पिछले
दिनों मिस्र की
एक अदालत द्वारा
500 से अधिक लोगों
को एकसाथ फांसी
देने की सजा
सुनाए जाने के
फैसले को पढ़ते
ही हिटलर और
उसकी नाजी सेना
के साथ ही
साथ यातना शिविरों
में कैद अनगिनत
यहूदियों पर किए
गए अत्याचारों से
इसकी तुलना करना अकारण
नहीं है। मुकदमे
की दूसरी किश्त
में भी करीब
700 और लोगों को यही
सजा सुनाए जाने
की संभावना है।
इसी मिस्र में
पिछले ही वर्ष
दो हजार से
यादा प्रदर्शनकारियों को
पुलिस व सेना
ने विभिन्न प्रदर्शनों
के दौरान अपनी
बंदूकों से मौत
के घाट उतार
दिया था। गौरतलब
है कि यह
सबकुछ उन मोहम्मद
मुर्सी और उनके
समर्थकों के खिलाफ चल
रहा है जिन्होंने
हुस्नी मुबारक की तानाशाही
के खिलाफ संघर्ष किया था।
कट्टरपंथी होने के
बावजूद वे एक
चुने हुए नेता
थे। उन्हें अपदस्थ
कर पुन: सेना
सत्तारूढ़ हुई और
पहले से भी
अधिक नृशंसता के
साथ उसने बदले
की कार्यवाही की।
मिस्र
एक ओर अपने
नए संविधान में
तमाम प्रगतिशील प्रावधान
जैसे धार्मिक स्वतंत्रता
व महिलाओं को
बराबरी का स्थान
प्रदान कर रहा
है। वहीं दूसरी
ओर न्यायालय के
माध्यम से मृत्युदंड
जैसे अमानवीय प्रावधानों
से डर का
वातावरण बनाए रखना
चाहता है। गांधीजी
कहते थे - आप
क्या मानते हैं?
तोप दागकर सैकड़ों
को मार डालने
की हिम्मत की
जरूरत है या
हंसते हुए, तोप
के मुंह के
सामने जाकर खड़े
हो जाने में?
जो अपनी मौत
को सिर पर
लिए घूमता है
वह रणधीर है
या जो दूसरों
की मौत अपनी
मुट्ठी में रखता
है। हमारी
त्रासदी यह है
कि आज हम
दूसरे श्रेणी के
व्यक्ति को अपना
नायक मानने को
अभिशप्त हैं। मिस्र
की विडंबना भी
यही है कि
कट्टरपंथियों के खिलाफ आए
इस फैसले का
नरमपंथियों या समन्वयवादियों
ने कोई विरोध
नहीं किया। यानि
वैचारिक धरातल पर उनमें
भी एक किस्म
की कट्टरता है
और वे भी
अपने विरोधियों के
इस तरह से
नष्ट होने पर
सहमत हैं। निष्कर्ष
यही है कि
दोनों मूलत: एक
ही प्रवृत्ति के
संवाहक हैं। ठीक
इसके विपरीत गांधीजी
चौराचौरी में पुलिस
वालों की हत्या
से दुखी होकर
अपना असहयोग आंदोलन
वापस ले लेते
हैं। गुलाम भारत
में चौराचौरी कांड
के आरोपियों पर
चले मुकदमे का
निर्णय भी असाधारण
था। शायद इसी
निर्णय ने भारत
में शांतिपूर्ण आंदोलनों
को नई राह
भी दी।
लेकिन
मिस्र के लोकतांत्रिक
सेनानियों को वैश्विक
स्वतंत्रता संघर्षों से सीख
लेने की आवश्यकता
ही महसूस नहीं
होती। वैसे यह
बात दुनियाभर के
राजनीतिज्ञों और संघर्षशील
समुदाय पर (अपवाद
छोड़कर) लागू होती
है। डॉ. राममनोहर
लोहिया ने लिखा
है- एक सन्यासी
अब भी मनन
कर सकता है।
लेकिन मेधावी एवं
साधारण व्यक्ति के पास
न तो मनन
के लिए समय
है, न उसके
प्रति रुचि। वर्तमान
सभ्यता में मनुष्य
अब ऐसी स्थिति
में पहुंच गया
है जब वह
न तो महान
हो सकता है
न ही आराम
पा सकता है।
लगता है मस्तिष्क
अपनी यात्रा के
अंत पर पहुंच
गया है। यह
भी एक स्थायी
परंतु निष्फ ल
बेचैनी की स्थिति
है। सारी
दुनिया इसी मारकाट
को अपने अस्तित्व
बनाए रखने का
औजार बना रही
है। रूस के
राष्ट्रपति पुतिन द्वारा क्रीमिया
को हथियाए जाने
का विरोध अमेरिका,
फ्र ांस व
ब्रिटेन कर रहे
हैं जो कि
इरान, इराक व
अफगानिस्तान पर हमले
और कब्जे के
साझा सहयोगी रहे
हैं। चीन अपनी
भविष्य की रणनीति
जिसमें दक्षिणी प्रशांत महासागर
पर अपना कब्जा
करना शामिल है,
के लिए रूस
की इस कार्यवाही
को गौर से
देख रहा है।
छोटे और मझौले
देशों में बढ़ती
अव्यवस्था बड़े और
धनी देशों को
अत्यंत मुफ ीद
बैठती है। इसी
वजह से वे
उनके डे टू
डे अफेयर्स (रोजमर्रा
के क्रियाकलापों) में
हस्तक्षेप नहीं करते।
लेकिन दूसरी तरफ
इन देशों की
सैन्य सहायता में
लगातार वृध्दि करते रहते
हैं। इस संदर्भ
में अमेरिका द्वारा
मिस्र और पाकिस्तान
को दी जा
रही सैन्य सहायता
में हो रही
लगातार वृध्दि और इराक
के बाद अफगानिस्तान
से अपनी फ
ौजों की वापसी
को देखा जाना
चाहिए। अफ गानिस्तान
से अमेरिका सेना
की वापसी के
बाद अंतोत्गत्वा पाकिस्तान
ही तो उसके
हितों की रक्षा
करेगा। यहां एक
बार पुन: डॉ.
