औद्योगिक
क्रांति के परिणामस्वरूप
हर देश और
समाज दो भागों
में बंटने लगा
है जिनके बीच
मात्र विनिमय संबंध
हैं। वैसे पहले
भी समाज दो
भागों के बीच
बंटा था और
वहां भी उत्पादन
के साधनों से
संपन्न लोग दासों
और कमिया मजदूरों
पर जुल्म ढाते
थे। उत्पीड़ित वर्गों
को कोई आजादी नहीं इसके
बावजूद वे दासों
और रैयतों का
ख्याल रखते थे
क्योंकि उनके बीमार
होने या मरने
पर उनकी सुख-समृध्दि प्रभावित होती
थी।
पुराने
जमाने में सब
लोग आसपास ही
रहते थे। बकौल
बाल्जाक फ्रांस में आधुनिक
पूंजीवाद के दोनों
एक ही इमारत
में रहते थे।
लिफ्ट न होने
के कारण धनी
निचले और गरीब
ऊपरी तल्लों पर
रहते थे। किसी
बहुमंजिली इमारत में जैसे-जैसे ऊपर
जाते थे, निवासियों
की हैसियत घटती
जाती थी। तब
तक समृध्द लोगों
के उपनगरों में
बसने और निचले
तबकों से दूरी
बनाने का सिलसिला
शुरू नहीं हुआ
था। औद्योगिक क्रांति
के बाद पहली
बार यह परिघटना
इंग्लैंड में दिखी
जिसका वर्णन चार्ल्स
डिफेंस के उपन्यासों
में मिलता है।
औद्योगिक क्रांति ने परंपरागत
पारस्परिकता को समाप्त
कर दिया।
परिणामस्वरूप
एक ही देश
में दो अलग-अलग दुनिया
का जन्म हुआ।
इस परिघटना को
पहली बार बेंजामिन
डिजरायली ने अपने
उपन्यास 'सिबिल' में प्रस्तुत
किया जिसका उपशीर्षिक
था- ''था दो
राष्ट्र'' चूंकि फ्रांस में
औद्योगिक पूंजीवाद का उदय
उन्नीसवीं सदी के
उत्तरार्ध में हुआ
इसलिए एमिल जोला
के उपन्यासों 'पॉट
ब्वायल' तथा 'पेरिस'
एवं 'रोम' में
इसका वर्णन मिलता
है। 'पेरिस' में
रेखांकित किया गया
है कि महानगर
दो भागों में
बंटा है। पूर्वी
भाग में विपन्नता,
बेरोजगारी और धुआं
भरे वातावरण का
आलम है, वहीं
पश्चिमी इलाकों में समृध्दि
एवं आनंद है।
वहां न धुआं
है और न
कोहरा, बल्कि प्रकाश ही
प्रकाश है।
अमेरिकी
पत्र 'द वाल
स्ट्रीट जर्नल' से जुड़े
पत्रकार रॉबर्ट फ्रैंक ने
वर्ष 2007 में एक
पुस्तक 'रिचिस्तान' नाम से
प्रकाशित की। उनके
अनुसार अमेरिका के अंदर
एक नए देश
का उदय हुआ
है जो उन
करोड़पतियों का बसेरा
है जिन्होंने 'नए
सुनहरे युग' के
दौरान जो 1980 के
दशक में शुरू
हुआ, अपनी अधिकतर
संपति बटोरी है।
उन्होंने रिचिस्तान बसाया जिसकी
आबादी बेल्जियम और
डेनमार्क से अधिक
है।
प्रश्न
है कि ये
धनी लोगों की
क्या पृष्ठभूमि है।
स्पष्ट तथा अमेरिका
में एक समानांतर
दुनिया बस गई
है। वर्ष 2004 तक
अमेरिका के एक
प्रतिशत सबसे धनी
135 खरब डॉलर प्रतिवर्ष
कमा रहे थे
जो फ्रांस, इटली
या कनाडा से
कहीं अधिक धनी
थे।
उन्होंने
अपनी संख्या के
आधार पर अपनी
एक दुनिया सभी
सुविधाओं से परिपूर्ण
बनाई है। वहां
उनकी अपनी स्वास्थ्य
सुविधाओं से परिपूर्ण
(द्वारपाल, डॉक्टर) यात्रा, तंत्र
(नेटजेट्स यात्रा के लक्ष्य
से जुड़ा क्लब)
और भाषा है।
ये धनी पहले
की अपेक्षा अधिक
धनी ही नहीं,
बल्कि वे वित्तीय
दृष्टि से विदेशी
बनते जा रहे
हैं। वे देश
के अंदर अपना
नया देश, समाज
के अंदर अपना
अलग समाज, और
अर्थव्यवस्था के अंदर
अपनी नई अर्थव्यवस्था
बना रहे हैं।
रिचिस्तान में संपदा
की एक नई
संस्कृति है जो
