बुधवार, 16 अप्रैल 2014

बुनियादी समस्याओं की उपेक्षा घातक

इस समय सारे देश में चुनाव प्रचार जोरों पर है। सभी दलों के नेता तूफानी दौरा कर रहे हैं और अनेक सभाओं को संबोधित कर रहे हैं। नेताओं के भाषणों का बहुत बड़ा हिस्सा एक-दूसरे पर कीचड़ उछालने और गाली गलौच करने से भरा रहता है। सभी दलों ने लगभग अपने चुनाव घोषणा पत्र जारी किए हैं। इन घोषणा पत्रों में कुछ ऐसे वायदे किए गए हैं जिनको पूरा करने के लिए तो वित्तीय साधन हैं और ही प्रशासनिक क्षमता। जिन समस्याओं से सारा राष्ट्र जूझ रहा है उनका उल्लेख इन भाषणों में कतई नहीं होता। मेरी राय में इस देश की सबसे बड़ी समस्या है ग्रामीण क्षेत्रों में फैली बेकारी। हम गांवों के निवासियों को विशेषकर वहां के युवकों को उपयोगी काम में नहीं लगा पा रहे हैं। हम अपनी बड़ी जनसंख्या का उपयोग राष्ट्र की प्रगति में नहीं कर पा रहे हैं। हमें चीन से सीखना चाहिए कि कैसे उस देश ने अपनी जनसंख्या को अपने देश का उपयोगी अंग बना लिया है। वहां के अनेक कारखानों में गांवों से नौजवानों और युवतियों को लाया जाता है और उनके सहारे चीन की अनेक फैक्ट्रियां चौबीस घंटे काम कराती हैं। इन लोगों के श्रम से चीन ने इतना उत्पाद बढ़ाया है कि आज उसने लगभग सारी दुनिया के बाजारों पर कब्जा कर लिया है। हमारे देश के नवयुवकों के पास काम ही नहीं है। उनका पूरा दिन निठल्लेपन में ही बीतता है।

हमारे देश की एक और समस्या है अनुशासनहीनता। शहरों में यातायात नियंत्रण करने के लिए लाल, हरे, पीले सिग्नल लगाए गए हैं, परंतु 50 प्रतिशत से ज्यादा लोग इन सिग्नलों की परवाह नहीं करते। लाल सिग्नल होते हुए भी आगे बढ़ जाते हैं। ऐसा शायद ही दुनिया के किसी विकसित देश में होता हो। अनुशासनहीनता के दृश्य हर जगह देखने को मिलते हैं। सड़कों पर शिक्षण संस्थाओं में, अस्पतालों में कोई भी ऐसी जगह नहीं जहां अनुशासनहीनता के दृश्य देखने को नहीं मिलते हों। मुझे नहीं लगता कि कोई नेता इस देश के लोगों को विशेषकर युवकों को अपने भाषणों में यह सलाह दे रहा है कि कृपया अनुशासित बनें।

