विश्व
के सबसे बड़े
लोकतंत्र के एक
और महापर्व अर्थात्
आम चुनाव की
शुरुआत हो चुकी
है। 62 साल पूर्व
1952 में संपन्न हुए पहले
लोकसभा चुनाव के मुकाबले
सोलहवीं लोकसभा चुनाव तक
की यात्रा का
सिंहावलोकन करने पर
कोई भी भारतीय
अपने संसदीय लोकतंत्र
के इतिहास पर
सुखद आश्चर्य व्यक्त
करेगा। 1952 में देश
में कुल 401 सीटें
थीं जो आज
बढ़कर 543 हो गयी
हैं। तब पूरे
देश में कुल
2 लाख, 24 हजार मतदान
केंद्र बनाए गए
थे जबकि सोलहवीं
लोकसभा चुनाव के लिए
9 लाख, 30 हजार मतदान
केंद्र बने हैं।
1952 में कुल 17.3 करोड़ मतदाताओं
को अपने लोकतांत्रिक
अधिकार का सदुपयोग
करवाने के लिए
10 लाख सरकारी कर्मचारी तैनात
किये गए थे
जबकि 2014 में 81 करोड़ से
कुछ ज्यादा मतदाताओं के लिए
1.10 करोड़ कर्मियों को डयूटी
पर लगाए जाने
का इंतजाम है।
सोलहवीं लोकसभा चुनाव की
एक बड़ी खासियत
यह भी है
कि पहली बार
मतदाताओं को लोकसभा
चुनाव में नोटा
(नान ऑफ द
एभब) के अधिकार
का इस्तेमाल करने
का अवसर मिल
रहा है। सोलहवीं
लोकसभा चुनाव की पूरी
प्रक्रिया विश्व के लोकतांत्रिक
इतिहास की एक
दुर्लभ घटना साबित
होने जा रही
है जिसका साक्षी
बनने के लिए
भारी संख्या में
विदेशी पर्यटक भारत भी
पहुंच चुके हैं।
इन
पंक्तियों के लिखे
जाने दौरान चार
चरणों के चुनाव
हो चुके हैं।
अब तक हुए
चुनाव में मतदान
का भारी प्रतिशत
संकेत करता है
कि लोगों में
चुनावी महापर्व को लेकर
भारी उत्साह हैं।
चुनावी महापर्व का यह
तामझाम देख कर
किसी को भी
लग सकता है
कि भारत का
लोकतंत्र उत्कर्ष पर है,
इसका भविष्य उजवल
है। किन्तु आगामी
14 अप्रैल को हम
जिस महापुरुष की
जयंती मनाने जा
रहे हैं, यदि
उनकी 25 नवम्बर,1949 वाली खास
हिदायत को ध्यान
में रखें तो
मौजूदा चुनाव को हम
लोकतंत्र के बड़े
खतरे के रूप
में देखने के
लिए विवश हो
जायेंगे। उस दिन
संसद के केन्द्रीय
कक्ष में डॉ.
