शनिवार, 8 फ़रवरी 2014

श्रीलंका: तमिल समस्या के वैश्विक निहितार्थ

श्रीलंका में तमिल समुदाय पर हो रहे अत्याचारों को रोकने के साथ ही साथ उनकी जमीनों, घरोंबस्तियों और गांवों  को  बचाने की रणनीति बनाने हेतु लंदन में ब्रिटिश संसद 'हाउस ऑफ कॉमन्स' के एक सभागार में 31 जनवरी को एक वैश्विक बैठक का आयोजन किया गया था। इस बैठक में ब्रिटेन के विभिन्न दलों के सांसदों के अतिरिक्त श्रीलंका, भारत, अमेरिका, जर्मनी, बंगलादेश आदि देशों के सैकड़ों नागरिक उपस्थित थे।  गौरतलब है कि सन् 2002 से प्रारंभ हुए युध्द के अंतिम दौर में ही तकरीबन 1,50,000 ऐसे लोग मारे गए थे, जिन्हें युध्द से प्रभावित होने से बचाने के लिए श्रीलंका सरकार द्वारा सुरक्षा क्षेत्र में रखा गया था। लेकिन बाद में बड़ी निर्ममता के साथ बमबारी कर उन्हें मार डाला गया। इतना ही नहीं इस दौरान विद्यालयों, घरों और अस्पतालों पर भी बमबारी की गई थी। गौरतलब है कि सन् 2006 में युध्दविराम लागू होने के पहले मृत व्यक्तियों की गिनती तो आज तक सामने आई ही नहीं है। इस प्रक्रिया में लाखों विस्थापित हो गए और आज वे भारत से लेकर जर्मनी तक तमाम देशों में बसे हुए हैं। इसके बावजूद इस घृणित अपराध की सजा भुगतने को शासक वर्ग तैयार नहीं है।

इराक युध्द से लेकर अफगानिस्तान युध्द तक सभी में वैश्विक ताकतें खुले रूप में शामिल थीं। ऐसे में वहां हुई हत्याओं के लिए जिम्मेदार ठहराने की हिम्मत किसी में भी नहीं थी। लेकिन श्रीलंका में हुए हत्याकांडों की आवाज दुनिया भर में रहने वाले तमिलों ने जोर-शोर से उठाई। संयुक्त राष्ट्रसंघ के महासचिव के साथ कार्य कर चुके ब्रुसे फेनेने ने श्रीलंका के सेनाप्रमुख एवं राष्ट्राध्यक्ष महेंद्र राजपक्षे को आरोपी बनाकर अंतरराष्ट्रीय न्यायालय का दरवाजा खटखटाया था। राजपक्षे के अमेरिकी व श्रीलंका दोनों देशों के नागरिक होने के नाते उन्हें अमेरिकी न्यायालय वर्ष 2007 में हुए जातीय नरसंहार के अपराध में दोषी ठहरा सकते थे। किन्तु सं.रा. संघ के राजनायिकों को दी जाने वाली छूट की आड़ में उन्हें सुरक्षा कवच पहना दिया गया।

श्रीलंका विवाद में यह तय हो गया कि इस सुंदर व समृध्द टापू देश को सिंहली समाज द्वारा केवल 'अपना' घोषित करना ही एक तरह से आतंक का पर्याय था। ऐसा ही दर्प भंडारनायके के शासन के दौरान सिंहली भाषा कानून की घोषणा के समय भी सामने आया था। लेकिन इस सबके पहले से भूमि के मुद्दे पर बहुसंख्यक सिंहली, तमिलों की विरोध करते आए थे। तमिल बहुसंख्यक क्षेत्रों व उत्तर श्रीलंका में भूमि सुधार के नाम पर हुए भूमि बंटवारे में वहां सिंहली परिवारों को बसाया गया। यह एक प्रकार की जबरदस्ती ही थी। भारत में जिस प्रकार अंग्रेजों ने सन् 1935 में भूमि की कानूनी बंदोबस्ती प्रारंभ की थी ठीक वैसे ही श्रीलंका में भी तोड़ो (फूट डालो) और राज करो की नीति अपनाई गई। इससे तमिल प्रदेश में जातीय समीकरण बदलने लगा और असंतोष भी बढ़ा। सन् 1951 में किसान संगठन ने शांतिपूर्ण आंदोलन कर तमिल चेतना जागृत की और अपनी सामाजिक व सांस्कृतिक विविधता का हवाला देते हुए अल्पसंख्यकों की रक्षा का मामला उठाया। लेकिन बावजूद इसके इस समस्या पर ध्यान नहीं दिया गया। परिणाम यह हुआ कि सांख्यकीय स्थितियां बदलती गई। सन् 1901 से 2012 के दौरान जहां पूर्व में तमिलों की जनसंख्या में 537 प्रतिशत की वृध्दि हुई वहीं सिंहलियों की जनसंख्या में 3991 प्रतिशत की वृध्दि हुई। ऐसा ही त्रिकोनामाली व अन्य स्थानों पर भी हुआ है।

भारत के उत्तरपूर्व की स्थिति भी यहां से काफी समानता वाली है। हाल ही में महाराष्ट्र में भी प्रांतवाद एक मुद्दा बन गया है। जाहिर है कि ऐसे मामलों से जातीय संघर्ष में वृध्दि होती ही है। इस प्रक्रिया में भूमि व प्राकृतिक संसाधन ताकतवर वर्ग के हाथ में पहुंच जाते हैं। श्रीलंका में तीन दशकों तक चले युध्द ने हमें यही तो सिखाया है। दोनों पक्षों द्वारा सन् 2006 के युध्द विराम को तोड़े जाने को भारत जैसे बड़े पड़ोसी देश की मध्यस्थता भी नहीं रोक पाई। अपनी विफलता के बावजूद हमने युध्द का समर्थन नहीं किया, लेकिन राजपक्षे सरकार द्वारा श्रीलंका के संविधान में किए गए 13वें संशोधन की आड़ में 17 सदस्यीय समिति की सिफारिशों को जबरन अमल में लाने के कारण न केवल सत्ता का केंद्रीकरण हुआ, बल्कि तमिलों के स्वनिर्धारण की मांग को युध्द से कुचलने का मौका भी मिल गया। इस महाभयंकर हत्याकांड की तुलना किसी अन्य घटना से नहीं की जा सकती। वैसे भी इस फासिस्ट व नस्लवादी हिंसा की तुलना असंभव ही है। दुनिया भर में हो रही भर्त्सना व सं.रा. संघ के पूर्व अधिकारियों, तमिल समुदाय व तमिल राजनेताओं के बढ़ते आक्रोश के मद्देनजर भारतीय प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह राष्ट्रमंडल सम्मेलन में भाग लेने श्रीलंका नहीं पहुंचे। यहां विदेशमंत्री ने भारत का प्रतिनिधित्व किया था। लेकिन इस सम्मेलन में युध्द अपराधों पर न तो कोई बात हुई और 1500 व्यक्तिगत मामलों (युध्द अपराध संबंधी) पर भी कोई कार्रवाई नहीं हो पाई। गौरतलब है श्रीलंका में अब 'भूमि' का मामला तूल पकड़ता जा रहा है। इसमें राय द्वारा भूमि हड़पना और तमिल समुदाय को जीविका से वंचित रखना एक नई चुनौती है और यह हिंसा का नया प्रकार है। युध्द के दौरान हजारों एकड़ जमीनें (10500 एकड़) सैनिक शिविर के नाम पर अधिग्रहित कर ली गई। इस दौरान सुदूर क्षेत्रों में तथाकथित कल्याणकारी गांव व केंद्र बनाए गए। जाफना में 6500 एकड़ निजी जमीन सैन्य शिविर हेतु ले ली गई। निजी पट्टों वाली इन जमीनों पर अब किसान नहीं, बल्कि सैनिक खेती करते हैं और उपज बेचकर कमाई करते हैं। इतना ही नहीं, खुली पड़ी जमीनों पर बिना अधिग्रहण कानून का पालन करे चीन व अन्य देशों की कंपनियों को पूंजी निवेश के नाम पर स्पेशल इकॉनामिक जोन (विशेष आर्थिक क्षेत्र) में लाने का न्यौता पिछले पांच वर्षों से लगातार दिया जा रहा है। राजनीति के इस सैन्यीकरण को कभी भी स्वीकार नहीं किया जा सकता।

