां सम्मिलित की जाती हैं, जिनकी दिशाएं ऋतुनिष्ठ बदलती रहती हैं।
अधिकांश ग्रीष्मकालीन मॉनसूनों में प्रबल पश्चिमी घटक होते हैं और साथ ही विपुल मात्रा में प्रबल वर्षा की प्रवृत्ति भी होती है। इसका कारण ऊपर उठने वाली वायु में जल-वाष्प की प्रचुर मात्रा होती है। हालांकि इनकी तीव्रता और अवधि प्रत्येक वर्ष में समान नहीं होती है। इसके विपरीत शीतकालीन मॉनसूनों में प्रबल पूर्वी घटक होते हैं, साथ ही फैलने और उतर जाने तथा सूखा करने की प्रवृत्ति होती है। विश्व की प्रमुख मॉनसून प्रणालियों में पश्चिमी अफ़्रीका एवं एशिया-ऑस्ट्रेलियाई मॉनसून आते हैं।
भारतीय मॉनसून
भारत में मॉनसून हिन्द महासागर व अरब सागर की ओर से हिमालय की ओर आने वाली हवाओं पर निर्भर करता है। जब ये हवाएं भारत के दक्षिण पश्चिम तट पर पश्चिमी घाट से टकराती हैं तो भारत तथा आसपास के देशों में भारी वर्षा होती है। ये हवाएं दक्षिण एशिया में जून से सितंबर तक सक्रिय रहती हैं। वैसे किसी भी क्षेत्र का मॉनसून उसकी जलवायु पर निर्भर करता है। भारत के संबंध में यहां की जलवायु ऊष्णकटिबंधीय है और ये मुख्यतः दो प्रकार की हवाओं से प्रभावित होती है - उत्तर-पूर्वी मॉनसून व दक्षिणी-पश्चिमी मॉनसून। उत्तर-पूर्वी मॉनसून को प्रायः शीत मॉनसून कहा जाता है। यह हवाएं मैदान से सागर की ओर चलती हैं, जो हिन्द महासागर, अरब सागर और बंगाल की खाड़ी को पार करके आती हैं। यहां अधिकांश वर्षा दक्षिण पश्चिम मानसून से होती है। भारत में पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर से कर्क रेखा निकलती है। इसका देश की जलवायु पर सीधा प्रभाव पड़ता है। ग्रीष्म, शीत और वर्षा ऋतुओं में से वर्षा ऋतु को प्रायः मॉनसून भी कह दिया जाता है।
सामान्यत: मॉनसून की अवधि में तापमान में तो कमी आती है, लेकिन आर्द्रता (नमी) में अच्छी वृद्धि होती है। आद्रता की जलवायु विज्ञान में महत्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। यह वायुमंडल में मौजूद जलवाष्प की मात्र से बनती है और यह पृथ्वी से वाष्पीकरण के विभिन्न रूपों द्वारा वायुमंडल में पहुंचती है।
पूर्व एशियाई
पूर्व एशियाई मॉनसून इंडो-चीन, फिलिपींस, चीन, कोरिया एवं जापान के बड़े क्षेत्रों में प्रभाव डालता है। इसकी मुख्य प्रकृति गर्म, बरसाती ग्रीष्मकाल एवं शीत-शुष्क शीतकाल होते हैं। इसमें अधिकतर वर्षा एक पूर्व-पश्चिम में फैले निश्चित क्षेत्र में सीमित रहती है, सिवाय पूर्वी चीन के जहां वर्षा पूर्व-पूर्वोत्तर में कोरिया व जापान में होती है। मौसमी वर्षा को चीन में मेइयु, कोरिया में चांग्मा और जापान में बाई-यु कहते हैं। ग्रीष्मकालीन वर्षा का आगमन दक्षिण चीन एवं ताईवान में मई माह के आरंभ में एक मॉनसून-पूर्व वर्षा से होता है। इसके बाद मई से अगस्त पर्यन्त ग्रीष्मकालीन मॉनसून अनेक शुष्क एवं आर्द्र शृंखलाओं से उत्तरवर्ती होता जाता है। ये इंडोचाइना एवं दक्षिण चीनी सागर (मई में) से आरंभ होक्र यांग्तज़े नदी एवं जापान में (जून तक) और अन्ततः उत्तरी चीन एवं कोरिया में जुलाई तक पहुंचता है। अगस्त में मॉनसून काल का अन्त होते हुए ये दक्षिण चीन की ओर लौटता है।
अफ़्रीका
पश्चिमी उप-सहारा अफ़्रीका का मॉनसून को पहले अन्तर्कटिबन्धीय संसृप्ति ज़ोन के मौसमी बदलावों और सहारा तथा विषुवतीय अंध महासागर के बीच तापमान एवं आर्द्रता के अंतरों के परिणामस्वरूप समझा जाता था। ये विषुवतीय अंध महासागर से फरवरी में उत्तरावर्ती होता है, और फिर लगभग २२ जून तक पश्चिमी अफ़्रीका पहुंचता है, और अक्तूबर तक दक्षिणावर्ती होते हुए पीछे हटता है। शुष्क उत्तर-पश्चिमी व्यापारिक पवन और उनके चरम स्वरूप हारमट्टन, ITCZ में उत्तरी बदलाव से प्रभावित होते हैं, और परिणामित दक्षिणावर्ती पवन ग्रीष्मकाल में वर्षाएं लेकर आती हैं। सहेल और सूडान के अर्ध-शुष्क क्षेत्र अपने मरुस्थलीय क्षेत्र में होने वाली अधिकांश वर्षा के लिये इस शैली पर ही निर्भर रहते हैं।
उत्तरी अमरीका
उत्तर अमरीकी मॉनसून (जिसे लघुरूप में NAM भी कहते हैं) जून के अंत या जुलाई के आरंभ से सितंबर तक आता है। इसका उद्गम मेक्सिको से होता है और संयुक्त राज्य में मध्य जुलाई तक वर्षा उपलब्ध कराता है। इसके प्रभाव से मेक्सिको में सियेरा मैड्र ऑक्सीडेन्टल के साथ-साथ और एरिज़ोना, न्यू मेक्सिको, नेवाडा, यूटाह, कोलोरैडो, पश्चिमी टेक्सास तथा कैलीफोर्निया में वर्षा और आर्द्रता होती है। ये पश्चिम में प्रायद्वीपीय क्षेत्रों तथा दक्षिणी कैलीफोर्निया के ट्रान्स्वर्स शृंखलाओं तक फैलते हैं, किन्तु तटवर्ती रेखा तक कदाचित ही पहुंचते हैं। उत्तरी अमरीकी मॉनसून को समर, साउथवेस्ट, मेक्सिकन या एरिज़ोना मॉनसून के नाम से भी जाना जाता है। इसे कई बार डेज़र्ट मॉनसून भी कह दिया जाता है, क्योंकि इसके प्रभावित क्षेत्रों में अधिकांश भाग मोजेव और सोनोरैन मरुस्थलों के हैं।

रविवार, 30 दिसंबर 2012

लोकतंत्र


लोकतंत्र की कोई ऐसी सुनिश्चित सर्वमान्य परिभाषा नहीं की जा सकती जो इस शब्द के पीछे छिपे हुए संपूर्ण इतिहास तथा अर्थ को अपने में समाहित करती हो। भिन्न-भिन्न युगों में विभिन्न विचारकों ने इसकी अलग अलग परिभाषाएँ की हैं, परंतु यह सर्वदा स्वीकार किया है कि लोकतंत्रीय व्यवस्था वह है जिसमें जनता की संप्रभुता हो। जनता का क्या अर्थ है, संप्रभुता कैसी हो और कैसे संभव हो, यह सब विवादास्पद विषय रहे हैं। फिर भी, जहाँ तक लोकतंत्र की परिभाषा का प्रश्न है अब्राहम लिंकन की परिभाषा - लोकतंत्र जनता का, जनता के लिए और जनता द्वारा शासन - प्रामाणिक मानी जाती है। लोकतंत्र में जनता ही सत्ताधारी होती है, उसकी अनुमति से शासन होता है, उसकी प्रगति ही शासन का एकमात्र लक्ष्य माना जाता है। परंतु लोकतंत्र केवल एक विशिष्ट प्रकार की शासन प्रणाली ही नहीं है वरन् एक विशेष प्रकार के राजनीतिक संगठन, सामाजिक संगठन, आर्थिक व्यवस्था तथा एक नैतिक एवं मानसिक भावना का नाम भी है। लोकतंत्र जीवन का समग्र दर्शन है जिसकी व्यापक परिधि में मानव के सभी पहलू आ जाते हैं।
लोकतंत्र की आत्मा जनता की संप्रभुता है जिसकी परिभाषा युगों के साथ बदलती रही है। इसे आधुनिक रूप के आविर्भाव के पीछे शताब्दियों लंबा इतिहास है। यद्यपि रोमन साम्राज्यवाद ने लोकतंत्र के विकास में कोई राजनीतिक योगदान नहीं किया, परंतु फिर भी रोमीय सभ्यता के समय में ही स्ताइक विचारकों ने आध्यात्मिक आधार पर मानव समानता का समर्थन किया जो लोकतंत्रीय व्यवस्था का महान् गुण है। सिसरो, सिनेका तथा उनके पूर्ववर्ती दार्शनिक जेनों एक प्रकार से भावी लोकतंत्र की नैतिक आधारशिला निर्मित कर रहे थे। मध्ययुग में बारहवीं और तेरहवीं शताब्दी से ही राजतंत्र विरोधी आंदोलन और जन संप्रभुता के बीज देखे जा सकते हैं। यूरोप में पुनर्जागरण एवं धर्मसुधार आंदोलन ने लोकतंत्रात्मक सिद्धांतों के विकास में महत्वपूर्ण योग दिया है। इस आंदोलन ने व्यक्ति की धार्मिक स्वतंत्रता पर जोर दिया तथा राजा की शक्ति को सीमित करने के प्रयत्न किए। लोकतंत्र के वर्तमान स्वरूप को स्थिर करने में चार क्रांतियों, 1688 की इंगलैंड की रक्तहीन क्रांति, 1776 की अमरीकी क्रांति, 1789 की फ्रांसीसी क्रांति और 19वीं सदी की औद्योगिक क्रांति का बड़ा योगदान है। इंगलैंड की गौरवपूर्ण क्रांति ने यह निश्चय कर दिया कि प्रशासकीय नीति एवम् राज्य विधियों की पृष्ठभूमि में संसद् की स्वीकृति होनी चाहिए। अमरीकी क्रांति ने भी लोकप्रभुत्व के सिद्धांत का पोषण किया। फ्रांसीसी क्रांति ने स्वतंत्रता, समानता और भ्रातृत्व के सिद्धांत को शक्ति दी। औद्योगिक क्रांति ने लोकतंत्र के सिद्धांत को आर्थिक क्षेत्र में प्रयुक्त करने की प्रेरणा दी।

 लोकतंत्र के प्रकार

सामान्यत: लोकतंत्र-शासन-व्यवस्था तीन  प्रकार की मानी जानी है :
(1) विशुद्ध या प्रत्यक्ष लोकतंत्र तथा
(2) प्रतिनिधि सत्तात्मक या अप्रत्यक्ष लोकतंत्र
(3) उदार लोकतंत्र

प्रतिनिधि लोकतंत्र

प्रतिनिधि लोकतंत्र में जनता सरकारी अधिकारियों को सीधे चुनती है। प्रतिनिधि किसी जिले या संसदीय क्षेत्र से चुने जाते हैं या कई समानुपातिक व्यवस्थाओं में सभी मतदाताओं का प्रतिनिधित्व करते हैं। कुछ देशों में मिश्रित व्यवस्था प्रयुक्त होती है। यद्यपि इस तरह के लोकतंत्र में प्रतिनिधि जनता द्वारा निर्वाचित होते हैं,लेकिन जनता के हित में कार्य करने की नीतियां प्रतिनिधि स्वयं तय करते हैं। यद्यपि दलगत नीतियां, मतदाताओं में छवि, पुनः चुनाव जैसे कुछ कारक प्रतिनिधियों पर असर डालते हैं, किन्तु सामान्यतः इनमें से कुछ ही बाध्यकारी अनुदेश होते हैं। इस प्रणाली की सबसे बड़ी खासियत यह है कि जनादेश का दबाव नीतिगत विचलनों पर रोक का काम करता है,क्योंकि नियमित अंतरालों पर सत्ता की वैधता हेतु चुनाव अनिवार्य हैं।

प्रत्यक्ष लोकतंत्र

प्रत्यक्ष लोकतंत्र में सभी नागरिक सारे महत्वपुर्ण नीतिगत फैसलों पर मतदान करते हैं। इसे प्रत्यक्ष कहा जाता है क्योंकि सैद्धांतिक रूप से इसमें कोई प्रतिनिधि या मध्यस्थ नहीं होता। सभी प्रत्यक्ष लोकतंत्र छोटे समुदाय या नगर-राष्ट्रों में हैं।

उदार लोकतंत्र

एक तरह का प्रतिनिधि लोकतंत्र है, जिसमें स्वच्छ और निष्पक्ष चुनाव होते हैं। उदार लोकतंत्र के चरित्रगत लक्षणों में, अल्पसंख्यकों की सुरक्षा, कानून व्यवस्था, शक्तियों के वितरण आदि के अलावा अभिव्यक्ति, भाषा, सभा, धर्म और संपत्ति की स्वतंत्रता प्रमुख है।

वह शासनव्यवस्था जिसमें देश के समस्त नागरिक प्रत्यक्ष रूप से राज्यकार्य संपादन में भाग लेते हैं प्रत्यक्ष लोकतंत्र कहलाती हैं। इस प्रकार का लोकतंत्र अपेक्षाकृत छोटे आकार के समाज में ही संभव है जहाँ समस्त निर्वाचक एक स्थान पर एकत्र हो सकें। प्रसिद्ध दार्शनिक रूसो ने ऐस लोकतंत्र को ही आदर्श व्यवस्था माना है। इस प्रकार का लोकतंत्र प्राचीन यूनान के नगरराज्यों में पाया जाता था। यूनानियों ने अपने लोकतंत्रात्मक सिद्धांतों को केवल अल्पसंख्यक यूनानी नागरिकों तक ही सीमित रखा। यूनान के नगरराज्यों में बसनेवाले दासों, विदेशी निवासियों तथा स्त्रियों को राजनीतिक अधिकारों से वंचित रखा गया था। इस प्रकार यूनानी लोकतंत्र घोर असमानतावाद पर टिका हुआ था।
वर्तमान युग में राज्यों के विशाल स्वरूप के कारण प्रचीन नगरराज्यों का प्रत्यक्ष लोकतंत्र संभव नहीं है, इसीलिए आजकल स्विट्जरलैंड के कुछ कैंटनों को छोडकर, जहाँ प्रत्यक्ष लोकतंत्र चलता है, सामान्यत: प्रतिनिधि लोकतंत्र का ही प्रचार है जिसमें जनभावना की अभिव्यक्ति जनता द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों द्वारा की जाती है। जनता स्वयं शासन न करते हुए भी निर्वाचन पद्धति के द्वारा शासन को वैधानिक रीति से उत्तरदायित्वपूर्ण बना सकती है। यही आधुनिक लोकतंत्र का मूल विचार है।

संसदात्मक तथा अध्यक्षात्मक लोकतंत्रीय संगठन

आजकल सामान्यतया दो प्रकार के परंपरागत लोकतंत्रीय संगठनों द्वारा जनस्वीकृति प्राप्त की जाती है - संसदात्मक तथा अध्यक्षात्मक। संसदात्मक व्यवस्था का तथ्य है कि जनता एक निश्चित अवधि के लिए संसद् सदस्यों का निर्वाचन करती है। संसद् द्वारा मंत्रिमंडल का निर्माण होता है। मंत्रिमंडल संसद् के प्रति उत्तरदायी है और सदस्य जनता के प्रति उत्तरदायी होते है। अध्यक्षात्मक व्यवस्था में जनता व्यवस्थापिका और कार्यकारिणी के प्रधान राष्ट्रपति का निर्वाचन करती है। ये दोनों एक दूसरे के प्रति नहीं बल्कि सीधे और अलग अलग जनता के प्रति विधिनिर्माण तथा प्रशासन के लिए क्रमश: उत्तरदायी हैं। इस शासन व्यवस्था के अंतर्गत राष्ट्र का प्रधान (राष्ट्रपति) ही वास्तविक प्रमुख होता है। इस प्रकार लोकतंत्र में समस्त शासनव्यवस्था का स्वरूप जन सहमति पर आधारित मर्यादित सत्ता के आदर्श पर व्यवस्थित होता है।

लोकतंत्र का व्यापक स्वरूप

लोकतंत्र केवल शासन के रूप तक ही सीमित नहीं है, वह समाज का एक संगठन भी है। सामाजिक आदर्श के रूप में लोकतंत्र वह समाज है जिसमें कोई विशेषाधिकारयुक्त वर्ग नहीं होता और न जाति, धर्म, वर्ण, वंश, धन, लिंग आदि के आधार पर व्यक्ति व्यक्ति के बीच भेदभाव किया जाता है। वास्तव में इस प्रकार का लोकतंत्रीय समाज ही लोकतंत्रीय राज्य का आधार हो सकता है।
राजनीतिक लोकतंत्र की सफलता के लिए उसका आर्थिक लोकतंत्र से गठबंधन आवश्यक है। आर्थिक लोकंतत्र का अर्थ है कि समाज के प्रत्येक सदस्य को अपने विकास की समान भौतिक सुविधाएँ मिलें। लोगों के बीच आर्थिक विषमता अधिक न हो और एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति का शोषण न कर सके। एक ओर घोर निर्धनता तथा दूसरी ओर विपुल संपन्नता के वातावरण में लोकतंत्रात्मक राष्ट्र का निर्माण संभव नहीं है।
नैतिक आदर्श एवं मानसिक दृष्टिकोण के रूप में लोकतंत्र का अर्थ मानव के रूप में मानव व्यक्तित्व में आस्था है। क्षमता, सहिष्णुता, विरोधी के दृष्टिकोण के प्रति आदर की भावना, व्यक्ति की गरिमा का सिद्धांत ही वास्तव में लोकतंत्र का सार है।

लोकतंत्र के उपादान

आधुनिक युग में लोकतंत्रीय आदर्शों को कार्यरूप में परिणत करने के लिए अनेक उपादानों का आविर्भाव हुआ है। जैसे लिखित संविधानों द्वारा मानव अधिकारों की घोषणा, वयस्क मताधिकारप्रणाली द्वारा प्रतिनिधि चुनने का अधिकार, लोकनिर्माण, उपक्रम, पुनरावर्तन तथा जनमत संग्रह जैसी प्रत्यक्ष जनवादी प्रणालियों का प्रयोग, स्थानीय स्वायत्त शासन का विस्तार, स्वतंत्र एवं निष्पक्ष न्यायालयों की स्थापना, विचार, भाषण, मुद्रण तथा आस्था की स्वतंत्रता को मान्यता, विधिसंमत शासन को मान्यता, बलवाद के स्थान पर सतत वादविवाद और तर्कपद्धति द्वारा ही आपसी संघर्षों के समाधान की प्रक्रिया को मान्यता देना है। वयस्क मताधिकार के युग में लोकमत को शिक्षित एवं संगठित करने, सिद्धांतों के समान्य प्रकटीकरण, नीतियों के व्यवस्थित विकास तथा प्रतिनिधियों के चुनाव के सहायक होने में राजनीतिक दलों की उपादेयता - आधुनिक लोकतंत्र का एक वैशिष्ट्य है। मानव व्यक्तित्व के सर्वतोमुखी विकास के लिए प्रशासन को जनसेवा के व्यापक क्षेत्र में पदार्पण करने के लिए आधुनिक लोकतंत्र को लोक कल्याणकारी राज्य का आदर्श ग्रहण करना पड़ा है।

लोकतंत्र के शत्रु

भ्रष्टाचार
आतंकवाद एवं हिंसा
वंशवाद, परिवारवाद, कारपोरेटवाद
मजहबी कानून
राजनैतिक हत्या
अवांछित गोपनीयता
प्रेस पर रोक
अशिक्षा एवं निरक्षरता

carbon trade


The carbon trade came about in response to the Kyoto Protocol. Signed in Kyoto, Japan, by some 180 countries in December 1997, the Kyoto Protocol calls for 38 industrialized countries to reduce their greenhouse gas emissions between the years 2008 to 2012 to levels that are 5.2% lower than those of 1990.
Carbon is an element stored in fossil fuels such as coal and oil. When these fuels are burned, carbon dioxide is released and acts as what we term a "greenhouse gas".
The idea behind carbon trading is quite similar to the trading of securities or commodities in a marketplace. Carbon would be given an economic value, allowing people, companies or nations to trade it. If a nation bought carbon, it would be buying the rights to burn it, and a nation selling carbon would be giving up its rights to burn it. The value of the carbon would be based on the ability of the country owning the carbon to store it or to prevent it from being released into the atmosphere. (The better you are at storing it, the more you can charge for it.)
A market would be created to facilitate the buying and selling of the rights to emit greenhouse gases. The industrialized nations for which reducing emissions is a daunting task could buy the emission rights from another nation whose industries do not produce as much of these gases. The market for carbon is possible because the goal of the Kyoto Protocol is to reduce emissions as a collective.
On the one hand, carbon trading seems like a win-win situation: greenhouse gas emissions may be reduced while some countries reap economic benefit. On the other hand, critics of the idea suspect that some countries will exploit the trading system and the consequences will be negative. While carbon trading may have its merits, debate over this type of market is inevitable, since it involves finding a compromise between profit, equality and ecological concerns.
A carbon credit is a generic term for any tradable certificate or permit representing the right to emit one tonne of carbon dioxide or the mass of another greenhouse gas with a carbon dioxide equivalent (tCO2e) equivalent to one tonne of carbon dioxide.
CARBON CREDIT
Carbon credits and carbon markets are a component of national and international attempts to mitigate the growth in concentrations of greenhouse gases (GHGs). One carbon credit is equal to one metric tonne of carbon dioxide, or in some markets, carbon dioxide equivalent gases. Carbon trading is an application of an emissions trading approach. Greenhouse gas emissions are capped and then markets are used to allocate the emissions among the group of regulated sources.
The goal is to allow market mechanisms to drive industrial and commercial processes in the direction of low emissions or less carbon intensive approaches than those used when there is no cost to emitting carbon dioxide and other GHGs into the atmosphere. Since GHG mitigation projects generate credits, this approach can be used to finance carbon reduction schemes between trading partners and around the world.
There are also many companies that sell carbon credits to commercial and individual customers who are interested in lowering their carbon footprint on a voluntary basis. These carbon offsetters purchase the credits from an investment fund or a carbon development company that has aggregated the credits from individual projects. Buyers and sellers can also use an exchange platform to trade, such as the Carbon Trade Exchange, which is like a stock exchange for carbon credits. The quality of the credits is based in part on the validation process and sophistication of the fund or development company that acted as the sponsor to the carbon project. This is reflected in their price; voluntary units typically have less value than the units sold through the rigorously validated Clean Development Mechanism.
CDM
The Clean Development Mechanism (CDM) is one of the flexibility mechanisms defined in the Kyoto Protocol (IPCC, 2007) that provides for emissions reduction projects which generate Certified Emission Reduction units which may be traded in emissions trading schemes.
The CDM is defined in Article 12 of the Protocol, and is intended to meet two objectives: (1) to assist parties not included in Annex I in achieving sustainable development and in contributing to the ultimate objective of the United Nations Framework Convention on Climate Change (UNFCCC), which is to prevent dangerous climate change; and (2) to assist parties included in Annex I in achieving compliance with their quantified emission limitation and reduction commitments (greenhouse gas (GHG) emission caps). "Annex I" parties are those countries that are listed in Annex I of the treaty, and are the industrialized countries. Non-Annex I parties are developing countries.
The CDM addresses the second objective by allowing the Annex I countries to meet part of their emission reduction commitments under the Kyoto Protocol by buying Certified Emission Reduction units from CDM emission reduction projects in developing countries (Carbon Trust, 2009, p. 14). The projects and the issue of CERs is subject to approval to ensure that these emission reductions are real and "additional." The CDM is supervised by the CDM Executive Board (CDM EB) and is under the guidance of the Conference of the Parties (COP/MOP) of the United Nations Framework Convention on Climate Change (UNFCCC).



गुरुवार, 27 दिसंबर 2012

जल संसाधन



जल संसाधन जल के वह स्रोत हैं जो मानव के लिए उपयोगी हो या जिनके उपयोग की संभावना होपानी के उपयोगों में शामिल हैं कृषि, औद्योगिक , घरेलू , मनोरंजन  और पर्यावरण  गतिविधियाँ वस्तुतः इन सभी मानवीय उपयोगों में ताजा पानी  की आवश्यकता होती है पृथ्वी के पानी का 97.5% खारा है, और केवल 2.5% ही मीठा पानी है, उसका भी दो तिहाई हिस्सा हिमानीऔर ध्रुवीय  बर्फीली टोपी  के रुप में जमा है शेष पिघला हुआ मीठा पानी मुख्यतः जल के रूप में पाया जाता है, जिस का केवल एक छोटा सा भाग भूमि के ऊपर या हवा में है  मीठा पानी एक नवीकरणीय संसाधन  है, फिर भी विश्व के स्वच्छ पानी की पर्याप्तता लगातार गिर रही है दुनिया के कई हिस्सों में पानी की मांग पहले से ही आपूर्ति से अधिक है , और जैसे जैसे विश्व जनसंख्या  में अभूतपूर्व दर से वृद्धि हो रही हैं, निकट भविष्य मैं इस असंतुलन का अनुभव बढ़ने की उम्मीद है पानी के प्रयोक्ताओं के लिए जल संसाधनों के आवंटन के लिए फ्रेमवर्क (जहाँ इस तरह की एक फ्रेमवर्क मौजूद है) पानी के अधिकार  के रूप में जाना जाता है.
सतही जल
सतह का पानी  एक नदी में पानी झील या ताज़ा पानी धसान (wetland) है सतह के जल की प्राकृतिक रूप से वर्षण (precipitation) द्वारा पूर्ति होती है, और वेह प्राकृतिक रूप से ही महासागरों में निर्वाह, वाष्पीकरण (evaporation) और और उप सतह से रिसाव के द्वारा खो जाता है
हालांकि किसी भी पानी की व्यवस्था का प्राकृतिक स्रोत उसके जलोत्सारण क्षेत्र (watershed) में तल्चाताव है, उस पानी की कुल मात्रा किसी भी समय अन्य कई कारकों पर निर्भर है इन कारकों में शामिल हैं झीलों, आर्द्रभूमियों और कृत्रिम जलाशयों (reservoirs) में भंडारण क्षमता, इन भण्डारणओं के नीचे mitti (soil) की पारगम्यता, आर्द्रभूमियों के भीतर भूमि के अपवाह (runoff) के अभिलक्षण, वर्षं का समय और स्थानीय वाष्पीकरण का स्तर.यह सभी कारक भी जल अनुपात में घाटे को प्रभावित करते हैं
मानव गतिविधियों इन कारकों पर एक बड़े प्रभाव हो सकते हैं.मनुष्य अक्सर जलाशयों का निर्माण द्वारा भंडारण क्षमता में वृद्धि और आद्रभूमि बहाव निकास द्वारा घटा देते हैं मनुष्य अक्सर उप्वाह की मात्रा और उस की तेज़ी को फर्श बन्दी और धारा प्रवाह जल्मार्गता से बढ़ा देते हैं
किसी भी समय पानी की कुल उपलब्धि की मात्रा एक महत्वपूर्ण विचार है.कुछ मानव जल उपयोगकर्ताओं को पानी के लिए एक आंतरायिक जरूरत है.उदाहरण के लिए, अनेक खेतों (farm) को वसंत ऋतु में पानी की बड़ी मात्रा की आवश्यकता होती है और सर्दियों में बिल्कुल नहीं ऐसे खेट को पानी उपलब्ध करने के लिए, सतह जल के एक विशाल भण्डारण क्षमता की आवश्यकता होगी जो साल भर पानी इकठा करे और छोटे समय पर उसे प्रवाह कर सके अन्य उपयोगकर्ताओं को पानी के लिए एक सतत आवश्यकता है, जैसे की बिजली संयंत्र (power plant) जिस को ठंडा करने के लिए पानी की आवश्यकता होती है.ऐसे बिजली संयंत्र को पानी देने के लिए, सतह जल उपाय को आवश्यकता से कम भण्डारण क्षमता स्तर पर रखा जा सकता है ताकि जब औसत धारा प्रवाह कम हो तो उस समय यह काम आए
फिर भी, दीर्घकालिक जलोत्सारण क्षेत्र में वर्षण का औसत उस जलोत्सारण क्षेत्र के औसत प्राकृतिक सतह के पानी की खपत का ऊपरी भाग है
प्राकृतिक सतह का जल दूसरे जलोत्सारण क्षेत्र से नहर (canal) या पाइप लाइन (pipeline) के माध्यम से आयात द्वारा संवर्धित किया जा सकता हैयह कृत्रिम रूप से भी यहाँ सूचीबद्ध स्रोतों से संवर्धित किया जा सकता है, लेकिन असल में इस की मात्रा नगण्य हैंमनुष्य सतह द्वारा जल को 'खो' सकता है .
 उप सतह का पानी
उप भूतल पानी, या भूमिगत जल (groundwater) है मीठा पानी जो मिट्टी और चट्टानों (rocks) के randhra (pore) के अंतरिक्ष भाग में होता है यह भौम जल स्तर (water table) के नीचे जलवाही (aquifer) के भीतर बहने वाला जल भी है कभी कभी उप सतिया जो सतह के जल से निकट सम्बन्ध रखता है और जलवाही स्तर के गहरे उप सतीया जल में अन्तर करना उपयोगी है (जो कभी कभी 'जीवाश्म जल' कहा जाता है )
उप सतह के पानी की तुलना सतह के पानी से करने का सोचा जा सकता है: आदान, प्रदान और भण्डारण के सन्दर्भ में यदि निवेश की तुलना की जाए तो महत्वपूर्ण अंतर यह है कि गमनागमन का धीमा दर होने के कारण उप सतह के पानी के भंडारण आमतौर पर सतह के जल से अधिक विशाल होते है इस अन्तर हे कारण मानव आसानी से उप सतह का जल लम्बे समय तक बिना गंभीर परिणामो के गैर दीर्घकालिक उपयोग कर सकते हैं बहरहाल उप सतह जल स्रोत के ऊपर के रिसाव का दीर्घकालिक औसत जल औसत खपत के लिए बाध्य है
उप सतह जल का प्राकृतिक स्रोत है सतह जल का रिसाव उप सतह के परिणाम हैं झरने और महासागरों में रिसाव
यदि सतह के पानी के स्रोत में भी पर्याप्त वाष्पीकरण हो, तो उप सतह का जल खारा (saline) बन सकता है यह स्थिति स्वाभाविक रूप से endorheic (endorheic) जल के निकायों के तहत या कृत्रिम सिंचित (irrigated) खेत के तहत हो सकता है तटीय क्षेत्रों में मानवीय इस्तमाल से उप सतह का जल स्रोत रिसाव की दिशा उलटी कर सकता है जिस के कारण मिटटी लावानीय (soil salinization) बन सकती है मनुष्य उप सतह के जल को "खो " सकता है (यानी उसे बेकार बना सकता है) प्रदूषण के माध्यम सेमनुष्य जलाशयों या निरोध तालाबों के निर्माण द्वारा सतह जल स्रोत के लिए निवेश बढ़ा सकता है
भूमि में जल वर्गों में पाया जाता है जिसे जलवाही स्तर (aquifers) कहते हैं बारिश गिरती है और इन में समा जाती है सामान्य रूप से जलवाही संतुलित (equilibrium) नेपाल् पर रहता है जलवाही में जल का माप आम तौर पर अनु के आकार पर निर्भर करता है.इस का अर्थ है की कर्षण का डर तुच्छ पारगम्य से सीमित है
विलवणीकरण
विलवणीकरण (Desalination) एक कृत्रिम प्रक्रिया है जिसके द्वारा खारा पानी (saline water) (आम तौर पर समुद्र का पानी (sea water)) ताजे पानी में बदला जाता है सब से आम विलवणीकरण प्रक्रियाएं आसवन (distillation) और उलट परासरण (reverse osmosis) हैं हाल फिलहाल अन्य स्रोतों वैकल्पिक स्रोतों की तुलना में विलवणीकरण एक बहुत महंगा विकल्प है, और कुल मानव उपयोग का एक बहुत छोटा अंश ही इस के द्वारा संतुष्ट होता है यह केवल आर्थिक दृष्टि से उत्तम व्यावहारिक-मूल्य (जैसे घरेलू और औद्योगिक उद्योगों के लिए) शुष्क (arid) क्षेत्रों में उपयोगी है सबसे व्यापक उपयोग फारस की खाड़ी (Persian Gulf) में है
जमा हुआ जल
हिमशैल (iceberg) को जल के स्रोत के रूप में उपयोग करने के लिए कई प्रस्ताव रखे गए हैं, किंतु आज तक यह केवल नवीन परियोजनों के लिए ही किया गया है हिमानी अपवाह भी सतह का जल माना जाता है
ताजे पानी के उपयोग
ताजे पानी के उपयोग तपेदिक़ और गैर रूप-तपेदिक़ (कभी कभी "अक्षय" कहलाया गया) वर्गीकृत किया जा सकता है.यदि जल तुरंत एक और उपयोग के लिए उपलब्ध नहीं हो तो वेह तपेदिक़ उपयोग होगा उप सतेह रिसाव और वाष्पीकरण नुक्सान एवं उत्पाद में सम्मिलित जल (जैसे कृषि उपज) को तपेदिक़ माना जाता है जल जिसे प्रबंधित (treated) कर सतह के जल के रूप में लौटाया जा सके जैसे की मॉल, अक्सर गैर-तपेदिक़ मन जाता है, अगर उसे किसे अन्य उपयोग में लाया जा सके
कृषि
 विश्व के कुछ क्षेत्रों में सिंचाई किसी भी फसल के लिए आवश्यक है जबकि अन्य क्षेत्रों में यह अधिक लाभदायक फसलों की बढ़त, अथवा फसल पैदावार की वृद्धि में कारगर है विभिन्न सिंचाई विधियों में फसल पैदावार, जल खपत एवं उपकरणों और संरचनाओं की पूंजी लागत में गमागम शामिल हैं सतह के ऊपर या नीचे के सेचक (sprinkler) कम मेहेंगे किंतु कम कारगर भी होते हैं, क्योंकि अधिकतर जल वाष्पिभूत हो जाता है या रिस जाता है अधिक कारगर सिंचाई विधियों में शामिल हैं रिसाव या चूनाद्रव सिंचाई (drip or trickle irrigation), प्रवाह सिंचाई और सेचक सिंचाई जिस में सेचक जमीनी स्तर के पास संचालित किए जाते हो यह प्रणालिया मेहेंगी है, किंतु रिसाव और वाष्पीकरण को कम करने में सार्थक हैं कोई भी प्रणाली यदि अनुचित व्यर्थ प्रबंधित हो तो अपव्ययी होती है एक और गमागम जिसे अक्षम विचार मिलता है, वेह है उप सतह के पानी का खारा होना
जलीय कृषि (Aquaculture) जल का एक छोटा लेकिन बढ़ता प्रयोग है मीठे पानी में व्यावसायिक मत्स्य पालन भी पानी का कृषि उपयोग माना जाता है, लेकिन इसे सिंचाई से कम मेहेत्व दिया जाता है
जैसे जैसे विश्व की जनसँख्या और अनाज की मांग में वृद्धि हो रही है, जल के स्थिर स्तर के रहते प्रयास किए जा रहे हैं की कम पानी के प्रयोग से कैसे अधिकतम अनाज की उपज सिंचाई विधियों  और प्रौद्योगिकियों, कृषि जल प्रबंधन (water management), फसल प्रकार, और जल अनुश्रवण के माध्यम से की जाए 'मोटा पाठ''तिरछा पाठ''
औद्योगिक
 अनुमान हैं की विश्व भर के 15% जल का उपयोग औद्योगिक हैप्रमुख औद्योगिक उपयोगकर्ताओं में शामिल हैं बिजली घर जो पानी को ठंडक के लिए या बिजली स्रोत के रूप में उपयोग करते हैं (यानि जलविद्युत (hydroelectric) संयंत्र), अयस्क (ore) और तेल (oil) संयंत्र जो रासायनिक प्रक्रियाओं में पानी का उपयोग करें और विनिर्माण संयंत्र जो एक विलायक के रूप में पानी का उपयोग करते हैं
औद्योगिक पानी के उपयोग का हिस्सा जो तपेदिक हो, उस में व्यापक विवधिता है, पर पूर्णरूपेण कृषि उपयोग से कम है
पीने का पानी
अनुमान लगाया जाता है की विश्व भर का 15% जल घरेलू उद्देश्यों के लिए उपयोग होता है इन में शामिल हैं पीने का पानी (drinking water), स्नान (bathing), खाना पकाने (cooking), स्वच्छता, और बागवानी (gardening).पीटर गलैक (Peter Gleick) के अनुमान अनुसार घरों की बुनियादी आवश्यकताओं के लिए प्रति दिन प्रति व्यक्ति लगभग 50 लीटर की खपत है, और इस में बगीचों के लिए पानी शामिल नहीं है
पर्यावरण
स्पष्ट पर्यावरण के पानी का प्रयोग भी एक बहुत छोटा है लेकिन बढ़ती कुल जल का प्रयोग का प्रतिशत हैपर्यावरिक जल उपयोगों में शामिल है कृत्रिम धसान, वन्यजीव आवास के लिए अपेक्षित कृत्रिम झीलें, बांध (dam) के इर्द गिर्द मच्ची सोपान (fish ladder) और मछली खेती के लिए समयबद्ध जलाशयों से जल मुक्ति
मनोरंजन के साधन के उपयोग की तरह, पर्यावरण उपयोग गैर तपेदिक़ है लेकिन विशिष्ट समय और स्थानों पर अन्य उपयोगकर्ताओं के लिए पानी की उपलब्धता में कमी का कारण हो सकता है.उदहारण के लिए जलाशय से मछली उद्योग के लिए जल मुक्ति उपरी खेतों के लिए उपलब्ध नहीं होगा
पानी में तनाव
पानी की अवधारणा तनाव का सिद्धान्त सरल है: स्थायी विकास के लिए विश्व व्यापार परिषद (World Business Council for Sustainable Development) के अनुसार यह उन परिस्थितियों पर लागू होता है जहां सभी उपयोगों के लिए पर्याप्त पानी नहीं, चाहे, वेह औद्योगिक कृषि या घरेलू हों शब्दों में प्रति व्यक्ति (per capita) उपलब्ध जल तनाव को परिभाषित करना जटिल है, तथापि पानी का उपयोग फिर भी, यह धारणा है कि जब प्रति व्यक्ति वार्षिक अक्षय मीठे पानी की उपलब्धता 1700 घन meter से कम हो, तो देश आवधिक या नियमित रूप से पानी तनाव का अनुभव करने लगते हैं जल, 1000 घन मीटर से कम कमी आर्थिक विकास और मानव स्वास्थ्य और समृद्धि में बाधा डालता है
जनसंख्या वृद्धि
सन् 2000 में, दुनिया की आबादी 6.2 अरब थी.संयुक्त राष्ट्र का अनुमान है की 2050 तक जनसँख्या में 3 अरब की वृद्धि हो जायेगी, और वेह विकासशील देशों (developing countries) में जो पहले से ही जल तनाव से ग्रस्त हैं [5] इस लिए जल की मांग और बढेगी जब तक इस महत्वपूर्ण संसाधन में जल संरक्षण (water conservation) और पुनर्प्रयोग (recycling) द्वारा अनुकूल वृद्धि नहीं होती
समृद्धि में बढ़त
गरीबी (poverty) उन्मूलन दर की वृद्धि हो रही है खासकर चीन और भारत जैसे दो जनसंख्या दिग्गजों में बहरहाल, बढ़ती समृद्धि (affluence) का मतलब है निश्चित अधिक पानी की खपत : 24 घंटे, 7 दिन मीठे पानी की आवश्यकता और बुनियादी स्वच्छता (sanitation) से ले कर उद्यान और गाड़ी धोने के लिए पानी की मांग करने से ले कर तरणताल की चाहत तक
व्यावसायिक गतिविधियों के विस्तार
औद्योगीकरण से सेवा क्षेत्र जैसे पर्यटन और मनोरंजन जैसी व्यावसायिक गतिविधियां तेजी से विस्तार कर रहीं हैं इस विस्तार की जरूरत होती है दोनों पूर्ति (supply) और स्वच्छता सहित जल सेवाओं में वृद्धि , जो पानी और प्राकृतिक संसाधनों और पारिस्थितिकी तंत्रों (ecosystem)पर और अधिक दबाव के कारण हो सकते हैं
तेजी से शहरीकरण
शहरीकरण (urbanization) की ओर रुझान त्वरक है.निजी लघु कुँए (well) और गटर (septic tank) जो कम घनत्व समुदायों में कारगर साबित होते हैं, भारी घनत्व के शेहरी क्षेत्रों (urban area) में सक्षम नहीं शहरीकरण के होते जल सम्बंधित बुनियादी सुविधाओं (infrastructure) में महत्वपूर्ण निवेश की आवश्यकता है व्यक्तियों तक पानी पहुंचाने के लिए, और मलजल से मलीन जल koइन प्रदूषित और दूषित जल का उपचार किया जाना अनिवार्य है या वे अस्वीकार्य सार्वजनिक स्वास्थ्य जोखिम बन जायेंगे 60 % यूरोपीय शेहेरों में जिस की जनसँख्या 100000 से अधिक है, वहाँ भूमिगत जल एक तेज दर से प्रयोग किया जा रहा है यदि कुछ जल उपलब्ध है, तो उसे ग्रहण करने की लागत में वृद्धि ही वृद्धि (costs more and more) हो रही है
जलवायु परिवर्तन
जलवायु परिवर्तन (Climate change)मौसम और जल चक्र (hydrologic cycle) के बीच करीब संबंधों के कारण   दुनिया भर के जल संसाधनों पर महत्वपूर्ण प्रभाव डाल सकता है बढ़ते तापमान के रहते वाष्पीकरण  (evaporation) में वृद्धि होगी और परिनाम्वश वर्षण में भी वृद्धि होगी, हालांकि वर्षा में क्षेत्रीय विवधिता होगी कुल मिलाकर, ताजे पानी की वैश्विक आपूर्ति में वृद्धि होगी.दोनों सूखा (droughts) और बाढ़ विभिन्न क्षेत्रों में अलग अलग समय पर अक्सर हो सकते हैं, और पहाड़ी क्षेत्रों में बर्फबारी और तुषार पिघलाव  (snowmelt) की संभावना है बढे तापमान जल गुणवत्ता को कैसे prabhaavit करेगा यह अच्छी तरह समझा नहीं गया है संभावित प्रबाव में शामिल है eutrophication (eutrophication)जलवायु परिवर्तन का अर्थ कृषि सिंचाई, उद्यान सेचक और शायद तरन ताल की मांगों में वृद्धि भी हो सकता है
जलवाही स्तर का रिक्तीकरण
मानव आबादी के विस्तार (expanding human population) के कारण जल के लिए प्रतिस्पर्धा ऐसे बढ़ रही है की विश्व के प्रमुख जलवाही समाप्त होते जा रहे हैंयह भूमिगत जल के द्वारा कृषि सिंचाई और प्रत्यक्ष मानव उपभोग दोनों के लिए यथार्थ है पूरी दुनिया में सभी आकार के लाखों पम्प (pumps) इस समय भूमिगत जल निकाल रहे हैं उत्तरी चीन और भारत जैसे शुष्क क्षेत्रों में सिंचाई भूमिगत जल के द्वारा, और असम्वृधीय दर से निचोडा जा रहा है जिन्हों ने जलवाही बूँदें अनुभव की हैं, उन शेहेरों में शामिल हैं मेक्सिको सिटी (Mexico City), बैंकॉक, मनीला (Manila), बीजिंग, मद्रास और शंघाई.
प्रदूषण और जल संरक्षण
जल प्रदूषण (Water pollution) आज विश्व के प्रमुख चिंताओं में से एक है कई देशों की सरकारों की इस समस्या को कम करने के लिए समाधान खोजने के लिए कड़ी मेहनत की है.जल आपूर्ति को कई प्रदूषकों से खतरा है, किंतु सब से अधिक व्यापक विशेषकर अल्पविकसित देशों में है कच्चे मॉल (sewage) का प्राकृतिक जल में निर्वाह; मॉल निपटान की यह विधि अल्पविकसित देशों में सबसे आम है, लेकिन अर्ध विकसित देशों जैसे चीन, भारत और इरान में भी प्रचलित है
मल, कीचड, गन्दगी और विषाक्त प्रदूषक, सब पानी में फ़ेंक दिए जाते हैं मल उपचार के बावजूद समस्याएं खड़ी होती हैं जेव्नारित मल कीचड में तब्दील होता है, जो समुद्र में बहा दिया जाता है कीचड के अतिरिक्त उद्योगों और सरकारों द्वारा रासायनों का रिसाव जल प्रदूषण का प्रमुख स्रोत हैं
पानी और झगड़ा
जल के पीछे वास्तविक अन्तर राज्य संघर्ष का इकलौता उदहारण है सुमेरिया (Sumeria) के लगाश (Lagash) और उम्मा (Umma) राज्यों के बीच, 2500 और 2350 ईसा पूर्व में प्रमाण के आभाव में भी यह कहा जा सकता है की केवल जल के पीछे ही इतिहास में विभिन्न युद्ध लड़े गए हैं जब पानी की कमी (scarcity) राजनीतिक तनाव का कारण बनता है, तो इसे जल तनाव कहा जाता है जल तनाव अक्सर क्षेत्रीय और स्थानीय स्तर पर संघर्ष का कारण रहा है  शुद्ध मात्रात्मक पद्धति का उपयोग करते हुए थॉमस होमर - दिक्सों ने पानी की कमी और उपलब्ध कृषि योग्य भूमि की कमी को हिंसक संघर्ष के मौके से सफलतापूर्वक सहसंबद्ध किया
जल तनाव संघर्ष और राजनीतिक तनाव को भी बढ़ावा दे सकते हैं चाहे वह पानी से सम्बंधित न भी हो समय के साथ ताजे पानी की गुणवत्ता या मात्रा जनसँख्या की सेहत गिराते हुए आर्थिक विकास में निरोधक हो सकती है और क्षेत्रीय अस्थिरता बढ़ा सकती है
जल सम्बंधित संघर्ष और तनाव संभावित राष्ट्रीय सीमाओं के भीतर है, विपत्तिकालीन नदी घाटी के निचले हिस्सों में चीन के दक्षिणी क्षेत्र उदाहरण के लिए पीली नदी या थाईलैंड में चाओ फ्राय नदी (Chao Phraya River) कई वर्षों से जल सम्बंधित तनाव से पीधित हैं इस के अतिरिक्त, चीन, भारत, ईरान, और पाकिस्तान जैसे शुष्क देश जो भारी मात्रा में सिंचाई के लिए निर्भर हैं, वह विशेष रूप से जल सम्बंधित संघर्ष के जोखिम क्षेत्र में हैं राजनीतिक तनाव, नागरिक विरोध, और हिंसा भी पानी के निजीकरण (water privatization) की प्रतिक्रिया हो सकते हैं 2000 के बोलीविया जल युद्ध (Bolivian Water Wars of 2000)  में वृत्त का अध्ययन हैं हम विभिन्न रूपों में जल का उपयोग करते हैं हम पानी का उपयोग तैराकी जैसे मनोरंजन के लिए करते हैं हम वस्तुएं धोने के लिए पानी का उपयोग करते हैं.पानी बिजली और सिंचाई के लिए प्रयोग किया जाता है.यह पौधों को सींचने के काम आता है ; सेचक भी जल की खपत करते हैं खेती बाधी और फसल बढ़ाने में जल का उपयोग होता है
विश्व जल आपूर्ति और वितरण

पोषण और जल दो बुनियादी मानवीय आवश्यकताएं हैं हालांकि, 2002 से वैश्विक कवरेज के आंकड़े दर्शाते हैं कि, के हर 10 लोगों में :
मोटे तौर पर 5 के घरों में पानी की आपूर्ति के लिए पाइप का कनेक्शन है (उन के निवास, प्लॉट या यार्ड में )
3 बेहतर जल आपूर्ति के अन्य माध्यम जैसे संरक्षित कुआँ या सार्वजनिक स्तान्द्पिपे का उपयोग करते हैं
2 सेवाहीन हैं
इसके अतिरिक्त, हर 10 में से 4 लोग सुधरी स्वच्छता के बिना रह रहे हैं.
पृथ्वी शिखर सम्मेलन 2002 (Earth Summit 2002) में सरकारों ने कार्य कार्रवाई की एक योजना को मंजूरी दे दी:
 2015 तक सुरक्षित पानी पीने की असमर्थता रखने वालों का अनुपात लगभग आधा होने की संभावना है वैश्विक जल आपूर्ति और स्वच्छता का आकलन 2000 रिपोर्ट (GWSSAR) पानी के 'मुनासिब अभिगमन' को कम से कम 20 लीटर प्रति व्यक्ति प्रति दिन, एक किलोमीटर की दूरी के भीतर के स्रोत के तौर पर परिभाषित करती है
बुनियादी स्वच्छता की असमर्थता रखने वालों का अनुपात लगभग आधा होने की संभावना है GWSSR के मुताबिक "बुनियादी स्वच्छता" निजी या साझा लेकिन सार्वजनिक नहीं निपटान प्रणाली है जो मॉल को मानवीय संपर्क से अलग करती है
2025 में जल वितरण का अनुमान
 2025 में पानी की कमी गरीब देशों में और प्रबल होगी जहाँ संसाधन सीमित हैं और जनसंख वृद्धि तेज़ है जैसे की मध्य पूर्व, अफ्रीका, और कुछ भाग एशिया के.सं 2025 तक, बड़े शहर और उन के आस पास के क्षेत्रओं को सुरक्षित पानी और र्याप्त स्वच्छता प्रदान करने के लिए नए बुनियादी सुविधाओं की आवश्यकता होगीयह कृषि जल उपयोगकर्ताओं, के साथ बढ़ते संघर्षों का सुझाव है, जो वर्त्तमान में मनुष्य द्वारा प्रयोग किए जाने वाले पानी के सबसे बड़े उपयोगकर्ता हैं
सामान्यतः अधिक विकसित देश जैसे उत्तरी अमेरिका, यूरोप और रूस 2025 तक पानी की आपूर्ति करने के लिए एक गंभीर खतरा नहीं देखेंगे, केवल इस लिए नहीं की उन की सापेक्ष धनराशि अधिक है, किंतु अधिक महत्वपूर्ण उन की जनसँख्या जल संसाधनों के साथ बेहतर संरेखित होगी उत्तरी अफ्रीका, मध्य पूर्व, दक्षिण अफ्रीका और उत्तरी चीन में भौतिक आभाव और जल सम्बंधित क्षमता (carrying capacity) सअपेक्ष जनसंख्या विस्फोट के कारण वेह गंभीर पानी की कमी का सामना करेंगे दक्षिण अमेरिका, उप सहारा (Sub-Saharan) अफ्रीका, दक्षिणी चीन और भरत के अधिकतम अंश सं 2025 तक पानी की आपूर्ति की कमी का सामना करेंगे, बाद के इन क्षेत्रों में सुरक्षित पीने का पानी में कमी के कारण होंगे विकास करने के लिए आर्थिक बाधाएं और अत्यधिक जनसंख्या वृद्धि (population growth).
आर्थिक दृष्टिकोण
जल आपोरती और स्वच्छता के लिए बुनियादी ढांचे में जैसे पाइप संजाल, जलोदंच केन्द्र और जल प्रशोधन केन्द्र पूंजी की एक बड़ी राशि के निवेश (investment) की आवश्यकता होती हैयह अनुमान है कि आर्थिक सह-संचालन और विकास संगठन (Organisation for Economic Co-operation and Development) (OECD) राष्ट्रों को प्रति वर्ष कम से कम 200 अरब अमरीकी डॉलर का निवेश करना होगा पानी के काल प्रभावित बुनियादी ढांचे को बदलने के लिए, जल आपूर्ति की गारंटी देने के लिए, रिसाव दरों में कमी लाने और पानी की गुणवत्ता की रक्षा के लिए
अन्तान्र्राष्ट्रीय स्तर पर विकासशील देशों की आवश्यकताओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है.सहस्राब्दी विकास लक्ष्य (Millennium Development Goals) सं 2015 तक सुरक्षित पीने के पानी और बुनियादी स्वच्छता के आभाव में जी रहे जनसँख्या अनुपात को आधा करने का लक्ष्य पूरा करने के लिए 10 से 15 अरब अमरीके डॉलर के वर्त्तमान निवेश को दोगुना करने की आवश्यकता है इस में मौजूदा बुनियादी ढांचे के रखरखाव के लिए आवश्यक निवेश शामिल नहीं हैं
एक बार बुनियादी सुविधाएं जगह पर हों, तो प्रचलित जल आपूर्ति और स्वच्छता प्रणाली महत्वपूर्ण चलते खर्च अंतर्भूत करेगा कार्मिकों, ऊर्जा, रसायन, रखरखाव और अन्य खर्चों की आपूर्ति के लिए इन पूंजी और परिचालन लागत को पूरा करने के लिए धन राशि की सूत्र उपयोगकर्ता फीस, सार्वजनिक धन या दो के कुछ संयोजन होंगे
पर यहीं पर जल अर्थशास्त्र जटिल होना शुरू हो जाता है क्योंकि यह सामाजिक और व्यापक आर्थिक नीतियों से टकराता है ऐसे नैतिक प्रश्न जो पानी की उपलब्धता और पानी के उपयोग के बारे में आधारभूत जानकारी पर केंद्रित है, इस लेख के दायरे से परे हैं.फिर भी यह समझने के लिए की जोखिमों और अवसरों के संदर्भ में जल मुद्दों का व्यापार और उद्योग पर क्या प्रभाव पढेगा, इस के लिए यह काफ़ी प्रासंगिक है
व्यापार प्रतिक्रिया
स्थायी विकास विश्व व्यापार परिषद (World Business Council for Sustainable Development) अपने परिदृश्य निर्माण (scenario building) प्रक्रिया में कार्यरत जल परिदृश्य
·         जल से सम्बंधित मूल मुद्दों और द्रिवेरों का व्यवसाय द्वारा समझ का स्पष्टीकरण करते हैं और बढ़ावा देते हैं
·         व्यापार समुदाय और गैर जल प्रबंधन के मुद्दों पर व्यापार हितधारकों के बीच आपसी समझ को बढ़ावा देना.
·         निरंतर जल प्रबंधन के लिए समाधान के भाग के रूप में समर्थन प्रभावी व्यापार कार्रवाई
यह निष्कर्ष निकाला है कि
·         प्यासे समाज में व्यापार जीवित नहीं रह सकता
·         जल संकट (water crisis) के लिए जल कारोबार में होने की आवश्यकता नहीं है
·         व्यापार समाधान का हिस्सा है, और इसकी क्षमता अपनी अभियान द्वारा संचालित है.
·         बढ़ते पानी के मुद्दे और जटिलता, लागत को बढ़ावा देंगे

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2012

BRICS



BRICS is the title of an association of emerging economies, arising out of the inclusion of South Africa into the original BRIC grouping in 2010. The group's five members are Brazil, Russia, India, China and South Africa. With the possible exception of Russia, the BRICS members are all developing or newly industrialized countries, but they are distinguished by their large, fast-growing economies and significant influence on regional and global affairs. As of 2012, the five BRICS countries represent almost 3 billion people.
Hu Jintao, the President of the People's Republic of China, has described the BRICS countries as defenders and promoters of developing countries and a force for world peace. However, some analysts have highlighted potential divisions and weaknesses in the grouping, such as India and China's disagreements over territorial issues, the failure of the BRICS to establish a World Bank-analogue development agency, slowing growth rates, and disputes between the members over UN Security Council reform.  The foreign ministers of the initial four BRIC states (Brazil, Russia, India, and China) met in New York City in September 2006, beginning a series of high-level meetings. A full-scale diplomatic meeting was held in Yekaterinburg, Russia, on May 16, 2008. In 2010, South Africa began efforts to join the BRIC grouping, and the process for its formal admission began in August of that year. South Africa officially became a member nation on December 24, 2010, after being formally invited by the BRIC countries to join the group. The group was renamed BRICS – with the "S" standing for South Africa – to reflect the group's expanded membership. In April 2011, South African President Jacob Zuma attended the 2011 BRICS summit in Sanya, China, as a full member. The BRICS Forum, an independent international organisation encouraging commercial, political and cultural cooperation between the BRICS nations, was formed in 2011. In June 2012, the BRICS nations pledged $75 billion to boost the International Monetary Fund's lending power. However, this loan is conditional on IMF voting reforms.
The grouping has held annual summits since 2009, with member countries taking turns to host. Prior to South Africa's admission, two BRIC summits were held, in 2009 and 2010. The first five-member BRICS summit was held in 2011. The most recent summit took place in New Delhi, India, on March 29, 2012. The next BRICS summit is scheduled to take place in Durban,  South Africa, in March 2013.
Summit
Participants
Date
Host country
Host leader
Location
1st
BRIC
June 16, 2009
Russia
Dmitry Medvedev
Yekaterinburg
2nd
BRIC
April 16, 2010
Brazil
Luiz Inácio Lula da Silva
Brasília
3rd
BRICS
April 14, 2011
China
Hu Jintao
Sanya
4th
BRICS
March 29, 2012
India
Manmohan Singh
New Delhi
5th
BRICS
March 26–27, 2013
South Africa
Jacob Zuma
Durban