आंबेडकर ने कहा
था-''26 जनवरी,1950 को हमलोग
एक विपरीत जीवन
में प्रवेश करने
जा रहे हैं।
राजनीति के क्षेत्र
में हम लोग
समानता का भोग
करेंगे, किन्तु सामाजिक और
आर्थिक जीवन में
हमें मिलेगी भीषण
असमानता। राजनीति के क्षेत्र
में हम लोग
एक वोट एवं
प्रत्येक वोट के
एक ही मूल्य
की नीति को
स्वीकृति देने जा
रहे हैं... हम
लोगों को निकट
भविष्य में अवश्य
ही इस विपरीतता
को दूर कर
लेना होगा। अन्यथा
यह असंगति यदि
कायम रही तो
विषमता से पीड़ित
जनता इस राजनैतिक
गणतंत्र की व्यवस्था
को विस्फोटित कर
सकती है।''
तो डॉ. आंबेडकर
ने भारत के
लोकतंत्र की सलामती
के लिए सबसे
अनिवार्य शर्त आर्थिक
और सामाजिक विषमता
का खात्मा बताया
था। चूंकि शासकों
द्वारा सर्वत्र ही शक्ति
के स्रोतों (आर्थिक-राजनीतिक-धार्मिक) का
लोगों के विभिन्न
तबकों और उनकी
महिलाओं के मध्य
असमान बंटवारा कराकर
ही मानव जाति
की सबसे बड़ी
समस्या की सृष्टि
की जाती रही
है इसलिए इसके
निवारण के लिए
विभिन्न सामाजिक समूहों और
उनकी महिलाओं के संख्यानुपात
शक्ति के स्रोतों
के बंटवारे से
भिन्न कोई उपाय
ही नहीं रहा।
इस बात को
दृष्टिगत रखकर लोकतांत्रिक
रूप से परिपक्व
देशों ने शक्ति-वितरण के इस
सिध्दांत का अनुसरण
किया। इसके फलस्वरूप
वहां वंचित विभिन्न
नस्लीय समूहों, अल्पसंख्यकों, महिलाओं
इत्यादि को शासन-प्रशासन सहित समस्त
आर्थिक गतिविधियों में हिस्सेदारी
मिली। इससे वहां
आर्थिक और सामाजिक
विषमताजन्य विच्छिन्नता-विद्वेष,अशिक्षा-गरीबी-कुपोषण इत्यादि
का खात्मा और
लोकतंत्र का सुदृढ़ीकरण
हुआ। किन्तु हमारे
शासकों ने वैसा
नहीं किया।
शासक
और उसके समर्थक
बुध्दजीवी वर्ग ने
स्वाधीन भारत में
आर्थिक और सामाजिक
गैर-बराबरी को
सबसे बड़ा मुद्दा
बनने ही नहीं
दिया। ऐसे में
विषमता का खात्मा
उपेक्षित रह गया।
इसका भयावह परिणाम
15वीं लोकसभा चुनाव
तक सामने लगा
जब लगभग 200 जिले
माओवाद की चपेट
में आ गए।
यही नहीं, उस
समय तक 'विश्व
आर्थिक मंच' की
रिपोर्ट से यह
स्पष्ट हो चुका
था कि महिला
सशक्तिकरण के मामले
में भारत श्रीलंका,
पाकिस्तान, बंगलादेश जैसे पिछड़े
राष्ट्रों से पीछे
है। उस समय
तक सच्चर रिपोर्ट
में उभरी मुसलमानों
की बदहाली की
तस्वीर राष्ट्र को सकते
में डाल चुकी
थी। उस समय
तक तेज् ाी
से बढ़ती लखपतियों-करोड़पतियों की तादाद
के बीच 84 करोड़
लोगों को 20 रुपये रोजाना
पर गुजर-बसर
करते देख जहां
अर्थशास्त्री प्रधानमंत्री देश के
अर्थशास्त्रियों के समक्ष
रचनात्मक सोच की
अपील कर चुके
थे, वहीं राष्ट्रपति
प्रतिभा पाटिल बदलाव की
एक क्रांति की
अपील कर चुकी
थीं। मतलब साफ
है 2009 के पूर्व
लोकतंत्र के विस्फोटित
होने की काफी
सामग्री जमा हो
चुकी थी। बावजूद
इसके देश के
राजनीतिक दल और
बुध्दिजीवी 15 वीं लोकसभा
चुनाव को आर्थिक