पुराने धनाढयों की संस्कृति
से सर्वथा भिन्न
है। जिस तरह
लोग धनी बन
रहे हैं, वह
बदल रहा है।
रिचिस्तान
'ध्यानाकर्षी उपभोग' (कॉन्सपिकुअस कंजम्पशन)
को नए प्रकार
से परिभाषित कर
रहा है। एक नए
प्रकार की परोपकारिता
पनपी है और
नई तरह की
राजनीति ने भी
जन्म लिया है।
धनाढय लोग राजनीतिक
दलों पर हावी
हैं जिनका सहारा
लेकर विधान मंडलों
और संसद पर
अपना कब्जा जमाने
लगे हैं।
रिचिस्तान
का उदय समाज
के अंदर बढ़ती
आर्थिक खाई का
द्योतक है। उनकी
संख्या बढ़ने के
साथ ही उनका
देश से वित्तीय
एवं सांस्कृतिक दृष्टि
से अलगाव हो
रहा है। रिचिस्तान
तीन भागों में
विभक्त है। 1980 के दशक
के पूर्व धनाढय
लोग अपने जैसे
व्यक्तियों के दायरे
में सिकुड़े रहते
थे। उनके बच्चे
एक ही तरह
के स्कूलों में
जाते थे। उनका
आना-जाना एक
ही तरह के
क्लबों में होता
था। उनके मूल्य
एक जैसे थे
और उनके शादी-संबंध एक ही
तरह के परिवारों
में होते थे।
उनमें से अधिकतर
का जन्म तेल,
रसायनों, इस्पात, चल संपत्ति
और वस्तुओं से
जुड़े व्यापार वाले
परिवारों में हुआ
था। 1980 के दशक
के बाद धनाढयों
के चरित्र में
बदलाव आया। वित्तीय
बाजारों में तेजी
ने एक नए
प्रकार के धनाढयों
को जन्म दिया।
उन्होंने वित्तीय बाजार में
पैसे कमाए। उनका
उत्पादन की प्रक्रिया
से कोई सीधा
संबंध न था।
वर्ष 2000 आते-आते
शेयर बाजार में
भारी तेजी देखी
गई ओर इन्होंने
सट्टेबाजी से भारी
रकमें कमाईं। धनी
लोग रिचिस्तानी बन
गए। पिछले जमाने
के नव धनाढयों
की तुलना में
वे काफी युवा
थे। पुराने धनवान
अलग-थलग पड़
गए। नवधनाढयों का
राजनीतिक- सामाजिक नजरिया भिन्न
था।
नवधनाढयों
की संपदा में
सहसा वृध्दि आर्थिक
शक्तियों का सम्मिलन
है। वित्तीय बाजारों
में उछाल, नई
प्रौद्योगिकी और संपूर्ण
विश्व में वस्तुओं
और सूचनाओं का
निर्बाध आना-जाना
मुख्य कारण रहे
हैं। सरकारी नीतियों
की भी भारी
भूमिका रही है।
सरकार ने अपने
दायरे में आने
वाले उद्यमों का
निजीकरण किया और
मुक्त बाजार की
हिमायत की।
नवधनाढय
जहां थोड़े समय
में काफी धन
कमा लेते हैं
वहीं पलक झपकते
ही वह उनके
हाथों से निकल
जाता है। वित्तीय
बाजारों और तेजी
से बदल रही
प्रौद्योगिकियों ने उद्यमियों
और कारपोरेट प्रमुखों
के लिए ऐतिहासिक
अवसर पैदा किए
हैं जिससे वे
पलक झपकते ही
धनवान बन जाएं
या अगर कोई
गलती हो जाय
तो सड़क पर
आ जाएं।
रिचिस्तानियों
के लिए कदम-कदम पर
जोखिम है। देश
की अधिकतर संपदा
भूमि, वास्तविक चल
संपत्ति, ट्रकों, कारखानों और
इमारतों में है
मगर आज की
संपदा मुख्य रूप
से स्टॉकों, ऑप्शंस,
डेरिवेटिव्ज और अन्य
फ्री-फ्लोटिंग परिसंपत्तियों
में है। कहना
न होगा कि
रिचिस्तानी संपदा के घटने-बढ़ने से
काफी प्रभावित होते
हैं।
देखा
गया है कि
रिचिस्तानी भी उच्च
समाज के दरवाजों
को तोड़कर उस
के अंदर घुसना
चाहते हैं और
इस प्रकार पुरानी
मुद्रा और नई
मुद्रा के बीच
झगड़ा होता है।
रिचिस्तानी देश के
धनाढय समाज में
पैठ बनाना चाहते
हैं और एक
नई सामाजिक श्रेणीबध्दता
बनाना चाहते हैं
जो मुद्रा और
अधिक मुद्रा पर
आधारित है न
कि प्रजनन और
वंश परंपरा पर।
नवधनाढय
चैरिटी बोर्ड, कला संग्रहालयों,
शहर की ओपेरा
कंपनियों और स्थानीय
पर्यावरण रक्षा के लिए
बने समूहों में
घुसने को बेताब
दिखते हैं। वे सब
सार्वजनिक संस्थाओं-अस्पतालों से
लेकर स्टेडियमों और
पुस्तकालयों तक से
जुड़ना चाहते हैं।
वे अनेक वैनिटी
पत्रिकाओं और पृष्ठ
ऊपर छपने वाली
पार्टियों की तस्वीरों
में दिखना चाहते
हैं।
जहां
तक पुराने धनाढयों
का प्रश्न है
उनका संबंध शालीनता,
परंपरा, सार्वजनिक सेवा, चैरिटी
और बिना तड़क-भड़क के
छुट्टी मनाने से है।
वे रेखांकित करते
हैं कि उन्होंने
स्वयं दौलत कमाई
है जिसके बिना
पर वे खर्च-वर्च करते
हैं। नवधनाढयों और
पुराने धनाढयों का नजरिया
खर्च करने को
लेकर अलग-अलग
हैं। जहां पुराने
धनाढय ऊपरी तौर
पर मितव्ययी बनने
का प्रयास करते
हैं और वे
धन का भोंडा
प्रदर्शन नहीं करते
जब कि रिचिस्तानी
अपनी दौलत का
प्रदर्शन करते हैं।
रिचिस्तानी
अपनी अकूत संपदा
का रौब जमाना
चाहते हैं। वे
उपभोग में लगे
नया स्तर बनाते
हैं। वे ध्यानाकर्षी
उपभोग में लगे
हुए हैं। उनके
बीच संघर्ष है
कि वे दूसरों
से आगे कैसे
निकलें। ढेरों एफ्फलुएंट उपभोक्ता
विलास की वस्तुएं
खरीदते हैं। उनके
पीछे अडाेस-पड़ोस
के लोगों का
दबाव रहता है
इससे बच पाना
काफी कठिन होता
है।
किसी
भी सुसंगठित औद्योगिक
समुदाय में आर्थिक
स्थिति पैसों के जोर
पर रेखांकित की
जाती है। इसे अवकाश
और वस्तुओं के
ध्यानाकर्षी उपभोग द्वारा रेखांकित
किया जाता है।
अगर कोई पहली
जैसी स्थिति में
रहना चाहे और
अपना उपभोग न
बढ़ाए तो उसको
घटिया व्यक्ति माना
जाएगा। धनाढय यह दिखलाने
का प्रयास करते
हैं कि वे
खर्च करने की
स्थिति में हैं।
रिचिस्तान में जो
परिवर्तन देखा जा
रहा है वह
यह है कि
अनेक रिचिस्तानी दिल
खोलकर खर्च करने
की स्थिति में
हैं। वह बेहतर
और बढ़िया गाड़ियां
खरीद सकते हैं।
रिचिस्तानियों
पर नीचे और
ऊपर दोनों ओर
से यह दबाव
होता है कि
वे अपने लिए
अतिविलासिता की वस्तुओं
की एक नई
कोटि लाएं जो
जनसाधारण की पहुंच
से बाहर हो। कई
बार यह देखने
में आता है
कि वे वर्तमान
वस्तुओं की कीमतों
को ही बढ़ा
देते हैं। वे
बड़े मकान खरीदते
और कलाकृतियों को
घरों में सजाकर
रखते हैं। नवधनाढयों
का विश्वास है
कि कलाकृतियां निवेश
की बेहतर वस्तुएं
हैं क्योंकि इनकी
कीमतें लगातार बढ़ती ही
जाती हैं।
जो
कंपनियां रिचिस्तानी बाजार को
हथियाने में सफल
हो जाती हैं
वे आने वाले
समय में सबसे
अधिक फायदे में
रहती हैं। उनकी
संवृध्दि दरें ऊंची
होती हैं, वे
मोटा मुनाफा कमाती
हैं और उनकी
पूंजी का बेहतर
इस्तेमाल होता है।
हमारी
अर्थव्यवस्था जब तक
धनवानों उनकी आय,
उनके खर्च, उनके
करों और उनके
राजनीतिक प्रभावों की गिरफ्त
में रहेगी त्यों-त्यों उनके महत्वों
के आकार और
निजी जम्बो जेट
के आगे देखना
होगा। भारत में
भी पिछले तीस-चालीस वर्षों के
दौरान रिचिस्तान का
उदय हुआ है।
अम्बानी, लक्ष्मी मित्तल, अडानी
आदि इसी ओर
संकेत करते हैं।
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