इस प्रकार पूंजीवाद और नई आर्थिक नीति केंद्रित बाजारवाद, एक बार पुन: तमिल क्षेत्रों को लील रहा है। आज भी डेढ़ से दो लाख सैनिक उत्तरी तमिल प्रदेशों में जमे हुए हैं। यह स्थिति की गंभीरता व इसका एकपक्षीय होना दर्शाता है। इसी के समानांतर ताप विद्युतगृहों व मेगा सिटी जैसी अनेक योजनाएं तमिल बसाहटों और गांवों को खत्म करने की साजिश ही है। लंदन सम्मेलन में इस प्रकार की हिंसा की खुले तौर पर निंदा की गई। सैनिक शिविरों और सैन्यीकरण के अलावा विकास परियोजनाओं के नाम पर भूमि की बंदरबाट  श्रीलंका के तमिल क्षेत्र में ही नहीं, बल्कि दक्षिण एशिया सहित दुनियाभर के देशों में आम हो गई है। किसान मजदूर, मछुआरे सभी इस विस्थापनवादी व विषमतावादी विकास मॉडल से हैरान हैं। भारत के तमिलनाडु में श्रीपेरेम्बदूर, शिरुमंगलम जैसे अनेक जिलों में 1500 से 2000 एकड़ तक जमीन बलपूर्वक अधिग्रहित कर वहां पर ब्रिटेन और यूरोप की कंपनियों को लाया जा रहा है। इसमें अंतरराष्ट्रीय वित्तीय एजेंसियों का हित भी जुड़ा रहता है। तमिल व सिंहली समुदाय दोनों ही आपसी संघर्ष में अंतत: घाटे में रहेंगे और महावेली जैसी बड़ी सिंचाई योजनाएं सिंहली व तमिलों में से किसी को भी बक्शेगी नहीं। अतएव श्रीलंका की तमिल जनता के प्रति शांति न्याय व जनतंत्र के दृष्टिगत ही व्यवहार किया जाना चाहिए।


तमिल नेशनल अलायंस के प्रतिनिधि मान रहे हैं, कि महज चुनावी राजनीति से इस स्थिति से निपटा नहीं जा सकता। इस हेतु विकेंद्रित शासन प्रणाली की आवश्यकता है। हम सबको अपने वंचित वर्ग को संभालना व बचाना होगा। किसी समुदाय को वहां की भूमि, प्रकृति व संस्कृति ही बचाती है। तमिलों को पूर्ण मताधिकार प्रदान किए जाने के साथ ही उनकी भूमि को भी बचाना ही होगा, तभी उनकी जीविका और जीवन चल सकता है। वैश्वीकरण, कंपनीकरण व उदारीकरण के इस मॉडल को स्थानीयता के आधार पर चुनौती देना होगी तथा वैकल्पिक विकास व पुनर्वास का कार्य भी साथ-साथ करना होगा। गौरतलब है कि पुनर्निमाण आज श्रीलंका की सबसे बड़ी चुनौती है। लंदन में हुई इस बैठक में विभिन्न राष्ट्रों, व्यवसायों, और पृष्ठभूमि से आए व्यक्ति इस बात पर एकमत थे कि इस चर्चा को मूर्तरूप देना अनिवार्य है।  

शुक्रवार, 7 फ़रवरी 2014

सामाजिक बदलाव के दस साल

हाल के वर्षों में दुनिया भर की युवा सोच को जितना फेसबुक ने बदला है, उतना शायद ही मीडिया के किसी और साधन ने। ज्वलंत मुद्दों पर टिप्पणी से लेकर देश-दुनिया पर फौरी प्रतिक्रियाओं के मंच के रूप में इस सोशल नेटवर्किंग साइट का जवाब नहीं है।

नवोन्मेषी अमेरिकी युवा मार्क जुकरबर्ग और उनके साथियों ने एक दशक पहले जिसकी शुरुआत हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के छात्रों को जोड़े रखने की वेबसाइट के तौर पर की थी, आज वह एक विशाल कंपनी है, जिसके 1.2 अरब से भी अधिक यूजर्स हैं।

जिस दौर में पारिवारिक और सामाजिक रिश्तों के खत्म होने की बात की जाती है, उस दौर में फेसबुक ने लोगों को अपने दोस्तों से जुड़ने, बात करने और तस्वीरें साझा करने की सुविधा उपलब्ध कराई है। जिन परिचितों से हमारे संबंध सूत्र वर्षों पहले छिन्न हो चुके हैं, फेसबुक पर उनसे मुलाकात के दृष्टांत तो असंख्य हैं।

यही नहीं, फेसबुक ने अरब वसंत को संभव बनाया, तो अभिव्यक्ति पर रोक के बावजूद चीन की तिब्बत पर दादागीरी को सार्वजनिक कर सोशल मीडिया के रूप में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका साबित की! पिछले एक दशक में हुए तकनीकी बदलाव ने भी इसे लोकप्रिय बनाने में बड़ी मदद की है।

अमेरिका में वयस्कों की एक तिहाई आबादी फेसबुक पर ही खबरें देखती है, तो अपने यहां के फेसबुक यूजर्स द्वारा आगामी लोकसभा चुनाव में सौ से अधिक सीटों के नतीजों को प्रभावित करने की संभावना जताई जा रही है। चाहे पटना में लालू यादव के बेटे तेजस्वी का अपने फेसबुक फ्रैंड्स से मिलने का उदाहरण हो या हिंदी सिनेमा के इतिहास में पहली बार एक फिल्म का फेसबुक पर भी रिलीज होने की ताजा घटना, ये सब हमारे सार्वजनिक जीवन में इसकी बढ़ती पैठ के ही उदाहरण हैं।


इन सबके बावजूद फेसबुक आभासी दुनिया को ही प्रतिबिंबित करता है, वह हमारे असली जीवन का विकल्प नहीं बन सकता। जब दुनिया की करीब दो तिहाई आबादी कंप्यूटर और इंटरनेट से वंचित है, तब फेसबुक को हमारे सामाजिक जीवन का आईना मानने का तो सवाल ही नहीं है। फिर आने वाले दिनों में फेसबुक की लोकप्रियता घटने की बात भी कही जा रही है। इसके बावजूद फेसबुक के जरिये हमारे जीवन में आए बदलाव की अनदेखी करना मुश्किल है।

लोकतंत्र में सामंतवाद

भारत में वीवीआइपी की श्रेणी में केवल तीन पद हैं-राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति और प्रधानमंत्री, परंतु वीआइपी की सूची बड़ी लंबी है। वीआइपी अपने लिए विशेषाधिकारों की मांग जोर-शोर से उठाते रहते हैं। सांसदों का वर्ग ऐसा है कि वे अपनी तनख्वाह तथा सुविधाएं स्वयं तय करते हैं। साथ-साथ अपने विशेषाधिकार भी स्वयं ही परिभाषित करते हैं। इस साल महात्मा गांधी की पुण्यतिथि के ठीक एक दिन पहले यह खबर आई कि नागरिक उड्डयन महानिदेशालय ने निजी एयरलाइनों को आदेश जारी किया है कि एयर इंडिया की तरह वे भी सांसदों की खातिरदारी करें। 10 दिसंबर, 2013 को उच्चतम न्यायालय ने निर्देश दिया कि केवल संवैधानिक पदों पर आसीन अधिकारियों को ही गाड़ी में लालबत्ती के इस्तेमाल की इजाजत होनी चाहिए। अदालत ने स्पष्ट किया कि आपातकालीन सेवाओं में इस्तेमाल होने वाली गाड़ियों में नीली बत्ती लगाई जा सकती है।