हमारे देश के सरकारी दफ्तर छुट्टियों के कारण अनेक दिन बंद रहते हैं। मध्यप्रदेश में लगभग 150 दिन, सरकारी कर्मचारी को काम नहीं करना पड़ता। उसे एक महीने का अर्जित अवकाश का अधिकार है। 12-13 दिन आकस्मिक अवकाश का अधिकार है। 52 रविवार होते हैं, 26 शनिवारों को दफ्तर बंद रहते हैं। इसके अलावा 22 शासकीय अवकाश रहते हैं और इन अवकाशों में से कई ऐसे हैं जिस दिन शायद ही किसी के घर में कोई धार्मिक गतिविधि होती होगी। मध्यप्रदेश में 31 मार्च को सरकारी दफ्तर गुड़ीपरवा के कारण बंद रहते हैं। 1 अप्रैल को चैटीचांद के लिए बंद रहते हैं। इसी तरह परशुराम जयंती, बुद्ध पूर्णिमा, महर्षि वाल्मीकि जयंती, गुरुनानक जयंती, मिलादुन्नबी ऐसे दिन हैं जिस दिन शायद ही सरकारी कर्मचारियों के घर में कोई कार्यक्रम होता हो। होली, जन्माष्टमी, दिवाली को छोड़ दें तो शायद ही कोई ऐसा त्यौहार है जिस दिन हिन्दू परिवारों के घरों में दिनभर कोई कार्यक्रम होता हो। मिलादुन्नबी ऐसा त्यौहार है जो रात्रि को मनाया जाता है। सरकार ने अनेक छुट्टियां समाज के विभिन्न वर्गों के तुष्टीकरण के लिए घोषित की हैं। पहले मध्यप्रदेश में परशुराम की जयंती पर सरकारी दफ्तर बंद नहीं रहते थे, परंतु ब्राह्मणों का एक शिष्टमंडल मुख्यमंत्री से मिला और उन्होंने छुट्टी घोषित कर दी। महर्षि जयंती, वाल्मीकि जयंती विशेष वर्ग को खुश करने के लिए घोषित की गई हैं। इसी तरह बुद्ध पूर्णिमा गुरुनानक जयंती, मुसलमानों और ईसाईयों को खुश करने के लिए भी अनेक जयंतियां हैं, उसके बाद हर एक कर्मचारी को तीन ऐच्छिक छुट्टियां लेने का अधिकार है। ऐच्छिक अवकाश की सूची में 59 दिन शामिल हैं। इसके अलावा 7 ऐसे ऐच्छिक अवकाश के दिन हैं जो रविवार के कारण सूची में नहीं हैं। कई ऐसे दिन ऐच्छिक अवकाश की सूची में शामिल हैं जो किस कारण सूची में शामिल किए गए हैं उसका इतिहास किसी को नहीं मालूम है।  इसके अलावा कलेक्टर को स्थानीय स्तर पर तीन दिन के अवकाश घोषित करने का अधिकार है। जैसे 1984 के बाद भोपाल में 3 दिसंबर को स्थानीय अवकाश रखा जाता है। उस दिन भोपाल में गैस लीक हुई थी जिसमें सैंकड़ों लोग मारे गए थे। गैस लीक में मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि अर्पित करने के लिए एक शासकीय कार्यक्रम होता है। मैं उस कार्यक्रम में प्राय: भाग लेता हूं परंतु मुझे कम ही शासकीय कर्मचारी दिखाई पड़ते हैं। यह खोज का विषय है कि ये सरकारी कर्मचारी कहां और किस तरह गैस पीडि़तों को श्रद्धांजलि देते हैं। एक चीज मेरी समझ में नहीं आती कि सिर्फ सरकारी सेवकों को ही अफसोस या रंज क्यों होता है? उस दिन सिनेमा खुले रहते हैं, शराब की दुकानें और बार खुले रहते हैं, होटलें खुली रहती हैं, जुआ भी खेला जाता है। ही उस दिन पिकनिक पर जाना प्रतिबंधित होता है। फिर गैस पीडि़तों को कौन याद करता है? क्या सचमुच इस तरह के अवसरों के लिए अवकाश देना उचित और आवश्यक है?

जब भी किसी बड़े नेता विशेषकर मंत्री, राज्यपाल आदि की मृत्यु हो जाती है तो उनके सम्मान में सरकारी कार्यालय बंद कर दिए जाते हैं। कुछ वर्षों पहले मध्यप्रदेश के एक मंत्री का देहावसान हो गया था। देहावसान दिन के 9 या 10 बजे हुआ था। अवकाश घोषित करने की औपचारिकताएं पूरी करते-करते एक बज गया, उस दिन मुझे किसी वरिष्ठ अधिकारी से मिलने वल्लभ भवन जाना था, मैंने उस अधिकारी से बात की कि क्या मैं सकता हूं। छुट्टी की संभावना के होते हुए भी उन्होंने कहा कि छुट्टी होने के बाद भी मैं दफ्तर में रहूंगा, मुझे कुछ जरूरी काम निपटाना है इसलिए आप जाइए। मैं जब वल्लभ भवन की सीढिय़ों पर चढ़ रहा था तब कर्मचारी छुट्टी घोषित होने के बाद सीढिय़ों से उतर रहे थे। उनमें से कुछ शिकायत कर रहे थे कि मंत्री को मरना ही था तो कल रात को मरते, तो कम से कम हमें पूरे दिन की छुट्टी तो मिल जाती। अब तो सिनेमा जा सकते हैं और ही पिकनिक का कार्यक्रम बनाया जा सकता है। मेरी राय में यदि इस तरह के सम्मानित मृत व्यक्ति का अपमान करवाना है तो वह सरकारी छुट्टी घोषित करने से संभव हो जाता है। क्या किसी राजनैतिक दल या कोई राजनेता यह घोषणा कर सकता है कि सत्ता में आने पर मैं इस तरह की छुट्टियों में कटौती कर दूंगा। परंतु इस तरह की हिम्मत शायद ही किसी राजनैतिक दल या राजनैतिक नेता में हो। जिस देश में 150 दिन सरकारी दफ्तरों में काम हो वह देश कैसे प्रगति कर सकता है यह एक चिंता का विषय है।