और सामाजिक विषमता
के खात्मे पर
केन्द्रित करने की
दिशा में आगे
नहीं बढ़े। उस
चुनाव में भी
अतीत की भांति
मनरेगा, 2-3 रुपया किलो चावल-गेहूं, मुफ्त का
तेल-कुकिंग गैस-रेडियो जैसी राहत
और भीखनुमा घोषणाएं
आर्थिक और सामाजिक
विषमता के
खात्मे पर हावी
रहीं।
2009 के मई महीने
में सत्ता परिवर्तन
के लगभग दस
महीने बाद उस स्थिति
की झलक दिख गयी
जिससे बचने के
लिए बाबा साहेब
ने निकटतम समय
के मध्य आर्थिक
और सामाजिक गैर-बराबरी के खात्मे
का आह्वान किया
था। 6मार्च, 2010 को
माओवादी नेता कोटेश्वर
राव उर्फ किशनजी
ने एलान कर
दिया-'हम 2050 के
बहुत पहले ही
भारत में तख्ता
पलटकर रख देंगे।
हमारे पास यह
लक्ष्य हासिल करने के
लिए पूरी फौज
है।' जाहिर है
जिस फौज के
बूते उन्होंने तख्ता
पलट का एलान
किया था वह
फौज और कोई
नहीं शक्ति के
स्रोतों से वंचित
लोगों की जमात
थी। उनकी उस
चेतावनी के बाद
उम्मीद थी कि
बारूद के ढेर
पर खड़े विश्व
के सबसे बड़े
लोकतंत्र की सलामती
को ध्यान में
रखकर देश के
राजनीतिज्ञ व
बुध्दिजीवी अंतत: सोलहवीं लोकसभा
चुनाव को आर्थिक
और सामाजिक विषमता
के खात्मे पर
केन्द्रित करने का
उपक्रम चलाएंगे। पर अफसोस
वे इस विस्फोटक
स्थिति से पूरी
तरह आंखें मूंदे
हुए हैं।
इन
पंक्तियों के लिखे
जाने तक देश
के तमाम राजनीतिक
दलों के घोषणापत्र
सामने आ चुके
हैं। किसी भी
दल के घोषणापत्र
में आर्थिक और
सामाजिक विषमता के खात्मे
का कोई ठोस
नक्शा नहीं है।
कुछ दलों ने
बेशक निजी क्षेत्र
में आरक्षण की
हिमायत की है।
लेकिन इससे विषमता
का खात्मा नहीं
हो सकता। सबसे
शोचनीय स्थिति तो सत्ता
की प्रबल दावेदार
भाजपा की है।
उसने विषमता के
खात्मे के लिए
अन्य दलों की
भांति निजी क्षेत्र
में आरक्षण जैसी
तुच्छ घोषणा की
भी जहमत नहीं
उठाया है। एकमात्र
अपवाद नव-गठित
'संख्यानुपाती भागीदारी' और 'बीएमपी'
जैसी पार्टियां हैं।
जहां तक बुध्दिजीवी
वर्ग का सवाल
है उसके एजेंडे
में अतीत की
भांति मुद्रा स्फीति
और महंगाई, भ्रष्टाचारमुक्त
प्रशासन, राजनेताओं से मुक्त
पुलिस व्यवस्था, धर्मनिरपेक्षता
और भाईचारा, शिक्षा
और कृषि सुधार,
स्वास्थ्य सुविधाएं, बेरोजगारी इत्यादि
जैसे घिसे-पिटे
मुद्दे तो हैं,
पर भीषणतम रूप
में फैली आर्थिक
और सामाजिक विषमता
का मुद्दा नदारद
है। कुल मिलाकर
यह साफ दिख
रहा है कि
निरीह मतदाताओं को
छोड़कर इस महापर्व
के शेष घटक
प्रकारांतर में लोकतंत्र
के मंदिर को
ही विस्फोटित करने
के काम में
प्रवृत हैं। ऐसे
में जिस शक्तिहीन
बहुजन की मुक्ति
लोकतंत्र में निहित
है उसे तो इसे
बचाने के लिए
एक दूरगामी रणनीति
अख्तियार करनी चाहिए।
फिलहाल तो लोकतंत्र
विरोधियों के खिलाफ
'नोटा' को हथियार
के रूप में
इस्तेमाल करने पर
विचार करना चाहिए।
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें