लोकसभा
चुनाव में कितना
पैसा खर्च होने
जा रहा है?
सच पूछिए तो
इसका कोई विश्वसनीय
अनुमान लगा पाना
तक मुश्किल है।
फिर भी, एक
चौंकाऊ अनुमान ने जरूर
लोगों का ध्यान
खींचा है। इसे
चुनाव की तारीखें
आने से पहले
ही पेश किया
जा चुका था।
सेंटर फॉर मीडिया
स्टडीज द्वारा पेश किए
गए इस अनुमान
के अनुसार, 2014 के
चुनाव का खर्च,
30,000 करोड़ रुपए तक
पहुंच सकता है।
यानी एक मतदाता
पर औसतन करीब
325 रुपए खर्च हो
रहे होंगे। इसी
अनुमान के हिस्से के
तौर पर यह
ध्यान दिलाया गया
कि यह खर्च,
अमरीका के राष्ट्रपति
चुनाव से ही
थोड़ा कम है।
2012 के अमरीका के राष्ट्रपति
चुनाव पर कुल
मिलाकर 42,000 रुपए के
करीब खर्च हुए
थे। दूसरी ओर,
यह इशारा किया
जा रहा था
कि 2014 के चुनाव
का यह खर्चा,
2009 में हुए पिछले
आम चुनाव के
खर्चे से पूरे
तीन गुना ज्यादा
होगा।
अमरीका
में राष्ट्रपति चुनाव
के कुल खर्चे
से तुलना, अपने
सारे चौंकाऊपन के
बावजूद, ज्यादा चौंकाती नहीं
है। इसका संबंध
जितना अनुमान की
विश्वसनीयता से है,
उससे ज्यादा हमारे
चुनाव प्रचार के
ज्यादा से ज्यादा
अमरीकी राष्ट्रपति के चुनाव
प्रचार जैसा नजर
आने लगने में
है, जिसकी पड़ताल
हम जरा बाद
में करेंगे। वैसे
अमरीका के चुनाव
खर्चे से तुलना
के संदर्भ में
यह भी याद
रखना अनुपयोगी नहीं
होगा कि भारत
में आम चुनाव
का आकार यूरोप,
अमरीका, कनाडा और आस्ट्रेलिया
के चुनाव के
संयुक्त आकार से
भी बड़ा ही
बैठेगा कम नहीं।
खैर! खुद चुनाव
आयोग ने इस
चुनाव पर सरकारी
खजाने से कुल
मिलाकर 3,500 करोड़ रुपए
का खर्चा होने
का अनुमान लगाया
है। खर्च का
यह अनुमान, 2009 के
आम चुनाव के
खर्च से करीब
ढाई गुना ज्यादा
है। 2009 में चुनाव
पर सरकार का
1,400 करोड़ रुपया खर्च हुआ
था। अगर चुनाव
पर सरकार का
खर्चा पिछले चुनाव
के मुकाबले ढाई
गुना हो सकता
है, तो पार्टियों-उम्मीदवारों आदि का
खर्चा मिलाकर, कुल
चुनावी खर्चा पिछले चुनाव
के मुकाबले तीन
गुना होना क्या
मुश्किल है?