लोकतंत्र का अभ्युदय ही सामंतवाद के विद्रोह के रूप में हुआ। लोकतंत्र समता और समानता के सिद्धांत पर आधारित है, जो प्रजा को नागरिक बना देता है। जहां विकसित लोकतंत्रों में मंत्री और सांसद आम आदमी की तरह घूमते नजर आते हैं वहीं भारत में सामंती विशेषाधिकारों को पुनस्र्थापित करने की कोशिशें जारी हैं। हर राजनीतिक पार्टी और सरकार आम आदमी की बात करती है, किंतु आम जन तथा अभिजन के फर्क को बढ़ाने का काम भी लगातार चलता रहता है। बराबरी का सिद्धांत सबसे पहले 1776 के अमेरिकी स्वतंत्रता संग्राम में आया, क्योंकि वहां सामंतवाद का कोई इतिहास नहीं था। 1787 के अमेरिकी संविधान में समानता का सिद्धांत प्रतिपादित किया गया, हालांकि अश्वेतों को उनका हक नहीं दिया गया। यह नस्ल के आधार पर भेदभाव जरूर था, लेकिन संवैधानिक स्तर पर समानता के सिद्धांत को स्वीकृति प्राप्त हुई। फ्रांसीसी क्त्रांति ने अभिजन और आमजन की दूरी को पाटने का काम किया। रूसो ने अपनी पुस्तक सोशल कांट्रेक्ट में आम इच्छा की बात कही, जिससे फ्रांसीसी क्त्रांति को प्रेरणा मिली। एडमंड बर्क ने इस क्त्रांति के विरुद्ध ब्रिटिश संसद में भाषण दिया और एक किताब भी लिख डाली कि सत्ता विशिष्ट लोगों के हाथ में बनी रहनी चाहिए। इसके जवाब में थॉमस पेन की चर्चित पुस्तक राइट्स ऑफ मैन (1791) प्रकाशित हुई। पेन ने फ्रांसीसी क्त्रांति का जोरदार समर्थन करते हुए लिखा कि यदि सरकार आम आदमी के हितों की रक्षा करने में नाकामयाब रहती है तो जनता को हक है उसके विरुद्ध आंदोलन करने। पेन के विरुद्ध ब्रिटेन में देशद्रोह का मुकदमा उनकी अनुपस्थिति में चला और उन्हें फांसी की सजा सुनाई गई, किंतु फांसी दी नहीं जा सकी, क्योंकि वह फ्रांस में थे।

ब्रिटेन में वैसे तो लोकतंत्र का प्रारंभ 1688 की क्त्रांति से ही माना जाता है, परंतु वह सम्राट तथा संसद के बीच वर्चस्व की लड़ाई थी और संसद अभिजात्य वर्ग की ही प्रतिनिधि थी। पहले केवल कुलीनों को मताधिकार प्राप्त था। धीरे-धीरे अन्य वगरें को यह हक मिला। लेबर पार्टी के मजबूत होने पर वहां समाजवाद का भी अच्छा असर पड़ा। अंग्रेजों ने अपने यहां तो सामंती व्यवस्था काफी हद तक खत्म कर दी, लेकिन अपने उपनिवेशों में जबर्दस्त सामंतशाही की नींव डाली। इसलिए दिल्ली में वायसराय के लिए बनाया गया बंगला (जो अभी राष्ट्रपति भवन है) बकिंघम पैलेस से ज्यादा भव्य है। जिलों में कलेक्टरों और पुलिस अधीक्षकों की विशाल कोठियां भी उसी की प्रतीक हैं। इसकी एक वजह यह भी थी कि भारत आने वाले अंग्रेजों में अधिकतर स्कॉटलैंड के थे जो उतने विकसित और संपन्न नहीं थे। इसलिए उनमें सामंती प्रवृति कुछ ज्यादा ही थी।


स्वाधीनता संग्राम के नेता उदात्त मूल्यों को आत्मसात कर और बड़े त्यागकर आंदोलन में कूदे थे। बड़े-बड़े वकीलों ने अपनी लाखों की प्रैक्टिस को एक झटके में छोड़ दिया। महात्मा गांधी ने लंगोटी पहनकर स्वयं को आम लोगो से जोड़ा। मोतीलाल नेहरू जैसे बड़े वकील ने भी सादगी का रास्ता चुना। जो अपनी यात्रा के लिए ट्रेन का पूरा डब्बा आरक्षित कराते थे वह द्वितीय श्रेणी में चलने लगे। 1921 की एक घटना हैं। मोतीलाल ट्रेन से इलाहाबाद से कोलकाता जा रहे थे। वह द्वितीय श्रेणी में सफर कर रहे थे। उसी ट्रेन में जवाहरलाल नेहरू भी तृतीय श्रेणी में यात्रा कर रहे थे। गाड़ी जब पटना पहुंची तो जवाहरलाल नीचे उतरकर प्लेटफॉर्म पर टहलने लगे जहां उनकी मुलाकात राजेंद्र प्रसाद से हो गई। राजेंद्र बाबू भी कोलकाता जा रहे थे और उन्होंने तृतीय श्रेणी का टिकट ले रखा था। जवाहरलाल उन्हें अपने पिता से मिलवाने ले गए। मोतीलाल ने राजेंद्र प्रसाद से पूछा कि वह किस श्रेणी में यात्रा कर रहे हैं। जब राजेंद्र प्रसाद ने बताया कि वह तृतीय श्रेणी में हैं तो मोतीलाल नेहरू ने कहा कि वह खुद प्रथम श्रेणी से नीचे द्वितीय श्रेणी में आ गए हैं और राजेंद्र बाबू को सलाह दी कि वह थोड़ा ऊपर आ जाएं और द्वितीय श्रेणी में चलें। फिर उन्होंने बेटे जवाहरलाल के बारे में कहा कि इनकी उम्र अभी मौज करने की है, किंतु वह तृतीय श्रेणी में यात्रा कर रहे हैं। मोतीलाल की सलाह के बावजूद राजेंद्र प्रसाद ने तृतीय श्रेणी में ही यात्रा की। 1937 में जब पहली कांग्रेसी सरकार कई प्रांतों में बनी तो मंत्री ट्रेन के तीसरे क्लास में ही यात्रा करते थे। आजादी के बाद कई केंद्रीय मंत्री, मुख्यमंत्री बिना लंबे-चौड़े काफिले के चलते थे। उनमें आम आदमी का अक्स दिखाई देता था। इंद्रजीत गुप्त सांसद के रूप में वेस्टर्न कोर्ट के एक कमरे में रहते ही थे। 1996 में केंद्रीय गृहमंत्री बनने के बाद भी उन्होंने कोठी नहीं ली। वेस्टर्न कोर्ट में ही तीन-चार और कमरे लेकर उन्होंने काम चला लिया। आज यह समृद्ध परंपरा लोप हो गई है। अब सांसद ही नहीं, वह हर व्यक्ति जिसकी थोड़ी भी हैसियत है अपने को विशिष्ट मानकर आम आदमी से नफरत करता है।

गुरुवार, 6 फ़रवरी 2014

निधि की विधि

कमरतोड़ महंगाई, आय के असमान वितरण तथा गिरती विकास दर ने देश के लगभग बीस करोड़ मध्यवर्ग को हिलाकर रख दिया है। बदहाल आर्थिक स्थिति के कारण इस तबके के मन में यह डर गहराता जा रहा है कि उसे देश के संपन्न तीन फीसदी लोग गरीबों की जमात में धकेलने पर आमादा हैं। शिक्षा और संपन्नता का स्वाद चख चुका महत्वाकांक्षी मध्यवर्ग इसी कारण बेचैन है। स्थापित राजनीतिक दलों और मौजूदा व्यवस्था से उसका भरोसा उठता जा रहा है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी का उदय इसी आक्रोश का परिणाम है। ताकत बढ़ाने के लिए यह वर्ग अपने साथ बहुसंख्यक गरीब तबके को जोडऩे की रणनीति बना रहा है। देश की आर्थिक परिस्थिति से नये राजनीतिक समीकरण उभर रहे हैं। सयाने लोग भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को कांग्रेस और मोदी को राहुल गांधी का विकल्प मानने को राजी नहीं हैं। केंद्र में सत्ता का सपना देख रही भाजपा से कांग्रेस की आर्थिक नीतियों का विकल्प पूछा जा रहा है। इस यक्ष-प्रश्न का उत्तर भाजपा या मोदी के पास नहीं है। जानकारों को पता है कि भाजपा तथा कांग्रेस की आर्थिक नीतियों में कोई मूल भेद नहीं है। दोनों पार्टियां आर्थिक उदारीकरण और बाजार आधारित अर्थव्यवस्था की पैरोकार हैं। उनमें लड़ाई कुर्सी पर कब्जे के लिए है, नीतियां बदलने के लिए नहीं।