फिर और कुछ मुद्दे हैं, जैसे इस समय उच्च शिक्षा लगभग माफिया के नियंत्रण में गई है। अनाप-शनाप फीस ली जाती है। फीस की दर इतनी हो गई है कि शायद अब मेडिकल और तकनीकी शिक्षा, गरीब और मध्यम वर्ग के लिए संभव नहीं है। क्या कोई राजनैतिक दल यह आश्वासन देने के लिए तैयार है कि वह सत्ता में आने पर शिक्षा सबकी पहुंच के भीतर हो, ऐसा प्रयास करेगा। इस समय हमारे देश में अमीर और गरीब में जितना बड़ा अंतर है उतना शायद ही दुनिया के किसी और देश में हो। जहां अंबानी के समान उद्योगपतियों की व्यक्तिगत वार्षिक आमदनी 3 करोड़ से ज्यादा हो वहीं दूसरी और उन्हें गरीबी की रेखा के नीचे समझा जाता है जिनकी प्रतिदिन की आमदनी 20 रुपये या उससे कम हो। इतनी बड़ी खाई के होते हुए क्या निकट भविष्य में हमारे देश में गरीबी कम की जा सकती है? समाप्त करना तो दूर की बात है। डॉक्टर राममनोहर लोहिया कहा करते थे कि हमारे देश में एक समय ऐसा आएगा जब वेतन घटवाने के लिए आंदोलन किए जायेंगे। मेरी राय में ऐसा दिन गया है। सभी दल भ्रष्टाचार के खिलाफ बोलते हैं। एक-दूसरे के ऊपर भ्रष्ट होने का आरोप लगाते हैं परंतु कोई भी भ्रष्टाचार की जड़ का पता नहीं लगाना चाहता है। वे कौन से सामाजिक, राजनैतिक, प्रशासनिक कारण हैं जो भ्रष्टाचार को जन्म देते हैं। उन्हें पहचानने और उन्हें दूर करने का आश्वासन कोई भी दल नहीं दे पा रहा है। फिर हमारे देश की आबादी के कुछ हिस्से आज भी अत्यधिक असुरक्षा और अभाव की जिंदगी जी रहे हैं। इनमें दलित, आदिवासी और मुसलमान अल्पसंख्यकों का एक बड़ा हिस्सा शामिल है। इनकी समस्याओं को हल करने का आश्वासन जिस दृढ़ता से मिलना चाहिए वह कोई भी दल नहीं दे पा रहा है। चुनाव लडऩा अब सिर्फ  अरबपतियों के बस की बात रह गई है। गरीब या मध्यम वर्ग का कोई व्यक्ति अब चुनाव नहीं लड़ सकता है। चुनाव आयोग ने चुनावी खर्च की जो सीमा तय की है वह भी मध्यम वर्ग और गरीब की पहुंच के बाहर है। इसलिए चुनाव के बढ़ते हुए खर्च के कारण लोकतंत्र अब सिर्फ  धनी लोगों की पहुंच के भीतर है। इस मुद्दे पर भी सब चुप हैं। क्या सभी दलों को मिल बैठकर यह विचार नहीं करना चाहिए कि चुनावी खर्च को कैसे कम किया जाए? बढ़े हुए चुनाव खर्च का बहुत बड़ा हिस्सा उन उद्योगपतियों द्वारा दी गई वित्तीय सहायता से संभव होता है। इनमें प्राय: वे औद्योगिक घराने शामिल होते हैं जो खुलेआम बेशर्मी की हद तक सभी प्रकार के कानूनों का उल्लंघन करते हैं। जो बिजली के बिल का भुगतान ईमानदारी से नहीं करते, जो ईमानदारी से टैक्स नहीं देते। ऐसे ही औद्योगिक घराने नेताओं को चंदा देते हैं और बाद में उनके सत्ता में आने पर उनसे तरह-तरह की छूट प्राप्त करते हैं। इस तरह हमारे देश में बहुसंख्यक राजनीतिक दलों नेताओं तथा भ्रष्ट औद्योगिक घरानों की सांठगांठ है। इसी सांठगांठ के कारण प्रजातंत्र और प्रजातंत्र के तमाम संस्थानों का उपयोग यही कर रहे हैं। नक्सली समस्या और आतंकवाद की समस्या के ऊपर लंबे-लंबे भाषण दिए जाते हैं परंतु वे क्या कारण हैं जो इस तरह की विकृतियों को जन्म देते हैं? उन पर भी विचार करने का किसी को समय नहीं है। यदि भाजपा शासित राज्य में नक्सलियों की हिंसा से लोग मारे जाते हैं तो सभी दल भाजपा के ऊपर दोष मढ़ देते हैं और यदि कांग्रेस राज्य में ऐसा होता है तो भाजपा समेत सारे दल कांग्रेस को ही उसके लिए जिम्मेदार ठहराते हैं। परंतु यह बहुत स्पष्ट है कि इस समस्या का हल तो कांग्रेस विरोध में है और ही भाजपा विरोध में। आवश्यकता इस बात की है कि हमारे देश के नेताओं और राजनीति दलों में राष्ट्र के हित में कड़वी से कड़वी बात कहने की हिम्मत होनी चाहिए। हमारे देश में भी एक समय ऐसा था जब इस तरह के नेता होते थे और बिना इस बात की परवाह किए कि उनके द्वारा कही गई बातों का क्या प्रतिकूल असर होगा वे अपने सिद्धांत पर अडिग रहते थे।

कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें

कुल पेज दृश्य