गुरुवार, 20 दिसंबर 2012

निर्वाचन प्रणालियाँ



प्रतिनिधियों के चुनाव के अनेक तरीके हो सकते हैं। लाटरी के टिकट निकाल कर बिना समझे बूझे प्रतिनिधियों का चुनाव कर लेना तो एक ऐसा तरीका है जिसकी लोकतंत्र में कोई गुंजाइश नहीं है। दूसरे तरीके सामान्यत: निर्वाचन की मतदान प्रणाली पर ही आधृत हैं,। यद्यपि ये तरीके भी पूर्णत: निर्दोष ही हों यह आवश्यक नहीं; पदप्राप्ति के इच्छुक प्रत्याशी प्राय: मतदाताओं को घूम देकर अथवा डराघमकार कर जोरजबर्दस्ती से उनका मत प्राप्त कर लेते हैं। विभिन्न प्रकार के अल्पसंख्यक वर्ग उचित प्रतिनिधित्व से वंचित रह जाते हैं। राजनीतिक तथा अन्य प्रकार के दल कभी कभी चुनाव के लिए किसी अयोग्य उम्मीदवार को खड़ा कर देते हैं। ऐसी हालत में उस दल के लोगों को चाहे-अनचाहे उसी को अपना मत देना पड़ता है। इन दोषों को दूर अथवा कम करने और मतदान को स्वतंत्र एवं निष्पक्ष बनाने के लिए समय-समय पर निर्वाचन की विभिन्न प्रणालियों का विकास किया गया है।
यूनानी नगर-राज्य प्रत्यक्ष लोकतंत्र का उदाहरण था। राज्य की विमर्शकारिणी संस्था (प्रतिनिधि सभा) में प्रत्येक नागरिक स्वयं अपना प्रतिनिधि होता था। आधुनिक विशालकाय राष्ट्रिक-राज्य में प्रत्यक्ष लोकतंत्र व्यवहार्य नहीं है। आधुनिक राज्य की जनसंख्या नगरराज्य की अपेक्षा बहुत अधिक बड़ी होती है, अत: उनकी आबादियों की परस्पर कोई तुलना नहीं हो सकती। यदि आधुनिक राज्य की प्रत्येक नागरिक स्वयं अपना प्रतिनिधित्व करने लगे तो विमर्शमूलक विधान सभा अव्यवस्था और कोलाहल का स्थल बन कर रह जाएगी; उसमें न तो किसी प्रकार का विचारविमर्श हो सकेगा और न किसी कार्य का संचालन ही संभव होगा। राज्य का शासन यंत्र शीघ्र ही ठप पड़ जाएगा। इसलिए आजकल प्रतिनिधिक लोकतंत्र चलता हैं। अब राज्य के नागरिक (प्रजा) विधानमंडल के लिए अपने प्रतिनिधियों का चुनाव सामूहिक रूप से करते हैं। कुछ देशों के नागरिक तो इसी तरह कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव) एवं न्यायपालिका नागरिक तो इसी तरह कार्यपालिका (एग्जीक्यूटिव) एव न्यायपालिका (जूडीशियरी) के लिए भी अपने प्रतिनिधि चुनते हैं। ये प्रतिनिधि ही उनकी और से और उनके हित में राज्य का संचालन करते हैं।
निर्वाचन प्रणाली के अंग
किसी भी निर्वाचन प्रणाली के वस्तुत: पाँच अंग होते हैं :
(1) निर्वाचनक्षेत्रों के निर्धारण से संबंद्ध नियम;
(2) मतदाताओं की अर्हता से संबंद्ध नियम;
(3) उम्मीदवारों की अर्हता और मनोनयन संबंधी नियम
(4) मतदान की विधि और मतपत्र गणना संबंधी नियम; और
(5) निर्वाचन संबंधी विवादों के निबटारे के लिए किसी न किसी तरह की व्यवस्था किंतु प्रचलित भाषा में निवचिन प्रणाली को उपर्युक्त केवल चौथे अंग तक ही सीमित माना जाता है, अत: यहाँ इसी अंग पर विचार किया जाएगा।
सर्वाधिक मतप्राप्त व्यक्ति की विजय (फर्स्ट पास्ट द पोस्ट)
"फर्स्ट पास्ट द पोस्ट" (सर्वाधिक मतप्राप्त व्यक्ति की विजय) प्रणाली सबसे प्राचीन है। यह प्रणाली ब्रिटेन में तेरहवीं शताब्दी से ही प्रचलित रही है। राष्ट्रमंडल के देशों और अमेरिका में मतदान की यही सर्वसामान्य प्रणाली है। भारत में लोकसभा एवं विधान सभाओं के चुनावों में इसी प्रणाली का प्रयोग किया जाता है। इसे "सरल बहुतमत प्रणाली" भी कहते हैं। जिस उम्मीदवार को सबसे अधिक मत प्राप्त होते हैं वही चुन लिया जाता है।
यह प्रणाली सामान्यत: एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र प्रणाली से संबद्ध होती है। इस प्रणाली की आलोचना में तीन बातें कही जाती हैं। पहली यह कि इसके अंतर्गत सर्वाधिक मत प्राप्त करने वाला उम्मीदवार निर्वाचित हो जाता है, भले ही निर्वाचक मंडल के काफी बड़े समुदाय ने उसके विरुद्ध मत दिए हों। अल्पसंख्यक समुदाय द्वारा निर्वाचित होने पर भी वह विरुद्ध मत रखने वाले बहुसंख्यक समुदाय का भी प्रतिनिधि बन जाता है। भारत के 1952 के प्रथम निर्वाचन में अनेक विजयी उम्मीदवारों के मामले में यही हुआ था। दूसरी बात यह है कि यह प्रणाली ब्रिटेन के समान द्विदलीय परंपरा के ही अनुकूल होती है किंतु उससे दुर्बल और अल्पसंख्यक दलों का सफाया हो जाता हैं। उसमें विभिन्न प्रकार के अल्पसंख्यक समुदायों को पर्याप्त प्रतिनिधित्व ही नहीं मिल पाता। तीसरी बात यह है कि यह प्रणाली प्राय: मतदाताओं के ऐसे समुदायों को जिन्हें थोड़ा ही अधिक बहुमत प्राप्त है, सदन में बहुत बढ़ा चढ़ाकर दिखाने में सहायक बन जाती है। संपूर्ण मतदान के अनुपात में किसी दल को मिलने वाले कुल मतों द्वारा उस दल के जितने सदस्य न्यायत: चुने जाने चाहिए उससे कहीं अधिक चुन लिए जा सकते हैं। 1952 के भारत के प्रथम आम चुनाव में यही हुआ था।
कुछ राजनीतिक विचारकों एवं राजनेताओं ने यह सुझाव दिया है कि जिस दल की संमति से सरकार चलने वाली हो उसे कम से कम कुल मतदाताओं की बहुसंख्या का समर्थन तो प्राप्त होना ही चाहिए। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर निर्वाचन प्रणाली में कुछ सुधार सुझाये गए है। पुनरावर्तित गुप्त मतदान-प्रणाली इन सुधारों में से एक है। सबसे सरल तरीका वह है जिसका प्रयोग विधान सभाओं द्वारा किये जाने वाले चुनाव में उदाहरणार्थ, अमेरिका के दलीय सम्मेलन द्वारा राष्ट्रपति एवं उपराष्ट्रपति पद के लिए खड़े होने वाले उम्मीदवारों के चुनाव में, किया जाता है। शलाका पद्धति द्वारा गुप्त मतदानों की शृंखला तब तक चलती रहती है जब तक कोई उम्मीदवार पड़े हुए समस्त मतों में से एकांतत: सर्वाधिक मत प्राप्त नहीं कर लेता।
द्वितीय गुप्त मतदान
इसके अंतर्गत प्रथम गुप्त मतदान में कोई उम्मीदवार तभी चुना जा सकता है जब वह पड़े हुए समस्त मतों मे से एकांतता सर्वाधिक मत प्राप्त कर ले। ऐसा संभव न होने पर नामवापसी के लिए कुछ समय दिया जाता है। फ्रांस में इसके लिए एक सप्ताह या पंद्रह दिन का समय दिया जाता था। इसके बाद दूसरा गुप्त मतदान होता है। इस मतदान में जिस उम्मीदवार को सर्वाधिक मत प्राप्त होते हैं वह विजयी हो जाता है। इस तरह चुनाव का परिणाम अतंत: सर्वाधक मत प्राप्त व्यक्ति की विजय की पद्धति (फर्स्ट पास्ट द पोस्ट सिस्टम), (अर्थात् द्वितीय मतदान स संपुष्ट प्रथम परिणाम की पद्धति) से ही निश्चित होता है। फ्रांस के तृतीय गणतंत्र के समय यही प्रणाली व्यवहृत होती थी। स्पष्टत: भारत में विधान सभा के निर्वाचन जैसे बड़े पैमाने पर होने वाले चुनावों में इस प्रणाली का प्रयोग नहीं किया जा सकता।
वैकल्पिक मत
प्रत्येक निर्वाचक उम्मीदवारों के नामों के सामने मतपत्र पर 1, 2, 3, आदि अंक लिखकर अपनी वरीयता के क्रम का संकेत कर देता है। प्रथम वरीयताओं की गणना पहले कर ली जाती है। यदि इस गणना में दो से अधिक उम्मीदवार आये तो जिस उम्मीदवार को प्रथम वरीयता के मत न्यूनतम मिले होते हैं उसका नाम चुनाव प्रतियोगिता से हटा दिया जाता है। इसके बाद मतदाताओं की द्वितीय वरीयताओं को बचे हुए उपयुक्त उम्मीदवार या उम्मीदवारों में बाँट दिया जाता है। इस प्रकार निरसन और क्रमिक वरीयताओं के अंतरण की प्रक्रिया तब तक चलती रहती है जब तक कोई उम्मीदवार पड़े हुए कुल मतों में से सर्वाधिक मत प्राप्त नहीं कर लेता।
किंतु जैसा कि पुनरावर्तित गुप्त मतदान या द्वितीय गुप्त मतदान प्रणाली में होता है उत्पन्न होने वाली प्रत्येक नयी स्थिति के संबंध में विचार विमर्श के लिए समय लेते हुए बार-बार वोट देना एक बात है और एक ऐसे चयन परिणाम के संबंध में जिसे पहले से ठीकठीक नहीं जाना जा सकता मतपत्र पर अंक लिख कर एक काल्पनिक निर्णय व्यक्त कर देना बिलकुल दूसरी बात है। इसमें पूरा संदेह बना रह जाता है कि कोई मतदाता अंतिम प्रतियोगिता में प्रत्यक्ष चयन की स्थिति आने पर भी इसी तरह "क" के मुकाबले में "ख" को ही वरीयता देता।
इस प्रणाली को बरीयतामूलक मत प्रणाली भी कहते हैं। इसे संभवत: सर्वप्रथम 1770 में चेवलियर दी बोर्दा ने प्रस्तावित किया था। 1930 में लिवरल पार्टी ने ब्रिटेन में इसे सर्वाधिक रूप में स्वीकार कर लेने का आग्रह किया था। आस्ट्रेलिया में भी कुछ संघीय एवं राज्यीय चुनावों में इसका प्रयोग किया जाता है।
कमियाँ एवं उनको दूर करने के उपाय
"सर्वाधिक मतप्राप्त व्यक्ति की विजय की प्रणाली" प्राय: सदैव ही सबसे बड़े दलों के ही अनुकूल और दुर्बल एवं अल्पसंख्यक दलों के प्रतिकूल होती है। आनुयातिक प्रतिनिधित्व का सहारा लिए बिना ही इस प्रवृत्ति को दूर करने के लिए कुछ तरीके सुझाए गए हैं किंतु इन सारी प्रणालियों के प्रयोग के लिए बहुसदस्यीय निर्वाचक क्षेत्र अपेक्षित होते हैं।"
एकल अहस्तांतरणीय मत
इसकी सरलतम विधि यह है कि प्रत्येक निर्वाचक को केवल एक ही मतपत्र दिया जाता है। मान लिजिये कि किसी निर्वाचन क्षेत्र को चार सदस्य चुनने हैं और कुल 12 हजार मतदाता वोट देते हैं। ऐसी स्थिति में यदि किसी उम्मीदवार को 2401 मतदाताओं का समर्थन प्राप्त हो गया तो उसकी विजय निश्चित है। जापान में यह प्रणाली 1900 से ही प्रयोग में आ रही हैं।
सीमित मतदान
इसे 1831 में प्रेड ने प्रस्तावित किया था। ब्रिटेन में 1867 में सुधार अधिनियम (रिफार्म ऐक्ट) के बनने के बाद कुछ समय तक इसका प्रयोग हुआ था, तब उक्त अधिनियम द्वारा बड़े नगरों में कई त्रिसदस्यीय निर्वाचक क्षेत्र बना दिये गए थे। प्रत्येक मतदाता को तीन जगहों के लिए केवल दो वोट दिये गए थे। इस प्रणाली का व्यावहारिक प्रभाव यह पड़ा था कि प्रतिनिधित्व को विभाजित कर देने के लिए पार्टियों में सौदेबजी होने लगी और ऐसे उम्मीदवार छटने लगे, जिनकी विजय की कोई संभावना नहीं थी।
संभूत मतदान (क्यूमूलेटिव वोट)
यह प्रणाली 1953 में प्रकाश में आयी। इसमें मतदाता को चुनाव क्षेत्र में जितनी जगहें होती हैं उतने वोट दे दिये जाते हैं और उसे इसकी स्वतंत्रता होती है कि वह चाहे तो अपने सारे वोटों को किसी एक उम्मीदवार के पक्ष में डाल दे अथवा अपनी इच्छानुसार अन्य उम्मीदवारों को बाँट दे। इस प्रणाली में मतदाताओं को अधिक महत्व प्राप्त हो जाता है।
कभी कभी अल्पसंख्यकों का प्रतिनिधित्व पृथक निर्वाचन प्रणाली द्वारा प्राप्त किया जाता है। अंग्रेजी शासनकाल में भारत में यही किया गया था। मुसलमान लोग हिंदुओं से अलग अपने प्रतिनिधि चुनते थे। यह भी हो सकता है। कि अल्पसंख्यकों के लिए कुछ जगहें सुरक्षित कर दी जाऐं जैसा कि भारत में परिगणित जातियों एवं कबीलो के लिए किया गया है।
आनुपातक प्रतिनिधित्व
सर्वाधिक मत प्राप्त व्यक्ति की विजय प्रणाली का अनुसरण सामान्यत: एक सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र में ही होता है जब कि आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के लिए बहु सदस्यीय निर्वाचन क्षेत्र अपेक्षित होते हैं। एक ही जगह आनुपातिक रूप में विभाजित नहीं की जा सकती। किसी निर्वाचनक्षेत्र में प्रत्येक उम्मीदवार के लिए अथवा उम्मीदवारों को खड़ा करने वाली पार्टी के लिए पड़े वोट के अनुपात में ही जगहें निर्धारित की जाती हैं।
आनुपातक प्रतिनिधित्व मुख्यत: दो प्रकार के होते हैं : (1) एकल हस्तांतरणीय वोट और (2) सूची प्रणाली। इन दोनों प्रकार के भी अनेक रूप होते हैं। इन्हें एक दूसरे से भी मिला दिया जा सकता है अथवा "फस्र्ट पास्ट द पोस्ट प्रणाली में भी इनका मिश्रण किया जा सकता है।"
एकल हस्तान्तरणीय वोट
इस प्रणाली का आविष्कार यूरोप में आधुनिक दलीय संघटन के विकास के पूर्व ही हो चुका था। 19वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही सार्वभौम मताधिकार की मांग जोरों से होने लगी थी। इस मांग का प्रतिरोध नहीं किया जा सकता था। किंतु राजनेता "बहुसंख्यकों के अत्याचार" के प्रति संशक थे। वे अल्पसंख्यकों की तथा उनके हितों की रक्षा करना चाहते थे। इसी उद्देश्य से 1857 में उदारदलीय डेनिश राजनीतिज्ञ सी. जी. आंड्रास और लंदन के बैरिस्टर टामस हेर ने इस प्रणाली का आविष्कार किया। इस प्रणाली को ख्याति मिली क्योंकि ब्रिटिश उदारतावाद के बौद्धिक नेता जॉन स्टुअर्ट मिल ने इस प्रणाली को स्वीकार कर लिया और 1861 में प्रकाशित अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "रिप्रेजेंटेटिव गवर्नमेंट" (प्रातिनिधिक शासन) में इसपर विचार किया।
इस प्रणाली के अंतर्गत चाहे जितनी भी सीटें हो मतदाता को केवल एक ही वोट प्राप्त होता है। वह उम्मीदवार के नाम के आगे 1, 2, 3, 4 आदि अंक लिखकर विभिन्न उम्मीदवारों के प्रति अपनी वरीयता का संकेत करता हुआ अपना वोट दे सकता है। इसे एक उदाहरण से स्पष्ट कर देना ठीक होगा। मान लीजिए कि एक चार सदस्यों वाला निर्वाचनक्षेत्र है। इसमें कुल 12 हजार वोट पड़े। डÜप कोटा के अनुसार जिसे कम से कम 2401 प्रथम वरीयताओं के वोट प्राप्त हो जाऐं उसका निर्वाचित हो जाना निश्चित है। अब मान लीजिए कि मैदान में 9 उम्मीदवार हैं और इनमें से केवल दो को ही डÜप कोटा से अधिक मत मिलते हैं- एक को 2451 और दूसरे को 2481; बचे हुए वोट शेष उम्मीदवारों में बँट जाते हैं। प्रथम गणना में उक्त दोनों उम्मीदवार निर्वाचित घोषित कर दिए जाते हैं। इसके बाद दूसरी गणना होगी। द्वितीय गणना में न्यूनतम वोट प्राप्त करनेवाले उम्मीदवार को मैदान से हटा दिया जा सकता है और निरस्त प्रत्याशी की द्वितीय वरीयताएँ तथा दोनों विजयी प्रत्याशियों के अतिरिक्त मतपत्र शेष उम्मीदवारों को हस्तांतंरित किये जा सकते हैं। दूसरा तरीका यह है कि उनके सभी मतदाताओं की द्वितीय वरीयताएँ देख ली जाऐं, शेष उम्मीदवारों में से प्रत्येक को प्राप्त कुल वोट गिन लिए जाऐं और प्रत्येक को मिले कुल वोट का भाग दे दिया जाए। (अतिरिक्त वोट श्र् विजयी उम्मीदवार को मिले कुल वोट) इस प्रकार दोनों उम्मीदवारों में से जिसे भी डÜप कोटा मिल जाए उसे निर्वाचित घोषित कर दिया जाए। वोटों की गणना इसी तरह तब तक चलती जाएगी जब तक सभी सीटों के लिए डÜप कोटा प्राप्त करने वाले उम्मीदवार न मिल जाऐं।इसका उद्देश्य प्रत्येक वोट को एक मूल्य प्रदान करना है।
आयरलैंड और टसमानिया के गणतंत्रों में मुख्य प्रातिनिधिक सभा के चुनावों के लिए इसी प्रणाली का उपयोग किया गया है। आस्ट्रेलिया और न्यू साउथवेल्स के द्वितीय सदनों (सेकंड चैंबर्स) के चुनाव में भी इसका उपयोग होता है। भारत में भी विधान परिषदों (उच्च सदनों) के सदस्यों के चुनाव में यही प्रणाली अपनायी जाती है।
सूची प्रणाली
आनुपार्तिक प्रतिनिधित्व का यह दूसरा प्रकार है। इसके अंतर्गत प्रत्येक मतदाता से कहा जाता है कि वह व्यक्तिगत उम्मीदवारों में चुनाव न करके उम्मीदवारों की उन सूचियों में चुनाव करे जो विभिन्न दलों या संघटनों द्वारा प्रस्तुत की गई हैं।
बेलिजयम में 1899 में यही तरीका अपनाया गया था। हालैंड डेन्मार्क, नार्वें, स्वीडन, फिनलैंड, फ्रांस, पश्चिमी जर्मनी और इटली में भी यही तरीका प्रचलित है।
इस प्रणाली के विभिन्न रूप होते हैं। यहाँ दो प्रमुख रूपों पर विचार किया जा रहा है। इनमें से एक को "सर्वोच्च औसत द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व" कहते हैं। बेलजियम के डी" हांट ने इसका उद्भावन किया था, इसीलिए इसे डी, हांट का नियम भी कहते हैं।
सीटों का बटवारा एक-एक करके होता है। यदि किसी उम्मीदवार को संबंधित सीट मिल गयी तो प्रत्येक सीट के लिए प्राप्त सर्वाधिक औसत मतपत्र पानेवाला प्रत्येक उम्मीदवार सूची में स्थान पा जाता है। इस परिणाम को प्राप्त करने का सूत्र यह है कि प्रत्येक विनिधान के अवसर पर प्रत्येक सूची के कुल आरंभिक वोट तब तक प्राप्त सीटों की संख्या से एक अधिक द्वारा विभक्त कर दिए जाते हैं। प्रथम विनिधान (बंटवारा) के समय प्रत्येक सूची के लिए विभाजक, होता है। और इसी कारण सूचियों के आरंभिक वोट ही औसत होते हैं। द्वितीय विनिधान के समय विजयी सूची का विभाजक 2 होगा जब कि शेष का विभाजक 1 ही रह जाता है। इसी तरह तीसरे और चौथे विनिधान के समय भी सीटों का बँटवारा किया जाता है।
दूसरी विधि "महत्तम शेष" द्वारा आनुपातिक प्रतिनिधित्व कहते हैं। इसमें निर्वाचनलब्धि का हिसाब पड़े हुए कुल वोटों की संख्या को नियत सीटों की संख्या से विभाजित करके लगा लिया जाता है। फिर प्रत्येक सूची को उतने ही स्थान दे दिए जाते हैं जितनी बार उक्त लब्ध संख्या प्रत्येक सूची में आयी होती है। यदि इसके बाद भी कुछ सीटें बच जाती हों तो उनका विनिधान प्रत्येक सूची के आंरभिक वोटों से उन वोटों को, जिनका लब्धि द्वारा किसी एक या अनेक सीटों को प्राप्त करने में वह उपयोग कर चुकी है, निकालकर बचे हुए वोटों की संख्या के विस्तार के अनुसार आनुक्रमिक गति से कर दिया जाता है।

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