निर्वाचन
आयोग ने अब
अंतर्जाल, मसलन इंटरनेट
पर वर्चस्व बनाए
रखने वाले समाचार
माध्यमों पर नजर
रखने की कवायद
शुरू कर दी
है। जाहिर है,
आदर्श आचार संहिता
के दायरे में
फेसबुक, टि्वटर, यू-टयूब
और एप्स ; वर्चुअल
गेम्स वर्ल्डबध्द ब्लॉग
व ब्लॉगर भी
आएंगे। आयोग ने
सभी वेबसाइटों को
पत्र लिखकर हिदायतें
दी हैं कि
पेड न्यूज की
समस्या पर लगाम
लगाने के लिए
ये उपाय किए
जा रहे हैं,
क्योंकि दिल्ली विधानसभा चुनाव
में सोशल साइटों
से जुडे पेड
न्यूज के 54 मामले
सामने आए थे।
जगजाहिर
है कि सोशल
वेबसाइटों का इस्तेमाल
करने वालों की
संख्या लगातार बढ़ रही
है। दल और
उम्मीदवार भी साइटों
पर अपने खाते
खोलकर बढ़-चढ़कर
भागीदारी करने में
लगे हैं। यही
नहीं, टीवी समाचार
चैनल और एफएम
रेडियो दलीय आधार
पर जनमत सर्वेक्षण
कर उनका प्रसारण
भी कर रहे
हैं। ये स्थितियां
दल या उम्मीदवार
विशेष के पक्ष
में जीत का
अप्रत्क्ष माहौल बनाने का
काम करती हैं।
यह निगरानी इसलिए
भी जरूरी है,
जिससे चुनाव खर्च
में तय धन
राशि से यादा
राशि खर्च न
हो। लिहाजा मतदाता
निष्पक्ष बना रहे,
इसके लिए जरूरी
था कि सोशल
मीडिया पर पाबंदी
लगे। इस लिहाज
से आयोग का
निर्णय स्वागतयोग्य है। हालांकि
चंद लोग आयोग
द्वारा की जा
रही निगरानी की
इस कार्रवाई को
अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता
पर अंकुश मानकर
चल रहे हैं।
ऐसे लोगों के
संज्ञान में यह
बात आनी चाहिए
कि समाचार के
ये मायावी माध्यम
व्यक्तियों के चरित्र
हनन के साथ,
बेहूदी टिप्पणियां और अफवाह
फैलाने का काम
भी करते हैं,
इसीलिए इन्हें आदर्श आचार
संहिता के दायरे
में लेना कोई
अनहोनी या असंगत
बात नहीं है।
गोया, आयोग की
इस पहल को
प्रासंगिक ही माना
जाना चाहिए।
आयोग
ने यह जरूरी
पहल जनप्रतिनिधित्व कानून
और आदर्श आचार
संहिता के तहत
की है। पेड
न्यूज के बाद
विद्युत समाचार माध्यमों पर
अंकुश की यह
निर्वाचन आयोग की
दूसरी बड़ी पहल
है। अब दल
व उम्मीदवारों को
सोशल मीडिया पर
प्रसारित प्रचार के खर्चे
का ब्यौरा नियमानुसार
आयोग को देना
होगा। चुनाव में
प्रत्यक्ष भागीदारी करने वाले
जो दल व
प्रत्याशी इस आचार
संहिता का उल्लंघन
करेंगे, उसे संहिता
की विसंगति के
रूप में संज्ञान
में लिया जाएगा।
इसलिए आयोग के
नए निर्देशों के
तहत उम्मीदवार जब
नामांकन दाखिल करेंगे, तब
फॉर्म-26 के तहत
दिए जाने वाले
शपथ-पत्र में
अपने फोन नंबर,
ई-मेल आईडी
के साथ सोशल
मीडिया से जुड़े
खातों की भी
पूरी जानकारी देनी
होगी। इसके अलावा
प्रत्याशियों को इन
माध्यमों के जरिए
किए जाने वाले
प्रचार का खर्च
भी आयोग को
देना होगा। कंपनियों
को किए गए
या किए जाने
वाले भुगतान के
साथ उन लोगों
के भी नाम
देने होंगे, जो
इन खातों को
संचालित करेंगे। यह खर्च
प्रत्याशी के खाते
में शामिल होगा।
हालांकि एक अनुमान
के मुताबिक अभी
भी सभी प्रकार
के समाचार माध्यमों
पर खर्च, कुल
खर्च का महज
15-20 प्रतिशत ही होता
है।
हालांकि
इस परिप्रेक्ष्य में
यहां यह सवाल
जरूर खड़े होते
हैं कि कोई
व्यक्ति नितांत स्वेच्छा से
दल या उम्मीदवार
के पक्ष में
प्रचार अभियान में शिरकत
करता है, तो
क्या उसके इस
श्रमदान की कीमत
विज्ञापन-दर के
हिसाब से लगाई
जाना उचित है?