इस
सिलसिले में एक
और इशारा महत्वपूर्ण
है। आम चुनाव
की पूर्व-संध्या
में खुद चुनाव
आयोग ने उम्मीदवारों
के लिए खर्च
की अधिकतम सीमा
में, साठ फीसद
से ज्यादा की
बढ़ोतरी की है।
देश के बड़े
राज्यों में, जहां
चुनाव खर्चा अपेक्षाकृत
ज्यादा माना जाता
है, संसदीय क्षेत्र
के लिए खर्च
की वैध सीमा
40 लाख रुपए से
बढ़ाकर 70 लाख रुपए
कर दी गई
है। इस बढ़ोतरी
का अर्थ यह
है कि अगर
एक चुनाव क्षेत्र
पर औसतन चार
उम्मीदवारों के ही
इस सीमा तक
पूरा खर्च कर
रहे होने की
बात मानें, तब
भी सिर्फ उम्मीदवारों
का ही खर्चा
1500 करोड़ रुपए से
ऊपर ही बैठेगा।
राजनीतिक पार्टियों का खर्चा
अलग होता है।
याद रहे कि
उक्त अनुमान का
सच मानकर चलने
का अर्थ, इस
जानी-मानी सच्चाई
की ओर से
आंखें मूंदना है
कि वास्तव में
उम्मीदवार, निर्धारित कानूनी सीमा
से कई-कई
गुना खर्च करते
हैं।
इसीलिए,
बहुत गंभीरता से
न भी हो,
फिर भी लोग
कई बार यह
कहते भी सुने
जाते हैं कि
चुनाव खर्च की
सीमा तय करने
का फायदा ही
क्या है, जब
इसका पालन किसी
का करना ही
नहीं है। चुनाव
आयोग ने चुनाव
खर्चों पर निगरानी
रखने के लिए
पिछले चुनाव के
समय से अनेक
कड़े कदम उठाए
हैं। इनमें चुनाव
के समय नकदी
के लाए-ले
जाए जाने पर
अंकुश लगाने के
कदम खास हैं।
इसके बावजूद, चुनाव
खर्च की सीमा
कितनी कारगर है,
इसका अंदाजा एक
दुहरी विडंबना से
लगाया जा सकता
है। इसका पहला
पक्ष यह है
कि मीडिया के
अनुसार, चुनाव आयोग के
खर्च की सीमा
में 60 फीसद की
बढ़ोतरी करने के
बावजूद, ज्यादातर सांसदों का
यही कहना था
कि इतने खर्चे
में चुनाव नहीं
लड़ा जा सकता
है। दूसरी ओर,
पिछले चुनाव में
437 सांसदों द्वारा दिए गए
चुनाव खर्च के
ब्यौरे के एक
अध्ययन के अनुसार,
129 सांसदों ने चुनाव
में निर्धारित सीमा
से वास्तव में
आधा या उससे
भी कम खर्चा
दिखाया था। साफ
है कि इस
चुनाव खर्च की
सीमा का पालन
कराना लगभग असंभव
है। महाराष्ट्र के
एक मुखर सांसद
ने तो एक
बार सार्वजनिक रूप
से यह स्वीकार
भी किया था
कि 2009 के चुनाव
में उसे 8 करोड़
रुपए खर्च करने
पड़े थे। यह
दूसरी बात है
कि चुनाव आयोग
का नोटिस मिलने
के बाद, उसे
अपनी सदस्यता बचाने
के लिए अपनी
ही कही बात
पर लीपा-पोती
करनी पड़ी थी।
एक
और परोक्ष इशारा
यह है कि
चुनाव आयोग को
दिए गए विवरण
के अनुसार, पांच
साल में छ:
राष्ट्रीय राजनीतिक पार्टियों ने
कुल 4,400 करोड़ रुपए
एकत्र किए थे।
चूंकि आम चुनाव
ही पांच साल
की अवधि में
सबसे बड़ा तथा
सबसे महत्वपूर्ण खर्चा
होता है, इसलिए
यह मानना निराधार
नहीं होगा कि
इन पार्टियों ने
इस राशि का
बड़ा हिस्सा, आम
चुनाव पर ही
खर्च किया होगा।
एक और परोक्ष
इशारा है। पैसे
के मामले में
अपनी शुचिता को
सबसे ऊपर रखने
का दावा करने
वाली आम आदमी
पार्टी ने भी
घोषित रूप से
2014 के आम चुनाव
में लगभग 300 उम्मीदवार
लड़ाने के लिए,
300 करोड़ रुपए के
ही चंदे का
लक्ष्य घोषित किया था।
इससे कम से
कम यह अंदाजा
तो लगाया ही
जा सकता है
कि संसदीय चुनाव
में पर्याप्त रूप
से उपस्थिति दर्ज
कराने के लिए
भी कम से
कम एक करोड़
रुपए का खर्चा
आना, एक आमतौर
पर स्वीकृत सच्चाई
है।
चुनाव
खर्च के इस
तरह बेतहाशा बढ़ने
के नतीजे स्वत:
स्पष्ट हैं, हालांकि
उनकी चर्चा कम
ही होती है।
यह समझने के
लिए किसी विशेषज्ञता