बात आगे बढ़ाने से पहले देश की मौजूदा आर्थिक स्थिति का जायजा लिया जाना जरूरी है। योजना आयोग का दावा है कि पिछले सात साल में देश की 15.3 प्रतिशत आबादी को गरीबी और गुरबत से बाहर निकाला जा चुका है। सरकार दावा कर रही है कि आज देश में केवल 21.9 प्रतिशत लोग गरीबी की रेखा से नीचे हैं। सरकारी मापदंड के अनुसार एक महीने में गांव में रहने वाले आदमी की आय यदि 816 रुपये और शहर में निवास करने वाले की एक हजार रुपये है तो वह संपन्न है। इस सरकारी झूठ की काट के लिए कुछ और आंकड़े देना जरूरी है। भारत सरकार के नेशनल फैमिली हेल्थ सर्वे-3 (2005-06) के अनुसार देश में छह से 35 माह आयु वर्ग के 78.9 प्रतिशत बच्चे और 15 से 49 वर्ष आयु वर्ग की 56.2 फीसदी विवाहित महिलाएं एनीमिक (खून की कमी) से पीडि़त हैं। ताजा जनगणना (वर्ष 2011) के आंकड़े बताते हैं कि भारत के 53.1 प्रतिशत घरों में शौचालय नहीं है और जहां हैं वहां 47 फीसदी में पानी का कोई बंदोबस्त नहीं है। 71 प्रतिशत घरों की छतें कंक्रीट नहीं, मिट्टी-घास या टायल से बनी हैं। 52.5 प्रतिशत घरों की दीवारें ईंट नहीं, पत्थर-मिट्टी या घास से बनी हैं तथा 37.1 फीसदी घर केवल एक कमरे के हैं। आजादी के 67 साल बाद भी 70 प्रतिशत से ज्यादा घरों का चूल्हा लकड़ी, गोबर के उपलों या मिट्टी के तेल से जलता है। देश की आधी से ज्यादा आबादी आज भी खुले में नहाने को मजबूर है। ये सारे आंकड़े सरकार के कंगाली कम करने के दावे की पोल खोलते हैं। मामूली समझ रखने वाला व्यक्ति भी जानता है कि यदि कोई संपन्न होगा तो वह खुले में शौच नहीं जाएगा, आसमान के नीचे नहीं नहायेगा, कच्चे घर में नहीं रहेगा तथा खाना बनाने के लिए गैस के बजाय उपले या लकड़ी का इस्तेमाल नहीं करेगा। अपने बच्चों और बीवी की खून की कमी या कुपोषण जैसी जानलेवा कमजोरी तो कतई बर्दाश्त नहीं करेगा।

बाजार के इशारों पर नाच रही हमारी अर्थव्यवस्था की प्राथमिकता जलकल्याण नहीं, मुनाफा है। राजकोषीय घाटे को कम करने के लिए राशन, बिजली, खाद, पानी, रोजगार आदि से जुड़ी जनकल्याणकारी योजनाओं में दी जा रही सबसिडी घटाने का सरकार पर भारी दबाव है। सीधे-सीधे सबसिडी कम करने से जन-आक्रोश पनपेगा, इसलिए आंकड़ों की बाजीगिरी कर गरीब आबादी को कम दिखाने की साजिश रजी जा रही है। गणित सीधा-सीधा हैजितने कम गरीब होंगे, सबसिडी का बोझ उतना ही कम हो जायेगा और सबसिडी जितनी कम होगी, राजकोषीय घाटा उतना ही घट जायेगा।

यह तो था आर्थिक मोर्चे का कड़वा सच। अब जरा न्याय व्यवस्था और उससे गरीब व मध्य वर्ग पर पड़ रही चोट का खाता खोला जाए। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के अनुसार पिछले चालीस साल में भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) के तहत दर्ज अपराधों में सजा मिलने की दर घटकर लगभग आधी रह गई है। ऐसे मामलों में 1972 में सजा मिलने का प्रतिशत 62.7 था जो सन् 2012 आते-आते गिरकर 38.8 फीसदी रह गया। हत्या, बलात्कार और डकैती जैसे जघन्य अपराधों के आरोपियों को सजा मिलने का औसत तो और भी कम है। हत्या के 35.6 फीसदी, डकैती के 28.5 फीसदी और बलात्कार के महज 24.5 फीसदी आरोपियों को अदालत दंड देती है। 1972 में थानों में दर्ज 30.9 प्रतिशत मामलों की जांच पूरी कर पुलिस ने अदालत में चार्जशीट दाखिल की, जबकि चार दशक बाद यह आंकड़ा गिरकर मात्र 13.4 प्रतिशत रह गया। अगर अदालत में किसी तरह मुकदमा शुरू हो जाये, तब भी फैसला आने में अकसर एक दशक लग जाता है। यदि निचली अदालत के निर्णय में उच्च न्यायालय और उच्चतम न्यायालय तक जाने और वहां फैसला आने के समय को जोड़ दिया जाये तो कई बार न्याय मिलने से पहले ही फरियादी की मौत हो जाती है। हम मामूली अपराध के आरोपियों को मिलने वाले दंड का जिक्र नहीं कर रहे हैं क्योंकि ऐसे केस तो आज पुलिस की जांच प्रक्रिया की प्राथमिकता में बहुत पिछड़ चुके हैं। न्याय प्रक्रिया में व्याप्त भ्रष्टाचार, वहां होने वाले भारी खर्चे और दशकों की देरी का हिसाब लगाएं तो यही लगता है कि कानून का दरवाजा खटखटाना अब गरीब और मध्य वर्ग के बूते से बाहर हो चुका है।


खस्ताहाल गरीब व मध्य वर्ग तथा न्याय प्रणाली की कछुआ चाल जानकर यही कहा जाएगा कि देश की मौजूदा परिस्थितियां विस्फोटक हैं। आम आदमी बेताबी से विकल्प खोज रहा है। बदलाव के लिए बड़े कदम उठाए जाने जरूरी हैं। पिछले दो दशकों में खुली अर्थव्यवस्था की डगर पर चलने के बाद गरीब और अमीर के बीच की खाई और चौड़ी हो गई है। चमचमाते हवाई अड्डे, लग्जरी मोटर गाडिय़ों, विशाल अट्टालिकाओं और मुठ्ठीभर अरबपतियों को देखकर देश की असलियत का अंदाजा नहीं लगाया जा सकता। गरीब और मध्य वर्ग के आक्रोश व पीड़ा का निदान शीघ्र खोजा जाना जरूरी है।

उद्योग क्षेत्र बदले तभी बदलेगी तस्वीर

देश का औद्योगिक परिदृश्य बेहद निराशाजनक है। नवंबर, 2013 के औद्योगिक उत्पादन सूचकांक (आईआईपी) के आंकड़े 2008-09 में आई वैश्विक मंदी जैसे चिंताजनक स्तर पर पहुंच गए हैं। ऐसे में, मौजूदा वित्त वर्ष के औद्योगिक उत्पादन में बहुत मजबूती की उम्मीद नहीं की जा सकती है। पिछले छह महीनों में खासकर महंगे उपभोक्ता सामान का उत्पादन घट जाने के चलते ही ऐसी स्थिति देखने को मिली है। अंतरराष्ट्रीय वित्त निगम द्वारा जारी नई विश्व कारोबारी परिदृश्य रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में कारोबार शुरू करने के लिए 12 प्रक्रियाओं से गुजरना पड़ता है, जबकि दक्षिण एशियाई देशों में सात प्रक्रियाओं से और विभिन्न विकसित देशों में केवल पांच स्तरों से गुजरने के बाद कारोबार शुरू किया जा सकता है। विदेशी निवेशक यहां निवेश के लिए उत्सुक नहीं हैं। देश के अर्थशास्त्री और योजनाकार भी जीडीपी में विनिर्माण क्षेत्र की घटती हिस्सेदारी को लेकर खासे चिंतित हैं।

यदि औद्योगिक उत्पादन नहीं सुधरा, तो एजेंसियां हमारी क्रेडिट रेटिंग घटा सकती हैं। महंगाई दर को काबू करने के लिए ऊंची ब्याज दरों का जारी रहना, निवेश की कमी, बाहरी पूंजी प्रवाह की घटती दर और नीतिगत फैसलों के मोर्चे पर कमी की वजह से अर्थव्यवस्था की रफ्तार में कमी आई है। उभरते बाजार वाले अधिकांश देशों ने तीन साल पहले नौ फीसदी के स्थायी विकास वाले दौर में जबर्दस्त आर्थिक तरक्की का अनुभव किया है। भारत बढ़िया विकास दर के प्रदर्शन के बाद पांच फीसदी की दर पर लौट आया है, तो यकीनन विकास की इसकी विशिष्ट छवि को नुकसान पहुंचा है। देश के छोटे-बड़े उद्योग पूंजी की कमी और महंगे कर्ज के कारण परेशान हैं।

घरेलू मांग में कमी के कारण उत्पादन कार्य कठिनाई के दौर में है। उद्योगों की लागतें बढ़ गई हैं। बीमार औद्योगिक इकाइयों की संख्या तेजी से बढ़ रही है। इसे देखते हुए हमें निवेशकों का विश्वास प्राप्त करना होगा। इसके अतिरिक्त, हमें राजस्व में सुधार लाने की भी आवश्यकता है। हमें ईंधन और उर्वरक के क्षेत्र में सब्सिडी को तार्किक बनाना होगा। इस बात पर ध्यान देना होगा कि सस्ते कर्ज से भारत का औद्योगिक और आर्थिक विकास नई गति प्राप्त कर सकता है। जिस तरह अमेरिकी और यूरोपीय बैंक सस्ती ब्याज दरों की बौछारें कर रहे हैं, वैसी अपेक्षाएं भारत के उद्योग-कारोबार जगत द्वारा भी की जा रही हैं। रिजर्व बैंक को ब्याज दर और बढ़ाने से बचना चाहिए। उद्योग जगत में यह संकेत जाना जरूरी है कि ब्याज दरों में कमी भले न आए, इसमें और वृद्धि न होगी और निकट भविष्य में इसमें कमी आएगी।

अब भी सरकार और रिजर्व बैंक अपने प्रयासों और योजनाओं से औद्योगिक उत्पादन और जीडीपी की विकास दर संबंधी निराशाओं को आशाओं में बदल सकते हैं। यहां आर्थिक विशेषज्ञों का यह मत भी उल्लेखनीय है कि लोकसभा चुनाव के बाद औद्योगिक एवं आर्थिक डगर पर देश लगभग उतनी ही तेजी से आगे बढ़ता हुआ दिखाई दे सकता है, जिस तरह 1991 के आर्थिक सुधारों और आम चुनावों के बाद देश औद्योगिक एवं आर्थिक डगर पर आगे बढ़ा था। 1991 की शुरुआत में चुनाव से पहले देश के औद्योगिक परिदृश्य पर जो चिंताजनक स्थिति थी, उसमें सुधार का एजेंडा बड़ा सवाल बन गया था। वैसे में चुनाव जीतकर आई नई सरकार ने औद्योगिक परिदृश्य को सुधारने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाए थे। वर्ष 2014 में फिर वैसी ही स्थिति है, क्योंकि नई सरकार के कदम देश के उद्योगों एवं अर्थव्यवस्था के लिए निर्णायक साबित हो सकते हैं। लेकिन नई सरकार बनने तक 2014 की पहली छमाही बीत चुकी होगी। सरकार को विरासत में कमजोर अर्थव्यवस्था एवं चिंताजनक औद्योगिक परिदृश्य मिलेगा।


ऐसे में रणनीतिक प्रयासों से औद्योगिक उत्पादन में इजाफा करना होगा। बुनियादी ढांचा परियोजनाओं के विकास के लिए निजी-सार्वजनिक भागीदारी योजना को आगे बढ़ाना होगा। खनिज संसाधनों से जुड़े लाभ को हासिल करने के लिए समुचित नीति और नियामक ढांचा तैयार करना होगा और औद्योगिक विकास दर बढ़ाने के लिए पूरी शक्ति लगानी होगी। यदि नई सरकार ऐसा कर पाई, तो नए वर्ष में देश की औद्योगिक एवं आर्थिक तस्वीर बेहतर रहेगी।

बुधवार, 5 फ़रवरी 2014

आप का लोकपाल

अरविंद केजरीवाल की सरकार ने दिल्ली लोकपाल विधेयक, 2014 को मंजूरी देकर अपने एक और अहम वादे की दिशा में कदम बढ़ा दिया है। पर इस कदम की राह में अनेक अड़चनें हैं। दिल्ली को पूर्ण राज्य का दर्जा न होने के कारण किसी भी कानून के मसविदे को विधानसभा में पेश करने से पहले केंद्र की मंजूरी लेना जरूरी होता है। जबकि दिल्ली सरकार इसे पहले विधानसभा में पारित कराना चाहती है। उसका कहना है कि कानून में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो केंद्र या उपराज्यपाल की पूर्व अनुमति के लिए उसे बाध्य करता हो। कई मौकों पर पूर्ववर्ती सरकारों के औपचारिकता का पालन न करने की मिसालों को भी उसने आधार बनाया है। दरअसल, पहले विधेयक केंद्र के पास भेजने पर दिल्ली सरकार को यह अंदेशा रहा होगा कि प्रक्रियागत खामी का हवाला देकर या तो उसे लौटा दिया जाएगा, या वह केंद्र के पास ठंडे बस्ते में पड़ा रहेगा। केजरीवाल सरकार की योजना विधानसभा के विशेष सत्र में, हजारों लोगों की मौजूदगी के बीच, विधेयक पारित कराने की है। इस पर भी विधायी प्रक्रिया से संबंधित सवाल उठ सकते हैं। लेकिन यह साफ है कि केजरीवाल सरकार अपने इस कदम को जन-आकांक्षा की शक्ल देकर केंद्र पर दबाव बढ़ाना चाहती है।

बहरहाल, दिल्ली में लोकायुक्त संस्था का वजूद पहले से है, पर उसे सिर्फ कार्रवाई के लिए राष्ट्रपति से सिफारिश करने का अधिकार है। जबकि केजरीवाल सरकार का विधेयक तमाम लोकायुक्त कानूनों से अधिक सख्त है। इस तरह का लोकायुक्त कानून उत्तराखंड में भुवनचंद्र खंडूड़ी की सरकार ने बनाया था, जो लागू नहीं हो सका। दिल्ली का प्रस्तावित कानून कई मामलों में उससे भी कठोर है। मसलन, यह जरूरी नहीं होगा कि मुख्यमंत्री या किसी मंत्री के खिलाफ जांच दिल्ली के लोकपाल की पूर्ण पीठ ही करे, कोई भी सदस्य-लोकपाल जांच कर सकेगा। सभी के खिलाफ जांच की प्रक्रिया समान होगी।

लोकपाल की जांच के दायरे में मुख्यमंत्री और मंत्रियों के अलावा सभी अधिकारी और कर्मचारी आएंगे। अध्यक्ष सहित दिल्ली लोकपाल में ग्यारह सदस्य होंगे। लोकपाल की चयन समिति में मुख्यमंत्री और नेता-विपक्ष के तौर पर सिर्फ दो राजनीतिक होंगे, समिति के बाकी सदस्यों में कुछ कानून के विशेषज्ञ और कुछ सामाजिक क्षेत्र प्रतिष्ठित नाम होंगे। लोकपाल को जांच के साथ-साथ अभियोजन और कुछ तरह की दंडात्मक कार्रवाई का भी अधिकार होगा। जांच की प्रक्रिया छह महीने में पूरी कर ली जाएगी, और कोशिश होगी कि अगले छह माह में विशेष अदालत में अभियोजन की प्रक्रिया भी तर्कसंगत परिणति तक पहुंच जाए। दोषी पाए जाने पर छह महीने से दस साल तक की सजा होगी, अत्यंत विशेष मामलों में आजीवन कारावास भी हो सकता है।


लोकपाल को किसी भी अधिकारी या कर्मचारी को जांच के दौरान निलंबित रखने, नीचे के पद पर भेजने जैसे अधिकार होंगे। सभी अधिकारियों और कर्मचारियों को हर साल अपनी संपत्ति की घोषणा करनी होगी। निर्धारित तारीख तक ऐसा नहीं करने पर उनका वेतन रोका जा सकेगा। मगर उनके रिश्तेदारों पर भी संपत्ति की घोषणा का प्रावधान न औचित्यपूर्ण मालूम पड़ता है, न व्यावहारिक। विधेयक की एक और अहम बात यह है कि विसलब्लोअर यानी भ्रष्टाचार के मामलों में सचेतक की भूमिका निभाने वालों और गवाहों को सुरक्षा देने का प्रावधान रखा गया है। सिटिजन चार्टर भी इस विधेयक का हिस्सा है, यानी सभी विभागों को अपनी सेवाओं की समयबद्धता घोषित करनी होगी। यह विधेयक कानून की शक्ल ले पाए या नहीं, आम आदमी पार्टी की भ्रष्टाचार विरोधी मुहिम का हथियार जरूर बन सकता है।

सीरिया में अमन की आशा

विश्व के जिन देशों की स्थिति बहुत चिंताजनक बनी हुई है उनमें सीरिया का स्थान पहली पंक्ति में है। हाल के वर्षों में इस देश में जितनी तबाही हुई है, वैसी बहुत कम देखी गई है। इस देश के विभिन्न समुदायों के लोग आपसी भाईचारे से रहते आए हैं, पर हाल के समय में यहां गृह युध्द ने देश को बर्बादी की कगार पर पहुंचा दिया है।

इस समय सबसे बड़ी जरूरत यहां अमन-शांति स्थापित करने की है। इसके लिए एक बड़ी उम्मीद के रूप में सामने आई थी जेनेवा में हाल की शांति र्वात्ता। दुनिया के अमनपसंद लोगों की निगाहें इस र्वात्ता पर लगी थीं पर इस शांति वार्ता से न तो स्थाई शांति की कोई राह निकली है व न पीड़ितों को राहत पंहुचाने की।

वैसे तमाम चिंताजनक स्थितियों के बीच हाल के समय में दो बातें उम्मीद जमाने वाली भी हुई हैं। पहली तो यह है कि अमेरिका या नाटो के संभावित हमले का खतरा फिलहाल टल गया है। एक समय इस हमले की संभावना बहुत बढ़ गई थी और इसकी तैयारी भी हो चुकी थी। इसे अमनपसंद प्रयासों की सफलता ही माना जाएगा कि यह हमला टल सका। अब ऐसे हमले की संभावना कम है।
इससे जुड़ी हुई दूसरी आशाजनक बात यह हुई है कि अमेरिका व पश्चिमी देशों में अब यह समझ नीति निर्धारण करने वालों तक भी पंहुच रही है कि सीरिया के विद्रोहियों में ऐसे कट्टरपंथी तत्त्व अधिक शक्तिशाली हैं जो अल कायदा जैसी सोच से जुड़े हुए हैं और जो अमेरिका व उसके पश्चिमी मित्रों को भी क्षति पंहुचा सकते हैं। ऐसे समाचार भी आए हैं कि अमेरिका के जो नागरिक इन कट्टरपंथियों के साथ लड़ने के लिए आए थे उनका ही उपयोग अमेरिका के विरुध्द ये लड़ाकू कर सकते हैं। इस तरह के समाचार मिलने पर अमेरिका और अन्य पश्चिमी देशों में सीरिया के विद्रोहियों को सहायता देने के औचित्य पर पुनर्विचार करना जरूरी हो गया है।

अब तो सीरिया में ऐसी स्थिति स्पष्ट होती जा रही है कि सरकार से लड़ने वाले जो विद्रोही हैं वे स्वयं दो गुटों में विभाजित हो रहे हैं। वैसे तो विद्रोही दल बहुत से है पर मुख्य सोच के आधार पर इनको दो गुटों में बांटा जा सकता है। पहला गुट वह है जो बेहद कट्टरपंथी सोच का है, जो अल कायदा जैसी सोच का है व जिसे सऊदी अरब या उसके सहयोगियों से अधिक सहायता मिली है। दूसरे गुट में कट्टरता अधिक नहीं है व इसे तुर्की से अधिक तकनीकी रही है (हालांकि अब तुर्की भी कुछ पीछे हटता नजर आ रहा है)।

पश्चिमी देशों ने पहले इस अंतर को समझे बिना सीरिया में राष्ट्रपति बशर-अल-असद की सरकार का विरोध करने वाले सब विद्रोहियों को साझे रूप से सहायता दी पर इस सहायता का अधिक लाभ उन कट्टरपंथी तत्वों ने उठाया जो इन विद्रोहियों में पहले से अधिक शक्तिशाली थे। जब इन कट्टरपंथी तत्वों के हाथ में पश्चिमी देशों की सहायता से प्राप्त अधिक विध्वंसक हथियार पंहुचने लगे तो इन विद्रोहियों ने अन्य गुटों को किनारे कर अपनी शक्ति बढ़ा ली। इस स्थिति में पश्चिमी देशों को भी अपनी आत्मघाती नीति पर पुनर्विचार करना पड़ा। फि र भी सऊदी अरब से इस तरह के प्रयास निरंतर किए जा रहे हैं कि अमेरिका व फ्रांस जैसे देश सीरिया की सरकार के प्रति फिर से अधिक आमक हो जाएं जबकि रूस असद के सबसे महत्वपूर्ण मित्र की भूमिका निभा रहा है। एक बात पूरी तरह स्पष्ट है कि सबसे कट्टरपंथी लड़ाकुओं की सहायता न तो सीरिया के हित में है और व विश्व स्तर पर अमन-शांति के हित में है। ऐसे लड़ाकू ताकतवर हुए तो इसके पड़ौसी देश इराक की भी क्षति ही होगी। अत: इन कट्टरपंथी विद्रोहियों को बाहरी सहायता पर तुरंत रोक लगनी चाहिए।

इस समय सबसे बड़ी जरूरत यह है कि सीरिया में गृहयुध्द के कारण जो लाखों लोगों का जीवन तबाह हुआ है उन्हें तुरंत राहत पंहुचाने के अनुकूल स्थितियां उत्पन्न की जाएं। अनुमान है कि जबसे गृहयुध्द जैसी स्थितियां सीरिया में बनी हैं यहां लगभग एक लाख लोग मारे गए हैं और लगभ सत्तर लाख विस्थापित हुए हैं। देश में अधिकांश लोगों के लिए खाद्य व स्कूली शिक्षा भी उपलब्ध नहीं हो पा रही है। अत: सीरिया के लोगों को राहत देने के लिए वहां अमन-शांति का माहौल बनाना बहुत जरूरी है।


अत: राष्ट्रपति असद को महत्वपूर्ण सुधारों की घोषणा करनी चाहिए जिससे सभी असंतुष्ट नागरिकों को अपनी समस्याओं के लिए समुचित लोकतांत्रिक अवसर मिले। साथ में सभी विद्रोही गुटों को शान्ति समझौते के लिए आगे आनी चाहिए। जो ऐसा नहीं करते हैं उनकी विदेशीबाहरी सहायता पर कड़ाई से रोक लगनी चाहिए।

मंगलवार, 4 फ़रवरी 2014

ईरान के साथ समझौता जरूरी

ईरान के परमाणु कार्यक्रम को लेकर जब तेहरान और अन्य प्रमुख देशों के बीच अंतरिम समझौते पर दस्तखत हुए तो अपेक्षाएं बहुत बढ़ गई थीं। हालांकि, पिछले हफ्ते ये अपेक्षाएं धुंधलाती नजर आईं। पहले तो ईरानी अधिकारियों ने कड़े बयान दिए। फिर इजरायल के प्रधानमंत्री ने लगभग हर मुमकिन समझौते के लिए अपना विरोध दोहरा दिया। इतना ही नहीं अमेरिका के कई प्रभावशाली सीनेटरों ने ईरान पर नए प्रतिबंध लगाने की धमकी दी है, किंतु इसका यह अर्थ नहीं कि तेहरान के साथ कोई अंतिम समझौता मुमकिन ही नहीं है। हां, इसका यह मतलब जरूर है कि तेहरान और पश्चिमी देश, दोनों को इस बारे में रचनात्मक रूप से सोच-विचार शुरू कर देना चाहिए कि दोनों के बीच मौजूद खाई को कैसे पाटा जाए और कैसे उनके सामने अपने देश में खड़ी अड़चन का सामना किया जाए।


ईरान के जिन बयानों ने इतना ध्यान आकर्षित किया है वे विदेश मंत्री और राष्ट्रपति दोनों की ओर से आए हैं। विदेश मंत्री जाविद जरीफ ने सीएनएन के जिम शूटो को जो बताया वह उसके बिल्कुल विपरीत था, जिसका दावा वाशिंगटन बार-बार कर रहा था। उन्होंने कहा, 'ईरान किसी चीज को ध्वस्त करने पर सहमत नहीं हुआ है।' बाद में मुझे सीएनएन पर ही दिए इंटरव्यू में राष्ट्रपति हसन रोहानी ने भी साफ किया कि ईरान उसका कोई भी मौजूदा सेंट्रीफ्यूज (यूरेनियम संवद्र्धन में उपयोगी उपकरण) नष्ट नहीं करेगा। उन्होंने मुझे भी संकेत दिया कि ईरान अराक स्थित भारी पानी के रिएक्टर को बंद नहीं करेगा।


पश्चिमी देशों के साथ ईरान के विवाद का एक बिंदु यह भी है, क्योंकि पश्चिम को लगता है कि वहां  बम बनाने लायक प्यूटोनियम का उत्पादन संभव है। किसी स्वीकार्य समझौते को लेकर ईरान और अमेरिका के बीच दृष्टिकोण में मूलभूत फर्क है। रोहानी के इंटरव्यू और ईरानी अधिकारियों के साथ मेरी बातचीत से मुझे ईरानी दृष्टिकोण का अंदाज लगा है। ईरान दुनिया को इस बात का आश्वासन और सबूत भी देगा कि उसका परमाणु कार्यक्रम सैनिक नहीं, नागरिक उद्देश्यों के लिए है। इसका मतलब यह है कि ईरान इसकी सारी परमाणु सुविधाओं के गहन निरीक्षण की इजाजत देगा जैसी अब तक कभी दी नहीं गई। यह प्रक्रिया तो शुरू हो भी चुकी है। अंतरिम समझौते में ईरान के सेंट्रीफ्यूज बनाने वाले कारखानों, खदानों और मिलों के अंतरराष्ट्रीय निरीक्षण की बात कही गई है। पिछले हफ्ते, एक दशक में पहली बार अंतरराष्ट्रीय निरीक्षकों ने ईरानी खदानों में प्रवेश किया।


किंतु ईरानी अधिकारी अपने परमाणु कार्यक्रम पर कोई भी पाबंदी स्वीकार न करने पर डटे हुए हैं। वे प्राय: इस बात पर जोर देते हैं कि ईरान के साथ परमाणु अप्रसार संधि पर दस्तखत करने वाले किसी अन्य देश की तरह व्यवहार किया जाए। उनके कहने का मतलब  यह है कि उन्हें बिजली उत्पादन के लिए यूरेनियम संवद्र्धन का पूरा हक है। वास्तविकता तो यह है कि परमाणु अप्रसार संधि यूरेनियम संवद्र्धन के बारे में विशेष रूप से कुछ नहीं कहती। परमाणु बिजलीघरों वाले कई देश यूरेनियम संवद्र्धन नहीं करते जबकि कुछ अन्य देश ऐसा करते हैं। इसलिए ईरान के इस दावे का तार्किक आधार है कि यूरेनियम संवद्र्धन अब तक तो स्वीकार्य गतिविधि रही है। संधि में एक ही मानदंड लगाया गया है कि सारा परमाण्विक उत्पादन 'शांतिपूर्ण उद्देश्यों' के लिए होना चाहिए।


अंतिम समझौते के बारे में अमेरिकी दृष्टिकोण बिलकुल अलग है, जो इस अवधारणा से निकला है कि ईरान को यह भरोसा पैदा करने के लिए विशेष कदम उठाने चाहिए कि उसका परमाणु कार्यक्रम शांतिपूर्ण कार्यों के लिए है। इसके तहत ईरान को यूरेनियम की छोटी प्रतीकात्मक मात्रा को 5 फीसदी स्तर (इससे परमाणु शस्त्र बनाने लायक यूरेनियम बनाने में काफी वक्त लगेगा) तक संवद्र्धित करने की अनुमति होगी। इसके अलावा ईरान को इसके हजारों मौजूदा सेंट्रीफ्यूज नष्ट करने होंगे और भारी पानी वाला इसका रिएक्टर बंद करना होगा। दरअसल, वाशिंगटन की मंशा नागरिक कार्यक्रम को सैन्य कार्यक्रम में बदलने का वक्त (लीड टाइम) बढ़ाना है।


दोनों पक्षों को अपनी आधारभूत चिंताओं पर गहराई से विचार करना होगा। ईरानी अधिकारियों को यह समझना होगा उनके देश के साथ अलग व्यवहार किया जा रहा है पर उसकी वजह अच्छी है। ईरान ऐसा कार्यक्रम चला रहा है, जो संदेहास्पद है। बहुत थोड़ी बिजली पैदा करने के लिए बहुत ज्यादा निवेश किया गया है। फिर उसने पूर्व में अपने कार्यक्रम को लेकर दुनिया को धोखा भी दिया है। दूसरी ओर वाशिंगटन को यह समझना होगा कि परमाणु ठिकानों के निरीक्षण पर अपेक्षा से ज्यादा रियायत मिलेगी, लेकिन ईरान के मौजूदा कार्यक्रम को वापस लेने पर बहुत कम रियायतें मिलने की उम्मीद है। यदि यह छह से नौ माह का लीड टाइम सुनिश्चित करा सके तो यह महत्वपूर्ण उपलब्धि होगी, क्योंकि यदि तेहरान परमाणु निरीक्षकों को निकाल बाहर करे तो स्थिति एक पल में बदल जाएगी और वाशिंगटन को प्रतिक्रिया की कार्रवाई के लिए छह माह की जरूरत नहीं होगी।


ऐसे रचनात्मक समझौते हैं, जो दोनों पक्षों के अंतर को मिटा सकते हैं। जॉर्जटाउन यूनिवर्सिटी के कॉलिन कार्ल और जोसेफ सरीनसीओनी इन्हीं मुद्दों पर काम करते हैं। उन्होंने ध्यान दिलाया कि सेंट्रीफ्यूज को नष्ट किए बिना बंद किया जा सकता है। वास्तविकता तो यह है कि ईरान में 19,800 से ज्यादा सेंट्रीफ्यूज स्थापित हैं, लेकिन आधे से भी कम कार्यरत हैं। सहमति के ऐसे बिंदुओं का पहले ही पता लगा लिया गया है। ईरान ने हमेशा कहा है कि वह मौजूदा 20 फीसदी संशोधित यूरेनियम को देश से बाहर नहीं भेजेगा, किंतु अंतरिम समझौते में वह इसे निष्क्रिय करने पर सहमत हुआ है। इसी तरह ईरान अपने भारी पानी के रिएक्टर को हल्के जल के संयंत्र में बदलकर इसे जारी रख सकता है।



रोहानी और जरीफ से मिलने के बाद मुझे यकीन हो गया कि वे मध्यमार्गी हैं और ईरान को दुनिया के साथ जोडऩा चाहते हैं। (मसलन, रोहानी ने मुझे संकेत दिया कि अगले कुछ महीनों में ग्रीन मूवमेंट के नेताओं को रिहा कर दिया जाएगा)। हालांकि मुझे यह भी यकीन है कि कई घरेलू विरोधियों के कारण वे दबाव में काम कर रहे हैं। यही बात ओबामा प्रशासन के बारे में भी कही जा सकती है। बेहतर होगा कि दोनों पक्ष जिनेवा में कुछ न कुछ हल निकलने की उम्मीद रखने की बजाय अंतिम समझौते के लिए अपने यहां जमीन तैयार करें। यदि ऐसा हुआ तो जो भी समझौता होगा वह उनके अपने देशों में भी स्वीकार्य होगा।