क्योंकि तमाम सामान्य
लोग निष्पक्ष स्वप्रेरणा
से भी चुनाव
में अपनी सामर्थ्य
के अनुसार भागीदारी
करते हैं। और यही
वह मतदाता होता
है, जो वर्तमान
सरकारों को बदलता
है। ग्रामीण क्षेत्रों
में जहां मीडिया
और सोशल मीडिया
की पहुंच सीमित
है, वहां यह
मीडिया बेअसर है। इन
क्षेत्रों में प्रत्याशी
मतदाताओं को लुभाने
के लिए शराब
और नकद राशि
बांटते हैं।
इस
संदर्भ में एक
अन्य सवाल यह
भी उठता है
कि यदि कोई
व्यक्ति या प्रवासी
भारतीय दूसरे देशों में
रहते हुए, सोशल
मीडिया से जुड़े
खातों को विदेशी
धरती से ही
संचालित करता है,
तो वह आचार
संहिता की अवज्ञा
के दायरे में
कैसे आएगा? उसे
नियंत्रित कैसे किया
जाएगा? यह एक
बड़ी चुनौती है,
जिसे काबू में
लेना मुश्किल होगा।
आजकल दूसरे देशों
से इन माध्यमों
का इस्तेमाल खूब
हो रहा है।
नरेंद्र मोदी को
प्रधानमंत्री बनाए जाने
का सबसे यादा
समर्थन प्रवासी भारतीयों ने
ही किया है।
इस परिप्रेक्ष्य में
एक सवाल तकनीकी
व्यावहारिकता या उसकी
अपनी तरह की
बाध्यताओं का भी
उठता है। क्योंकि
इंटरनेट के संजाल
में छद्म या
फर्जी नामों से
खाते खोलना बेहद
आसान है। व्यक्तिगत
चिट्ठे भी सरलता
से बनाए जा
सकते हैं। हमारे
यहां तो देश
के प्रधानमंत्री और
राष्ट्रपति के नामों
से खाते खोले
जाना व ई-मेल आईडी
बनाना सहज है,
तो फिर हजारों
की तादाद में
खड़े होने वाले
प्रत्याशियों के खाते
खोलने में तो
कोई कठिनाई ही
पेश नहीं आनी
चाहिए? कुछ साल
पहले गुजरात की
एक अदालत से
बतौर प्रयोग एक
पत्रकार ने
तत्कालीन प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति
के नामों से
वारंट जारी करा
लिए थे। जबकि
अदालती काम में
चंद लोगों की
भागीदारी होती है,
और संवैधानिक गरिमा
व देश की
संप्रभुता से जुडे
ये नाम देशव्यापी
होते हैं। तय
है, हमारे यहां
प्रशासनिक सुस्ती और लापरवाही
इतनी है कि
आप किसी भी
किस्म की हरकत
को अंजाम दे
सकते हैं। फिर
आचार संहिता के
दायरे में तो
रुपये, शराब और
अन्य उपहारों का
बांटना भी आता
है। बावजूद क्या
इनका बांटा जाना
रुक गया? जवाब
है नहीं? लेकिन
अंकुश जरूर लगा
है, इस तथ्य
से नहीं मुकरा
जा सकता। तय है,
इन व्यावहारिक कठिनाईयों
पर पाबंदी के
कानूनी विकल्प तलाशे जाना
जरूरी है, न
कि तात्कालिक स्थितियों
में इनसे निपटने
के कोई कायदे-कानून न होने
के बहाने इन्हें
नजरअंदाज कर देना?
निर्वाचन
आयोग द्वारा सोशल
मीडिया को आदर्श
संहिता के दायरे
में लाने पर
कार्मिक, लोक-शिकायत
कानून एवं न्यायिक
मामलों से संबंधित
संसदीय स्थायी समिति के
अध्यक्ष शांताराम नाइक ने
आयोग के इस
फैसले पर आपत्ति
दर्ज कराई है।
उनका मानना है
कि ऐसे उपायों
से अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता बाधित होगी। साथ
ही सोशल मीडिया
को नियंत्रित करने
का देश में
कोई कारगर कानून
भी नहीं है?
लेकिन आयोग ने
इंटरनेट माध्यमों को मर्यादित
बने रहने के
जो दिशानिर्देश दिए
हैं, वे मौजूदा
कानून और आचार
संहिता के परिप्रेक्ष्य
में ही हैं।
इन्हीं कानूनों को आधार
बनाकर राजनीतिक दलों
के आचरण और
समाचार माध्यमों में अपनाए
जाने वाली पेड
न्यूज पर अंकुश
लगाया गया है।
इन कार्रवाईयों के
कारगर नतीजे भी
देखने में आए
हैं। इसलिए यदि
इस दायरे का
विस्तार सोशल मीडिया
तक किया गया
है, तो इस
पर आपत्ति क्यों?
सोशल साइट पर
कोई विज्ञापन अथवा
प्रचार सामग्री डालने से
पहले इन विषयों
की विषयवस्तु के
उचित होने का
प्रमाण मीडिया सत्यापन एवं
मूल्यांकन समिति से लेना
होगा। गौरतलब है
कि कथ्य पर
निगरानी जिन कानूनों
के तहत प्रिंट
और इलेक्ट्रानिक माध्यमों
पर अब तक
की जा रही
है, तो फिर
सोशल मीडिया को
छूट कैसे दी
जा सकती है?
वस्तुत: चुनाव सुधार की
दिशा में आयोग
द्वारा सोशल मीडिया
पर निगरानी की
इस पहल का
स्वागत किया जाना
चाहिए।
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