लोहिया की बात
पर गौर करना
चाहिए, अपनी सभ्यता
के विशेषाधिकारों की
सुरक्षा के लिए
अणुबम और हाइड्रोजन
बम बनाना, उन
अधिकारों को कुचले
राष्ट्रों को बांटने
से अधिक आसान
है। इन बातों
के भयावह आतंक
को इतिहास की
पृष्ठभूमि में देखना
होगा। वे आधुनिक
सभ्यता के पंजे
और विषैले दांत
और दु:सह
बोध है। इनके
होने से, इनका
स्वामी बदल कर
एक प्रकार से
डिनोसोर (डायनासोर) हो जाता
है, जो अपने
ही बोझ से
दबकर मर गया
था।
विश्वभर
में बढ़ती हिंसा
से साफ जाहिर हो रहा
है कि मानव
ने मनन करना
बंद कर दिया
है। दिन-प्रतिदिन
बढ़ती हिंसा परिवार
से प्रारंभ होकर
धीरे-धीरे समूचे
विश्व को अपने
में समेट लेती
है। मिस्र के
न्यायालय से आया
सामूहिक मृत्युदंड का निर्णय
साफ दर्शा
रहा है कि
हम अपनी बनाई
व्यवस्थाओं के गुलाम
होते जा रहे
हैं। बढ़ते राष्ट्रवाद
के चलते किसी
अन्य देश में
हुए मानवाधिकार उल्लंघन
की खिलाफ त
अब उस राष्ट्र
के आंतरिक मामलों
में हस्तक्षेप मानी
जाती है। भारत
के संदर्भ में
चीन और तिब्बत
के संबंधों का
विश्लेषण करने से
स्थितियां और
भी स्पष्ट हो
जाती हैं। जिस
नैतिक दबाव की
परिकल्पना लिए भारत
ने आजादी के
बाद का अपना
सफ र शुरू
किया था। वह
भारत भी अब
पहचान में नहीं
आता। अपने राजनीतिक
विरोधियों को सरेआम
दूसरे राष्ट्रों का
एजेंट कहना अब
हमें शर्मसार नहीं
करता। हर अपराध
पर फसी से
कम की सजा
आज हमें स्वीकार्य
नहीं है। इसका
सीधा सा अर्थ
यह है कि
हमारा विश्वास हो
चला है कि
दुनिया और व्यक्ति
दोनों में किसी
भी प्रकार का
सकारात्मक परिवर्तन संभव नहीं
है। यह अत्यंत
खतरनाक व दुखदायी
प्रवृत्ति है।
हम
चीन की तारीफ करते
हुए थियानमान चौक
की अनदेखी करते
हैं और अमेरिका
को सराहने में
हम इराक, ईरान,
अफ गानिस्तान, पाकिस्तान
व मिस्र में
उसकी गतिविधियों को
नजरअंदाज करते हैं।
नैतिकता के इस
पतन ने दुनिया
को एक ऐसे
दोराहे पर लाकर
खड़ा कर दिया
है, जहां मिस्र
जैसे देश अपने
हजारों नि:हत्थे
नागरिकों को गोली
से उड़ा सकते
हैं और कानून
की आड़ में
सैकड़ों लोगों को फ
ांसी पर चढ़ा
सकते हैं। वहीं
संयुक्त राष्ट्र संघ भी
सिर्फ चेतावनी
जारी करने का
माध्यम बन कर
रह गया है।
वीटो पावर की
वजह से यह
वैश्विक संस्था भी अर्थहीन
होती जा रही
है। क्या हम
अब भी मौन
बने रहेंगे?
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