की जरूरत नहीं
है कि बढ़ता
चुनावी खर्चा, शासन के
राजनीतिक नेतृत्व से साधनहीनों
तथा उनके प्रतिनिधियों
को बाहर ही
रखने वाली छन्नी
का काम करता
है। यह कोई
संयोग ही नहीं
है कि उदारीकरण
के बाद के
दो दशकों में
हमारे देश में
संसद और विधानसभाएं,
ज्यादा से ज्यादा
'करोड़पति क्लब' जैसी होती
चली गई हैं। इन
कानून बनाने वाले
निकायों में बड़े
उद्यमियों की संख्या
तो बढ़ी ही
है, खुद मंत्रिमंडलों
में ऐसे लोगों
की संख्या में
भी उल्लेखनीय बढ़ोतरी
हुई है, जो
राजनीतिज्ञ बाद में
हैं, उद्यमी पहले।
यह दूसरी बात
है कि इसके
बावजूद हमारे देश में
अब तक यह
सुनिश्चित करने के
लिए कोई भरोसेमंद
नियम-कानून नहीं
बनाए जा सके
हैं कि सरकार
में या संसद-विधानसभा आदि में
बैठकर लोग, ऐसे
निर्णय नहीं ले
सकेंगे, जिनसे उनके निजी
आर्थिक फायदे जुड़े हों।
जाहिर है कि
इससे सत्ता को
संभालने वाली पूरी
व्यवस्था की वर्गीय
संरचना भी बदल
रही है।
सांसदों-विधायकों द्वारा घोषित
परिसंपत्तियों के एक
अध्ययन के अनुसार,
न सिर्फ इन
निर्वाचित निकायों में देश
भर में करोड़पतियों
का बोलबाला कायम
हो चुका है
बल्कि सांसद-विधायक
की संपत्ति का
औसत आंकड़ा पहले
ही, 3.83 करोड़ पर
पहुंच चुका है।
अप्रत्याशित न होते
हुए भी यह
एक दिलचस्प तथ्य
है कि देश
भर की बीस
प्रमुख राष्ट्रीय व क्षेत्रीय
पार्टियों में सिर्फ
और सिर्फ तीन
पार्टियों के सांसद-विधायक लखपति होने
पर ही अटके
हुए थे। इनमें
भी सीपीआई (एम)
21 लाख पर और
सीपीआई 29 लाख पर
ही अटकी हुई
थी। तीसरा नाम
असम गण परिषद
का है, जो
77 लाख पर अटकी
हुई थी। याद
रहे कि यह
उस जनता के
प्रतिनिधियों की स्थिति
है, जिसका प्रचंड
बहुमत 20 रुपए रोज
या उससे भी
कम में गुजारा
करने पर मजबूर
है!
आखिर
में यह कि
चुनावों के इस
कदर बेहिसाब महंगे
होने की वजह
क्या है? बेशक,
चुनाव इसलिए महंगे
हो रहे हैं
कि चुनाव खर्चे
बढ़े हैं। टीवी-अखबार विज्ञापनों की
बेतहाशा बारिश से लेकर
हैलीकाप्टरों-निजी विमानों
से दौरों की
आंधी तक की
वजह से और
कुछ राज्यों में
तो मतदाताओं तक
सीधे पांच सौ
लेकर एक हजार
रुपए तक के
नोट पहुंचाए जाने
की वजह से,
चुनाव महंगे हो
रहे हैं। और
यह सब इसलिए
हो रहा है
कि नवउदारवादी नीतियों
के बोलबाले के
इस जमाने में,
कम से कम
आर्थिक नीतियों को राजनीति
तथा बहुत हद
तक राजनीतिक पार्टियों
से भी स्वतंत्र
करा दिया गया
है। संक्षेप में
यह कि चूंकि
मुख्य पार्टियां तथा
उनके उम्मीदवार, जनता
को उसकी जिंदगी
में सुधार लाने
का कोई भरोसा
दिलाने की स्थिति
में ही नहीं
रह गए हैं,
चुनाव ज्यादा से
ज्यादा विचार या आचार
नहीं, शुद्ध प्रचार
की लड़ाई बनता
जा रहा है।
इसीलिए, चुनाव जितना महंगा
होता जा रहा
है और जनता
की जिंदगी के
लिए उसका अर्थ
उतना ही घटता
जा रहा है।
एक तरफ अगर
हर चुनाव में
जनता द्वारा बदल
दिए जाने वाले
प्रतिनिधियों का अनुपात
लगातार बढ़ता जा
रहा है, तो
दूसरी ओर हमारे
देश में भी
चुनाव ज्यादा से
ज्यादा अमरीका के राष्ट्रपति
चुनाव जैसे बनते
जा रहे हैं।
वहां भी चुनाव
में राष्ट्रपति पद
के उम्मीदवारों को
बेचा खूब जाता
है, जबकि पेट्रोल
के दो ब्रांडों
की तरह, वास्तव
में जनता के
लिए उनके बीच
चुनने के लिए
कुछ होता ही
नहीं है।
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