जीडीपी के संशोधित अनुमान एवं संभावनाएं

केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन कार्यालय द्वारा 31 जनवरी को  सकल घरेलू उत्पादन जीडीपी के वित्तीय साल 2012-13 के लिए प्रथम  संशोधित  अनुमान, साल 2011-12 के लिए द्वितीय संशोधित अनुमान तथा 2010-11 के लिए तृतीय संशोधित  अनुमान के आंकड़े जारी कर दिए गए। प्रथम संशोधित अनुमान के अनुसार वित्तीय साल 2012-13 में मई 2013 में जारी प्राविधिक अनुमानों के विपरीत जीडीपी वृध्दि दर 5.0 प्रतिशत की बजाय 4.5 प्रतिशत रहने वाली है। 2012-13 में कृषि, खननविनिर्माण तथा सेवा क्षेत्र में  उत्पादन लक्ष्य से कम होने के कारण वृध्दि दर धीमी होने से रही है। फसलोत्पादनमछलीपालन, खनन आदि में वृध्दि दर निर्धारित लक्ष्य 1.6 प्रतिशत के स्थान पर 1.0 प्रतिशत, विनिर्माण, बिजली और गैस उत्पादन क्षेत्र में निर्धारित लक्ष्य 2.4 प्रतिशत के स्थान पर वृध्दि दर मात्र 1.2 प्रतिशत रही है । इस प्रकार 2004-05 की साधन लागत की कीमतों पर सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी जो 2011-12 में 52.5 लाख करोड़ रुपए थी, वह 4.5 प्रतिशत की वृध्दि दर्ज करके 54.8 लाख करोड़ हो सकी। यह  जीडीपी वृध्दि दर 2002-03  के बाद सबसे नीची मानी जा रही  है ।
     
केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन के जहां पर 2012-13 के संशोधित अनुमानों में जीडीपी वृध्दि दर कमी की गई है, वहीं पर 2011-12 साल के संशोधित अनुमानों में  जीडीपी वृध्दि दर में 6.2 प्रतिशत की बजाय 6.7 प्रतिशत की वृध्दि दर रही है। 2010-11 में जीडीपी वृध्दि दर का अनुमान 9.3 प्रतिशत लगाया गया था, अन्तिम अनुमानों के अनुसार यह 8.9 प्रतिशत रही है । जहां तक चालू साल 2013-14 का सवाल है इसके पहले 9 महीनों में को सेक्टर का कार्यसंपादन बहुत धीमा रहा है ।  आठ बुनियादी उद्योगों जिनमें कोयला, पेट्रोलियम रिफाइनरी, इस्पात और सीमेंट आदि सरीखे उद्योग शामिल हैं, इनकी  वृध्दि दर 2.5 प्रतिशत रही है। उल्लेखनीय है कि इन उद्योगो का औद्योगिक उत्पादन सूचकांक में 38 प्रतिशत योगदान है । दिसम्बर 2013 माह में प्राकृतिक गैस, पेट्रोलियम रिफायनरी तथा कोला उत्पादन में कमी आई है । कहने का मतलब यह है कि संशोधित  अनुमानों में 2013-14 में भी कमी होने की संभावना है ।

2013-14 के आर्थिक सर्वेक्षण में वित्तीय साल 2012-13 के जीडीपी के प्रथम अनुमान, 2011-12 के द्वितीय अनुमान तथा 2010-11 के तृतीय अनुमान के आंकड़े प्रकाशित किए जाएंगे। इस प्रकार तीन-तीन संशोधित अनुमानों के जारी होने के कारण अगले तीन साल तक जीडीपी, राष्ट्रीय आय व प्रति व्यक्ति आय के आंकड़े बदलते रहेंगे । साल 2012-13 की अर्थव्यवस्था के बारे में वास्तविक स्थिति के आंकड़े 2015-16 के प्रकाशनों में ही उपलब्ध हो पाएंगे । इस प्रकार राष्ट्रीय आय, जीडीपी व विकास दर के चालू साल के आंकड़े  वास्तविक उत्पदन के लेखा न होकर केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन के अनुमान होते हैं ।

विश्व बैंक के अनुसार  2014 व आगे आनेवाले सालों में वैश्विक अर्थव्यवस्थाओं में मजबूती  आएगी । वैश्विक जीडीपी वृध्दि दर 2013 की 2.4 प्रतिशत से बढ़कर 2014 में 3.2 प्रतिशत तथा 2015 में 3.5 प्रतिशत हो जाने की संभावना है। विश्व बैंक के अनुसार भारत की 2014-15 में जीडीपी विकास दर 6.0 प्रतिशत से अधिक रहेगी तथा भारत की 12वीं पंचवर्षीय योजना के अतिम साल  2016-17 में 7.1 प्रतिशत पहुंच जाने का अनुमान है । क्रेडिट रेटिंग एजेंसी क्रिसिल के अनुसार भारत की जीडीपी वृध्दि दर 2013-14 में 4.8 प्रतिशत तथा 2014-15 में 6.0 प्रतिशत से अधिक रहने का अनुमान है । अन्य अंतर्राष्ट्रीय एजेंसियों के भी इसी प्रकार के अनुमान हैं। केन्द्रीय सांख्यिकी संगठन कार्यालय द्वारा 2013-14 के जीडीपी अनमान के आंकड़े 7 फ रवरी को जारी किए जाने की संभावना है ।

विश्व बैक द्वारा भारत की 2014-15 में जीडीपी 6.0 प्रतिशत की वृध्दि का अनमान वैश्विक वित्तीय कारको को ही ध्यान में रखकर लिया गया है । इसमें भारत में लोकसभा चुनावों के बाद की राजनैतिक-आर्थिक स्थितियों को ध्यान में नही रखा गया है । लोकसभा चुनाव में तीन राजनैतिक सम्भावनाएं हैं- पहला- कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए गठबंधन की सरकार, दूसरा- नरेन्द्रमोदी के नेतृत्व एनडीए गठबंधन की सरकार तथा तीसरा- क्षेत्रीय दलों का तीसरा मोर्चा। देशी विदेशी कार्पोरेट उद्योग व निवेशकों की पहली पसन्द कांग्रेस पार्टी है जो प्रत्यक्ष विदेशी निवेश को और अधिक विस्तार करने का इरादा रखती है। कार्पोरेट जगत की दूसरी पसन्द भाजपा है । यद्यपि  भाजपा मल्टीब्रांड खुदरा बाजार, बीमा आदि में प्रत्यक्ष निवेश की विरोधी है तथा कांग्रेस के समान उदार नही है, किन्तु नरेन्द्र मोदी के त्वरित फै सले लेने व उनके विकास के नजरिये के कारण वे भारतीय  कारर्पोरेट जगत में व्यक्तिगत रूप में लोकप्रिय हैं । 27जनवरी  तक जितने भी चुनावी सर्वेक्षण हुए हैं, उनके अनुसार कांग्रेस नीत गठबंधन के तीसरे स्थान तथा भाजपा के दूसरे स्थान पर रहने की संभावनाएं बताई गई हैं । यदि क्षेत्रीय दलों का तीसरा मोर्चा सत्तारूढ़  होता है तो राजनैतिक अस्थिरता बनी रहेगी तथा उस सरकार से दीर्घकालीन विकासोन्मुखी नीतियों  तथा फैसलों की किसी को भी अपेक्षा नहीं है ।


इसी परिपेक्ष्य में भारतीय रिजर्व बैंक का 2014-15 में भारत की जीडीपी विकास दर 5.5 प्रतिशत का अनुमान अधिक वास्तविक दिखाई देता है।  हाल में हुए कुछ चुनावी सर्वेक्षणों के अनुसार लोकसभा चुनाव में उत्तरप्रदेश तथा बिहार में भाजपा को लोकसभा की सबसे अधिक सीटें मिल सकती हैं तथा उसके सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरने की संभावनाएं हैं । यदि लोकसभा चुनाव के मतदान तक यही प्रवृत्ति बनी रही एवं वह सबसे बड़ी पाटी  के रूप में उभरी तो  भाजपा को तेलगू देशम सरीखे क्षेत्रीय दलों के रूप में सहयोगी मिल सकते हैं तथा वह सत्तारूढ़ हो सकती है । ऐसी स्थिति में भारतीय अर्थव्यवस्था के संबंध में विश्व बैंक के अनुमान सही हो सकते हैं ।

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